श्रावक: Difference between revisions
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<li>सावद्य होते भी पूजा व मंदिर आदि निर्माण की आज्ञा - देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]।</li> | <li>सावद्य होते भी पूजा व मंदिर आदि निर्माण की आज्ञा - देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]।</li> | ||
<li>श्रावकों को सल्लेखना धारने संबंधी - देखें [[ सल्लेखना#1 | सल्लेखना - 1]]व 3।</li> | <li>श्रावकों को सल्लेखना धारने संबंधी - देखें [[ सल्लेखना#1 | सल्लेखना - 1]]व 3।</li> | ||
<li>अणुव्रतों में भी कथंचित् महाव्रतत्व - देखें [[ व्रत#3 | व्रत - 3]]।</li> | <li>अणुव्रतों में भी कथंचित् महाव्रतत्व - देखें [[ व्रत#3.8 | व्रत - 3.8]]।</li> | ||
<li>सामायिक के समय श्रावक भी साधु - देखें [[ सामायिक#3 | सामायिक - 3]]।</li> | <li>सामायिक के समय श्रावक भी साधु - देखें [[ सामायिक#3 | सामायिक - 3]]।</li> | ||
<li>साधु व श्रावक के धर्म में अंतर - देखें [[ धर्म#6 | धर्म - 6]]।</li> | <li>साधु व श्रावक के धर्म में अंतर - देखें [[ धर्म#6 | धर्म - 6]]।</li> |
Revision as of 21:03, 10 November 2022
सिद्धांतकोष से
विवेकवान विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं - पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक। निज धर्म का पक्ष मात्र करने वाला पाक्षिक है और व्रतधारी नैष्ठिक। इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर 11 श्रेणियाँ हैं। जिन्हें 11 प्रतिमाएँ कहते हैं। शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा में क्रमपूर्वक उठता चला जाता है। अंतिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित् न्यून रहता है। गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है।
- भेद व लक्षण
- पृथक्-पृथक् 11 प्रतिमाएँ। - देखें दर्शन_प्रतिमा ; व्रत_प्रतिमा ; सामायिक ; प्रोषधोपवास ; सचित्तत्यागप्रतिमा ; रात्रिमृत्तित्याग ; ब्रह्मचर्य ; आरंभ_त्याग_प्रतिमा ; परिग्रह_त्याग_व्रत_व_प्रतिमा ; अनुमतित्यागप्रतिमा ; उदिष्ट त्याग प्रतिमा ।
- श्रावक सामान्य निर्देश
- गृहस्थ धर्म की प्रधानता।
- श्रावक धर्म के योग्य पात्र।
- विवकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं।
- श्रावक को भव धारण की सीमा।
- श्रावक के मोक्ष निषेध का कारण।
- श्रावक के पढ़ने न पढ़ने योग्य शास्त्र। - देखें श्रोता 6 ।
- श्रावक में विनय व नमस्कार योग्य व्यवहार। - देखें विनय - 3।
- सम्यग्दृष्टि भी श्रावक पूज्य नहीं - देखें विनय - 4.9।
- गृहस्थाचार्य - देखें आचार्य - 2।
- श्रावक ही वास्तव में ब्राह्मण है - देखें ब्राह्मण 4 ।
- श्रावक को गुरु संज्ञा नहीं - देखें गुरु - 1.3।
- प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में श्रावकों का प्रमाण - देखें तीर्थंकर - 5.3.6।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
- संयतासंयत गुणस्थान - देखें संयतासंयत ।
- सम्यग्दृष्टि श्रावक मिथ्यादृष्टि साधु से ऊँचा है - देखें साधु - 4।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के व्यवहार धर्म में अंतर - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- क्षुल्लका - देखें क्षुल्लक ।
- ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर व्रतों की तरतमता।
- पाक्षिक श्रावक सर्वथा अविरति नहीं।
- पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या।
- पाँचों व्रतों के एक देश पालन करने से व्रती होता है।
- पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक में अंतर।
- श्रावक के योग्य लिंग - देखें लिंग - 1।
- श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
- अष्ट मूलगुण विशेष व उनके अतिचार - देखें मद्य ; मांस ; मधु ; अहिंसाणुव्रत ; सत्याणुव्रत , अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्य , परिग्रहपरिमाणुव्रत ।
- श्रावक के 12 व्रत। - देखें व्रत - 1.3।
- अष्ट मूलगुण व्रती व अव्रती दोनों को होते हैं।
- मूलगुण साधु को पूर्ण व श्रावक को एक देश होते हैं।
- श्रावक के अनेकों उत्तरगुण
- श्रावक के दो कर्तव्य।
- श्रावके के 4 कर्तव्य।
- श्रावक के 5 कर्तव्य।
- श्रावक के 6 कर्तव्य।
- श्रावक को 53 क्रियाएँ।
- श्रावक की 25 क्रियाएँ। - देखें क्रिया 3 ।
- गर्भान्वय आदि 10 या 53 क्रियाएँ - देखें संस्कार - 2।
- श्रावक के अन्य कर्तव्य।
- श्रावक की स्नान विधि - देखें स्नान -4 ।
- दान देना ही गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें दान - 3।
- वैयावृत्य करना गृहस्थ का प्रधान धर्म है - देखें वैयावृत्त्य 8।
- सावद्य होते भी पूजा व मंदिर आदि निर्माण की आज्ञा - देखें धर्म - 5.2।
- श्रावकों को सल्लेखना धारने संबंधी - देखें सल्लेखना - 1व 3।
- अणुव्रतों में भी कथंचित् महाव्रतत्व - देखें व्रत - 3.8।
- सामायिक के समय श्रावक भी साधु - देखें सामायिक - 3।
- साधु व श्रावक के धर्म में अंतर - देखें धर्म - 6।
- साधु व श्रावक के ध्यान व अनुभव में अंतर - देखें अनुभव - 5।
- श्रावक को भी समिति गुप्ति आदि का पालन करना चाहिए। - देखें व्रत - 2.4।
- श्रावक को स्थावर वध आदि की भी अनुमति नहीं है - देखें व्रत - 3।
पुराणकोष से
पांच अणुव्रत, तीन गुणवत तथा चार शिक्षाव्रतों का धारी गृहस्थ । उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से भी श्रावक तीन प्रकार के कहे हैं । इनमें पहली से छठी प्रतिमा के धारी जघन्य श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा के धारी मध्यम और दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक कहे गये हैं । समवसरण में श्रावकों का निश्चित स्थान होता है । श्रावक के व्रतों को मोक्षमहल की दूसरी सीढ़ी कहा है । दान, पूजा, तप और शील श्रावकों का बाह्य धर्म है । महापुराण 39.143-150, 67.69, हरिवंशपुराण 3.63, 10. 7-8, 12.78 वीरवर्द्धमान चरित्र 17.82, 18. 36-37, 60-70