अनुमान: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
ShrutiJain (talk | contribs) No edit summary |
||
(8 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
==सिद्धांतकोष से == | |||
<span class="HindiText">यह परोक्ष प्रमाण का एक भेद है, जो जैन व जैनेतर सर्व दर्शनकारों को समान रूप से मान्य है। यह दो प्रकार का होता है - स्वार्थ व परार्थ। लिंग पर से लिंगो का ज्ञान हो जाना स्वार्थ अनुमान है, जैसे धुएँ को देखकर अग्नि का ज्ञान स्वतः हो जाता है; और हेतु, तर्क आदि-द्वारा पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पाँच अवयव होते हैं-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय व निगमन। इनका उचित रीति से प्रयोग करना `न्याय' माना गया है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।</span><br /> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>[[#1 | भेद व लक्षण]]</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[#1 | भेद व लक्षण]]</strong></li> | ||
Line 25: | Line 26: | ||
<li class="HindiText">[[ #2.4 | कार्यपर-से कारण का अनुमान किया जाता है]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.4 | कार्यपर-से कारण का अनुमान किया जाता है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.5 | स्थूलपर-से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है]]</li> | <li class="HindiText">[[ #2.5 | स्थूलपर-से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.6 | परंतु जीव | <li class="HindiText">[[ #2.6 | परंतु जीव अनुमान गम्य नहीं है]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<p class="HindiText">• अनुमान अपूर्वार्थग्राही होता है। - देखें [[ प्रमाण#2 | प्रमाण - 2]]</p> | <p class="HindiText">• अनुमान अपूर्वार्थग्राही होता है। - देखें [[ प्रमाण#2 | प्रमाण - 2]]</p> | ||
<p class="HindiText">• अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। - देखें [[ हेतु#2 | हेतु - 2]]</p> | <p class="HindiText">• अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। - देखें [[ हेतु#2 | हेतु - 2]]</p> | ||
<li class="HindiText"><strong>अनुमान के अवयव</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>[[#3 | अनुमान के अवयव]]</strong></li> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.1 | अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.1 | अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.2 | पाँचों अवयवों की | <li class="HindiText">[[ #3.2 | पाँचों अवयवों की प्रयोग विधि]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.3 | स्वार्थानुमान में दो ही अवयव होते हैं]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.3 | स्वार्थानुमान में दो ही अवयव होते हैं]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.4 | परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा में ही उपयोगी हैं, वाद में नहीं]]</li> | <li class="HindiText">[[ #3.4 | परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा में ही उपयोगी हैं, वाद में नहीं]]</li> | ||
Line 57: | Line 58: | ||
<span class="HindiText">= स्वार्थ का लक्षण पहिले कह दिया गया है ॥54॥ कि साधन से साध्य का विज्ञान होना अनुमान है ॥14॥</span><br /> | <span class="HindiText">= स्वार्थ का लक्षण पहिले कह दिया गया है ॥54॥ कि साधन से साध्य का विज्ञान होना अनुमान है ॥14॥</span><br /> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/2 </span><span class="SanskritText"> तत्रांयथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्। </span> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/2 </span><span class="SanskritText"> तत्रांयथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्। </span> | ||
<span class="HindiText">= अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण वाले हेतु को ग्रहण करने के संबंध के | <span class="HindiText">= अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण वाले हेतु को ग्रहण करने के संबंध के स्मरण पूर्वक साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहते हैं। </span> <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी श्लोक 20/256/13)</span><br /> | ||
<span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$28/75 में उद्धृत </span><span class="SanskritText">परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम्। यद्द्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमानं तदुच्यते॥ </span> | <span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$28/75 में उद्धृत </span><span class="SanskritText">परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम्। यद्द्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमानं तदुच्यते॥ </span> | ||
<span class="HindiText">= परोपदेश के अभाव में भी केवल साधनसे साध्य को जान जो ज्ञान देखने वाले को उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं।</span><br /> | <span class="HindiText">= परोपदेश के अभाव में भी केवल साधनसे साध्य को जान जो ज्ञान देखने वाले को उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं।</span><br /> | ||
Line 63: | Line 64: | ||
<span class="HindiText">= परोपदेश की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाण से जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्ति के स्मरण से युक्त, ऐसे धूम आदि हेतु से पर्वतादि धर्मों में उत्पन्न होनेवाले जो अग्नि आदि के साध्य का ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते हैं। </span> | <span class="HindiText">= परोपदेश की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाण से जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्ति के स्मरण से युक्त, ऐसे धूम आदि हेतु से पर्वतादि धर्मों में उत्पन्न होनेवाले जो अग्नि आदि के साध्य का ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते हैं। </span> | ||
<span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/17)।</span><br /> | <span class="GRef">( न्यायदीपिका अधिकार 3/17)।</span><br /> | ||
<span class="HindiText">और भी देखें [[ प्रमाण#1 | प्रमाण - 1]], (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है) | <span class="HindiText">और भी देखें [[ प्रमाण#1 | प्रमाण - 1]], (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है)</span></li> | ||
<li class="HindiText" id="1.5"><strong> परार्थानुमान का लक्षण</strong> <br /> | <li class="HindiText" id="1.5"><strong> परार्थानुमान का लक्षण</strong> <br /> | ||
Line 86: | Line 87: | ||
<li class="HindiText" id="1.8"><strong> शेषवत् अनुमान का लक्षण</strong> <br /> | <li class="HindiText" id="1.8"><strong> शेषवत् अनुमान का लक्षण</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/14</span><span class="SanskritText">येन पूर्वं विषाणविषाणिनोः संबंध उपलब्धः तस्य विषाणरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत्। </span> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/14</span><span class="SanskritText">येन पूर्वं विषाणविषाणिनोः संबंध उपलब्धः तस्य विषाणरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत्। </span> | ||
<span class="HindiText">= जिस व्यक्ति ने पहिले कभी सींग व | <span class="HindiText">= जिस व्यक्ति ने पहिले कभी सींग व सींग वाले के संबंध का ज्ञान कर लिया है, उस व्यक्ति को पीछे कभी भी सींग मात्र का दर्शन हो जाने पर सींग वाले का ज्ञान हो जाता है। अथवा उस पशु के एक अवयव को देखने पर भी शेष अनेक अवयवों सहित संपूर्ण पशु का ज्ञान हो जाता है, इसलिए वह शेषवत् अनुमान है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/भा./1-1/5/12/25 </span><span class="SanskritText"> शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते। पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ्रत्वं च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमीयते भूता वृष्टिरिति। </span> | <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/भा./1-1/5/12/25 </span><span class="SanskritText"> शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते। पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ्रत्वं च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमीयते भूता वृष्टिरिति। </span> | ||
<span class="HindiText">= कार्य से कारण का अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। जैसे नदी की बाढ़ को देखकर उससे पहिले हुई वर्षा का अनुमान होता है, क्योंकि नदी का चढ़ना वर्षा का कार्य है।</span></li> | <span class="HindiText">= कार्य से कारण का अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। जैसे नदी की बाढ़ को देखकर उससे पहिले हुई वर्षा का अनुमान होता है, क्योंकि नदी का चढ़ना वर्षा का कार्य है।</span></li> | ||
Line 93: | Line 94: | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/15</span><span class="SanskritText">देवदत्तस्य देशांतरप्राप्तिं गतिपूर्विकां दृष्ट्वा संबंध्यंतरे सवितरि देशांतरप्राप्तिदर्शनाद् गतेरत्यंतपरोक्षाया अनुमानं सामान्यतोदृष्टम्। </span> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/15</span><span class="SanskritText">देवदत्तस्य देशांतरप्राप्तिं गतिपूर्विकां दृष्ट्वा संबंध्यंतरे सवितरि देशांतरप्राप्तिदर्शनाद् गतेरत्यंतपरोक्षाया अनुमानं सामान्यतोदृष्टम्। </span> | ||
<span class="HindiText">= देवदत्त का देशांतर में पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य की देशांतर प्राप्ति पर से अत्यंत परोक्ष उसकी गति का अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है। </span><br /> | <span class="HindiText">= देवदत्त का देशांतर में पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य की देशांतर प्राप्ति पर से अत्यंत परोक्ष उसकी गति का अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> (न्यायदर्शन सूत्र/भा.1-1/5/12/26)।</span></li></ol> | <span class="GRef"> (न्यायदर्शन सूत्र/भा.1-1/5/12/26)।</span></li></ol></li> | ||
< | <li class="HindiText" id="2"><strong> अनुमान सामान्य निर्देश</strong> | ||
< | <ol> | ||
< | <li class="HindiText" id="2.1"><strong> अनुमान सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/16 </span><span class="SanskritText"> तदेतत्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपत्तिकाले अक्षरश्रुतम्।। </span> | ||
< | <span class="HindiText">= तीनों (पूर्ववत् शेषवत् व सामान्यतोदृष्ट) अनुमान स्वप्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत हैं और पर प्रतिपत्ति काल में अक्षर श्रुत हैं।</span><br /> | ||
< | <span class="GRef">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1-15/341/3 </span><span class="SanskritText"> धूमादिअत्थलिंगजं पुण अणुमाणं णाम। </span> | ||
< | <span class="HindiText">= धूमादि पदार्थ रूप लिंग से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है।</span></li> | ||
< | |||
< | <li class="HindiText" id="2.2"><strong> अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,1,6,6/151/1 </span><span class="SanskritText"> पवयणे अणुमाणस्स पमाणस्स पमाणत्ताभावत्तादो। </span><span class="HindiText">= प्रवचन (परमागम) में अनुमान प्रमाण के प्रमाणता नहीं मानी गयी है।</span> | ||
< | |||
< | <li class="HindiText" id="2.3"><strong> अनुमान ज्ञान परोक्ष प्रमाण है</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">सिद्धिविनिश्चय / मूल या टीका प्रस्ताव 6/11-12/389</span> | ||
< | <span class="SanskritText"> यथास्वं न चेद्बुद्धेः स्वसंविदन्यथा पुनः। स्वाकारविभ्रमात् सिध्येद् भ्रांतिरप्यनुमानधीः ॥11॥ स्वव्यक्तसंवृतात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम्। यदि हेतुफलात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम् न बुद्धेर्ग्राह्यग्राहकाकारौ भ्रांतावेव स्वयमेकांतहानेः ॥12॥ </span> | ||
< | <span class="HindiText">= यदि ज्ञान यथायोग्य अपने स्वरूप को नहीं जानता तो अपने स्वरूप में भी विभ्रम होने से स्वलक्षण बुद्धि भी भ्रांति रूप सिद्ध होगी। यदि कहोगे कि अनुमान से जानेंगे तो अनुमान बुद्धि भी तो भ्रांत है ॥11॥ यदि एक स्वलक्षण (बुद्धिवस्तु), सुव्यक्त (बोध स्वभाव प्रत्यक्ष) और संवृत (उससे विपरीत) रूपों में व्याप्त होता है, अर्थात् एक साथ व्यक्त और अव्यक्त स्वभाव रूप होता है तो उस स्वलक्षण के अपने कारण और कार्य में व्याप्त होने में क्या रुकावट हो सकती है? बुद्धि के ग्राह्य और ग्राहक आकार सर्वथा भ्रांत नहीं हैं ऐसा मानने से स्वयं बौद्ध के एकांत की हानि होती है ॥12॥</span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/वृ./6/9/387/21 </span><span class="SanskritText"> प्रमाणतः सिद्धाः, किमुच्यते व्यवहारिणेति। प्रमाणसिद्ध[त्योभ]योरपि अभ्युपगमार्हत्वातः अन्यथा त्परतः प्रामाणिकत्वाद्वो येन (परस्यापि न प्रामाणिकत्वम्)। व्यवहार्यभ्युपगमात् चेत्, अतएव प्रतिबंधांतरमस्तु। न च अप्रमाणाभ्युपगसिद्धेर्द्ववैस स (द्धेः अर्धवैशस्य) न्यायो न्यायानुसारिणां युक्तः। </span> | ||
< | <span class="HindiText">= यदि पूर्व और उत्तर क्षण में तदुत्पत्ति संबंध प्रमाण से सिद्ध है तो उसे व्यवहार सिद्ध क्यों कहते हो? जो प्रमाण सिद्ध है वह तो वादी और प्रतिवादी दोनों के ही स्वीकार करने योग्य है। अन्यथा यदि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है तो दूसरे को भी प्रामाणिकपना नहीं है। यदि व्यवहारी के द्वा्रा स्वीकृत होने से उसे स्वीकार करते हैं तो इसी से उन दोनों के बीच में अन्य प्रतिबंध मानना चाहिए। अप्रमाण भी हो और अभ्युगम (स्वीकृति) सिद्ध भी हो यह अर्ध वैशसन्याय न्यायानुसारियों के योग्य नहीं है।</span></li> | ||
< | |||
< | <li class="HindiText" id="2.4"><strong> कार्य पर से कारण का अनुमान किया जाता है</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">आप्तमीमांसा श्लोक 68/69 </span> | ||
< | <span class="SanskritText">कार्यलिंगं हि कारणम्। </span> | ||
< | <span class="HindiText">= कार्यलिंगतैं ही कारण का अनुमान करिये है।</span><br /> | ||
< | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 312</span> | ||
< | <span class="SanskritText"> अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमितिः क्वचित्। दर्शनान्नदपूरस्य देवो वृष्टो यथोपरि ॥312॥ </span> | ||
< | <span class="HindiText">= निश्चय से कार्य के अनुमान से कारण का अनुमान होता है। जैसे नदी में पूर आया देखने से यह अनुमान हो जाता है कि ऊपर कहीं वर्षा हुई है। </span> | ||
< | <span class="HindiText">([[अनुमान#1.8 | अनुमान - 1.8]])</span></li> | ||
< | |||
< | <li class="HindiText" id="2.5"><strong> स्थूल पर से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 33/4 </span> | ||
< | <span class="SanskritText">अलक्ष्य लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत्। सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥4॥ </span> | ||
< | <span class="HindiText">= तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्व को प्रगटतया चिंतवन करे कि-लक्ष्य के संबंध से तो अलक्ष्य को और स्थूल से सूक्ष्म पदार्थ को चिंतवन करै। इसी प्रकार किसी पदार्थ विशेष का अवलंबन लेकर निरालंब स्वरूप से तन्मय हो।</span></li> | ||
< | |||
< | <li class="HindiText" id="2.6"><strong> परंतु जीव अनुमानगम्य नहीं है</strong> <br /> | ||
< | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 172 </span> | ||
< | <span class="SanskritText">आत्मनो हि....अलिंगग्राह्यत्वम्....न लिंगादिंद्रियगम्याद् धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतींद्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य। </span> | ||
<span class="HindiText">= आत्मा के अलिंगग्राह्यत्व है। क्योंकि जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण होता है, उसी प्रकार इंद्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है।</span></li></ol><li> | |||
< | |||
<li class="HindiText" id="3"><strong> अनुमान के अवयव</strong> | |||
< | <ol> | ||
<li class="HindiText" id="3.1"><strong> अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश</strong> <br /> | |||
< | <span class="GRef">न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय 1-1/32</span><span class="SanskritText"> प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ॥32॥ </span> | ||
< | <span class="HindiText">= प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्य के पाँच अवयव हैं।</span></li> | ||
< | |||
<li class="HindiText" id="3.2"><strong> पाँचों अवयवों की प्रयोग विधि</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 3/65</span><span class="SanskritText"> परिणामी शब्दः कृतकत्वात्। य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी। यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बंध्यास्तनंधयः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी ॥65॥ </span> | |||
<span class="HindiText">= शब्द परिणाम स्वभावी है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वह कृतक है (हेतु)। जो-जो पदार्थ कृतक होता है वह-वह परिणामी देखा गया है, जैसे घट (अन्वय उदाहरण), जो परिणामी नहीं होता, वह कृतक भी नहीं होता जैसे बंध्यापुत्र (व्यतिरेकी उदाहरण)। यह शब्द कृतक है (उपनय) इसलिए परिणामी है (निगमन)।</span><br /> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/213</span> <span class="SanskritText"> अंतरिताः सूक्ष्मपदार्थाः, धर्मिणः कस्यापि पुरुष विशेषस्य प्रत्यक्षा भवंतीति साध्यो धर्म इति धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम्। कस्मादिति चेत्, अनुमानविषयत्वादिति हेतुवचनम्। किंवत्। यद्यदनुमानविषयं तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्षं भवति, यथाग्न्यादि, इत्यंवयदृष्टांतवचनम्। अनुमानेन विषयाश्चेति इत्युपनयवचनम्। तस्मात् कस्यापि प्रत्यक्षा भवंतीति निगमनवचनम्। इदानीं व्यतिरेकदृष्टांतः कथ्यते-यन्न कस्यापि प्रत्यक्षं तदनुमानविषयमपि न भवति यथा खपुष्पादि, इति व्यतिरेकदृष्टांतवचनम्। अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम्। तस्मात् प्रत्यक्षा भवंतीति पुनरपि निगमनवचनमिति। </span> | |||
<span class="HindiText">= अंतरित व सूक्ष्म पदार्थ रूप धर्मी किसी भी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष होते हैं। इस प्रकार साध्य धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्ष वचन अथवा प्रतिज्ञा है। क्योंकि वे अनुमान के विषय हैं, यह हेतु वचन है। किसकी भाँति? जो-जो अनुमान का विषय है वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे अग्नि आदि, यह अन्वय दृष्टांत का वचन है। और ये पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं, यह उपनय का वचन है। इसलिए किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, यह निगमन वाक्य है।<br /> | |||
<span class="HindiText">अब व्यतिरेक दृष्टांत कहते हैं - जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते, जैसे कि आकाश के पुष्प आदि, यह व्यतिरेकी दृष्टांत वचन है। और ये अनुमान के विषय हैं, यह पुनः उपनय का वचन है। इसीलिए किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं, यह पुनः निगमन वाक्य है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.3"><strong> स्वार्थानुमान में दो ही अवयव होते हैं</strong><br /> | |||
<span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$24-25/72</span><span class="SanskritText"> अस्य स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यंगानि-धर्मी, साध्यं, साधनं च....॥24॥ पक्षो हेतुरित्यंगद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात्। तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मीसाध्यसाधनभेदात्त्रीण्यंगानि पक्षसाधनभेदादंगद्वयं चेति सिद्धं, विवक्षाया वैचित्र्यात् ॥25॥ </span> | |||
<span class="HindiText">= इस स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं - धर्म, साध्य व साधन ॥24॥ अथवा पक्ष व हेतु इस प्रकार दो अंग भी स्वार्थानुमान के हैं, क्योंकि, साध्य धर्म से विशिष्ट होने के कारण साध्य व धर्मीं दोनों का पक्ष में अंतर्भाव हो जाता है और साधन व हेतु एकार्थ वाचक हैं। (यहाँ प्रतिज्ञा नामका कोई अंग नहीं होता, उसके स्थान पर पक्ष होता है)। इस प्रकार स्वार्थानुमानके धर्मी, साध्य व साधन के भेद से तीन अंग भी होते हैं और पक्ष व हेतु के भेदसे दो अंग भी होते हैं। ऐसा सिद्ध है। यहाँ केवल विवक्षा का ही भेद है ॥25॥</span></li> | |||
<li class="HindiText" id="3.4"><strong> परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा में ही उपयोगी हैं, वाद में नहीं</strong><br /> | |||
<span class="GRef">परीक्षामुख परिच्छेद 3/37,44,46</span><span class="SanskritText"> एतद्द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणम् ॥37॥ न च तदंगे ॥44॥....बालव्युत्पत्त्य तत्त्रयोगपमे शास्त्र एवासौ नवा दे, अनुपयोगात् ॥46॥ </span> | |||
<span class="HindiText">= पक्ष और हेतु ये दोनों ही अनुमान के अंग है, उदाहरण नहीं ॥37॥ न ही उपनय व निगमन अंग हैं ॥44॥ क्योंकि बाल व्युत्पत्ति के निमित्त इन तीनों का उपयोग शास्त्र में होता हैं, वाद में नहीं, क्योंकि वहाँ वे अनुपयोगी हैं ॥46॥</span><br /> | |||
<span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$31,34,36/76,81,82 </span><span class="SanskritText">परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य द्वाववयवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्च ॥31॥ प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमात्रै वोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात्। गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्तप्रसंगात् ॥34॥ वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वावयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पंचेति यथायोग्यं प्रयोगपरिपाटी।....तदेव प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् ॥36॥ </span> | |||
<span class="HindiText">= परार्थानुमान प्रयोजक वाक्य के दो अवयव होते हैं - प्रतिज्ञा व हेतु ॥31॥ प्रतिज्ञा व हेतु इन दो मात्र के प्रयोग से ही व्युत्पन्न जनों को उदाहरणादि के द्वारा प्रतिपाद्य व जाना जाने योग्य अर्थ का भी ज्ञान हो जाता है। जान लिये गये के प्रति भी इनको कहने से पुनरुक्ति का प्रसंग आता है ॥34॥ परंतु वीतराग कथा में प्रतिपाद्य अभिप्राय के अनुरोध से प्रतिज्ञा व हेतु ये दो अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण इस प्रकार तीन अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इस प्रकार चार भी हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इस प्रकार पाँच भी हैं। यथायोग्य परिपाटी के अनुसार ये सब ही विकल्प घटित हो जाते हैं। इस प्रकार प्रतिज्ञादि रूप परोपदेश से उत्पन्न होने के कारण वह परार्थानुमान है ॥36॥</span></li></ol></li></ol> | |||
Line 149: | Line 165: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: अ]] | [[Category: अ]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 14:37, 30 October 2022
सिद्धांतकोष से
यह परोक्ष प्रमाण का एक भेद है, जो जैन व जैनेतर सर्व दर्शनकारों को समान रूप से मान्य है। यह दो प्रकार का होता है - स्वार्थ व परार्थ। लिंग पर से लिंगो का ज्ञान हो जाना स्वार्थ अनुमान है, जैसे धुएँ को देखकर अग्नि का ज्ञान स्वतः हो जाता है; और हेतु, तर्क आदि-द्वारा पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पाँच अवयव होते हैं-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय व निगमन। इनका उचित रीति से प्रयोग करना `न्याय' माना गया है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
- भेद व लक्षण
- अनुमान सामान्य का लक्षण
- अनुमान सामान्य के भेद (स्वार्थ व परार्थ)
- स्वार्थानुमान के तीन भेद (पूर्ववत् आदि)
- स्वार्थानुमान का लक्षण
- परार्थानुमान का लक्षण
- अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानों के लक्षण
- पूर्ववत् अनुमान का लक्षण
- शेषवत् अनुमान का लक्षण
- सामान्यतोदृष्ट अनुमान का लक्षण
- अनुमान सामान्य निर्देश
- अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञान है
- अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं
- अनुमान ज्ञान परोक्ष प्रमाण है
- कार्यपर-से कारण का अनुमान किया जाता है
- स्थूलपर-से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है
- परंतु जीव अनुमान गम्य नहीं है
- अनुमान के अवयव
• अनुमान बाधित का लक्षण। - देखें बाधित
• अनुमान ज्ञान परोक्ष प्रमाण है। - देखें परोक्ष
• स्मृति आदि प्रमाणों के नाम निर्देश। - देखें परोक्ष
• स्मृति आदि की एकार्थता तथा इनका परस्पर में कार्य-कारण संबंध। - देखें मतिज्ञान - 3
• अनुमान अपूर्वार्थग्राही होता है। - देखें प्रमाण - 2
• अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। - देखें हेतु - 2
- भेद व लक्षण
- अनुमान सामान्य का लक्षण
न्यायबिंदु / मूल या टीका श्लोक 2,1/1 साधनात्साध्यज्ञानमनुमानम्। = साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है। ( परीक्षामुख परिच्छेद 3/14) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 267) ( न्यायदीपिका अधिकार 3/$17) (न्यायविनिश्चय/वृ./2,1/1/19) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 2/1-15/$309/341/3)। - अनुमान सामान्य के भेद (स्वार्थ व परार्थ)
परीक्षामुख परिच्छेद 3/52-53 तदनुमान द्वेधा ॥52॥ स्वार्थ परार्थभेदात् ॥53॥ = स्वार्थ व परार्थ के भेद से वह अनुमान दो प्रकार का है। ( स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/1) ( न्यायदीपिका अधिकार 3/$23)। - स्वार्थानुमान के तीन भेद (पूर्ववत् आदि)
न्या.मू./मू./1-1/5 अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च ॥5॥ = प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान तीन प्रकार का है - पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। (राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/11)। - स्वार्थानुमान का लक्षण
परीक्षामुख परिच्छेद 3/54,14 स्वार्थमुक्तलक्षणम् ॥54॥ साधनात्साध्यविज्ञामनुमानम् ॥14॥ = स्वार्थ का लक्षण पहिले कह दिया गया है ॥54॥ कि साधन से साध्य का विज्ञान होना अनुमान है ॥14॥
स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/2 तत्रांयथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्। = अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण वाले हेतु को ग्रहण करने के संबंध के स्मरण पूर्वक साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी श्लोक 20/256/13)
न्यायदीपिका अधिकार 3/$28/75 में उद्धृत परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम्। यद्द्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमानं तदुच्यते॥ = परोपदेश के अभाव में भी केवल साधनसे साध्य को जान जो ज्ञान देखने वाले को उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$23/71 परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तर्कानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताद्धूमादेः साधनादुत्पन्नपर्वतादौ धर्मिण्यग्न्यादे; साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानुमानमित्यर्थः। = परोपदेश की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाण से जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्ति के स्मरण से युक्त, ऐसे धूम आदि हेतु से पर्वतादि धर्मों में उत्पन्न होनेवाले जो अग्नि आदि के साध्य का ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते हैं। ( न्यायदीपिका अधिकार 3/17)।
और भी देखें प्रमाण - 1, (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है) - परार्थानुमान का लक्षण
परीक्षामुख परिच्छेद 3/55-56परार्थं तु तदर्थ परामर्शिवचनाज्जातम् ॥55॥ तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥56॥= स्वार्थानुमान के विषयभूत हेतु और साध्य को अवलंबन करने वाले वचनों से उत्पन्न हुए ज्ञान को परार्थानुमान कहते हैं ॥55॥ परार्थानुमान के प्रतिपादक वचन भी उस ज्ञान का कारण होने से उपचार से परार्थानुमान हैं, मुख्यरूप से नहीं ॥56॥ ( स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/322/3)।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$29 परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानम्। प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। यतः पर्वतोऽयमग्निमान् भवितुमर्हति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाक्यार्थं पर्यालोचयतः स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते।= परोपदेश से जो साधन से साध्य का ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। अर्थात् प्रतिज्ञा और हेतुरूप दूसरे का उपदेश सुनने वाले को जो साधन से साध्य का ज्ञान होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। जैसे कि इस पर्वत में अग्नि होनी चाहिए, क्योंकि यदि यहाँ पर अग्नि न होती तो धूम नहीं हो सकता था। इस प्रकार किसी के कहने पर सुनने वाले को उक्त वाक्य के अर्थ का विचार करते हुए और व्याप्ति का स्मरण होने से जो अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। और भी देखें प्रमाण - 1.3 (परार्थ प्रमाण वचनात्मक होता है)।
- अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानों के लक्षण
स्याद्वादमंजरी श्लोक 16/219/6यद्येन सह नियमेनोपलभ्यते तत् ततो न भिद्यते, यथा सच्चंद्रादसच्चंद्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थं इति व्यापकानुपलब्धिः। = जो जिसके साथ नियम से उपलब्ध होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे यथार्थ चंद्रमा भ्रांत चंद्रमा के साथ उपलब्ध होता है, अतएव भ्रांत चंद्रमा यथार्थ चंद्रमा से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान और पदार्थ एक साथ पाये जाते हैं, अतएव ज्ञान पदार्थ से भिन्न नहीं है। इस व्यापकानुपलब्धि अनुमान से ज्ञान और पदार्थ का अभेद सिद्ध होता है।
वैशेषिक सूत्रोपस्कार (चौखंबा काशी) /2,1/1 व्यतिरेकव्याप्तिकाल्लिंगाद् यदनुमानं क्रियते तद्व्यतिरेकिलिंगानुमानमुच्यते। साध्याभावे साधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेकव्याप्तिः। तथा च प्रकृते अनुमाने सर्वरूपसाध्याभावे निर्दोषत्वरूपसाधनाभावः प्रदर्शितः। = व्यतिरेक व्याप्ति वाले लिंग से जो अनुमान किया जाता है उसे व्यतिरेक लिंगानुमान कहते हैं। साध्य के अभाव में साधन का भी अभाव दिखलाना व्यतिरेक व्याप्ति है। प्रकृत में सर्वज्ञरूप साध्य के अभाव में निर्दोषत्व रूप साधना का भी अभाव दर्शाया गया है। अर्थात् यदि सर्वज्ञ नहीं है तो निर्दोषपना भी नहीं हो सकता। ऐसा अनुमान व्यतिरेकव्याप्ति अनुमान है। - पूर्ववत् अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/12तत्र येनाग्नेर्निःसरन् पूर्वं धूमो दृष्टः स प्रसिद्धाग्निघूमसंबंधाहितसंस्कारः पश्चाद्धूमदर्शनाद् `अस्त्यत्राग्निः' इति पूर्ववदग्निं गृह्णातीति पूर्वदनुमानम्। = जिसने अग्नि से निकलते हुए धूम को पहिले देखा है, वह व्यक्ति अग्नि और धूम के प्रसिद्ध संबंध विशेष को जानने के संस्कार से सहित है। वह व्यक्ति पीछे कभी धूम के दर्शन मात्र से `यहाँ अग्नि है' इस प्रकार पहिले की भाँति अग्नि को ग्रहण कर लेता है। ऐसा पूर्ववत् अनुमान है।
(न्यायदर्शन सूत्र/भा.1-1/5/13/1)
न्यायदर्शन सूत्र/1-1/5/12/24 पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरित। = जहाँ कारण से कार्य का अनुमान होता है उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं, जैसे बादलों के देखने से आगामी वृष्टि का अनुमान करना। - शेषवत् अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/14येन पूर्वं विषाणविषाणिनोः संबंध उपलब्धः तस्य विषाणरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत्। = जिस व्यक्ति ने पहिले कभी सींग व सींग वाले के संबंध का ज्ञान कर लिया है, उस व्यक्ति को पीछे कभी भी सींग मात्र का दर्शन हो जाने पर सींग वाले का ज्ञान हो जाता है। अथवा उस पशु के एक अवयव को देखने पर भी शेष अनेक अवयवों सहित संपूर्ण पशु का ज्ञान हो जाता है, इसलिए वह शेषवत् अनुमान है।
न्यायदर्शन सूत्र/भा./1-1/5/12/25 शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते। पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ्रत्वं च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमीयते भूता वृष्टिरिति। = कार्य से कारण का अनुमान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। जैसे नदी की बाढ़ को देखकर उससे पहिले हुई वर्षा का अनुमान होता है, क्योंकि नदी का चढ़ना वर्षा का कार्य है। - सामान्यतोदृष्ट अनुमान का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/15देवदत्तस्य देशांतरप्राप्तिं गतिपूर्विकां दृष्ट्वा संबंध्यंतरे सवितरि देशांतरप्राप्तिदर्शनाद् गतेरत्यंतपरोक्षाया अनुमानं सामान्यतोदृष्टम्। = देवदत्त का देशांतर में पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य की देशांतर प्राप्ति पर से अत्यंत परोक्ष उसकी गति का अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है।
(न्यायदर्शन सूत्र/भा.1-1/5/12/26)।
- अनुमान सामान्य का लक्षण
- अनुमान सामान्य निर्देश
- अनुमान सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/20,15/78/16 तदेतत्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुतं परप्रतिपत्तिकाले अक्षरश्रुतम्।। = तीनों (पूर्ववत् शेषवत् व सामान्यतोदृष्ट) अनुमान स्वप्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत हैं और पर प्रतिपत्ति काल में अक्षर श्रुत हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1-15/341/3 धूमादिअत्थलिंगजं पुण अणुमाणं णाम। = धूमादि पदार्थ रूप लिंग से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिंगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है। - अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं
धवला पुस्तक 6/1,1,6,6/151/1 पवयणे अणुमाणस्स पमाणस्स पमाणत्ताभावत्तादो। = प्रवचन (परमागम) में अनुमान प्रमाण के प्रमाणता नहीं मानी गयी है। - अनुमान ज्ञान परोक्ष प्रमाण है
सिद्धिविनिश्चय / मूल या टीका प्रस्ताव 6/11-12/389 यथास्वं न चेद्बुद्धेः स्वसंविदन्यथा पुनः। स्वाकारविभ्रमात् सिध्येद् भ्रांतिरप्यनुमानधीः ॥11॥ स्वव्यक्तसंवृतात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम्। यदि हेतुफलात्मानौ व्याप्नोत्येकं स्वलक्षणम् न बुद्धेर्ग्राह्यग्राहकाकारौ भ्रांतावेव स्वयमेकांतहानेः ॥12॥ = यदि ज्ञान यथायोग्य अपने स्वरूप को नहीं जानता तो अपने स्वरूप में भी विभ्रम होने से स्वलक्षण बुद्धि भी भ्रांति रूप सिद्ध होगी। यदि कहोगे कि अनुमान से जानेंगे तो अनुमान बुद्धि भी तो भ्रांत है ॥11॥ यदि एक स्वलक्षण (बुद्धिवस्तु), सुव्यक्त (बोध स्वभाव प्रत्यक्ष) और संवृत (उससे विपरीत) रूपों में व्याप्त होता है, अर्थात् एक साथ व्यक्त और अव्यक्त स्वभाव रूप होता है तो उस स्वलक्षण के अपने कारण और कार्य में व्याप्त होने में क्या रुकावट हो सकती है? बुद्धि के ग्राह्य और ग्राहक आकार सर्वथा भ्रांत नहीं हैं ऐसा मानने से स्वयं बौद्ध के एकांत की हानि होती है ॥12॥
सिद्धि विनिश्चय/वृ./6/9/387/21 प्रमाणतः सिद्धाः, किमुच्यते व्यवहारिणेति। प्रमाणसिद्ध[त्योभ]योरपि अभ्युपगमार्हत्वातः अन्यथा त्परतः प्रामाणिकत्वाद्वो येन (परस्यापि न प्रामाणिकत्वम्)। व्यवहार्यभ्युपगमात् चेत्, अतएव प्रतिबंधांतरमस्तु। न च अप्रमाणाभ्युपगसिद्धेर्द्ववैस स (द्धेः अर्धवैशस्य) न्यायो न्यायानुसारिणां युक्तः। = यदि पूर्व और उत्तर क्षण में तदुत्पत्ति संबंध प्रमाण से सिद्ध है तो उसे व्यवहार सिद्ध क्यों कहते हो? जो प्रमाण सिद्ध है वह तो वादी और प्रतिवादी दोनों के ही स्वीकार करने योग्य है। अन्यथा यदि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है तो दूसरे को भी प्रामाणिकपना नहीं है। यदि व्यवहारी के द्वा्रा स्वीकृत होने से उसे स्वीकार करते हैं तो इसी से उन दोनों के बीच में अन्य प्रतिबंध मानना चाहिए। अप्रमाण भी हो और अभ्युगम (स्वीकृति) सिद्ध भी हो यह अर्ध वैशसन्याय न्यायानुसारियों के योग्य नहीं है। - कार्य पर से कारण का अनुमान किया जाता है
आप्तमीमांसा श्लोक 68/69 कार्यलिंगं हि कारणम्। = कार्यलिंगतैं ही कारण का अनुमान करिये है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 312 अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमितिः क्वचित्। दर्शनान्नदपूरस्य देवो वृष्टो यथोपरि ॥312॥ = निश्चय से कार्य के अनुमान से कारण का अनुमान होता है। जैसे नदी में पूर आया देखने से यह अनुमान हो जाता है कि ऊपर कहीं वर्षा हुई है। ( अनुमान - 1.8) - स्थूल पर से सूक्ष्म का अनुमान किया जाता है
ज्ञानार्णव अधिकार 33/4 अलक्ष्य लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत्। सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥4॥ = तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्व को प्रगटतया चिंतवन करे कि-लक्ष्य के संबंध से तो अलक्ष्य को और स्थूल से सूक्ष्म पदार्थ को चिंतवन करै। इसी प्रकार किसी पदार्थ विशेष का अवलंबन लेकर निरालंब स्वरूप से तन्मय हो। - परंतु जीव अनुमानगम्य नहीं है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 172 आत्मनो हि....अलिंगग्राह्यत्वम्....न लिंगादिंद्रियगम्याद् धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतींद्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य। = आत्मा के अलिंगग्राह्यत्व है। क्योंकि जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण होता है, उसी प्रकार इंद्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है।
- अनुमान सामान्य का लक्षण
- अनुमान के अवयव
- अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय 1-1/32 प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ॥32॥ = प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्य के पाँच अवयव हैं। - पाँचों अवयवों की प्रयोग विधि
परीक्षामुख परिच्छेद 3/65 परिणामी शब्दः कृतकत्वात्। य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी। यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बंध्यास्तनंधयः। कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी ॥65॥ = शब्द परिणाम स्वभावी है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वह कृतक है (हेतु)। जो-जो पदार्थ कृतक होता है वह-वह परिणामी देखा गया है, जैसे घट (अन्वय उदाहरण), जो परिणामी नहीं होता, वह कृतक भी नहीं होता जैसे बंध्यापुत्र (व्यतिरेकी उदाहरण)। यह शब्द कृतक है (उपनय) इसलिए परिणामी है (निगमन)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/213 अंतरिताः सूक्ष्मपदार्थाः, धर्मिणः कस्यापि पुरुष विशेषस्य प्रत्यक्षा भवंतीति साध्यो धर्म इति धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम्। कस्मादिति चेत्, अनुमानविषयत्वादिति हेतुवचनम्। किंवत्। यद्यदनुमानविषयं तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्षं भवति, यथाग्न्यादि, इत्यंवयदृष्टांतवचनम्। अनुमानेन विषयाश्चेति इत्युपनयवचनम्। तस्मात् कस्यापि प्रत्यक्षा भवंतीति निगमनवचनम्। इदानीं व्यतिरेकदृष्टांतः कथ्यते-यन्न कस्यापि प्रत्यक्षं तदनुमानविषयमपि न भवति यथा खपुष्पादि, इति व्यतिरेकदृष्टांतवचनम्। अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम्। तस्मात् प्रत्यक्षा भवंतीति पुनरपि निगमनवचनमिति। = अंतरित व सूक्ष्म पदार्थ रूप धर्मी किसी भी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष होते हैं। इस प्रकार साध्य धर्मी और धर्म के समुदाय से पक्ष वचन अथवा प्रतिज्ञा है। क्योंकि वे अनुमान के विषय हैं, यह हेतु वचन है। किसकी भाँति? जो-जो अनुमान का विषय है वह-वह किसी के प्रत्यक्ष होता है, जैसे अग्नि आदि, यह अन्वय दृष्टांत का वचन है। और ये पदार्थ भी अनुमान के विषय हैं, यह उपनय का वचन है। इसलिए किसी के प्रत्यक्ष होते हैं, यह निगमन वाक्य है।
अब व्यतिरेक दृष्टांत कहते हैं - जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमान के विषय भी नहीं होते, जैसे कि आकाश के पुष्प आदि, यह व्यतिरेकी दृष्टांत वचन है। और ये अनुमान के विषय हैं, यह पुनः उपनय का वचन है। इसीलिए किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं, यह पुनः निगमन वाक्य है। - स्वार्थानुमान में दो ही अवयव होते हैं
न्यायदीपिका अधिकार 3/$24-25/72 अस्य स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यंगानि-धर्मी, साध्यं, साधनं च....॥24॥ पक्षो हेतुरित्यंगद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात्। तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मीसाध्यसाधनभेदात्त्रीण्यंगानि पक्षसाधनभेदादंगद्वयं चेति सिद्धं, विवक्षाया वैचित्र्यात् ॥25॥ = इस स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं - धर्म, साध्य व साधन ॥24॥ अथवा पक्ष व हेतु इस प्रकार दो अंग भी स्वार्थानुमान के हैं, क्योंकि, साध्य धर्म से विशिष्ट होने के कारण साध्य व धर्मीं दोनों का पक्ष में अंतर्भाव हो जाता है और साधन व हेतु एकार्थ वाचक हैं। (यहाँ प्रतिज्ञा नामका कोई अंग नहीं होता, उसके स्थान पर पक्ष होता है)। इस प्रकार स्वार्थानुमानके धर्मी, साध्य व साधन के भेद से तीन अंग भी होते हैं और पक्ष व हेतु के भेदसे दो अंग भी होते हैं। ऐसा सिद्ध है। यहाँ केवल विवक्षा का ही भेद है ॥25॥ - परार्थानुमान में भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा में ही उपयोगी हैं, वाद में नहीं
परीक्षामुख परिच्छेद 3/37,44,46 एतद्द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणम् ॥37॥ न च तदंगे ॥44॥....बालव्युत्पत्त्य तत्त्रयोगपमे शास्त्र एवासौ नवा दे, अनुपयोगात् ॥46॥ = पक्ष और हेतु ये दोनों ही अनुमान के अंग है, उदाहरण नहीं ॥37॥ न ही उपनय व निगमन अंग हैं ॥44॥ क्योंकि बाल व्युत्पत्ति के निमित्त इन तीनों का उपयोग शास्त्र में होता हैं, वाद में नहीं, क्योंकि वहाँ वे अनुपयोगी हैं ॥46॥
न्यायदीपिका अधिकार 3/$31,34,36/76,81,82 परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य द्वाववयवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्च ॥31॥ प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमात्रै वोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात्। गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्तप्रसंगात् ॥34॥ वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वावयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पंचेति यथायोग्यं प्रयोगपरिपाटी।....तदेव प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् ॥36॥ = परार्थानुमान प्रयोजक वाक्य के दो अवयव होते हैं - प्रतिज्ञा व हेतु ॥31॥ प्रतिज्ञा व हेतु इन दो मात्र के प्रयोग से ही व्युत्पन्न जनों को उदाहरणादि के द्वारा प्रतिपाद्य व जाना जाने योग्य अर्थ का भी ज्ञान हो जाता है। जान लिये गये के प्रति भी इनको कहने से पुनरुक्ति का प्रसंग आता है ॥34॥ परंतु वीतराग कथा में प्रतिपाद्य अभिप्राय के अनुरोध से प्रतिज्ञा व हेतु ये दो अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण इस प्रकार तीन अवयव भी हैं; प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इस प्रकार चार भी हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इस प्रकार पाँच भी हैं। यथायोग्य परिपाटी के अनुसार ये सब ही विकल्प घटित हो जाते हैं। इस प्रकार प्रतिज्ञादि रूप परोपदेश से उत्पन्न होने के कारण वह परार्थानुमान है ॥36॥
- अनुमान के पाँच अवयवों का नाम निर्देश