विजयार्ध: Difference between revisions
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<li> <span class="GRef"> राजवार्तिक/3/10/4/171/16 </span><span class="SanskritText">चक्रभृद्विजयार्धकरत्वाद्विजयार्ध इति गुणतः कृताभिधानो।</span> = <span class="HindiText">चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा इस पर्वत से | <li> <span class="GRef"> राजवार्तिक/3/10/4/171/16 </span><span class="SanskritText">चक्रभृद्विजयार्धकरत्वाद्विजयार्ध इति गुणतः कृताभिधानो।</span> = <span class="HindiText">चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा इस पर्वत से निर्धारित होती है, अतः इसे विजयार्ध कहते हैं। (विशेष देखें [[ लोक#3.5 | लोक - 3.5]])।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> विजयार्ध पर्वत का एक कूट व उसका स्वामी देव।–देखें [[ लोक#5.4 | लोक - 5.4]]। </span></li> | ||
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) राजा अर्ककीर्ति का हाथी । अर्ककीर्ति ने इसी पर सवार होकर जयकुमार को युद्ध से रोका था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 3.108-109 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) राजा अर्ककीर्ति का हाथी । अर्ककीर्ति ने इसी पर सवार होकर जयकुमार को युद्ध से रोका था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 3.108-109 </span></p> | ||
<p id="2">(2) इस नाम के पर्वत का निवासी इस नाम का एक देव । चक्रवर्ती भरतेश से पराजित होकर इसने भरतेश का तीर्थजल से अभिषेक किया था । <span class="GRef"> महापुराण 31.41-45, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.25 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) इस नाम के पर्वत का निवासी इस नाम का एक देव । चक्रवर्ती भरतेश से पराजित होकर इसने भरतेश का तीर्थजल से अभिषेक किया था । <span class="GRef"> महापुराण 31.41-45, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#25|हरिवंशपुराण - 5.25]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित एक रमणीय पर्वत । इसके दोनों अंतभाग पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों को छूते हैं । इस पर | <p id="3" class="HindiText">(3) भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित एक रमणीय पर्वत । इसके दोनों अंतभाग पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों को छूते हैं । इस पर विद्याधरों का निवास है । यह पृथिवी से पच्चीस योजन ऊँचा पचास योजन चौड़ा और सवा छ: योजन पृथिवी के नीचे गहरा है । इसका वर्ण चाँदी के समान है । पृथिवी से दस योजन ऊपर इस पर्वत की दो श्रेणियां है । वे पर्वत के ही समान लंबी तथा विद्याधरों के आवास से युक्त हैं । इसकी दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ नगर है । इसके दस योजन ऊपर आभियोग्य जाति के देवों के नगर हैं । इनके पाँच योजन ऊपर पूर्णभद्रश्रेणी में इस नाम के देव का निवास है । इस पर्वत पर नौ कूट हैं― 1. सिद्धायतन 2. दक्षिणार्धक 3. खंडकप्रपात 4. पूर्णभद्र 5. विजयार्धकुमार 6. मणिभद्र 7. तामिस्रगुहक 8. उत्तरार्ध और 9. वैश्रवणकूट । <br/><br/> | ||
<p id="4">(4) ऐरावत क्षेत्र के मध्य में स्थित एक पर्वत । इसके नौ कूट हैं― सिद्धायतनकूट, उत्तरार्द्धकूट, तामिस्रगुहकूट, मणिभद्रकूट, विजयार्धकुमारकूट, पूर्णभद्रकूट, खंडकप्रपातकूट, दक्षिणार्धकूट और वैश्रवणकूट । ये सब कूट भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर स्थित कूटों के तुल्य हैं । अन्य रचना भी भरतक्षेत्र के समान ही होती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5. 109-112 </span></p> | |||
इस पर्वत की उत्तरश्रेणी में निम्न साठ नगरियाँ है—1. आदित्यनगर 2. गगनवल्लभ 3. चमरचंपा 4. गगनमंडल 5. विजय 6. वैजयंत 7. शत्रुंजय 8. अरिंजय 9. पद्माल 10. केतुमाल 11. रुद्राश्व 12. धनंजय 13. वस्वौक 14. सारनिवह 15. जयंत 16. अपराजित 17. वराह 18. हस्तिन 19. सिंह 20. सौकर 21. हस्तिनायक 22. पांडुक 23. कौशिक 24. वीर 25. गौरिक 26. मानव 27. मनु 28. चंपा 29. कांचन 30. ऐशान 31. मणिवज्र 32. जयावह 33. नैमिष 34. हास्तिविजय 35. खंडिका 36. मणिकांचन 37. अशोक 38. वेणु 39. आनंद 40. नंदन 41. श्रीनिकेतन 42. अग्निज्वाल 43. महाज्वाल 44. माल्य 45. पुरु 46. नंदिनी 47. विद्युत्प्रभ 48. महेंद्र 49. विमल 50. गंधमादन 51. महापुर 52. पुष्पमाल 53. मेघमाल 54. शशिप्रभ 55. चूडामणि 56. पुष्पचूड 57. हंसगर्भ 58. वलाहक 59. वंशालय और 60. सौमनस । <br/><br/> | |||
दक्षिणश्रेणी के पचास नगर इस प्रकार हैं― 1. रथनूपुर 2. आनंद 3. चक्रवाल 4. अरिंजय 5. मंडित 6. बहुकेतु 7. शकटामुख 8. गंधसमृद्ध 9. शिवमंदिर 10. वैजयंत 11. रथपुर 12. श्रीपुर 13. रत्नसंचय 14. आषाढ़ 15. मानव 16. सूर्यपुर 17. स्वर्णनाभ 18. शतहृद 19. अंगावर्त 20. जलावर्त 21. आवर्तपुर 22. बृहद्गृह 23. शंखवज्र 24. नाभांत 25. मेघकूट 26. मणिप्रभ 27. कुंजरावर्त 28. असितपर्वत 29. सिंधुकक्ष 30. महाकक्ष 31. सुकक्ष 32. चंद्रपर्वत 33. श्रीकूट 34. गौरिकूट 35. लक्ष्मीकूट 36. धराधर 37. कालकेशपुर 38. रम्यपुर 39. हिमपुर 40. किन्नरोद्गीतनगर 41. नभस्तिलक 42. मगधासारनलका 43. पांशुमूल 44. दिव्यौषध 45. अर्कमूल 46. उदयपर्वत 47. अमृतधार 48. मातंगपुर 49. भूमिकुंडलकूट और 50. जंबूशंकुपुर । <br/><br/> | |||
जंबूद्वीप में बत्तीस विदेहों के बत्तीस तथा एक भरत और एक ऐरावत को मिलाकर ऐसे 34 पर्वत हैं । प्रत्येक में एक सौ दस विद्याघरों की नगरियाँ हैं । यहाँ का पृथिवीतल सदा भोगभूमि के समान सुशोभित रहता है । चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा का निर्धारण इस पर्वत के होने के कारण इसे इस नाम से संबोधित किया गया है । इस पर्वत का विद्याधरों से संसारी रहने तथा गंगा-सिंधु नदियों के नोचे होकर बहने से कुलाचलों का विजेता होना भी इसके नामकरण में एक कारण है । यह पर्वत, अचल, उत्तुंग, निर्मल, अविनाशी, अभेद्य, अलंघ्य तथा महोन्नत् है । पृथिवीतल से दस योजन ऊपर तीस योजन चौड़ा है । इसके दस योजन ऊपर अग्रभाग में यह मात्र दस योजन चौड़ा रह गया है । <br/> | |||
यहाँ किसी भी प्रकार का राजभय नहीं है । यहाँ अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियों भी नहीं होती । यहाँ के वन प्रदेशों में कोयलें कूकती हैं । भरतक्षेत्र के चौथे काल के आरंभ में मनुष्यों की जो स्थित होती है वही यहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति होती है और चतुर्थ काल की अंत की स्थिति यहाँ की जघन्य स्थित है । उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व तथा जघन्य आयु सौ वर्ष, उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा जघन्य ऊँचाई सात हाथ होती है । कर्मभूमि के समान ऋतुपरिवर्तन तथा आजीविका के षटकर्म यहाँ भी होते हैं । अंतर यही है कि यहाँ महाविद्याएँ इच्छानुसार फल दिया करती है । विद्याएँ यहाँ तीन प्रकार की होती हैं― कुल, जाति और तप से उत्पन्न । प्रथम विद्याएँ कुल परंपरा से प्राप्त होती है, जाति (मातृपक्षाश्रित) विद्याएँ आराधना करने से और तीसरी तपश्चरण से प्राप्त होती है । धान्य बिना बोये उत्पन्न होते हैं आर नदियाँ बालू रहित होती हैं । <span class="GRef"> महापुराण 18. 170-176, 208, 19.8-20, 32-52, 78-87, 107, 31. 43 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#38|पद्मपुराण - 3.38-41]], 318-338, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#20|हरिवंशपुराण - 5.20-28]], 85-101, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 15.4-6 </span></p> | |||
<p id="4" class="HindiText">(4) ऐरावत क्षेत्र के मध्य में स्थित एक पर्वत । इसके नौ कूट हैं― सिद्धायतनकूट, उत्तरार्द्धकूट, तामिस्रगुहकूट, मणिभद्रकूट, विजयार्धकुमारकूट, पूर्णभद्रकूट, खंडकप्रपातकूट, दक्षिणार्धकूट और वैश्रवणकूट । ये सब कूट भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर स्थित कूटों के तुल्य हैं । अन्य रचना भी भरतक्षेत्र के समान ही होती है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#109|हरिवंशपुराण - 5.109-112]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 17:55, 28 January 2024
सिद्धांतकोष से
- राजवार्तिक/3/10/4/171/16 चक्रभृद्विजयार्धकरत्वाद्विजयार्ध इति गुणतः कृताभिधानो। = चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा इस पर्वत से निर्धारित होती है, अतः इसे विजयार्ध कहते हैं। (विशेष देखें लोक - 3.5)।
- विजयार्ध पर्वत का एक कूट व उसका स्वामी देव।–देखें लोक - 5.4।
पुराणकोष से
(1) राजा अर्ककीर्ति का हाथी । अर्ककीर्ति ने इसी पर सवार होकर जयकुमार को युद्ध से रोका था । पांडवपुराण 3.108-109
(2) इस नाम के पर्वत का निवासी इस नाम का एक देव । चक्रवर्ती भरतेश से पराजित होकर इसने भरतेश का तीर्थजल से अभिषेक किया था । महापुराण 31.41-45, हरिवंशपुराण - 5.25
(3) भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित एक रमणीय पर्वत । इसके दोनों अंतभाग पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों को छूते हैं । इस पर विद्याधरों का निवास है । यह पृथिवी से पच्चीस योजन ऊँचा पचास योजन चौड़ा और सवा छ: योजन पृथिवी के नीचे गहरा है । इसका वर्ण चाँदी के समान है । पृथिवी से दस योजन ऊपर इस पर्वत की दो श्रेणियां है । वे पर्वत के ही समान लंबी तथा विद्याधरों के आवास से युक्त हैं । इसकी दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ नगर है । इसके दस योजन ऊपर आभियोग्य जाति के देवों के नगर हैं । इनके पाँच योजन ऊपर पूर्णभद्रश्रेणी में इस नाम के देव का निवास है । इस पर्वत पर नौ कूट हैं― 1. सिद्धायतन 2. दक्षिणार्धक 3. खंडकप्रपात 4. पूर्णभद्र 5. विजयार्धकुमार 6. मणिभद्र 7. तामिस्रगुहक 8. उत्तरार्ध और 9. वैश्रवणकूट ।
इस पर्वत की उत्तरश्रेणी में निम्न साठ नगरियाँ है—1. आदित्यनगर 2. गगनवल्लभ 3. चमरचंपा 4. गगनमंडल 5. विजय 6. वैजयंत 7. शत्रुंजय 8. अरिंजय 9. पद्माल 10. केतुमाल 11. रुद्राश्व 12. धनंजय 13. वस्वौक 14. सारनिवह 15. जयंत 16. अपराजित 17. वराह 18. हस्तिन 19. सिंह 20. सौकर 21. हस्तिनायक 22. पांडुक 23. कौशिक 24. वीर 25. गौरिक 26. मानव 27. मनु 28. चंपा 29. कांचन 30. ऐशान 31. मणिवज्र 32. जयावह 33. नैमिष 34. हास्तिविजय 35. खंडिका 36. मणिकांचन 37. अशोक 38. वेणु 39. आनंद 40. नंदन 41. श्रीनिकेतन 42. अग्निज्वाल 43. महाज्वाल 44. माल्य 45. पुरु 46. नंदिनी 47. विद्युत्प्रभ 48. महेंद्र 49. विमल 50. गंधमादन 51. महापुर 52. पुष्पमाल 53. मेघमाल 54. शशिप्रभ 55. चूडामणि 56. पुष्पचूड 57. हंसगर्भ 58. वलाहक 59. वंशालय और 60. सौमनस ।
दक्षिणश्रेणी के पचास नगर इस प्रकार हैं― 1. रथनूपुर 2. आनंद 3. चक्रवाल 4. अरिंजय 5. मंडित 6. बहुकेतु 7. शकटामुख 8. गंधसमृद्ध 9. शिवमंदिर 10. वैजयंत 11. रथपुर 12. श्रीपुर 13. रत्नसंचय 14. आषाढ़ 15. मानव 16. सूर्यपुर 17. स्वर्णनाभ 18. शतहृद 19. अंगावर्त 20. जलावर्त 21. आवर्तपुर 22. बृहद्गृह 23. शंखवज्र 24. नाभांत 25. मेघकूट 26. मणिप्रभ 27. कुंजरावर्त 28. असितपर्वत 29. सिंधुकक्ष 30. महाकक्ष 31. सुकक्ष 32. चंद्रपर्वत 33. श्रीकूट 34. गौरिकूट 35. लक्ष्मीकूट 36. धराधर 37. कालकेशपुर 38. रम्यपुर 39. हिमपुर 40. किन्नरोद्गीतनगर 41. नभस्तिलक 42. मगधासारनलका 43. पांशुमूल 44. दिव्यौषध 45. अर्कमूल 46. उदयपर्वत 47. अमृतधार 48. मातंगपुर 49. भूमिकुंडलकूट और 50. जंबूशंकुपुर ।
जंबूद्वीप में बत्तीस विदेहों के बत्तीस तथा एक भरत और एक ऐरावत को मिलाकर ऐसे 34 पर्वत हैं । प्रत्येक में एक सौ दस विद्याघरों की नगरियाँ हैं । यहाँ का पृथिवीतल सदा भोगभूमि के समान सुशोभित रहता है । चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा का निर्धारण इस पर्वत के होने के कारण इसे इस नाम से संबोधित किया गया है । इस पर्वत का विद्याधरों से संसारी रहने तथा गंगा-सिंधु नदियों के नोचे होकर बहने से कुलाचलों का विजेता होना भी इसके नामकरण में एक कारण है । यह पर्वत, अचल, उत्तुंग, निर्मल, अविनाशी, अभेद्य, अलंघ्य तथा महोन्नत् है । पृथिवीतल से दस योजन ऊपर तीस योजन चौड़ा है । इसके दस योजन ऊपर अग्रभाग में यह मात्र दस योजन चौड़ा रह गया है ।
यहाँ किसी भी प्रकार का राजभय नहीं है । यहाँ अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियों भी नहीं होती । यहाँ के वन प्रदेशों में कोयलें कूकती हैं । भरतक्षेत्र के चौथे काल के आरंभ में मनुष्यों की जो स्थित होती है वही यहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति होती है और चतुर्थ काल की अंत की स्थिति यहाँ की जघन्य स्थित है । उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व तथा जघन्य आयु सौ वर्ष, उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा जघन्य ऊँचाई सात हाथ होती है । कर्मभूमि के समान ऋतुपरिवर्तन तथा आजीविका के षटकर्म यहाँ भी होते हैं । अंतर यही है कि यहाँ महाविद्याएँ इच्छानुसार फल दिया करती है । विद्याएँ यहाँ तीन प्रकार की होती हैं― कुल, जाति और तप से उत्पन्न । प्रथम विद्याएँ कुल परंपरा से प्राप्त होती है, जाति (मातृपक्षाश्रित) विद्याएँ आराधना करने से और तीसरी तपश्चरण से प्राप्त होती है । धान्य बिना बोये उत्पन्न होते हैं आर नदियाँ बालू रहित होती हैं । महापुराण 18. 170-176, 208, 19.8-20, 32-52, 78-87, 107, 31. 43 पद्मपुराण - 3.38-41, 318-338, हरिवंशपुराण - 5.20-28, 85-101, पांडवपुराण 15.4-6
(4) ऐरावत क्षेत्र के मध्य में स्थित एक पर्वत । इसके नौ कूट हैं― सिद्धायतनकूट, उत्तरार्द्धकूट, तामिस्रगुहकूट, मणिभद्रकूट, विजयार्धकुमारकूट, पूर्णभद्रकूट, खंडकप्रपातकूट, दक्षिणार्धकूट और वैश्रवणकूट । ये सब कूट भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर स्थित कूटों के तुल्य हैं । अन्य रचना भी भरतक्षेत्र के समान ही होती है । हरिवंशपुराण - 5.109-112