ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 43
From जैनकोष
श्रीकृष्ण ने सत्यभामा के महल के पास, नाना प्रकार की संपदाओं से व्याप्त एवं योग्य परिजनों से सहित एक सुंदर महल रुक्मिणी के लिए दिया ॥1॥ उसे महत्तरिका, द्वारपालिनी तथा सेवक आदि परिजनों से युक्त किया । नाना प्रकार के वाहन घोड़े, रथ, बैल आदि दिये तथा पट्टरानी पद से उसका गौरव बढ़ाया जिससे वह बहुत ही संतुष्ट हुई ॥2॥ इधर सत्यभामा को जब पता चला कि श्रीकृष्ण समस्त स्त्रियों को अतिक्रांत करने वाली एक स्त्री लाये हैं और वह उन्हें अत्यधिक प्रिय है तब वह ईर्ष्या से सहित होनेपर भी बड़ी धीरता से उन्हें नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में रमण कराने लगी ॥3॥
एक दिन कृष्ण रुक्मिणी के द्वारा उगले हुए मुख के पान को वस्त्र के छोर में छिपाकर सत्यभामा के घर गये । वह पान स्वभाव से ही सुगंधित था और उस पर रुक्मिणी के मुख की सुगंधि ने चार चाँद लगा दिये थे इसलिए उस पर भ्रमरों का समूह आ बैठा था । यह कोई सुगंधित पदार्थ है इस भ्रांति से सत्यभामा ने उसे ले लिया और उत्तम वर्ण तथा गंध से युक्त उस पान के उगाल को अच्छी तरह पीसकर अपने शरीर पर लगा लिया । यह देख श्रीकृष्ण ने उसकी खूब हंसी उड़ायी जिससे वह ईर्ष्यावश उनके प्रति आगबबूला हो गयी ॥4-6 ॥
कृष्ण की चेष्टाओं से सौत के सौभाग्य का अतिशय जानकर सत्यभामा उसका रूप-लावण्य देखने के लिए उत्सुक हो गयी ॥7॥ और एक दिन पति से बोली कि हे नाथ ! मुझे रुक्मिणी दिखलाइए, कानों की तरह मेरे नेत्रों को भी हर्ष उपजाइए ॥8॥ सत्यभामा की बात स्वीकृत कर वे हृदय में कुछ रहस्य छुपाये हुए गये और मणिमय वापिका के तट पर रुक्मिणी को खड़ा कर पुनः सत्यभामा के पास आ गये ॥ 9 ॥ तदनंतर तुम उद्यान में प्रवेश करो, मैं तुम्हारी इष्ट रुक्मिणी को अभी लाता है यह कहकर उन्होंने सत्यभामा को तो आगे भेज दिया और आप स्वयं पीछे से जाकर किसी झाड़ी के ओट में शरीर छिपाकर खड़े हो गये ॥10॥ मणिमय आभूषणों को धारण करने वाली रुक्मिणी मणिमय वापिका के समीप एक हाथ से आम्र की लता पकड़कर पंजों के बल खड़ी थी । उस समय वह अपनी अतिशय सुशोभित बड़ी मोटी चोटी बायें हाथ से पकड़े थी । स्तनों के भार से वह नीचे को झुक रही थी तथा ऊपर लगे हुए फल पर उसके बड़े-बड़े नेत्र लग रहे थे । देवी के समान सुंदर रूप को धारण करने वाली रुक्मिणी को देखकर सत्यभामा ने समझा कि यह देवी है इसलिए उसने उसके सामने फूलों की अंजलि बिखेरकर तथा उसके चरणों में गिरकर अपने सौभाग्य और सौत के दौर्भाग्य को याचना की । वह ईर्ष्यारूपी शल्य से कलंकित जो थी ॥11-14॥ इसी समय मंद-मंद मुसकाते हुए श्रीकृष्ण ने आकर सत्यभामा से कहा कि अहा ! दो बहिनों का यह नीतियुक्त अपूर्व मिलन हो लिया ? ॥15॥ श्रीकृष्ण के वचन सुन सत्यभामा सब रहस्य जान गयी और कुपित हो बोली कि अरे! क्या आप हैं ? हम दोनों का इच्छानुरूप दर्शन हो इसमें आपको क्या मतलब ? ॥16॥ तदनंतर कृष्ण के वचन स्वीकार कर रुक्मिणी ने सत्यभामा को विनयपूर्वक नमस्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि उच्च कुल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के विनय स्वभाव से ही होता है ॥17॥ श्रीकृष्ण लतामंडपों से सुशोभित उद्यान में उन दोनों रानियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने महल में लौट गये ॥18॥
तदनंतर सुखसागर में निमग्न एवं पराक्रम से सुशोभित कृष्ण के अनेक दिन उन दोनों रानियों के साथ जब एक दिन के समान व्यतीत हो रहे थे तब एक दिन अत्यधिक स्नेह से युक्त हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन ने इस प्रिय समाचार के साथ कृष्ण के पास अपना दूत भेजा कि आपकी रुक्मिणी और सत्यभामा रानियों में से जिसके पहले पुत्र उत्पन्न होगा वह यदि मेरे पुत्री उत्पन्न हुई तो उसका पति होगा ॥19-21॥ दूत के उक्त वचन सुनकर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूत का सम्मान कर उसे विदा किया । दूत ने भी अपने स्वामी के लिए कार्य सिद्ध होने का समाचार कह सुनाया ॥22॥
यह समाचार सुनकर सत्यभामा ने रुक्मिणी के पास अपनी दूतियाँ भेजी और वे रुक्मिणी के चरणों में नम्रीभूत हो कहने लगी कि हे स्वामिनि ! हम लोगों की स्वामिनि― सत्यभामा आपसे कुछ उत्तम वचन कह रही हैं सो हे मानवति ! आभरण की तरह उस प्रशंसनीय वचन को आप कान में धारण करें― श्रवण करें । वह वचन यह है कि हम दोनों में से जिसके पहले पुत्र होगा वह दुर्योधन को होनहार पुत्री को विवाहेगा यह निश्चित हो चुका है । उस विवाह के समय जिनके पुत्र न होगा उसकी कटी हुई केश-लता को पैरों के नीचे रखकर वधू और वर स्नान करेंगे । यह कार्य बहुत ही प्रशस्त तथा यश को बढ़ाने वाला है इसलिए हे यशस्विनि ! हे भाग्यशालीनि ! हे आर्ये ! यदि आपको रुचता है― अच्छा लगता है तो स्वीकृति दीजिए ॥23-27॥ कानों के लिए अमृत के समान आनंद देने वाले उस वचन को सुनकर रुक्मिणी ने संतुष्ट हो तथास्तु कह दिया और दूतियों ने जाकर अपनी स्वामिनी― सत्यभामा के लिए वह समाचार कह सुनाया ॥28॥
तदनंतर चतुर्थ स्नान के बाद रुक्मिणी जब रात्रि में शय्या पर सोयी तब उसने स्वप्न में हंसविमान के द्वारा आकाश में विहार किया ॥29॥ जागने पर उसने वह स्वप्न पतिदेव श्रीकृष्ण के लिए कहा और उसके उत्तर में उन्होंने कहा कि तुम्हारे आकाश में विहार करने वाला कोई महान् पुत्र होगा ॥30॥ पति के वचन सुनकर रुक्मिणी, प्रातःकाल के समय सूर्य की किरणों से संसर्ग को प्राप्त हुई कमलिनी के समान विकास को प्राप्त हुई ॥31॥ तदनंतर श्रीकृष्ण तथा अन्य समस्त जनों के परम आनंद को बढ़ाता हुआ अच्युतेंद्र, स्वर्ग से अवतार ले रुक्मिणी के गर्भ में आया ॥32॥
उसी समय सत्यभामा ने भी सिर से स्नान कर उत्तम स्वप्नपूर्वक स्वर्ग से च्युत हुए पुत्र को गर्भ में धारण किया ॥33॥ जिनकी यशरूपी लता बढ़ रही थी ऐसे बढ़ते हुए दोनों गर्भों ने अपनी-अपनी माताओं और पिता के परम आनंद को वृद्धिंगत किया ॥34॥ प्रसव का महीना पूर्ण होने पर रुक्मिणी ने उत्तम मनुष्य के लक्षणों से युक्त पुत्र उत्पन्न किया और उसी के साथ-साथ सत्यभामा ने भी रात्रि में उत्तम पुत्र को जन्म दिया ॥35॥ दोनों ही रानियों ने हित के इच्छुक एवं शुभ समाचार देने वाले पुरुष रात्रि के ही समय एक साथ श्रीकृष्ण के पास भेजे । उस समय श्रीकृष्ण शयन कर रहे थे इसलिए सत्यभामा के द्वारा भेजे सेवक उनके सिर के पास और रुक्मिणी के द्वारा भेजे सेवक उनके चरणों के समीप खड़े हो गये ॥36॥ जब श्रीकृष्ण जगे तो पहले उनकी दृष्टि चरणों के पास खड़े सेवकों पर पड़ी । उन्होंने भाग्य-वृद्धि के लिए पहले रुक्मिणी के पुत्र-जन्म का समाचार सुनाया जिससे प्रसन्न होकर कृष्ण ने उन्हें अपने शरीर पर स्थित आभूषण पुरस्कार में दिये ॥37॥ तदनंतर जब कृष्ण ने मुड़कर दूसरी ओर देखा तो सत्यभामा के सेवकजन ने उनकी स्तुति कर उन्हें सत्यभामा के पुत्रोत्पत्ति का समाचार सुनाया जिससे संतुष्ट होकर कृष्ण ने उन्हें भी पुरस्कार में धन दिया ॥38॥
उसी समय अग्नि के समान देदीप्यमान धूमकेतु नाम का एक महाबलवान् असुर विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जाता हुआ रुक्मिणी के महल पर आया ॥39॥ आते के ही साथ उसका विमान रुक गया जिससे कुछ आश्चर्य में पड़कर वह नीचे की ओर देखने लगा । वह विभंगावधिज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाला था ही इसलिए उसके द्वारा रुक्मिणी के पुत्र को देख क्रोध से उसके नेत्र लाल हो गये और दर्शनरूपी ईंधन से उसकी पूर्व वैररूपी अग्नि भड़क उठी । उस पापी ने आते ही कड़ी रक्षा में नियुक्त पहरेदारों को, परिवार पहरेदारों को, परिवार के लोगों को तथा स्वयं रुक्मिणी को महानिद्रा में निमग्न कर पुत्र को उठा लिया और वजन में पर्वत के समान भारी उस पुत्र को दोनों भुजाओं से लेकर वह मलिन बुद्धि एवं श्यामरंग का धारक महाअसुर आकाश में उड़ गया ॥ 40-43 ॥ आकाश में ले जाकर वह विचार करने लगा कि इस पूर्व भव के वैरी को क्या मैं हाथों से मसल डालूं ? या नखों से चीरकर आकाश में पक्षियों के लिए इसकी बलि बिखेर दूँ ? अथवा मुझ से द्रोह करने वाले इस क्षुद्र शत्रु को नाकों के समूह से महाभयंकर एवं मगरों और ग्राहों के समूह से भरे हुए समुद्र में गिरा हूँ ? अथवा यह मांस का पिंड तो है ही । इसके मारने से क्या लाभ है ? यह रक्षकों से रहित ऐसा ही छोड़ दिया जायेगा तो अपने-आप मर जायेगा ॥44-46॥ बालक के पुण्य से इस प्रकार विचार करता वह महासुर जा रहा था कि दूर से खदिर अटवी को देख वह नीचे उतरा ॥47॥ और वहाँ तक्षशिला के नीचे उस बालक को रखकर वह धूमकेतु नाम का असुर, धूमकेतु तारा के समान शीघ्र ही अदृश्य हो गया ॥48॥
तदनंतर उसी समय मेघकूट नगर का राजा कालसंवर, अपनी कनकमाला रानी के साथ पृथिवी के समस्त स्थलों पर विहार करता हुआ विमान-द्वारा आकाश-मार्ग से वहाँ आया सो बालक के प्रभाव से उसकी गति रुक गयी ॥49-50॥ यह क्या है इस प्रकार विचारकर कालसंवर परम आश्चर्य को प्राप्त हुआ । नीचे उतरकर उसने हिलती हई एक बड़ी मोटी शिला देखी ॥51॥ स्वेच्छा से शिला हटाकर जब उसने देखा तो उसके नीचे अक्षत शरीर, कामदेव के समान आभा वाला एवं सुवर्ण के समान कांतिमां वह बालक देखा ॥52॥ दया से युक्त हो कालसंवर ने उस बालक को उठा लिया और तुम्हारे पुत्र नहीं है इसलिए यह तुम्हारा पुत्र हुआ, लो इस प्रकार मधुर शब्द कहकर अपनी प्रिया को देने के लिए उद्यत हुआ ॥ 53 ॥ पहले तो विद्याधरी कनकमाला ने दोनों हाथ पसार दिये पर पीछे चतुर एवं दूर तक देखने वाली उस विद्याधरी ने अपने हाथ संकोच लिये और इस प्रकार खड़ी हो गयी मानो पुत्र को चाहती ही न हो ॥54॥ प्रिये ! यह क्या है ? इस प्रकार पति के कहने पर उसने कहा कि आपके उच्चकुल में उत्पन्न हुए पाँच सौ पुत्र हैं ॥55॥ सो जब वे इस अज्ञातकुल वाले पुत्र को अहंकार से उन्मत्त हो सिर में थप्पड़ मारेंगे तब मैं वह दृश्य देखने को समर्थन हो सकूँगी इसलिए मेरा निपूती रहना ही अच्छा है ॥56॥
रानी के इस प्रकार कहने पर कालसंवर ने उसे सांत्वना दी और कान का सुवर्ण-पत्र ले ‘यह युवराज है’ ऐसा कहकर उसे पट्ट बाँध दिया ॥57॥ तदनंतर नीति-निपुण कनकमाला ने संतुष्ट होकर वह पुत्र ले लिया और पुत्र सहित दोनों मेघकूट नामक श्रेष्ठ नगर में प्रविष्ट हुए ॥58॥ अतिशय निपुण राजा कालसंवर ने नगर में यह घोषणा कराकर कि ‘गूढ गर्भ को धारण करने वाली महादेवी कनकमाला ने आज शुभ पुत्र को जन्म दिया है’ पुण्य के भंडार स्वरूप उस पुत्र का जन्मोत्सव कराया । जन्मोत्सव में विद्याधरियों के समूह नृत्य कर रहे थे और उनके नूपुरों की रुनझुन न्यारी ही शोभा प्रकट कर रही थी ॥59-60॥ स्वर्ण के समान श्रेष्ठ कांति का धारक होने से उसका प्रद्युम्न नाम रखा गया । वहाँ सैकड़ों विद्याधर-कुमारों के द्वारा सेवित होता हुआ वह प्रद्युम्नकुमार दिनों-दिन बढ़ने लगा ॥61॥
इधर द्वारिकापुरी में जब रुक्मिणी जागृत हुई तो उसने पुत्र को नहीं देखा । तदनंतर वृद्ध धायों के साथ उसने उसे जहाँ-तहाँ देखा पर जब प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह जोर-जोर से इस प्रकार विलाप करने लगी कि हाय पुत्र ! तुझे कौन हर ले गया है ? विधाता ने मेरे नेत्रों को निधि दिखाकर क्यों छीन ली है ? अवश्य ही मैंने दूसरे जन्म में किसी स्त्री को पुत्र से वियुक्त किया होगा नहीं तो कारण के बिना यह ऐसा फल कैसे प्राप्त होता ? ॥62-64॥ रुक्मिणी के इस प्रकार करुण विलाप करने पर परिवार के लोग भी रोने लगे और इस तरह रोने का एक जोरदार शब्द उठ खड़ा हुआ ॥65॥
तदनंतर सब वृत्तांत जानकर भाई-बांधवों एवं अन्य सुंदर स्त्रियों के साथ कृष्ण भी वहाँ शीघ्र आ पहुँचे । रोने का शब्द सुनकर बलदेव भी आ गये । अपने नंदक नामक खड̖ग को हाथ में लिये श्रीकृष्ण अपनी भुजाओं के पराक्रम तथा अपने प्रमाद की निंदा करने लगे ॥66-67॥ वचन बोलने में अतिशय चतुर श्रीकृष्ण कहने लगे कि दैव और पुरुषार्थ में देव ही परम बलवान् है । संसार में इस अकारण पुरुषार्थ को धिक्कार है ॥68॥ अन्यथा उभारी हुई तलवार की धारा से सुशोभित मुझ वासुदेव का भी पुत्र दूसरों के द्वारा किस प्रकार हरा जाता ? ॥69॥ इत्यादि बहुत बोलने वाले श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी से कहा कि हे प्रिये ! इस विषय में अधिक शोकयुक्त न होओ । हे धीरे ! धीरता धारण करो ॥70॥ जो पुत्र स्वर्ग से च्युत हो तुम्हारे और हमारे उत्पन्न हुआ है वह साधारण पुत्र नहीं है । उसे इस संसार में अवश्य ही भोगों का भोगने वाला होना चाहिए ॥71॥ इसलिए जिस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि मनुष्य आकाश में सूक्ष्म विंब को धारण करने वाले प्रतिपदा के चंद्रमा को खोजते हैं उसी प्रकार मैं लोगों के नेत्रों को आनंद देने वाले तेरे पुत्र को लोक में सर्वत्र खोजता हूँ ॥72 ॥
इस प्रकार आंसुओं से जिसके दोनों कपोल धुल रहे थे ऐसी प्रिया रुक्मिणी को शांत कर श्रीकृष्ण पुत्र के खोजने में उपाय करने लगे ॥73॥ उसी समय निरंतर उद्यम करने वाले नारद ऋषि वहाँ श्रीकृष्ण के पास आये और सब समाचार सुनकर शोक से क्षणभर के लिए निश्चलता को प्राप्त हो गये ॥74॥ उन्होंने सब ओर तुषार से जले कमलों के समान मुरझाये हुए यादवों के मुख बड़े आश्चर्य के साथ देखे ॥75 ॥ तदनंतर शोक दूर कर नारद ने कृष्ण से कहा कि हे वीर ! शोक छोड़ो, मैं पुत्र का समाचार लाता हूँ ॥76॥ यहाँ जो अवधिज्ञानी अतिमुक्तक मुनिराज थे वे तो केवलज्ञानरूपी नेत्र को प्राप्त कर मोक्ष जा चुके हैं ॥77॥ और जो तीन ज्ञान के धारक नेमिकुमार हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे । किस कारण से नहीं कहेंगे? यह हम नहीं जानते । इसलिए मैं पूर्वविदेह क्षेत्र में जाकर तथा सीमंधर भगवान से पूछकर पुत्र का सब समाचार तेरे लिए प्राप्त कराऊंगा ॥78-79॥ श्रीकृष्ण का उत्तर पा नारद वहाँ से निकल रुक्मिणी के भवन पहुंचे और वहां शोकरूपी तुषार से जले हुए रुक्मिणी के मुख-कमल को देख स्वयं हृदय से शोक करने लगे परंतु बाह्य में धैर्य को धारण किये रहे । रुक्मिणी ने उठकर उनका सत्कार किया । अनंतर वे उसी के निकट आसन पर बैठ गये ॥80-81 ॥ रुक्मिणी पिता के तुल्य नारद को देखकर गला फाड़-फाड़कर रोने लगी सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के समीप पुराना शोक भी नवीन के समान हो जाता है ॥ 82 ॥ अत्यंत चतुर नारदमुनि, उसके शोक-सागर को हल का करने के लिए ही मानो मन को आनंदित करते हुए इस प्रकार वचन बोले ॥83॥
हे रुक्मिणी ! तू शोक छोड़, तेरा पुत्र कहीं जीवित है भले ही उसे पूर्वभव का कोई वैरी किसी तरह हरकर ले गया है । श्रीकृष्ण से तुझ में जो उसकी उत्पत्ति हुई है यही उस महात्मा के दीर्घायुष्य को सूचित कर रही है ॥ 84-85 ॥ हे प्रिय पुत्री ! तू जानती है कि इस संसार में प्राणियों को सुख-दुःख उत्पन्न करने वाले संयोग और वियोग होते ही रहते हैं ॥86॥ परंतु जो कर्मों की अधीनता को जानने वाले हैं एवं ज्ञान के द्वारा उन्मीलित बुद्धिरूपी नेत्रों को धारण करने वाले हैं ऐसे यादवों के ऊपर वे संयोग और वियोग शत्रुओं के समान अपना प्रभाव नहीं जमा सकते हैं ॥87॥ तू तो जिन-शासन के तत्त्व को जानने वाली एवं संसार की स्थिति की जानकार है अतः शोक के वशीभूत मत हो । मैं शीघ्र ही तेरे पुत्र का समाचार लाता हूँ ॥88॥ इस प्रकार वचनरूपी अमृत से उस कृशांगी को समझाकर नारदमुनि आकाश में उड़ सीमंधर भगवान् के समीप जा पहुँचे ॥89॥ वहाँ पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणीनगरी में मनुष्य, सुर और असुरों से सेवित सीमंधर जिनेंद्र के उन्होंने दर्शन किये ॥90॥ हाथ जोड़ मुख से पवित्र स्तोत्र का उच्चारण कर उन्होंने जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार किया और उसके बाद वे राजाओं की सभा में जा बैठे ॥91॥
वहाँ उस समय पांच सौ धनुष की ऊँचाई वाला पद्मरथ चक्रवर्ती बैठा था । दस धनुष ऊँचे नर-प्रशंसित नारद को देखते ही उसने उन्हें कौतुकवश अपने हस्त-कमलों से उठाकर भगवान से पूछा कि हे नाथ ! यह मनुष्य के आकार का कीड़ा कौन-सा है ? और इसका क्या नाम है ? ॥92-93॥ तदनंतर सीमंधर भगवान ने सब रहस्य कहा । उन्होंने बताया कि यह जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के नौवें नारायण के हित में उद्यत रहने वाला नारद है ॥94॥
यह सुन चक्रवर्ती ने फिर पूछा कि हे स्वामिन् ! यह यहाँ किसलिए आया है ? इसके उत्तर में धर्मचक्र प्रवर्तक सीमंधर भगवान् ने चक्रवर्ती के लिए प्रारंभ से लेकर सब समाचार कहा । साथ हो यह भी कहा कि उस बालक का प्रद्युम्न नाम है । वह सोलहवाँ वर्ष आने पर सोलह लाभों को प्राप्त कर अपने माता-पिता के साथ पुनः मिलेगा । प्रज्ञप्ति नामक महाविद्या से जिसका पराक्रम चमक उठेगा ऐसा वह प्रद्युम्न इस पृथिवी पर समस्त देवों के लिए भी अजय्य हो जावेगा ॥ 95-97 ॥
चक्रवर्ती ने फिर पूछा― प्रभो ! प्रद्युम्न का चरित कैसा है ? और वह किस कारण से हरा गया ? इसके उत्तर में सीमंधर जिनेंद्र ने चक्रवर्ती के लिए नारद के सन्निधान में प्रद्युम्न का निम्न प्रकार चरित कहा ॥98॥
भरतक्षेत्र संबंधी मगधदेश के शालिग्राम नामक गांव में सोमदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था ॥ 99॥ अग्नि की स्वाहा के समान उसकी अग्निला नाम की ब्राह्मणी थी जो उसे बहुत ही सुख देने वाली थी । उस ब्राह्मणी से सोम शर्मा के अग्निभूति और वायुभूति नाम के दो पुत्र हुए ॥100।। ये दोनों ही पुत्र, पृथिवी पर वेद तथा वैदार्थ में अत्यंत निपुण हो गये । इन्होंने अपने प्रभाव से अन्य ब्राह्मणों की प्रभा को आच्छादित कर दिया तथा शुक्र और बृहस्पति के समान देदीप्यमान होने लगे ॥101॥ वेदार्थ की भावना से उत्पन्न जातिवाद से गर्वित, बकवास करने वाले, माता-पिता के प्रियवचनों से पले-पुसे ये दोनों पुत्र भोग-वासना में तत्पर हो गये । जब वे सोलह वर्ष के हुए तो स्त्रियों को ही स्वर्ग समझने लगे और परलोक की कथा से अत्यंत द्वेष करने लगे ॥102-103॥
तदनंतर किसी समय श्रुतरूप सागर के पारगामी नंदिवर्धन नाम के गुरु विशाल संघ के साथ आकर शालिग्राम के बाहर उपवन में ठहर गये ॥104॥ चारों वर्ण के महाजन आकुलता रहित हो उनकी वंदना के लिए जा रहे थे सो उन्हें देख दोनों ब्राह्मण-पुत्रों ने उसका कारण पूछा ॥105॥ तदनंतर एक सरल स्वभावी ब्राह्मण ने उन्हें स्पष्ट बताया कि मुनियों का एक बड़ा संघ आया है । उसी की वंदना के लिए हम लोग जा रहे हैं ॥106 ॥ ब्राह्मण का उत्तर सुन दोनों पुत्र विचारने लगे कि पृथिवी तल पर हम लोगों से बढ़कर दूसरा वंदनीय है ही कौन ? चलो हम भी उसका माहात्म्य देखें इस प्रकार विचार कर मान से भरे दोनों पुत्र उपवन की ओर चले ॥107॥ उस समय अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक, साधु शिरोमणि नंदिवर्धन गुरु, समुद्र के समान अपार जन समूह के मध्य में स्थित हो धर्म का उपदेश दे रहे थे । जब दोनों ब्राह्मण उनके पास पहुंचे तब भैंसाओं के समान इन दोनों से इस समय यहाँ समीचीन धर्म के श्रवण में बाधा न आवे इस प्रकार श्रोताओं का हित चाहने वाले अवधिज्ञानी सात्यकि मुनि ने उन दोनों ब्राह्मणों को दूर से देख हे ब्राह्मणो ! यहाँ आइए इस तरह बुला लिया और आकर वे उनके सामने बैठ गये ॥108-110॥ तदनंतर उन अहंकारी ब्राह्मणों को सात्यकि मुनिराज के सामने बैठा देख, लोगों ने आ-आकर उनके सामने की भूमि को उस प्रकार भर दिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतु में महानद जल के प्रवाह से भर देता है । भावार्थ― कौतुक से प्रेरित हो लोग मुनिराज के पास आ गये ॥11॥
तदनंतर मुनिराज ने कहा कि हे विद्वानो ! आप लोग कहां से आये हैं ? इसके उत्तर में ब्राह्मणों ने कहा कि क्या आप नहीं जानते इसी शालिग्राम से आये हैं ॥112॥ सात्यकि मुनिराज ने कहा कि हाँ यह तो सत्य है कि आप शालिग्राम से आये हैं परंतु यह तो बताइए कि इस अनादि अनंत संसार में भ्रमण करते हुए आप किस गति से आये हैं ? ॥113꠰꠰ ब्राह्मणों ने कहा कि यह बात तो हम लोग ही क्या दूसरे के लिए भी दुर्जेय है अर्थात् इसे कोई नहीं जान सकता । तब मुनिराज ने कहा कि हे ब्राह्मणो ! सुनो, यह बात नहीं है कि कोई नहीं जान सकता, सुनिए, मैं कहता हूँ ॥114॥
तुम दोनों भाई इस जन्म से पूर्व जन्म में इसी शालिग्राम की सीमा के निकट अपने कर्म से दो शृगाल थे और दोनों ही परस्पर की प्रीति से युक्त थे ॥115॥ इसी ग्राम में एक प्रवरक नाम का ब्राह्मण किसान रहता था । एक दिन वह खेत को जोतकर निश्चिंत हुआ ही था कि बड़े जोर से वर्षा होने लगी तथा तीव्र आंधी आ गयी । उनसे वह बहुत पीड़ित हुआ, उसका शरीर कांपने लगा और भूख-रूपी रोग ने भी उसको खूब सताया जिससे वह खेत के पास ही वटवृक्ष के नीचे अपना चमड़े का उपकरण छोड़कर घर चला गया ॥116-117॥ प्राणियों का संहार करने वाली वह वर्षा लगातार सात दिन-रात तक होती रही । इस बीच में दोनों शृगाल भूख से अत्यंत व्याकुल हो उठे और उन्होंने उस किसान का वह भीगा हुआ उपकरण खा लिया ॥118॥ कुछ समय बाद पेट में बहुत भारी शूल की वेदना उठने से उन दोनों शृंगालों को असह्य वेदना सहन करनी पड़ी । अकामनिर्जरा के योग से उन्हें प्रशस्त आयु का बंध हो गया और उसके फलस्वरूप मरकर वे सोमदेव ब्राह्मण के जाति के गर्व से गर्वित अग्निभूत और वायुभूति नाम के तुम दोनों पुत्र हुए ॥119-120॥ पाप के उदय से प्राणियों को दुर्गति मिलती है और पुण्य के उदय से सुगति प्राप्त होती है इसलिए जाति का गर्व करना वृथा है ॥121॥ वर्षा बंद होने पर जब किसान खेत पर पहुंचा तो वहाँ मरे हुए दोनों शृंगालों को देखकर उठा लाया और उनकी मशकें बनवाकर कृत-कृत्य हो गया । वे मशकें उसके घर में आज भी रखी हैं ॥ 122 ॥ तीव्र मान से युक्त प्रवरक भी समय पाकर मर गया और अपने पुत्र के ही पुत्र हुआ । वह कामदेव के समान कांति का धारक है तथा जातिस्मरण होने से झूठ-मूठ ही गूंगा के समान रहता है ॥123॥ देखो, वह अपने बंधुजनों के बीच में बैठा मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहा है । इतना कहकर सत्यवादी सात्यकि मुनिराज ने उस गूंगे को अपने पास बुलाकर कहा कि तू वही ब्राह्मण किसान अपने पुत्र का पुत्र हुआ है । अब तू शोक और गूंगेपन को छोड़ तथा वचनरूपी अमृत को प्रकट कर― स्पष्ट बातचीत कर अपने बंधुजनों को हर्षित कर ॥124-125॥ इस संसार में नट के समान स्वामी और सेवक, पिता और पुत्र, माता तथा स्त्री में विपरीतता देखी जाती है अर्थात् स्वामी सेवक हो जाता है, सेवक स्वामी हो जाता है, पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र पिता हो जाता है, और माता स्त्री हो जाती है, स्त्री माता हो जाती है ॥126॥ यह संसार रेहट में लगी घटियों के जाल के समान जटिल तथा कुटिल है । इसमें निरंतर भ्रमण करने वाले जंतु ऊंच-नीच अवस्था को प्राप्त होते ही हैं ॥127॥ इसलिए हे पुत्र ! संसाररूपी सागर को निःसार एवं भयंकर जानकर दयामूलक व्रत का सारपूर्ण संग्रह कर ॥128॥ इस प्रकार मुनिराज ने जब उसके गूंगेपन का कारण प्रत्यक्ष दिखा दिया तब वह तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में गिर पड़ा ॥129॥ उसके नेत्र आनंद के आंसुओं से व्याप्त हो गये । वह बड़े आश्चर्य के साथ खड़ा हो हाथ जोड़ मस्तक से लगा गद्गद वाणी से कहने लगा ॥130॥
भगवन् ! आप सर्वज्ञ के समान हैं, ईश्वर हैं, यहाँ बैठे-बैठे ही तीनों लोक संबंधी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट जानते हैं ॥131॥ हे नाथ ! मेरा मनरूपी नेत्र अज्ञानरूपी पटल से मलिन हो रहा था सो आज आपने उसे ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिया है ॥ 132 ॥ महामोहरूपी अंधकार से व्याप्त इस अनादि संसार-अटवी में भ्रमण करते हुए मुझे आपने सच्चा मार्ग दिखलाया है इसलिए हे मुनिराज! आप ही मेरे बंधु हैं ॥133 ॥ हे भगवन् ! प्रसन्न होइए और मुझे दैगंबरी दीक्षा दीजिए ! इस प्रकार गुरु को प्रसन्न कर तथा उनके निकट आ उस गूंगे ब्राह्मण ने सत्पुरुषों के लिए इष्ट दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली ॥134॥ उस ब्राह्मण का पूर्वोक्त चरित सुनकर तथा देखकर कितने ही लोग मुनिपद को प्राप्त हो गये और कितने ही श्रावक अवस्था को प्राप्त हुए ॥135 ॥
अग्निभूति और वायुभूति अपने पूर्वभव सुन बड़े लज्जित हुए । लोगों ने भी उन्हें बुरा कहा इसलिए वे चुप-चाप अपने घर चले गये । वहाँ माता-पिता ने भी उनकी निंदा की ॥136 ॥ रात्रि के समय सात्यकि मुनिराज कहीं एकांत में कायोत्सर्ग मुद्रा से स्थित थे सो उन्हें अग्निभूति और वायुभूति तलवार हाथ में ले मारना ही चाहते थे कि यक्ष ने उन्हें कोल दिया जिससे वे तलवार उभारे हुए ज्यों के त्यों खड़े रह गये ॥137॥ प्रातःकाल होने पर लोगों ने मुनिराज के पास खड़े हुए उन दोनों को देखा और ये वही निंदित कार्य के करने वाले पापी ब्राह्मण हैं इस प्रकार कहकर उनकी निंदा की ॥138॥ अग्निभूति, वायुभूति सोचने लगे कि देखो, मुनिराज का यह कितना भारी प्रभाव है कि जिनके द्वारा अनायास ही कीले जाकर हम दोनों खंभे-जैसी दशा को प्राप्त हुए हैं ॥139꠰। उन्होंने मन में यह भी संकल्प किया कि यदि किसी तरह इस कष्ट से हम लोगों का छुटकारा होता है तो हम अवश्य ही जिनधर्म धारण करेंगे क्योंकि उसकी सामर्थ्य हम इस तरह प्रत्यक्ष देख चुके हैं ॥140॥
उसी समय उनका कष्ट सुन उनके माता-पिता शीघ्र दौड़े आये और मुनिराज के चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न करने का उद्यम करने लगे ॥141॥ करुणा के धारक मुनिराज अपना योग समाप्त कर जब विराजमान हुए तब उन्होंने यह सब क्षेत्रपाल के द्वारा किया जान विनयपूर्वक बैठे क्षेत्रपाल से कहा कि― ‘यक्ष ! यह इनका अनीति से उत्पन्न दोष क्षमा कर दिया जाये । कर्म से प्रेरित इन दोनों प्राणियों पर दया करो ॥142-143॥ इस प्रकार राजाओं की आज्ञा के समान मुनिराज की आज्ञा प्राप्त कर जैसी आपकी आज्ञा हो यह कह क्षेत्रपाल ने दोनों को छोड़ दिया ॥144॥
तदनंतर मुनिराज के समीप आकर अग्निभूति, वायुभूति ने मुनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार का धर्मश्रवण किया और अणुव्रत धारण कर श्रावक पद प्राप्त किया ॥ 145 ॥ सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त दोनों ब्राह्मण पुत्र चिरकाल तक धर्म का पालन कर मृत्यु को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में देव हुए ॥146॥ उनके माता-पिता को जैनधर्म की श्रद्धा नहीं हुई इसलिए वे मिथ्यात्व से मोहित हो मरकर कुगति के पथिक हुए ॥147॥
अग्निभूति, वायुभूति के जीव जो सौधर्म स्वर्ग में देव हुए थे, स्वर्ग के सुख भोग, वहाँ से च्युत हुए और अयोध्यानगरी में रहने वाले समुद्रदत्त सेठ की धारिणी नामक स्त्री से पुत्र उत्पन्न हुए ॥148॥ उनमें बड़े पुत्र का नाम पूर्णभद्र और छोटे पुत्र का नाम मणिभद्र था । इस पर्याय में भी दोनों ने सम्यक्त्व की विराधना नहीं की थी तथा दोनों ही जिन-शासन से स्नेह रखने वाले थे ॥142॥ तदनंतर काल पाकर इन दोनों के पिता, अयोध्या के राजा तथा अन्य भव्यजीवों ने महेंद्रसेन गुरु से धर्मश्रवण कर जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥150॥ किसी समय पूर्णभद्र और मणिभद्र, रथ पर सवार हो मुनि पूजा के लिए नगर से जा रहे थे सो बीच में एक चांडाल तथा कुत्ती को देखकर स्नेह को प्राप्त हो गये ॥151॥
मुनिराज के पास जाकर दोनों ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर आश्चर्य से युक्त हो उन्होंने पूछा कि हे स्वामिन् ! कुत्ती और चांडाल के ऊपर हम दोनों को स्नेह किस कारण उत्पन्न हुआ ? ॥152॥
अवधिज्ञान के द्वारा तीनों लोकों की स्थिति को जानने वाले मुनिराज ने कहा कि ब्राह्मण जन्म में तुम्हारे जो माता-पिता थे वे ही ये कुत्ती और चांडाल हुए हैं सो पूर्वभव के कारण इन पर तुम्हारा स्नेह हुआ है ॥153 ॥ इस प्रकार सुनकर तथा मुनिराज को नमस्कार कर दोनों भाई कुत्ती और चांडाल के पास पहुंचे । वहाँ जाकर उन्होंने उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया तथा पूर्वभव को कथा सुनायी जिससे वे दोनों ही शांत हो गये ॥154॥ चांडाल ने संसार से विरक्त हो दीनता छोड़ चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और एक माह का संन्यास ले मरकर नंदीश्वर द्वीप में देव हुआ ॥155 ॥ कुत्ती इसी नगर में राजा की पुत्री हुई । इधर राजपुत्री का स्वयंवर हो रहा था । जिस समय वह स्वयंवर में स्थित थी उसी समय पूर्वोक्त नंदीश्वर देव ने
आकर उसे संबोधा ॥156॥ जिससे संसार को असार जान सम्यक्त्व की भावना से युक्त उस नवयौवनवती राजपुत्री ने एक सफेद साड़ी का परिग्रह रख आर्यिका की दीक्षा ली ॥157॥
पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दोनों भाई चिरकाल तक श्रावक के उत्तम एवं श्रेष्ठ व्रत का पालन कर अंत में सल्लेखना द्वारा सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुए ॥158॥ पश्चात् स्वर्ग से च्युत होकर अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की धरावती रानी में मधु और कैटभ नामक पुत्र हुए ॥159॥ तदनंतर किसी दिन राज्य गद्दी पर मधु का और युवराज पद पर कैटभ का अभिषेक कर महानुभाव राजा हेमनाभ ने जिनदीक्षा धारण कर ली ॥160॥ मधु और कैटभ पृथिवीतल पर अद्वितीय वीर हुए । वे दोनों सूर्य और चंद्रमा के समान अद्भुत तेज के धारक थे ॥161॥
तदनंतर जो क्षुद्र सामंतों के द्वारा वश में नहीं किया जा सका था ऐसा अंधकार के समान भयंकर भीमक नाम का एक राजा पहाड़ी दुर्ग का आश्रय पा मधु और कैटभ के विरुद्ध खड़ा हुआ सो उसे वश करने के लिए दोनों भाई चले । चलते-चलते वे उस वटपुर नगर में पहुंचे जहाँ वीरसेन राजा रहता था ॥162-163॥ प्रसन्नता से युक्त राजा वीरसेन ने सम्मुख आकर बड़े आदर से मधु की अगवानी की और स्वामी-भक्ति से प्रेरित हो अपने अंतःपुर के साथ उसका खूब सम्मान किया ॥164॥
राजा वीरसेन की एक चंद्राभा नाम की स्त्री थी जो चंद्रिका के समान सुंदर और मानवती थी । मधुर-मधुर भाषण करने वाली उस चंद्राभा ने राजा मधु का मन हर लिया ॥165॥ जिस प्रकार अत्यंत कठोर चंद्रकांतमणि की शिला, चंद्रमा को देखने से, आर्द्र भाव को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार शस्त्र और शास्त्रों के अभ्यास से अत्यंत कठोर होने पर भी मधु राजा की बुद्धि चंद्राभा को देखने से आर्द्र भाव को प्राप्त हो गयी ॥166॥ वह विचार करने लगा कि जो राज्य, रूप और सौभाग्य से युक्त इस चंद्राभा से सहित है उसे ही मैं सुख का कारण मानता हूँ और इससे रहित राज्य को विष के समान समझता हूँ ॥167 ॥ जिस प्रकार पूर्ण चंद्रमा का कलंक भी सुशोभित होता है उसी प्रकार चंद्राभा के द्वारा आलिंगित मुझ राजाधिराज का कलंक भी शोभा देगा । भावार्थ― परस्त्री के संपर्क से यद्यपि मेरा अपवाद होगा― मैं कलंकी कहलाऊँगा तथापि चंद्रमा के कलंक के समान मेरा वह कलंक शोभा का ही कारण होगा ॥168 ꠰। जिस प्रकार चंद्रिका के संग से विकसित कुमुद वन की सुगंधि को कीचड़ की दुर्गंध नष्ट नहीं कर सकती उसी प्रकार चंद्राभा के संग से प्रफुल्लित मेरी कीर्ति को अपवादरूपी कीचड़ की दुर्गंध नष्ट नहीं कर सकेगी ॥169॥ राजा मधु यद्यपि बहुत बुद्धिमान् और अभिमानी था तथापि राग से अंधा होने के कारण उसने उक्त विचारकर चंद्राभा के हरण करने में अपना मन लगाया― उसके हरने का मन में पक्का निश्चय कर लिया ॥170॥
तदनंतर उच्छृंखल राजा भीमक को वशकर कृतकृत्य होता हुआ राजा मधु अयोध्या नगरी में वापस आ गया । वहाँ चूँकि चंद्राभा के द्वारा उसका मन हरा गया था इसलिए उसने बड़े उत्साह से युक्त हो अपने समस्त सामंतों को अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ शीघ्र ही अपने नगर में बुलाया और यथायोग्य नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से सबका सत्कार कर उन्हें अपने-अपने घर विदा कर दिया । स्वामी के द्वारा यह सत्कार प्राप्त कर सबके मुख प्रसन्नता से विकसित हो रहे थे । वटपुर का राजा वीरसेन भी अपनी स्त्री चंद्राभा के साथ वहाँ आया था सो राजा मधु ने उसका बहुत भारी सत्कार कर उसे यह कहकर अपने घर के लिए विदा कर दिया कि चंद्राभा योग्य आभूषण अभी तक तैयार नहीं हो सके हैं इसलिए तैयार होने पर भेज देंगे । भोला-भाला वीरसेन चला गया और चंद्राभा को रोककर राजा मधु ने अपनी स्त्री बना ली । महादेवी का पद देकर उसने चंद्राभा को समस्त स्त्रियों का प्रभुत्व प्रदान किया । इस प्रकार वह उसके साथ मनचाहे भोग भोगने लगा ॥171-176॥ इधर चंद्राभा का पहले का पति उसकी विरह रूपी अग्नि से प्रदीप्त हो अत्यधिक उन्मत्तता को प्राप्त हो पृथिवी पर बड़ी व्यग्रता से इधर-उधर घूमने लगा ॥177॥ एक दिन वह ‘चंद्रामा-चंद्राभा’ इस प्रकार के आलाप की वार्ता से दु:खी हुआ धूलि-धूसरित हो नगर को गलियों में घूम रहा था कि महल पर खड़ी चंद्राभा ने उसे देख लिया ॥178॥ देखते ही के साथ उसके हृदय में दया उमड़ आयी । उसने पास ही बैठे राजा मधु से कहा कि हे नाथ ! देखो यह मेरा पूर्व पति कैसा प्रलाप करता हुआ घूम रहा है ॥179॥
उसी अवसर पर कुछ क्रूर कर्मचारियों ने परस्त्री सेवन करने वाले किसी पुरुष को पकड़कर न्याय के वेत्ता राजा मधु के लिए दिखाया और कहा कि हे देव ! इसके लिए कौन-सा दंड योग्य है ? राजा मधु ने उत्तर दिया कि यह अपराधी अत्यंत पापी है इसलिए इसके हाथ पाँव तथा सिर काटकर इसे भयंकर शारीरिक दंड दिया जाये । देवी चंद्राभा ने उसी समय कहा कि हे देव ! क्या यह अपराध आपने नहीं किया है ? आपने भी तो परस्त्रीहरण का अपराध किया है ॥180-182॥ चंद्राभा के उक्त वचन सुनते ही राजा मधु तुषार से पीड़ित कमल के समान म्लान हो गया-उसके मुख को कांति नष्ट हो गयी । वह विचार करने लगा कि मेरा हित चाहने वाली इस चंद्राभा ने यह सत्य ही कहा है ॥183॥ सचमुच ही परस्त्रीहरण दुर्गति के दुःख का कारण है । पति को विरागी देख चंद्राभा ने भी विरक्त हो कहा कि हे प्रभो! इन परस्त्री विषयक भोगों से क्या प्रयोजन है ? हे नाथ ! ये भोग यद्यपि वर्तमान में सुख पहुंचाने वाले हैं तथापि परिपाक काल में किंपाक फल के समान दुःखदायी हैं । सज्जन पुरुषों को वे ही भोग इष्ट होते हैं जो निज और पर के संताप के कारण नहीं हैं । अन्य विषयरूप भोगों को सत्पुरुष भोग नहीं मानते ॥184-186॥
चंद्राभा के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर राजा मधु ने धीरे-धीरे मोहरूपी मदिरा के सुदृढ़ मद को छोड़ दिया ॥187॥ और बड़ी प्रसन्नता से आदरपूर्वक उससे कहा कि ठीक, ठीक, हे साध्वी ! तुमने बहुत अच्छी बात कही ॥188॥ यथार्थ में सत्पुरुषों को ऐसा काम करना उचित नहीं जो परलोक तथा इस लोक में दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला तथा पाप को बढ़ाने वाला हो ॥189॥ जब मेरे जैसा प्रबुद्ध व्यक्ति भी ऐसा लोक-निंद्य कार्य करता है तब अविवेकी साधारण मनुष्य को तो बात ही क्या है ? ॥190॥ जहाँ अपनी स्त्री के विषय में भी सेवन किया हुआ यह अत्यधिक राग कर्मबंध का कारण है वहाँ परस्त्री विषयक राग की तो कथा ही क्या है ? ॥191॥ यह मनरूपी मदोन्मत्त महा हाथी ज्ञानरूपी अंकुश से रो के जाने पर भी इस जीव को कुमार्ग में ले जाता है । यहाँ विद्वान् क्या करे ? ॥192 ॥ जो इस अनंकुश मनरूपी गज को तीक्ष्ण दंडों से रोककर सुमार्ग में ले जाते हैं ऐसे शूर-वीर पुरुष संसार में विरले ही हैं ॥193॥ रतिरूपी हस्तिनी के द्वारा हरा हुआ यह मनरूपी मत्त हाथी जब तक इंद्रिय-विजयरूपी दंडों से युक्त नहीं किया जाता है तब तक इसके मद का नाश कैसे हो सकता है ? ॥194 ॥ यह मनरूपी हाथी जब तक प्रयत्नपूर्वक वश में नहीं किया गया है तब तक यह चढ़ने वाले के लिए भय का ही कारण रहता है, शांति का नहीं ॥195 ॥ इसके विपरीत अच्छी तरह वश में किया हुआ मनरूपी हाथी, साधुरूपी महावत के द्वारा प्रेरित हो तपरूपी रणभूमि में पापरूपी सेना को अच्छी तरह रोक लेता है ॥ 196॥ शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंधरूपी धान्य की अभिलाषा रखने वाले एवं मनरूपी वायु से प्रेरित हो चौकड़ी भरने वाले इस इंद्रियरूपी मृगों के झुंड के संचित धैर्य को ध्यानरूपी मजबूत जाल से जबरदस्ती रोककर मैं तप के द्वारा चिरसंचित पाप का अभी हाल क्षय करता हूँ ॥197-198 ॥ इस प्रकार कहकर तथा मन के वेग को रोककर राजा मधु ने ज्ञानरूपी जल से धूली हुई अपनी बुद्धि को संताप की शांति के लिए तपश्चरण में लगाया ॥199 ॥
उसी समय विमलवाहन नामक मुनिराज एक हजार मुनियों के साथ अयोध्यानगरी में आकर उसके सहस्रावन में ठहर गये ॥200 ॥ मुनियों के आगमन का समाचार सुन राजा मधु, अपने छोटे भाई कैटभ और स्त्रीजनों के साथ उनके दर्शन करने के लिए गया । विधिपूर्वक उनकी पूजा कर उसने विशेषरूप से धर्म श्रवण किया ॥201॥ तथा भोग, संसार, शारीरिक सुख एवं नगर आदि से विरक्त हो उसने भाई कैटभ तथा अन्य अनेक क्षत्रियों के साथ जिन-दीक्षा ले ली ॥202 ॥ विशुद्ध कुल में उत्पन्न तथा व्रत और शील से युक्त चंद्राभा आदि सैकड़ों-हजारों रानियां भी दीक्षित हो गयी― आर्यिका बन गयीं ॥203 ॥ राजा मधु के बाद उसका पुत्र कुलवर्धन, जो शरीर, पुरुषार्थ तथा विजय से निरंतर बढ़ रहा था अपने कुल की रक्षा करने लगा ॥204 ॥
राजा मधु और कैटभ घोर तप करने लगे । वे व्रत गुप्ति और समिति से युक्त थे तथा परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ-मुनिराज थे ॥205 ॥ उस समय उन दोनों के एक अंगोपांग ही परिग्रह था अथवा बाह्य और अभ्यंतर आसक्ति का अभाव होने से अंगोपांग भी परिग्रह नहीं था ॥ 206॥ वे दोनों मुनि वेला-तेला को आदि लेकर छह-छह माह के उपवास करते थे और आगम में भी समस्त आचरणों से कर्मों की निर्जरा करते थे ॥207॥ जब कभी वे ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की चोटियों पर आतापन योग लेकर विराजमान होते थे तब उनके शरीर से पसीना की बूंदें टपकने लगती थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो कर्म ही गल-गलकर नीचे गिर रहे हों ॥ 208॥ वर्षाऋतु में जीवों की रक्षा के लिए वे विहार बंद कर वृक्षों के नीचे विराजमान रहते थे । उस समय धैर्यरूपी कवच को धारण करने वाला उनका शरीर युद्ध में बाणों की पंक्ति के समान जल की धाराओं से खंडित नहीं होता था । भावार्थ― वर्षा योग के समय वे वृक्षों के नीचे बैठते थे और जल की अविरल धाराओं को बड़े धैर्य के साथ सहन करते थे ॥209 ॥ हेमंत ऋतु की रात्रियों में वे प्रतिमा योग से विराजमान रहकर शरीर की कांतिरूपी कमलिनी को जलाने वाली तुषार वायु को बड़ी शांति से सहन करते थे ॥210॥ वे दोनों धीर, वीर, मुनिराज, उत्तम अनुप्रेक्षाओं, दश धर्मों, चारित्र की शुद्धियों और परीषह जय के द्वारा संवर करते थे ॥211 ॥ वे स्वाध्याय, ध्यान तथा योग में स्थित रहते थे, वैयावृत्त्य करने में उद्यत रहते थे और रत्नत्रय की विशुद्धता के द्वारा दृष्टांतपने को प्राप्त देखे गये थे॥212॥ इस प्रकार अनेक हजार वर्ष तक जिन्होंने तपरूपी विशाल धन का संचय किया था और जो शल्यरूपी दोष से सदा दूर रहते थे ऐसे मधु और कैटभ मुनिराज अंत में सम्मेदाचल पर आरूढ़ हुए और वहाँ एक महीने का प्रायोपगमन संन्यास लेकर उन्होंने समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया ॥213-214॥ शरीर त्यागकर वे आरण और अच्युत स्वर्ग में हजारों देव-देवियों के स्वामी इंद्र और सामानिक देव हुए ॥215 ॥ वहाँ बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु को धारण करने वाले वे दोनों सम्यग्दृष्टि देव स्वर्ग के उत्तम सुख का उपभोग करने लगे ॥216॥
उनमें जो मधु का जीव था वह स्वर्ग से च्युत हो भरत क्षेत्र में कृष्ण नारायण को रुक्मिणी रानी के उदररूपी भूमि का मणि बन प्रद्युम्न नामक पुत्र हुआ ॥217॥ और जो कैटभ का जीव था वह भी स्वर्ग से च्युत हो कृष्ण की जांबवती पट्टरानी में कृष्ण के समान कांति को धारण करने वाला प्रद्युम्न का शंब नाम का छोटा भाई होगा ॥218॥ प्रद्युम्न और शंब दोनों ही भाई अत्यंत धीर वीर चरमशरीरी एवं सुंदर थे और दूसरे जंमसंबंधी महाप्रीति के कारण परस्पर एक दूसरे के हित करने में उद्यत रहते थे ॥ 219 ॥
वटपुर का स्वामी राजा वीरसेन चंद्राभा के विरह जन्य संताप से आर्तध्यान में तत्पर रहता हुआ चिर काल तक संसाररूपी अटवी में भ्रमण करता रहा ॥ 220॥ अंत में मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर वह अज्ञानी तापस हुआ और आयु के अंत में मरकर धूमकेतु-अग्नि के समान प्रचंड धूमकेतु नाम का देव हुआ ॥221॥ ज्यों ही उसे पूर्वजन्म संबंधी वैर का स्मरण आया त्यों ही उसने बालक प्रद्युम्न को माता से वियुक्त कर दिया सो आचार्य कहते हैं कि पाप को बढ़ाने वाले इस वैर-भाव को धिक्कार है ॥ 222॥ अपने पूर्व-संचित पुण्य ने प्रद्युम्न की मृत्यु से रक्षा की सो ठीक ही है क्योंकि अपाय से रक्षा करने में पुण्य की ही सामर्थ्य कारण है ॥ 223 ॥ इस प्रकार उस समय सीमंधर जिनेंद्र के द्वारा प्रतिपादित प्रद्युम्न का चरित श्रवण कर चक्रवर्ती राजा पद्मरथ ने बड़ी प्रसन्नता से जिनेंद्र भगवान को प्रणाम किया ॥224॥
इधर आनंद के वशीभूत हुए नारद, सीमंधर जिनेंद्र को नमस्कार कर आकाशमार्ग में जा उड़े और मेघकूट नामक पर्वत पर आ पहुंचे ॥225॥ वहाँ पुत्र लाभ के उत्सव से नारद ने कालसंवर राजा का अभिनंदन किया तथा पुत्रवती कनकमाला नाम की देवी की स्तुति की ॥226 ॥ सैकड़ों कुमार जिसकी सेवा कर रहे थे ऐसे रुक्मिणी-पुत्र को देख नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे प्रसन्नता के वेग को मन में छिपाये हुए परम रोमांच को प्राप्त हुए ॥227॥ कालसंवर आदि ने नमस्कार कर नारद का सम्मान किया । तदनंतर आशीर्वाद देकर वे बहुत ही शीघ्र आकाश में उड़कर द्वारिका आ पहुँचे ॥228॥ वहाँ आकर जिस प्रकार गये, जिस प्रकार देखा और जिस प्रकार सुना वह सब प्रकट कर नारद ने प्रद्युम्न की कथा कर यादवों के लिए हर्ष प्रदान किया ॥229॥ तदनंतर जिनका मुखकमल खिल रहा था ऐसे नारद ने रुक्मिणी रानी को देखकर उसे सीमंधर जिनेंद्र के द्वारा कहा सब समाचार कह सुनाया ॥ 230॥ अंत में उन्होंने कहा कि हे रुक्मिणी ! मैंने विद्याधरों के राजा कालसंवर के घर क्रीड़ा करता हुआ तुम्हारा पुत्र देखा है । यह देवकुमार के समान अत्यंत रूपवान् है ॥ 231॥ सोलह लाभों को प्राप्त कर तथा प्रज्ञप्ति विद्या का संग्रह कर तुम्हारा वह पुत्र सोलहवें वर्ष में अवश्य ही आवेगा ॥232 ॥
हे रुक्मिणी ! जब उसके आने का समय होगा तब तेरे उद्यान में असमय में ही प्रिय समाचार को सूचित करने वाला मयूर अत्यंत उच्च स्वर से शब्द करने लगेगा ॥233॥ तेरे उद्यान में जो मणिमयी वापिका सूखी पड़ी है वह उसके आगमन के समय कमलों से सुशोभित जल से भर जावेगी ॥ 234 ॥ तुम्हारा शोक दूर करने के लिए, शोक दूर होने की सूचना देने वाला अशोक वृक्ष असमय में ही अंकुर और पल्लवों को धारण करने लगेगा ॥235 ॥ तेरे यहाँ जो गूंगे हैं वे तभी तक गूंगे रहेंगे जब तक कि प्रद्युम्न दूर है । उसके निकट आते ही वे गूंगापन छोड़ देवेंगे ॥ 236 ॥ इन प्रकट हुए लक्षणों से तू पुत्र के आगमन का समय जान लेना । सीमंधर भगवान् के वचनों को अन्यथा मत मान ॥ 237 ॥ इस प्रकार नारद के हितकारी वचन सुन रुक्मिणी के स्तनों से दूध झरने लगा । वह श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर इस प्रकार कहने लगी कि हे भगवन् ! वात्सल्य प्रकट करने में जिनका चित्त सदा उद्यत रहता है ऐसे आपने आज यह मेरा उत्तम बंधुजनों का ऐसा कार्य किया है जो दूसरों के लिए सर्वथा दुष्कर है ॥ 238-239॥ हे मुने ! हे धीर! हे नाथ ! मैं पुत्र को शोकाग्नि में निराधार जल रही थी सो आपने हाथ का सहारा दे मुझे बचा लिया है ॥ 240 ॥ सीमंधर भगवान् ने जो कहा है वह वैसा ही है और मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे जोते रहते अवश्य ही पुत्र का दर्शन होगा ॥241 ॥ मैं अपना हृदय कठोर कर जिनेंद्र भगवान् के कहे अनुसार जीवित रहूँगी । अब आप इच्छानुसार जाइए और मुझे आपका दर्शन फिर भी प्राप्त हो इस बात का ध्यान रखिए ॥242 ॥ इस प्रकार नारद से निवेदन कर रुक्मिणी ने उन्हें प्रणाम किया और नारद आशीर्वाद देकर चले गये । तदनंतर रुक्मिणी शोक छोड़ श्रीकृष्ण की इच्छा को पूर्ण करती हुई पूर्व को भांति रहने लगी ॥ 243 ॥
इस सर्ग में कुमार प्रद्युम्न और शंब के पूर्व भवों का चरित लिखा गया है जिसमें उनके मनुष्य से देव, देव से मनुष्य, मनुष्य से देव, देव से मनुष्य, पुनः मनुष्य से देव और देव से मनुष्य तक का चरित बताया गया है तथा यह भी बताया गया है कि ये दोनों अंत में मोक्ष के अभ्युदय को प्राप्त करेंगे इसलिए जिनशासन में भक्ति रखने वाले भव्य जन इस चरित का अच्छी तरह आचरण करें ध्यान से इसे पढ़ें-सुनें ॥ 244॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में शंब और प्रद्युम्न का वर्णन करने वाला तैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥43॥