ध्येय: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText">क्योंकि पदार्थों का चिन्तक ही जीवों के प्रशस्त या अप्रशस्त भावों का कारण है, इसलिए ध्यान के प्रकरण में यह विवेक रखना आवश्यक है, कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किये जाने योग्य हैं और कौन नहीं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> ध्येय सामान्य निर्देश</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> ध्येय का लक्षण<br /> | |||
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<li class="HindiText"> ध्येय का भेद<br /> | |||
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<li class="HindiText"> आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश।‒ देखें - [[ धर्मध्यान#1 | धर्मध्यान / १ ]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पाच धारणाओं का निर्देश।‒देखें - [[ पिण्डस्थध्यान | पिण्डस्थध्यान। ]]<br /> | |||
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<li class="HindiText"> आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप।‒दे०वह वह नाम।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> द्रव्यरूप ध्येय निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अनीहित वृत्ति से समस्त वस्तुए ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> सिद्धों का स्वरूप ध्येय है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अर्हन्तों का स्वरूप ध्येय है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> अर्हन्त का ध्यान पदस्थ पिण्डस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानों में होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> आचार्य उपाध्याय व साधु भी ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पंच परमेष्ठीरूप ध्येय की प्रधानता<br /> | |||
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<li class="HindiText"> पंच परमेष्ठी का स्वरूप।‒दे०वह वह नाम।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश</strong><br /> | |||
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<li class="HindiText"> निज शुद्धात्मा ध्येय है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> आत्मरूप ध्येय की प्रधानता।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> भावरूप ध्येय निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"> भावरूप ध्येय का लक्षण।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> सभी वस्तुओं के यथावस्थित गुण पर्याय ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> रत्नत्रय व वैराग्य की भावनाए ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li class="HindiText"> ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाए।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> ध्येय सामान्य निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1" id="1.1">ध्येय का लक्षण</strong></span><br /> | |||
चा.सा./१६७/२ <span class="SanskritText">ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारणं।</span>=<span class="HindiText">जो अशुभ तथा शुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.2" id="1.2">ध्येय के भेद</strong></span><br /> | |||
म.पु./२१/१११<span class="SanskritText"> श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा।</span>=<span class="HindiText">शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है।</span><br /> | |||
त.अनु./९८,९९,१३१ <span class="SanskritText">आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च। यथागममविक्षिप्तचेतसा चिन्तयेन्मुनि:।९८। नाम च स्थापना द्रव्यं भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येयमध्यात्मवेदिभि:।९९। एवं नामादिभेदेन ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् । अथवा द्रव्यभावाभ्यां द्विधैव तदवस्थितम् ।१३१।</span>=<span class="HindiText">मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और लोकसंस्थान का आगम के अनुसार चित्त की एकाग्रता के साथ चिन्तवन करे।९८। अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूप से ध्यान के योग्य माना गया है।९९। अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का ही अवस्थित है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश‒ देखें - [[ धर्मध्यान#1 | धर्मध्यान / १ ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश</strong><br /> | |||
त.अनु./१०० वाच्यस्य वाचकं नामं प्रतिमा स्थापना मता।=वाच्य का जो वाचक शब्द वह नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी है।<br /> | |||
और भी देखें - [[ पदस्थ ध्यान | पदस्थ ध्यान ]](नामरूप ध्येय अर्थात् अनेक प्रकार के मन्त्रों व स्वरव्यंजन आदि का ध्यान)।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"> पाच धारणाओं का निर्देश‒देखें - [[ पिण्डस्थ ध्यान | पिण्डस्थ ध्यान ]]</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप‒दे०वह वह नाम। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> द्रव्यरूप ध्येय निर्देश</strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है </strong></span><br>त.अनु./११०-११५ <span class="SanskritText">गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।१००। यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्नुनश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ।११०। अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्याया: प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले।११२। यद्विवृतं यथा पूर्वं यच्च पश्चाद्विवर्स्यति। विवर्तते यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ।११३। सहवृत्ता गुणास्तत्र पर्याया: क्रमवर्तिन:। स्यादेतदात्मकं द्रव्यभेते च स्युस्तदात्मका:।११४। एवंविधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्यनन्तं सर्वं ध्येयं यथा स्थितम् ।११५।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान् होता है।१००। जिस प्रकार एकद्रव्य एकसमय में उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते रहते हैं।११०। द्रव्य जो कि अनादि निधन है, उसमें प्रतिक्षण स्व पर्यायें जल में कल्लोलों की तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं।११२। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और यही सब उन सबरूप है।११३। द्रव्य में गुण सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं। द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और गुणपर्याय द्रव्यात्मक है।११४। इस प्रकार यह द्रव्य नाम की वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूप में ध्येय है।११५। (ज्ञा./३१/१७)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है </strong></span><br>ज्ञा./३१/१८<span class="SanskritText"> अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्षलाञ्छिता:। तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभि:।१८।</span>=<span class="HindiText">जो जीवादिक षट्द्रव्य चेतन अचेतन लक्षण से लक्षित हैं, अविरोधरूप से उन यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान् जनों द्वारा धर्मध्यान में ध्येय होता है। (ज्ञा.सा./१७); (त.अनु./१११,१३२)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="23" id="23"> सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं </strong></span><br>ध.१३/५,४,२६/३ <span class="PrakritText">जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झेयं होंति।=</span><span class="HindiText">जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। म.पु./२०/१०८ </span><span class="PrakritText">अहं ममास्रवो बन्ध: संवरो निर्जराक्षय:। कर्मणामिति तत्त्वार्था ध्येया: सप्त नवाथवा।१०८।</span>=<span class="HindiText">मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा कर्मों का क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार से सात तत्त्व या पुण्य पाप मिला देने से नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4" id="2.4">अनीहित वृत्ति से समस्त वस्तुए ध्येय हैं</strong> <br> ध.१३/५,४,२६/३२/७० आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स। जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ।=यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है, वह वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है।</span><br> | |||
म.पु./२१/१७ <span class="SanskritText">ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तत्त्वं यथास्थितम् । विनात्मात्मीयसङ्कल्पाद् औदासीन्ये निवेशितम् ।</span>=<span class="HindiText">जगत् के समस्त तत्त्व जो जिस रूप से अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपन का संकल्प न होने से जो उदासीनरूप से विद्यमान हैं वे सब ध्यान के आलम्बन हैं।१७।</span> (म.पु./२१/१९-२१); (द्र.सं./मू./५५); (त.अनु./१३८)। पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२५ में उद्धृत‒<span class="SanskritText">ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । </span>=<span class="HindiText">अपने-अपने स्वरूप में यथा स्थित वस्तु ध्येय है। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश</strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> सिद्ध का स्वरूप ध्येय है</strong> </span><br>ध.१३/५,४,२६/६९/४<span class="PrakritText"> को ज्झाइज्जइ। जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो...सव्वलक्खणसंपुण्णदंप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ।...सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ...ज्झेयं होंति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒ध्यान करने योग्य कौन है ? <strong>उत्तर</strong>‒जो वीतराग है, केवलज्ञान के द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित छह द्रव्यों को जान लिया है, नव केवललब्धि आदि अनन्त गुणों के साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देह को धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि सम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है...(तथा अन्य भी अनेकों) समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है, अतएव दर्पण में सक्रान्त हुई मनुष्य की छाया के समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभाव से परे हैं, अव्यक्त हैं, अक्षय हैं। (तथा सिद्धों के प्रसिद्ध आठ या बारह गुणों से समवेत है ( देखें - [[ मोक्ष#3 | मोक्ष / ३ ]])। जिन जीवों ने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापों का नाश करने वाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है। (म.पु./२१/१११-११९); (त.अनु./१२०-१२२)।</span><br>ज्ञा./३१/१७<span class="SanskritText"> शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।१७।</span>=<span class="HindiText">शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर सर्वज्ञदेव सकल अर्थात् शरीर सहित तो अर्हंत भगवान् है अर्थात् निष्कल सिद्ध भगवान् है। (त.अनु./११९)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.2" id="3.2">अर्हंत का स्वरूप ध्येय है</strong></span><br /> | |||
म.पु./२१/१२०-१३० <span class="SanskritText">अथवा स्नातकावस्थां प्राप्तो घातिव्यपायत:। जिनोऽर्हन् केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपु:।१२०।</span>=<span class="HindiText">घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से जो स्नातक अवस्था को प्राप्त हुए हैं, और जो तेजोमय परम औदारिक शरीर को धारण किये हुए हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हंत जिन ध्यान करने योग्य हैं।१२०। वे अर्हंत हैं, वे सिद्ध हैं, विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं।१२१-१२२। अनन्तचतुष्टय जिनको प्रगट हुआ है।१२३। समवशरण में विराजमान व अष्टप्रातिहार्यों युक्त हैं।१२४। शरीर सहित होते हुए भी ज्ञान से विश्वरूप हैं।१२५। विश्वव्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं।१२६। सुखमय, निर्भय, नि:स्पृह, निर्बाध, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, कर्मरहित।१२७-१२८। नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल।१२९। ऐसे लक्षणों से लक्षित, परमेष्ठी, परंतत्त्व, परंज्योति, व अक्षर स्वरूप अर्हंत भगवान् ध्येय हैं।१३०। (त.अनु./१२३-१२९)।</span><br /> | |||
ज्ञा./३१/१७ <span class="SanskritText">शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।</span>=<span class="HindiText">शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूपी आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर, सर्वज्ञ, देहसहित समस्त कल्याण के पूरक अर्हंतभगवान् ध्येय हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> अर्हंत का ध्यान पदस्थ पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानों में होता है</strong></span><br /> | |||
द्र.सं./टी./५० की पातनिका/२०९/८ <span class="SanskritText">पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति...।</span>=<span class="HindiText">पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीन ध्यानों के ध्येयभूत जो श्री अर्हंत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूप को दिखलाता हू।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं</strong></span><br /> | |||
त.अनु./१३०<span class="SanskritText"> सम्यग्ज्ञानादिसंपन्ना: प्राप्तसप्तमहर्द्धय:। यथोक्तलक्षणा ध्येया सूर्युपाध्यायसाधव:।१३०।</span>=<span class="HindiText">जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से सम्पन्न हैं, तथा जिन्हें सात महाऋद्धिया या लब्धिया प्राप्त हुई हैं, और जो यथोक्त लक्षण के धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यान के योग्य हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong> पंचपरमेष्ठीरूप ध्येय की प्रधानता</strong></span><br /> | |||
त.अनु./११९,१४० <span class="SanskritText">तत्रापि तत्त्वत: पञ्च ध्यातव्या: परमेष्ठिन:।११९। संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे। तत्सर्वं ध्यातमेव स्याद् ध्यातेषु परमेष्ठिसु।१४०।</span>=<span class="HindiText">आत्मा के ध्यान में भी वस्तुत: पंच परमेष्ठी ध्यान किये जाने के योग्य हैं।११९। जो कुछ यहा संक्षेपरूप से तथा परमागम में विस्ताररूप से कहा गया है वह सब परमेष्ठियों के ध्याये जाने पर ध्यात हो जाता है। अथवा पंचपरमेष्ठियों का ध्यान कर लिया जाने पर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व वस्तुओं का ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है।१४०।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> पंच परमेष्ठी का स्वरूप‒दे०वह वह नाम।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong> निज शुद्धात्मा ध्येय है</strong></span><br /> | |||
ति.प./९/४१ <span class="PrakritGatha">गय सित्थमूसगब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णियआदा ज्झायव्वो खयहिदो जीवघणदेसो।४१।</span>=<span class="HindiText">मोमरहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के आकार, रत्नत्रयादि गुणों युक्त, अनश्वर और जीवघनदेशरूप निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।४१।</span><br /> | |||
रा.वा./९/२७/७/६२५/३४ <span class="SanskritText">एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वार्थे चिन्तानियमो इत्यर्थ:/...।</span>=<span class="HindiText">एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु (आत्मा की निर्विकल्प अवस्था) में चित्तवृत्ति को केन्द्रित करना ध्यान है। (देखें - [[ परमाणु | परमाणु ]])</span><br /> | |||
/ > | म.पु./२१/१८,२२८ <span class="SanskritText">अथवा ध्येयमध्यात्मतत्त्वं मुक्तेतरात्मकम् । तत्तत्त्वचिन्तनं ध्यात: उपयोगस्य शुद्धये।१८। ध्येयं स्याद् परमं तत्त्वमवाङ्मानसगोचरम् ।२२८।</span>=<span class="HindiText">संसारी व मुक्त ऐसे दो भेदवाले आत्मतत्त्व का चिन्तवन ध्याता के उपयोग की विशुद्धि के लिए होता है।१८। मन वचन के अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है।२२८।</span><br /> | ||
ज्ञा./३१/२०-२१<span class="SanskritGatha"> अथ लोकत्रयीनाममूर्त्तं परमेश्वरम् । ध्यातुं प्रक्रमते साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ।२०। त्रिकालविषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्तिविवक्षया। सामान्येन नयेनैकं परमात्मानमामनेत् ।२१।</span>=<span class="HindiText">तीन लोक के नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशी का ही साक्षात् ध्यान करने का प्रारम्भ करे।२०। शक्ति और व्यक्ति की विवक्षा से तीन काल के गोचर साक्षात् सामान्य (द्रव्यार्थिक) नय से एक परमात्मा का ध्यान व अभ्यास करे।२१।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> शुद्धपारिणामिक भाव ध्येय है</strong></span><br /> | |||
नि.सा./ता.वृ./४१<span class="SanskritText"> पञ्चानां भावानां मध्ये...पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजननिजपरमपञ्चमभावभावनया पञ्चमगतिं मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति।</span>=<span class="HindiText">पाच भावों में से पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होने से मुक्ति के कारण नहीं है। निरुपाधि निजस्वरूप है, ऐसे निरंजन निज परमपंचमभाव की भावना से पंचमगति (मोक्ष) में मुमुक्षु जाते हैं जायेंगे और जाते थे।</span><br /> | |||
द्र.सं./टी./५७/२३६/८ <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभूते ध्यानभावनापर्याये ध्येयो भवति।</span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपरमपारिणामिकभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी ऐसा नहीं है। रागादि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान भावनापर्याय में वही मोक्ष (त्रिकाल निरुपाधि शुद्धात्मस्वरूप) ध्येय होता है। (द्र.सं./टी./१३/३९/१०)<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> आत्मा रूप ध्येय की प्रधानता</strong></span><br /> | |||
/ | त.अनु./११७-११८ <span class="SanskritText">पुरुष: पुद्गल: कालो धर्माधर्मौ तथाम्बरम् । षडविधं द्रव्यमाख्यातं तत्र ध्येयतम: पुमान् ।११७। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम: स्मृत:।११८।</span>=<span class="HindiText">पुरुष (जीव), पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसे छह भेदरूप द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदों में सबसे अधिक ध्यान के योग्य पुरुषरूप आत्मा है।११७। ज्ञाता के होने पर ही, ज्ञेय ध्येयता को प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है।११८। <br /> | ||
</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> भावरूप ध्येय निर्देश</strong><br /> | |||
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/ | <li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> भावरूप ध्येय का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
त.अनु./१००,१३२<span class="SanskritText"> भाव: स्याद्गुणपर्ययौ।१००। भावध्येयं पुनर्ध्येयसंनिभध्यानपर्यय:।१३२।</span>=<span class="HindiText">गुण व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है।१००। ध्येय के सदृश्य ध्यान की पर्याय भावध्येयरूप से परिगृहीत है।१३२।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> सभी द्रव्यों के यथावस्थित गुणपर्याय ध्येय हैं</strong></span><br /> | |||
ध.१३/५,४,२६/७० <span class="PrakritText">बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरियट्टाणि ट्ठिदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं पि ज्झेयं होदि त्ति दट्ठव्वं।</span>=<span class="HindiText">बारह अनुप्रेक्षाए, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाए, पाच परिवर्तन, स्थिति अनुभाग प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं।</span><br /> | |||
त.अनु./११६ <span class="SanskritText">अर्थव्यञ्जनपर्याया: मूर्तामूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ।११६।</span>= <span class="HindiText">जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्य में जैसे अवस्थित हैं, उनको वहा उसी रूप में ध्याता चिन्तन करे।<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> रत्नत्रय व वैराग्य की भावनाए ध्येय हैं</strong></span><br /> | |||
/ / | ध.१३/५,४,२६/६८ <span class="PrakritGatha">पुव्वकयब्भासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ।२३।</span>=<span class="HindiText">जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है। और वे भावनाए ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं। (म.पु./२१/९४-९५)<br /> | ||
<strong>नोट</strong>‒(सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र की भावनाए‒दे०वह वह नाम और वैराग्य भावनाए‒देखें - [[ अनुप्रेक्षा | अनुप्रेक्षा ]])<br /> | |||
</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाए</strong> </span><br /> | |||
/ | मो.पा./मू./८१ <span class="PrakritGatha">उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं।८१।</span>=<span class="HindiText">ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हू। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। (ति.प./९/३५)</span><br /> | ||
र.क.श्रा./१०४ <span class="SanskritGatha">अशरणमशुभअनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामयिके।१०४।</span>=<span class="HindiText">मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हू और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।</span><br /> | |||
इ.उ./२७ <span class="SanskritGatha">एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा।२७।</span>=<span class="HindiText">मैं एक हू, निर्मम हू, शुद्ध हू, ज्ञानी हू, ज्ञानी योगीन्द्रों के ज्ञान का विषय हू। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (सामायिक पाठ/अ./२६), (स.सा./ता.वृ./१८७/२५७/१४ पर उद्धृत)</span><br /> | |||
/ | ति.प./९/२४-६५ <span class="PrakritGatha">अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूवी णवि अत्थि मज्झि किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।२४। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठ्ठकम्मेहिं।२६। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं।२८। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं।३४। केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए णाणी।४६।</span>=<span class="HindiText">मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हू। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है।२४। मैं न परपदार्थों का हू, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हू।२६। न मैं देह हू, न मन हू, न वाणी हू और न उनका कारण ही हू।२८। (प्र.सा./१६०); (आराधनासार/१०१)। न मैं परपदार्थों का हू, और न परपदार्थ मेरे हैं। यहा मेरा कुछ भी नहीं है।३४। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हू, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।४६। (न.च.वृ./३९१-३९७,४०४-४०८); (सामायिक पाठ/अ./२४); (ज्ञा./१८/२९); (त.अनु./१४७-१५९)</span><br /> | ||
ज्ञा./३१/१-१६<span class="PrakritGatha"> स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यतुलबन्धनै:। बद्धो विडम्बित: कालमनन्तं जन्मदुर्गमे।२। परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वञ्चित:। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरन्तनीरसै:।८। मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन:। एतावानानयोर्भेद: शक्तिव्यक्तिस्वभावत:।१०। अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुष:। न देव: किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रम:।१२। अनन्तवीर्यविज्ञानदृगानन्दात्मकोऽप्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।१३।</span>=<span class="HindiText">मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनों से बधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडम्बनारूप होकर विपरीताचरण किया।२। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अन्त में नीरस ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ठगाया गया हू।८। अनन्त चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान है और अर्हंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।१०। न तो मैं नारकी हू, न तिर्यंच हू और न मनुष्य या देव ही हू किन्तु सिद्धस्वरूप हू। ये सब अवस्थाए तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।१२। मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व अनन्तआनन्दस्वरूप हू। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़ं।१३। </span><br>स.सा./ता.वृ./२८५/३६५/१३<span class="SanskritText"> बंधस्य विनाशार्थं विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्य:, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ-पञ्चेन्द्रियविषयव्यापार:, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहित:। शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायै: कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवा: इति निरन्तरं भावना कर्तव्या।</span>=<span class="HindiText">बन्ध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं‒मैं तो सहजज्ञानानन्दस्वभावी हू, निर्विकल्प तथा उदासीन हू। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतरागसहजानन्दरूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हू। भरितावस्था वत् परिपूर्ण हू। राग द्वेष मोह क्रोध मान माया व लोभ से तथा पंचेन्द्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हू। ख्याति पूजा लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हू। तिहुलोक तिहुकाल में मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से मैं शून्य हू। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिए। (स.सा./ता.वृ./परि.का अन्त)</span></li> | |||
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Revision as of 17:15, 25 December 2013
क्योंकि पदार्थों का चिन्तक ही जीवों के प्रशस्त या अप्रशस्त भावों का कारण है, इसलिए ध्यान के प्रकरण में यह विवेक रखना आवश्यक है, कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किये जाने योग्य हैं और कौन नहीं।
- ध्येय सामान्य निर्देश
- ध्येय का लक्षण
- ध्येय का भेद
- आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश।‒ देखें - धर्मध्यान / १ ।
- नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश।
- पाच धारणाओं का निर्देश।‒देखें - पिण्डस्थध्यान।
- आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप।‒दे०वह वह नाम।
- ध्येय का लक्षण
- द्रव्यरूप ध्येय निर्देश
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय हैं।
- चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है।
- सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं।
- अनीहित वृत्ति से समस्त वस्तुए ध्येय हैं।
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय हैं।
- पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश
- सिद्धों का स्वरूप ध्येय है।
- अर्हन्तों का स्वरूप ध्येय है।
- अर्हन्त का ध्यान पदस्थ पिण्डस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानों में होता है।
- आचार्य उपाध्याय व साधु भी ध्येय हैं।
- पंच परमेष्ठीरूप ध्येय की प्रधानता
- सिद्धों का स्वरूप ध्येय है।
- पंच परमेष्ठी का स्वरूप।‒दे०वह वह नाम।
- निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश
- निज शुद्धात्मा ध्येय है।
- शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय है।
- आत्मरूप ध्येय की प्रधानता।
- निज शुद्धात्मा ध्येय है।
- भावरूप ध्येय निर्देश
- भावरूप ध्येय का लक्षण।
- सभी वस्तुओं के यथावस्थित गुण पर्याय ध्येय हैं।
- रत्नत्रय व वैराग्य की भावनाए ध्येय हैं।
- ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाए।
- भावरूप ध्येय का लक्षण।
- ध्येय सामान्य निर्देश
- <a name="1.1" id="1.1">ध्येय का लक्षण
चा.सा./१६७/२ ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारणं।=जो अशुभ तथा शुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं।
- <a name="1.2" id="1.2">ध्येय के भेद
म.पु./२१/१११ श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा।=शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है।
त.अनु./९८,९९,१३१ आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च। यथागममविक्षिप्तचेतसा चिन्तयेन्मुनि:।९८। नाम च स्थापना द्रव्यं भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येयमध्यात्मवेदिभि:।९९। एवं नामादिभेदेन ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् । अथवा द्रव्यभावाभ्यां द्विधैव तदवस्थितम् ।१३१।=मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और लोकसंस्थान का आगम के अनुसार चित्त की एकाग्रता के साथ चिन्तवन करे।९८। अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूप से ध्यान के योग्य माना गया है।९९। अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का ही अवस्थित है।
- आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश‒ देखें - धर्मध्यान / १ ।
- नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश
त.अनु./१०० वाच्यस्य वाचकं नामं प्रतिमा स्थापना मता।=वाच्य का जो वाचक शब्द वह नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी है।
और भी देखें - पदस्थ ध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात् अनेक प्रकार के मन्त्रों व स्वरव्यंजन आदि का ध्यान)।
- पाच धारणाओं का निर्देश‒देखें - पिण्डस्थ ध्यान
- आग्नेयी आदि धारणाओं का स्वरूप‒दे०वह वह नाम।
- <a name="1.1" id="1.1">ध्येय का लक्षण
- द्रव्यरूप ध्येय निर्देश
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है
त.अनु./११०-११५ गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।१००। यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्नुनश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ।११०। अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्याया: प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले।११२। यद्विवृतं यथा पूर्वं यच्च पश्चाद्विवर्स्यति। विवर्तते यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ।११३। सहवृत्ता गुणास्तत्र पर्याया: क्रमवर्तिन:। स्यादेतदात्मकं द्रव्यभेते च स्युस्तदात्मका:।११४। एवंविधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्यनन्तं सर्वं ध्येयं यथा स्थितम् ।११५।=द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान् होता है।१००। जिस प्रकार एकद्रव्य एकसमय में उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते रहते हैं।११०। द्रव्य जो कि अनादि निधन है, उसमें प्रतिक्षण स्व पर्यायें जल में कल्लोलों की तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं।११२। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और यही सब उन सबरूप है।११३। द्रव्य में गुण सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं। द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और गुणपर्याय द्रव्यात्मक है।११४। इस प्रकार यह द्रव्य नाम की वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूप में ध्येय है।११५। (ज्ञा./३१/१७)। - चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है
ज्ञा./३१/१८ अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्षलाञ्छिता:। तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभि:।१८।=जो जीवादिक षट्द्रव्य चेतन अचेतन लक्षण से लक्षित हैं, अविरोधरूप से उन यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान् जनों द्वारा धर्मध्यान में ध्येय होता है। (ज्ञा.सा./१७); (त.अनु./१११,१३२)। - सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं
ध.१३/५,४,२६/३ जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झेयं होंति।=जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। म.पु./२०/१०८ अहं ममास्रवो बन्ध: संवरो निर्जराक्षय:। कर्मणामिति तत्त्वार्था ध्येया: सप्त नवाथवा।१०८।=मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा कर्मों का क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार से सात तत्त्व या पुण्य पाप मिला देने से नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है। - <a name="2.4" id="2.4">अनीहित वृत्ति से समस्त वस्तुए ध्येय हैं
ध.१३/५,४,२६/३२/७० आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स। जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ।=यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है, वह वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है।
म.पु./२१/१७ ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तत्त्वं यथास्थितम् । विनात्मात्मीयसङ्कल्पाद् औदासीन्ये निवेशितम् ।=जगत् के समस्त तत्त्व जो जिस रूप से अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपन का संकल्प न होने से जो उदासीनरूप से विद्यमान हैं वे सब ध्यान के आलम्बन हैं।१७। (म.पु./२१/१९-२१); (द्र.सं./मू./५५); (त.अनु./१३८)। पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२५ में उद्धृत‒ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । =अपने-अपने स्वरूप में यथा स्थित वस्तु ध्येय है।
- प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है
- पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश
- सिद्ध का स्वरूप ध्येय है
ध.१३/५,४,२६/६९/४ को ज्झाइज्जइ। जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो...सव्वलक्खणसंपुण्णदंप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ।...सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ...ज्झेयं होंति। =प्रश्न‒ध्यान करने योग्य कौन है ? उत्तर‒जो वीतराग है, केवलज्ञान के द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित छह द्रव्यों को जान लिया है, नव केवललब्धि आदि अनन्त गुणों के साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देह को धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि सम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है...(तथा अन्य भी अनेकों) समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है, अतएव दर्पण में सक्रान्त हुई मनुष्य की छाया के समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभाव से परे हैं, अव्यक्त हैं, अक्षय हैं। (तथा सिद्धों के प्रसिद्ध आठ या बारह गुणों से समवेत है ( देखें - मोक्ष / ३ )। जिन जीवों ने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापों का नाश करने वाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है। (म.पु./२१/१११-११९); (त.अनु./१२०-१२२)।
ज्ञा./३१/१७ शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।१७।=शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर सर्वज्ञदेव सकल अर्थात् शरीर सहित तो अर्हंत भगवान् है अर्थात् निष्कल सिद्ध भगवान् है। (त.अनु./११९)
- <a name="3.2" id="3.2">अर्हंत का स्वरूप ध्येय है
म.पु./२१/१२०-१३० अथवा स्नातकावस्थां प्राप्तो घातिव्यपायत:। जिनोऽर्हन् केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपु:।१२०।=घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से जो स्नातक अवस्था को प्राप्त हुए हैं, और जो तेजोमय परम औदारिक शरीर को धारण किये हुए हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हंत जिन ध्यान करने योग्य हैं।१२०। वे अर्हंत हैं, वे सिद्ध हैं, विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं।१२१-१२२। अनन्तचतुष्टय जिनको प्रगट हुआ है।१२३। समवशरण में विराजमान व अष्टप्रातिहार्यों युक्त हैं।१२४। शरीर सहित होते हुए भी ज्ञान से विश्वरूप हैं।१२५। विश्वव्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं।१२६। सुखमय, निर्भय, नि:स्पृह, निर्बाध, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, कर्मरहित।१२७-१२८। नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल।१२९। ऐसे लक्षणों से लक्षित, परमेष्ठी, परंतत्त्व, परंज्योति, व अक्षर स्वरूप अर्हंत भगवान् ध्येय हैं।१३०। (त.अनु./१२३-१२९)।
ज्ञा./३१/१७ शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर:। सर्वज्ञ: सकल: शिव: स भगवान्सिद्ध: परो निष्कल:।=शुद्धध्यान से नष्ट हुआ है कर्मरूपी आवरण जिनका ऐसे मुक्ति के वर, सर्वज्ञ, देहसहित समस्त कल्याण के पूरक अर्हंतभगवान् ध्येय हैं।
- अर्हंत का ध्यान पदस्थ पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानों में होता है
द्र.सं./टी./५० की पातनिका/२०९/८ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति...।=पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीन ध्यानों के ध्येयभूत जो श्री अर्हंत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूप को दिखलाता हू।
- आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं
त.अनु./१३० सम्यग्ज्ञानादिसंपन्ना: प्राप्तसप्तमहर्द्धय:। यथोक्तलक्षणा ध्येया सूर्युपाध्यायसाधव:।१३०।=जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से सम्पन्न हैं, तथा जिन्हें सात महाऋद्धिया या लब्धिया प्राप्त हुई हैं, और जो यथोक्त लक्षण के धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यान के योग्य हैं।
- पंचपरमेष्ठीरूप ध्येय की प्रधानता
त.अनु./११९,१४० तत्रापि तत्त्वत: पञ्च ध्यातव्या: परमेष्ठिन:।११९। संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे। तत्सर्वं ध्यातमेव स्याद् ध्यातेषु परमेष्ठिसु।१४०।=आत्मा के ध्यान में भी वस्तुत: पंच परमेष्ठी ध्यान किये जाने के योग्य हैं।११९। जो कुछ यहा संक्षेपरूप से तथा परमागम में विस्ताररूप से कहा गया है वह सब परमेष्ठियों के ध्याये जाने पर ध्यात हो जाता है। अथवा पंचपरमेष्ठियों का ध्यान कर लिया जाने पर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व वस्तुओं का ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है।१४०।
- सिद्ध का स्वरूप ध्येय है
- पंच परमेष्ठी का स्वरूप‒दे०वह वह नाम।
- निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश
- निज शुद्धात्मा ध्येय है
ति.प./९/४१ गय सित्थमूसगब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णियआदा ज्झायव्वो खयहिदो जीवघणदेसो।४१।=मोमरहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के आकार, रत्नत्रयादि गुणों युक्त, अनश्वर और जीवघनदेशरूप निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।४१।
रा.वा./९/२७/७/६२५/३४ एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वार्थे चिन्तानियमो इत्यर्थ:/...।=एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु (आत्मा की निर्विकल्प अवस्था) में चित्तवृत्ति को केन्द्रित करना ध्यान है। (देखें - परमाणु )
म.पु./२१/१८,२२८ अथवा ध्येयमध्यात्मतत्त्वं मुक्तेतरात्मकम् । तत्तत्त्वचिन्तनं ध्यात: उपयोगस्य शुद्धये।१८। ध्येयं स्याद् परमं तत्त्वमवाङ्मानसगोचरम् ।२२८।=संसारी व मुक्त ऐसे दो भेदवाले आत्मतत्त्व का चिन्तवन ध्याता के उपयोग की विशुद्धि के लिए होता है।१८। मन वचन के अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है।२२८।
ज्ञा./३१/२०-२१ अथ लोकत्रयीनाममूर्त्तं परमेश्वरम् । ध्यातुं प्रक्रमते साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ।२०। त्रिकालविषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्तिविवक्षया। सामान्येन नयेनैकं परमात्मानमामनेत् ।२१।=तीन लोक के नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशी का ही साक्षात् ध्यान करने का प्रारम्भ करे।२०। शक्ति और व्यक्ति की विवक्षा से तीन काल के गोचर साक्षात् सामान्य (द्रव्यार्थिक) नय से एक परमात्मा का ध्यान व अभ्यास करे।२१।
- शुद्धपारिणामिक भाव ध्येय है
नि.सा./ता.वृ./४१ पञ्चानां भावानां मध्ये...पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजननिजपरमपञ्चमभावभावनया पञ्चमगतिं मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति।=पाच भावों में से पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होने से मुक्ति के कारण नहीं है। निरुपाधि निजस्वरूप है, ऐसे निरंजन निज परमपंचमभाव की भावना से पंचमगति (मोक्ष) में मुमुक्षु जाते हैं जायेंगे और जाते थे।
द्र.सं./टी./५७/२३६/८ यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभूते ध्यानभावनापर्याये ध्येयो भवति।=जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपरमपारिणामिकभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी ऐसा नहीं है। रागादि विकल्पों से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान भावनापर्याय में वही मोक्ष (त्रिकाल निरुपाधि शुद्धात्मस्वरूप) ध्येय होता है। (द्र.सं./टी./१३/३९/१०)
- आत्मा रूप ध्येय की प्रधानता
त.अनु./११७-११८ पुरुष: पुद्गल: कालो धर्माधर्मौ तथाम्बरम् । षडविधं द्रव्यमाख्यातं तत्र ध्येयतम: पुमान् ।११७। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम: स्मृत:।११८।=पुरुष (जीव), पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसे छह भेदरूप द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदों में सबसे अधिक ध्यान के योग्य पुरुषरूप आत्मा है।११७। ज्ञाता के होने पर ही, ज्ञेय ध्येयता को प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है।११८।
- निज शुद्धात्मा ध्येय है
- भावरूप ध्येय निर्देश
- भावरूप ध्येय का लक्षण
त.अनु./१००,१३२ भाव: स्याद्गुणपर्ययौ।१००। भावध्येयं पुनर्ध्येयसंनिभध्यानपर्यय:।१३२।=गुण व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है।१००। ध्येय के सदृश्य ध्यान की पर्याय भावध्येयरूप से परिगृहीत है।१३२।
- सभी द्रव्यों के यथावस्थित गुणपर्याय ध्येय हैं
ध.१३/५,४,२६/७० बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरियट्टाणि ट्ठिदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं पि ज्झेयं होदि त्ति दट्ठव्वं।=बारह अनुप्रेक्षाए, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाए, पाच परिवर्तन, स्थिति अनुभाग प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं।
त.अनु./११६ अर्थव्यञ्जनपर्याया: मूर्तामूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ।११६।= जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्य में जैसे अवस्थित हैं, उनको वहा उसी रूप में ध्याता चिन्तन करे।
- रत्नत्रय व वैराग्य की भावनाए ध्येय हैं
ध.१३/५,४,२६/६८ पुव्वकयब्भासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ।२३।=जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है। और वे भावनाए ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं। (म.पु./२१/९४-९५)
नोट‒(सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र की भावनाए‒दे०वह वह नाम और वैराग्य भावनाए‒देखें - अनुप्रेक्षा )
- ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाए
मो.पा./मू./८१ उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं।८१।=ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हू। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। (ति.प./९/३५)
र.क.श्रा./१०४ अशरणमशुभअनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायं तु सामयिके।१०४।=मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हू और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।
इ.उ./२७ एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा।२७।=मैं एक हू, निर्मम हू, शुद्ध हू, ज्ञानी हू, ज्ञानी योगीन्द्रों के ज्ञान का विषय हू। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (सामायिक पाठ/अ./२६), (स.सा./ता.वृ./१८७/२५७/१४ पर उद्धृत)
ति.प./९/२४-६५ अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूवी णवि अत्थि मज्झि किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।२४। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठ्ठकम्मेहिं।२६। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। एवं खलु जो भाओ सो पावइ सासयं ठाणं।२८। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि। एवं खलु जो भावइ सो पावइ सव्वकल्लाणं।३४। केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए णाणी।४६।=मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हू। मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है।२४। मैं न परपदार्थों का हू, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हू।२६। न मैं देह हू, न मन हू, न वाणी हू और न उनका कारण ही हू।२८। (प्र.सा./१६०); (आराधनासार/१०१)। न मैं परपदार्थों का हू, और न परपदार्थ मेरे हैं। यहा मेरा कुछ भी नहीं है।३४। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हू, इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिए।४६। (न.च.वृ./३९१-३९७,४०४-४०८); (सामायिक पाठ/अ./२४); (ज्ञा./१८/२९); (त.अनु./१४७-१५९)
ज्ञा./३१/१-१६ स्वविभ्रमसमुद्भूतै रागाद्यतुलबन्धनै:। बद्धो विडम्बित: कालमनन्तं जन्मदुर्गमे।२। परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वञ्चित:। आपातमात्ररम्यैस्तैर्विषयैरन्तनीरसै:।८। मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिन:। एतावानानयोर्भेद: शक्तिव्यक्तिस्वभावत:।१०। अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुष:। न देव: किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रम:।१२। अनन्तवीर्यविज्ञानदृगानन्दात्मकोऽप्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ।१३।=मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनों से बधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडम्बनारूप होकर विपरीताचरण किया।२। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखने मात्र को रमणीक और अन्त में नीरस ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ठगाया गया हू।८। अनन्त चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान है और अर्हंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है।१०। न तो मैं नारकी हू, न तिर्यंच हू और न मनुष्य या देव ही हू किन्तु सिद्धस्वरूप हू। ये सब अवस्थाए तो कर्मविपाक से उत्पन्न हुई हैं।१२। मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व अनन्तआनन्दस्वरूप हू। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्मशत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़ं।१३।
स.सा./ता.वृ./२८५/३६५/१३ बंधस्य विनाशार्थं विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्य:, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ-पञ्चेन्द्रियविषयव्यापार:, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्वविभावपरिणामरहित:। शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायै: कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवा: इति निरन्तरं भावना कर्तव्या।=बन्ध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं‒मैं तो सहजज्ञानानन्दस्वभावी हू, निर्विकल्प तथा उदासीन हू। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतरागसहजानन्दरूप सुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हू। भरितावस्था वत् परिपूर्ण हू। राग द्वेष मोह क्रोध मान माया व लोभ से तथा पंचेन्द्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हू। ख्याति पूजा लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हू। तिहुलोक तिहुकाल में मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय से मैं शून्य हू। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिए। (स.सा./ता.वृ./परि.का अन्त)
- भावरूप ध्येय का लक्षण