ज्ञानचेतना: Difference between revisions
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<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/गाथा </span><span class="SanskritGatha">ज्ञानी हि...ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।319। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भाव:।386। ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना।387।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी तो ज्ञान चेतनामय होने के कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबंध को तथा कर्मफल को मात्र जानता ही है।319। चारित्र स्वरूप होता हुआ (वह आत्मा) अपने को अर्थात् ज्ञानमात्र को चेतता है इसलिए स्वयं ही '''ज्ञानचेतना''' है। ज्ञान से अन्य (भावों में) ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञान चेतना है।</span><br> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196-197 </span><span class="SanskritGatha"> अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत: स्वयं। स चेत्यते अनया शुद्ध: शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अर्थाज्ज्ञानं गुण: सम्यक् प्राप्तावस्थांतरं यदा। आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना।197।</span> =<span class="HindiText">इस ज्ञान चेतना शब्द में ज्ञान शब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतना के द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह '''ज्ञान चेतना''' शुद्ध कहलाती है।196। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है।197।</span> | |||
<span class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ चेतना#1.4 |चेतना 1.4 ]]।</span> | |||
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समयसार / आत्मख्याति/गाथा ज्ञानी हि...ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।319। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भाव:।386। ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना।387। =ज्ञानी तो ज्ञान चेतनामय होने के कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबंध को तथा कर्मफल को मात्र जानता ही है।319। चारित्र स्वरूप होता हुआ (वह आत्मा) अपने को अर्थात् ज्ञानमात्र को चेतता है इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है। ज्ञान से अन्य (भावों में) ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञान चेतना है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/196-197 अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत: स्वयं। स चेत्यते अनया शुद्ध: शुद्धा सा ज्ञानचेतना।196। अर्थाज्ज्ञानं गुण: सम्यक् प्राप्तावस्थांतरं यदा। आत्मोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना।197। =इस ज्ञान चेतना शब्द में ज्ञान शब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतना के द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह ज्ञान चेतना शुद्ध कहलाती है।196। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है।197।
अधिक जानकारी के लिये देखें चेतना 1.4 ।