चारित्र: Difference between revisions
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | | <li class="HindiText">[[ #1.1 | चारित्र सामान्य का निर्देश]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | चरण व चारित्र सामान्य के लक्षण।]] </li> | <li class="HindiText">[[ #1.2 | चरण व चारित्र सामान्य के लक्षण।]] </li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | चारित्र के एक दो आदि अनेकों विकल्प]] </li> | <li class="HindiText">[[ #1.3 | चारित्र के एक दो आदि अनेकों विकल्प]] </li> | ||
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<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/14/41/8 </span><span class="SanskritText">चारित्रनिर्देश:...सामान्यादेकम्, द्विधा बाह्याभ्यंतरनिवृत्तिभेदात्, त्रिधा औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकविकल्पात्, चतुर्धा चतुर्यमभेदात्, पच्चधा सामायिकादिविकल्पात् । इत्येवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पं च भवति परिणामभेदात् ।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/14/41/8 </span><span class="SanskritText">चारित्रनिर्देश:...सामान्यादेकम्, द्विधा बाह्याभ्यंतरनिवृत्तिभेदात्, त्रिधा औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकविकल्पात्, चतुर्धा चतुर्यमभेदात्, पच्चधा सामायिकादिविकल्पात् । इत्येवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पं च भवति परिणामभेदात् ।<br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/17/7/616/18 </span>यदवोचाम चारित्रम्, तच्चारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणात्मविशुद्धिलब्धिसामान्यापेक्षया एकम् । प्राणिपीड़ापरिहारेंद्रियदर्पनिग्रहशक्तिभेदाद् द्विविधम् । उत्कृष्टमध्यमजघन्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षंयोगात्तृतीयमवस्थानमनुभवति। विकलज्ञानविषयसरागवीतराग-सकलावबोधगोचरसयोगायोगविकल्पाच्चातुर्विध्यमप्यश्नुते। पच्चतयीं च वृत्तिमास्कंदति तद्यथा– <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/17/7/616/18 </span>यदवोचाम चारित्रम्, तच्चारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणात्मविशुद्धिलब्धिसामान्यापेक्षया एकम् । प्राणिपीड़ापरिहारेंद्रियदर्पनिग्रहशक्तिभेदाद् द्विविधम् । उत्कृष्टमध्यमजघन्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षंयोगात्तृतीयमवस्थानमनुभवति। विकलज्ञानविषयसरागवीतराग-सकलावबोधगोचरसयोगायोगविकल्पाच्चातुर्विध्यमप्यश्नुते। पच्चतयीं च वृत्तिमास्कंदति तद्यथा– <br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/18 </span>सामायिकछेदापस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।18।</span>=<span class="HindiText">सामान्यपने एक प्रकार चारित्र है अर्थात् चारित्रमोह के उपशम क्षय व क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/18 </span>सामायिकछेदापस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।18।</span>=<span class="HindiText">सामान्यपने एक प्रकार चारित्र है अर्थात् चारित्रमोह के उपशम क्षय व क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यंतर निवृत्ति अथवा व्यवहार व निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है। या प्राणसंयम व इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है; अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य विशुद्धि के भेद से तीन प्रकार का है। चार प्रकार से यति की दृष्टि से या चातुर्यम की अपेक्षा चार प्रकार का है, अथवा छद्मस्थों का सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात असंख्यात और अनंत विकल्परूप होता है।<br /> | ||
<span class="GRef">जैनसिद्धांत प्रवेशिका/222</span><span class="HindiText"> चार हैं–स्वरूपाचरण चारित्र, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्र।</span><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> चारित्र के 13 अंग</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> चारित्र के 13 अंग</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> स्व व पर अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> स्व व पर अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/11 </span><span class="PrakritText">मिच्छादंसणणाणचरित्तं...सम्मत्तणाणचरणं।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र...सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र।</span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार/11 </span><span class="PrakritText">मिच्छादंसणणाणचरित्तं...सम्मत्तणाणचरणं।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र...सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154 </span><span class="SanskritText">द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं-स्वचरितं परचरितं च। स्वसमयपरसमयावित्यर्थ:।</span>= <span class="HindiText">संसारियों का चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है—स्वचारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र। स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है। (विशेष देखें [[ समय ]]) ( | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154 </span><span class="SanskritText">द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं-स्वचरितं परचरितं च। स्वसमयपरसमयावित्यर्थ:।</span>= <span class="HindiText">संसारियों का चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है—स्वचारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र। स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है। (विशेष देखें [[ समय ]]) (<span class="GRef">योगसार/अमितगति/8/96</span>)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> स्वपर चारित्र के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> स्वपर चारित्र के लक्षण</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश</strong></span><br /> | ||
<span class="HindiText">चारित्र यद्यपि एक प्रकार का है परंतु उसमें जीव के अंतरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत् उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओं में विकल्प व निर्विकल्पता की प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकार से किया जाता है–निश्चय चारित्र व | <span class="HindiText">चारित्र यद्यपि एक प्रकार का है परंतु उसमें जीव के अंतरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत् उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओं में विकल्प व निर्विकल्पता की प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकार से किया जाता है–निश्चय चारित्र व व्यवहार चारित्र।<br /> | ||
तहाँ जीव की अंतरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओं का ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं में यत्नाचार रूप समिति और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने रूप गुप्ति ये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्र का नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्र का नाम वीतराग चारित्र। निचली भूमिकाओं में व्यवहार चारित्र की प्रधानता रहती है और ऊपर ऊपर की ध्यानस्थ भूमिकाओं में निश्चय चारित्र की।<br /> | तहाँ जीव की अंतरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओं का ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं में यत्नाचार रूप समिति और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने रूप गुप्ति ये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्र का नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्र का नाम वीतराग चारित्र। निचली भूमिकाओं में व्यवहार चारित्र की प्रधानता रहती है और ऊपर ऊपर की ध्यानस्थ भूमिकाओं में निश्चय चारित्र की।<br /> | ||
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<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/37 </span><span class="PrakritText"> तच्चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं।</span>=<span class="HindiText">पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है। (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/378 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/37 </span><span class="PrakritText"> तच्चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं।</span>=<span class="HindiText">पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है। (<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/378 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/8 </span><span class="SanskritText">संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: कर्मादानक्रियोपरम: सम्यग्चारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/3/4/9;1/7/14/41/5 </span>); (<span class="GRef"> भगवती आराधना </span>वि./6/32/12) (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 </span>) (<span class="GRef"> लाटी संहिता/4/263/191 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/8 </span><span class="SanskritText">संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: कर्मादानक्रियोपरम: सम्यग्चारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/1/3/4/9;1/7/14/41/5 </span>); (<span class="GRef"> भगवती आराधना </span>वि./6/32/12) (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 </span>) (<span class="GRef"> लाटी संहिता/4/263/191 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह </span> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह मूल/46</span> <span class="PrakritText">व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयति–बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासट्ठं। णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं।46।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार चारित्र से साध्य निश्चय चारित्र का निरूपण करते हैं–ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए बाह्य और अंतरंग क्रियाओं का निरोध होता है वह उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/72</span><span class="SanskritText"> चारित्रं विरति: प्रमादविलसत्कर्मास्रवाद्योगिनां।</span>=<span class="HindiText">योगियों का प्रमाद से होने वाले कर्मास्रव से रहित होने का नाम चारित्र है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.11.2" id="1.11.2"> ज्ञान व दर्शन की एकता ही चारित्र है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.11.2" id="1.11.2"> ज्ञान व दर्शन की एकता ही चारित्र है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ पू./3</span><span class="PrakritGatha"> जं जाणइ तं णाणं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं। णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।3।</span>=<span class="HindiText">जो जानै सो ज्ञान है, बहुरि जो देखे सो दर्शन है, ऐसा कह्या है। बहुरि ज्ञान और दर्शन के समायोग तै चारित्र होय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.11.3" id="1.11.3"> साम्यता या ज्ञाता दृष्टाभाव का नाम चारित्र है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.11.3" id="1.11.3"> साम्यता या ज्ञाता दृष्टाभाव का नाम चारित्र है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/7 </span><span class="PrakritGatha">चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।7।</span>=<span class="HindiText">चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। साम्य मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है।7। (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/50 </span>); (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/107 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/7 </span><span class="PrakritGatha">चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।7।</span>=<span class="HindiText">चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। साम्य मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है।7। (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/50 </span>); (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/107 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/24/119 </span><span class="SanskritGatha"> माध्यस्थलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितुषो मुने:। मोक्षकामस्य निर्मुक्तश्चेलसाहिंसकस्य तत् ।119।</span> =<span class="HindiText">इष्ट अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह सम्यग्चारित्र यथार्थ रूप से तृषा रहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले वस्त्ररहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज के ही होता है।<br /> | <span class="GRef"> महापुराण/24/119 </span><span class="SanskritGatha"> माध्यस्थलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितुषो मुने:। मोक्षकामस्य निर्मुक्तश्चेलसाहिंसकस्य तत् ।119।</span> =<span class="HindiText">इष्ट अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह सम्यग्चारित्र यथार्थ रूप से तृषा रहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले वस्त्ररहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज के ही होता है।<br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/356 </span>समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया।356।=समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची हैं। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 </span>); (<span class="GRef"> लाटी संहिता/4/263/191 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/356 </span><span class="PrakritGatha">समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया।356।</span>=समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची हैं। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 </span>); (<span class="GRef"> लाटी संहिता/4/263/191 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242 </span><span class="SanskritText"> ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिसूव्यमाणद्रष्ट्टज्ञातृत्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण ...।</span>=<span class="HindiText">ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियांतर से अर्थात् अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में (ज्ञाता द्रष्टा भाव में) परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है।<br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242 </span><span class="SanskritText"> ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिसूव्यमाणद्रष्ट्टज्ञातृत्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण ...।</span>=<span class="HindiText">ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियांतर से अर्थात् अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में (ज्ञाता द्रष्टा भाव में) परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है।<br /> | ||
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<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/83 </span><span class="PrakritText">णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोइ सो लहइ णिव्वाणं।83।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा आत्मा ही विषै आपहीकै अर्थि भले प्रकार रत होय है। यो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाण कूँ पावै है।</span><br /> | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/83 </span><span class="PrakritText">णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोइ सो लहइ णिव्वाणं।83।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा आत्मा ही विषै आपहीकै अर्थि भले प्रकार रत होय है। यो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाण कूँ पावै है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/155 </span><span class="SanskritText">रागादिपरिहरणं चरणं।</span>=<span class="HindiText">रागादिक का परिहार करना चारित्र है। (<span class="GRef"> धवला 13/358/2 </span>) </span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/155 </span><span class="SanskritText">रागादिपरिहरणं चरणं।</span>=<span class="HindiText">रागादिक का परिहार करना चारित्र है। (<span class="GRef"> धवला 13/358/2 </span>) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/2/30</span><span class="PrakritGatha"> जाणवि मण्णवि अप्पपरु जो परभाउ चएहि। सो णियसुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ।30।</span>=<span class="HindiText">अपनी आत्मा को जानकर व उसका श्रद्धान करके जो परभाव को छोड़ता है, वह निजात्मा का शुद्धभाव चारित्र होता है। (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/37 </span>)</span><br /> | ||
मोक्ष | <span class="GRef">मोक्ष पंचाशत्/मूल/45</span> <span class="SanskritGatha">निराकुलत्वजं सौख्यं स्वयमेवावतिष्ठत:। यदात्मनैव संवेद्यं चारित्रं निश्चयात्मकम् ।45।</span>=<span class="HindiText">आत्मा द्वारा संवेद्य जो निराकुलताजनक सुख सहज ही आता है, वह निश्चयात्मक चारित्र है।</span><br><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/354 </span><span class="PrakritText">सामण्णे णियबोहे बियलियपरभावपरमसब्भावे। तत्थाराहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती।</span> =<span class="HindiText">परभावों से रहित परम स्वभावरूप सामान्य निज बोध में अर्थात् शुद्धचैतन्य स्वभाव में तत्त्वाराधना युक्त होने वाला शुद्ध चारित्री कहलाता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/8/95 </span><span class="SanskritText">विविक्तचेतनध्यानं जायते परमार्थत:।</span>–<span class="HindiText">निश्चयनय से विविक्त चेतनध्यान -निश्चय चारित्र मोक्ष का कारण है। (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/17 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/8/95 </span><span class="SanskritText">विविक्तचेतनध्यानं जायते परमार्थत:।</span>–<span class="HindiText">निश्चयनय से विविक्त चेतनध्यान -निश्चय चारित्र मोक्ष का कारण है। (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/17 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/19 </span><span class="PrakritText">अप्पसरूवं वत्थु चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं। सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं।99।</span>=<span class="HindiText">रागादि दोषों से रहित शुभ ध्यान में लीन आत्मस्वरूप वस्तु को उत्कृष्ट चारित्र जानों।99।</span><br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/19 </span><span class="PrakritText">अप्पसरूवं वत्थु चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं। सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं।99।</span>=<span class="HindiText">रागादि दोषों से रहित शुभ ध्यान में लीन आत्मस्वरूप वस्तु को उत्कृष्ट चारित्र जानों।99।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/55 </span><span class="SanskritText"> स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/3 </span>)</span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/55 </span><span class="SanskritText"> स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/3 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/6/7/14 </span><span class="SanskritText">आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये यन्निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं, तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते।=</span><span class="HindiText">आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्धात्म द्रव्य में निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्र का लक्षण है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/38 </span>), ( | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/6/7/14 </span><span class="SanskritText">आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये यन्निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं, तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते।=</span><span class="HindiText">आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्धात्म द्रव्य में निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्र का लक्षण है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/38 </span>), (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति /155</span>), (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/46/197/8 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/40/163/13 </span><span class="SanskritText"> संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुन: पुन: स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">समस्त संकल्प विकल्पों के त्याग द्वारा, उसी (वीतराग) सुख में संतुष्ट तृप्त तथा एकाकार परम समता भाव से द्रवीभूत चित्त का पुन: पुन: स्थिर करना सम्यक्चारित्र है। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/30 </span>की उत्थानिका)</span></li> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/40/163/13 </span><span class="SanskritText"> संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुन: पुन: स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् ।</span>=<span class="HindiText">समस्त संकल्प विकल्पों के त्याग द्वारा, उसी (वीतराग) सुख में संतुष्ट तृप्त तथा एकाकार परम समता भाव से द्रवीभूत चित्त का पुन: पुन: स्थिर करना सम्यक्चारित्र है। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/30 </span>की उत्थानिका)</span></li> | ||
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<span class="GRef"> समयसार/386 </span><span class="PrakritGatha">णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वई णिच्चं पडिकम्मदि यो य। णिच्चं आलोचेयइ सो हु चारित्तं हवइ चेया।386।</span>=<span class="HindiText">जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है।386।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार/386 </span><span class="PrakritGatha">णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वई णिच्चं पडिकम्मदि यो य। णिच्चं आलोचेयइ सो हु चारित्तं हवइ चेया।386।</span>=<span class="HindiText">जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है।386।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/9/45 </span><span class="PrakritText">कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो।</span>=<span class="HindiText">यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होने के अनंतर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है।</span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/9/45 </span><span class="PrakritText">कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो।</span>=<span class="HindiText">यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होने के अनंतर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/49 </span><span class="SanskritText"> हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च। पापप्रणालिकाभ्यो विरति: संज्ञस्य चारित्रं।49।</span> =<span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, तथा मैथुनसेवा और परिग्रह इन पाँचों पापों की प्रणालियों से विरक्त होना चारित्र है। (<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,22/40/5 </span>), (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/52 </span>), (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ | <span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/49 </span><span class="SanskritText"> हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च। पापप्रणालिकाभ्यो विरति: संज्ञस्य चारित्रं।49।</span> =<span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, तथा मैथुनसेवा और परिग्रह इन पाँचों पापों की प्रणालियों से विरक्त होना चारित्र है। (<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,22/40/5 </span>), (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/52 </span>), (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ टीका/37,38/328</span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/8/95</span> <span class="SanskritText">कारणं निर्वृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारत:।...।95।</span> <span class="HindiText">व्रतादि का आचरण करना व्यवहार चारित्र है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/39 </span><span class="SanskritGatha">चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।39।</span>=<span class="HindiText">समस्त पापयुक्त, मन, वचन, काय के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित अतएव निर्मल परपदार्थों से विरक्ततारूप चारित्र होता है। इसलिए वह चारित्र आत्मा का स्वभाव है।</span><br /> | <span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/39 </span><span class="SanskritGatha">चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।39।</span>=<span class="HindiText">समस्त पापयुक्त, मन, वचन, काय के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित अतएव निर्मल परपदार्थों से विरक्ततारूप चारित्र होता है। इसलिए वह चारित्र आत्मा का स्वभाव है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/33/1 </span><span class="SanskritText"> एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया...।</span>=<span class="HindiText">अविरति, प्रमाद, कषायों का त्याग स्वाध्याय करने से तथा ध्यान करने से होता है, इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/33/1 </span><span class="SanskritText"> एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया...।</span>=<span class="HindiText">अविरति, प्रमाद, कषायों का त्याग स्वाध्याय करने से तथा ध्यान करने से होता है, इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/45 </span><span class="PrakritGatha">असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवववहारणयादु जिण भणियं।45।</span>=<span class="HindiText">अशुभ कार्यों से निवृत्त होना और शुभकार्यों में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। व्यवहार नय से उस चारित्र को व्रत, समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है।</span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/45 </span><span class="PrakritGatha">असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवववहारणयादु जिण भणियं।45।</span>=<span class="HindiText">अशुभ कार्यों से निवृत्त होना और शुभकार्यों में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। व्यवहार नय से उस चारित्र को व्रत, समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/27 </span><span class="SanskritGatha">चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितै:। पापक्रियाणां यस्त्याग: सच्चारित्रमुषंति तत् ।27। </span>=<span class="HindiText"> मन से, वचन से, काय से, | <span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/27 </span><span class="SanskritGatha">चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितै:। पापक्रियाणां यस्त्याग: सच्चारित्रमुषंति तत् ।27। </span>=<span class="HindiText"> मन से, वचन से, काय से, कृत कारित अनुमोदना के द्वारा जो पापरूप क्रियाओं का त्याग है उसको सम्यग्चारित्र कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.13" id="1.13"> सराग वीतराग चारित्र निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.13" id="1.13"> सराग वीतराग चारित्र निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.15" id="1.15"> वीतराग चारित्र का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.15" id="1.15"> वीतराग चारित्र का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/378 </span><span class=" | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/378 </span><span class="PrakritGatha">सुहअसुहाण णिवित्ति चरणं साहूस्स वीयरायस्स। </span>=<span class="HindiText">शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योगों से निवृत्ति, वीतराग साधु का चारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/152 </span><span class="SanskritText">स्वरूपविश्रांतिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप में विश्रांति सो ही परम वीतराग चारित्र है।</span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/152 </span><span class="SanskritText">स्वरूपविश्रांतिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप में विश्रांति सो ही परम वीतराग चारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/52/219/1 </span><span class="SanskritText">रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखस्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचार:</span>=<span class="HindiText">उस शुद्धात्मा में रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुख के आस्वादन से निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है। उसमें जो आचरण करना सो निश्चय चारित्राचार है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/2/8/10 </span>) (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/1 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/52/219/1 </span><span class="SanskritText">रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखस्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचार:</span>=<span class="HindiText">उस शुद्धात्मा में रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुख के आस्वादन से निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है। उसमें जो आचरण करना सो निश्चय चारित्राचार है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/2/8/10 </span>) (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/1 </span>)।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.16" id="1.16"> स्वरूपाचरण व संयमाचरण चारित्र निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.16" id="1.16"> स्वरूपाचरण व संयमाचरण चारित्र निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल 5</span><span class="PrakritGatha"> जिणाणाणदिट्ठिसुद्धपढमं सम्मत्तं चरणचारित्तं। विदियं संजमचरणं जिणणाणदेसियं तं पि।5। </span>=<span class="HindiText">पहला तो, जिनदेव ज्ञान दर्शन व श्रद्धाकरि शुद्ध ऐसा सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा संयमाचरण चारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ टीका/3/32/3 </span><span class="SanskritText">द्विविधं चारित्रं–दर्शनाचारचारित्राचारलक्षणं।</span>=<span class="HindiText">दर्शनाचार और चारित्राचार लक्षणवाला चारित्र दो प्रकार का है। जैन सिद्धांत प्रवेशिका/223 शुद्धात्मानुभवन से अविनाभावी चारित्रविशेष को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.17" id="1.17"> अधिगत व अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.17" id="1.17"> अधिगत व अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/8-9</span> <span class="PrakritText">तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तं चरणचारित्तं।8। सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं।9।</span>=<span class="HindiText">प्रथम सम्यक्त्व चरणचारित्र मोक्षस्थान के अर्थ है।8। जो अमूढदृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण और संयमाचरण दोनों से विशुद्ध होता है, वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/4 </span><span class="SanskritText">चारित्रमंते गृह्यंते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्करणमिति ज्ञापनार्थं</span>=<span class="HindiText">चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है यह बात जानने के लिए सूत्र में इसका ग्रहण अंत में किया है।</span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/4 </span><span class="SanskritText">चारित्रमंते गृह्यंते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्करणमिति ज्ञापनार्थं</span>=<span class="HindiText">चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है यह बात जानने के लिए सूत्र में इसका ग्रहण अंत में किया है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 </span><span class="SanskritText">संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्ष:। तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपा बंध:</span>=<span class="HindiText">दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्र से यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेंद्र, असुरेंद्र, व नरेंद्र के वैभव क्लेशरूप बंध की प्राप्ति होती है, (यो.सा.अ/6/12)</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 </span><span class="SanskritText">संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्ष:। तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपा बंध:</span>=<span class="HindiText">दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्र से यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेंद्र, असुरेंद्र, व नरेंद्र के वैभव क्लेशरूप बंध की प्राप्ति होती है, (यो.सा.अ/6/12)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी/ उत्तरार्ध/759</span> <span class="SanskritText">चारित्रं निर्जरा हेतुर्न्यायादप्यस्त्यबाधितम् । सर्वस्वार्थक्रियामर्हन्, सार्थनामास्ति दीपवत् ।759।</span> = <span class="HindiText">वह चारित्र (पूर्व श्लोक में कथित शुद्धोपयोग रूप चारित्र) निर्जरा का कारण है, यह बात न्याय से भी अबाधित है। वह चारित्र अन्वर्थ क्रिया में समर्थ होता हुआ दीपक की तरह अन्वर्थ नामधारी है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> चारित्राराधना में अन्य सर्व आराधनाएँ गर्भित हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> चारित्राराधना में अन्य सर्व आराधनाएँ गर्भित हैं</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> चारित्रसहित ही सम्यक्त्व, ज्ञान व तप सार्थक है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> चारित्रसहित ही सम्यक्त्व, ज्ञान व तप सार्थक है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> शीलपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> शीलपाहुड़/ मूल/5 </span><span class="PrakritGatha">णाणं चरित्तहीणं लिंगगहणं च दंसणविहूणं। संजमहीणो य तवो तइ चरइ णिरत्थयं सव्वं।5। </span>= <span class="HindiText">चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिंग तथा संयमहीन तप ऐसे सर्व का आचरण निरर्थक है। (<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/57,59,67 </span>) (<span class="GRef">मूलाचार/950) (<span class="GRef">अ.आ./मू./770/929); (<span class="GRef">आराधनासार/54/129</span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/897</span><span class="PrakritGatha"> थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चारित्तं। संपुण्णो जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण।897।</span>=<span class="HindiText">जो मुनि चारित्र से पूर्ण है, वह थोड़ा भी पढ़ा हुआ हो तो भी दशपूर्व के पाठी को जीत लेता है। (अर्थात् वह तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और संयमहीन दशपूर्व का पाठी संसार में ही भटकता है) क्योंकि जो चारित्र रहित है, वह बहुत से शास्त्रों का जानने वाला हो जाये तो भी उसके बहुत शास्त्र पढ़े होने से क्या लाभ (<span class="GRef">मूलाचार/894</span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/12/56 </span><span class="PrakritGatha">चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं। चक्खू होइ णिरत्थं दठ्ठूण बिले पडंतस्स।52।</span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/12/56 </span><span class="PrakritGatha">चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं। चक्खू होइ णिरत्थं दठ्ठूण बिले पडंतस्स।52।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/12/56/17 </span><span class="SanskritText"> ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदर्शि तद्युक्तं ज्ञानस्योपकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थांसिद्धि: यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं।</span> =<span class="HindiText">नेत्र और उससे होने वाला जो ज्ञान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दु:खों का परिहार करना है। परंतु जो बिल आदिक देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्र ज्ञान वृथा है।2। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान इष्ट अनिष्ट मार्ग को दिखाता है, इसलिए उसको उपकारपना युक्त है (परंतु क्रिया आदि का उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान मात्र से इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुए के समान है। जैसे नेत्र के होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं।<br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/12/56/17 </span><span class="SanskritText"> ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदर्शि तद्युक्तं ज्ञानस्योपकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थांसिद्धि: यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं।</span> =<span class="HindiText">नेत्र और उससे होने वाला जो ज्ञान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दु:खों का परिहार करना है। परंतु जो बिल आदिक देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्र ज्ञान वृथा है।2। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान इष्ट अनिष्ट मार्ग को दिखाता है, इसलिए उसको उपकारपना युक्त है (परंतु क्रिया आदि का उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान मात्र से इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुए के समान है। जैसे नेत्र के होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं।<br /> | ||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/21/336/7 </span><span class="SanskritText"> सम्यक्त्वाभावे सति तद्वयपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व के अभाव में सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनों का यही (सूत्र के ‘सम्यक्त्व’ शब्द में) अंतर्भाव होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/21/336/7 </span><span class="SanskritText"> सम्यक्त्वाभावे सति तद्वयपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व के अभाव में सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनों का यही (सूत्र के ‘सम्यक्त्व’ शब्द में) अंतर्भाव होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/21/2/528/4 </span><span class="SanskritText">नासतिसम्यक्त्वे सरागसंयम-संयमासंयम-व्यपदेश इति।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व के न होने पर सरागसंयम और संयमासंयम ये व्यपदेश ही नहीं होता। (<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/38 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/21/2/528/4 </span><span class="SanskritText">नासतिसम्यक्त्वे सरागसंयम-संयमासंयम-व्यपदेश इति।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व के न होने पर सरागसंयम और संयमासंयम ये व्यपदेश ही नहीं होता। (<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/38 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/ | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/ संस्कृत/6/23/7/पृष्ठ 556</span><span class="SanskritText"> संसारात् भीरुताभीक्ष्णं संवेग:। सिद्धयताम् यत: न तु मिथ्यादृशाम् । तेषाम् संसारस्य अप्रसिद्धित:।=</span><span class="HindiText">बुद्धिमानों में ऐसी सम्मति है कि संसारभीरु निरंतर संविग्न रहता है। परंतु यह बात मिथ्यादृष्टियों में नहीं है। उन बुद्धिमानों में संसार की प्रसिद्धि नहीं है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/144/4 </span><span class="SanskritText">संयमनं संयम:। न द्रव्ययम: संयमस्तस्य ‘सं’ शब्देनापादित्वात् ।</span> =<span class="HindiText"> संयमन करने को संयम कहते हैं, संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर द्रव्य यम अर्थात् भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता। क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये ‘सं’ शब्द से उसका निराकरण कर दिया गया है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,14/177/4 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/144/4 </span><span class="SanskritText">संयमनं संयम:। न द्रव्ययम: संयमस्तस्य ‘सं’ शब्देनापादित्वात् ।</span> =<span class="HindiText"> संयमन करने को संयम कहते हैं, संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर द्रव्य यम अर्थात् भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता। क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये ‘सं’ शब्द से उसका निराकरण कर दिया गया है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,14/177/4 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/236/326/11 </span><span class="SanskritText"> यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि ...पंचेंद्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावर्तोऽपि संयतो न भवति।</span>=<span class="HindiText">निर्दोष निज परमानंद ही उपादेय है, यदि ऐसा रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है, तब पंचेंद्रियों के विषयों की अभिलाषा का त्याग रूप इंद्रिय संयम तथा षट्काय के जीवों का वध का त्यागरूप प्राणि संयम ही नहीं होता ।<br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/236/326/11 </span><span class="SanskritText"> यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि ...पंचेंद्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावर्तोऽपि संयतो न भवति।</span>=<span class="HindiText">निर्दोष निज परमानंद ही उपादेय है, यदि ऐसा रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है, तब पंचेंद्रियों के विषयों की अभिलाषा का त्याग रूप इंद्रिय संयम तथा षट्काय के जीवों का वध का त्यागरूप प्राणि संयम ही नहीं होता ।<br /> | ||
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<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/10</span><span class="PrakritGatha">सम्मत्तचरणभट्टा संजमचरणं चरंति जे वि णरा। अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं।10।</span>=<span class="HindiText">जो पुरुष सम्यक्त्व चरण चारित्र (स्वरूपाचरण चारित्र) करि भ्रष्ट हैं, अर संयम आचरण करे हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढ दृष्टि भए संते निर्वाणकूं नहीं पावैं हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ मूल/10</span><span class="PrakritGatha">सम्मत्तचरणभट्टा संजमचरणं चरंति जे वि णरा। अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं।10।</span>=<span class="HindiText">जो पुरुष सम्यक्त्व चरण चारित्र (स्वरूपाचरण चारित्र) करि भ्रष्ट हैं, अर संयम आचरण करे हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढ दृष्टि भए संते निर्वाणकूं नहीं पावैं हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/2/82</span> <span class="PrakritGatha">बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइं पर परमत्थु ण वेइ। ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ।8।</span>=<span class="HindiText">शास्त्रों को जानता है, तपस्या करता है, लेकिन परमात्मा को नहीं जानता, और जब तक पूर्व प्रकार से उसको नहीं जानता तब तक नहीं छूटता।</span><br /> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/2/82</span> <span class="PrakritGatha">बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइं पर परमत्थु ण वेइ। ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ।8।</span>=<span class="HindiText">शास्त्रों को जानता है, तपस्या करता है, लेकिन परमात्मा को नहीं जानता, और जब तक पूर्व प्रकार से उसको नहीं जानता तब तक नहीं छूटता।</span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/2/50</span> <span class="SanskritText">अजीवतत्त्वं न विदंति सम्यक् यो जीवत्वाद्विधिनाविभक्तं। चारित्रवंतोऽपि न ते लभंते विविक्तमानमपास्तदोषम् ।</span> = <span class="HindiText">जो विधि पूर्वक जीव तत्त्व से सम्यक् प्रकार विभक्त (भिन्न किये गये) अजीव तत्त्व को नहीं जानते वे चारित्रवंत होते हुए भी निर्दोष परमात्मतत्त्व को नहीं प्राप्त होते।<br /> | |||
<span class="GRef">पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/7/26/भाषाकार</span><span class="HindiText">–मोक्ष के अभिप्राय से धारे गये व्रत ही सार्थक हैं। देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]] (सांगोपांग चारित्र का पालन करते हुए भी मिथ्यादृष्टि मुक्त नहीं होता)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है इत्यादि</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है इत्यादि</strong></span><br /> | ||
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<span class="GRef"> महापुराण/24/122 </span><span class="PrakritGatha">चारित्रं दर्शनज्ञानविकलं नार्थकृन्मतम् । प्रमातायैव तद्धिस्यात् अंधस्येव विवल्गितम् ।122।</span> <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किंतु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार वह उसके पतन का कारण होता है अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/24/122 </span><span class="PrakritGatha">चारित्रं दर्शनज्ञानविकलं नार्थकृन्मतम् । प्रमातायैव तद्धिस्यात् अंधस्येव विवल्गितम् ।122।</span> <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किंतु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार वह उसके पतन का कारण होता है अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">नयचक्र लघु./8</span> <span class="PrakritText">बुज्झहता जिणवयणं पच्छा णिजकज्जसंजुआ होह। अहवा तंदुलरहियं पलालसंधुणाणं सव्वं। </span>= <span class="HindiText">पहिले जिन-वचनों को जानकर पीछे निज कार्य से अर्थात् चारित्र से संयुक्त होना चाहिए, अन्यथा सर्व चारित्र तप आदि तंदुल रहित पलाल कूटने के समान व्यर्थ है।</span><br /> | <span class="GRef">नयचक्र लघु./8</span> <span class="PrakritText">बुज्झहता जिणवयणं पच्छा णिजकज्जसंजुआ होह। अहवा तंदुलरहियं पलालसंधुणाणं सव्वं। </span>= <span class="HindiText">पहिले जिन-वचनों को जानकर पीछे निज कार्य से अर्थात् चारित्र से संयुक्त होना चाहिए, अन्यथा सर्व चारित्र तप आदि तंदुल रहित पलाल कूटने के समान व्यर्थ है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ </span> | <span class="GRef"> नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 52</span> <span class="SanskritText">स्वकार्यविरुद्धा क्रिया मिथ्याचारित्रं।</span>=<span class="HindiText">निजकार्य से विरुद्ध क्रिया मिथ्याचारित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/306 </span><span class="SanskritText">अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु...साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवति।...तथैव च निरपराधो भवति चेतयिता। तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव।</span>=<span class="HindiText">जो अप्रतिक्रमणादि रूप अर्थात् प्रतिक्रमण आदि के विकल्पों से रहित) तीसरी भूमिका है वह स्वयं साक्षात् अमृत कुंभ है। उससे ही आत्मा निरपराध होता है। उसके अभाव में द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/306 </span><span class="SanskritText">अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु...साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवति।...तथैव च निरपराधो भवति चेतयिता। तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव।</span>=<span class="HindiText">जो अप्रतिक्रमणादि रूप अर्थात् प्रतिक्रमण आदि के विकल्पों से रहित) तीसरी भूमिका है वह स्वयं साक्षात् अमृत कुंभ है। उससे ही आत्मा निरपराध होता है। उसके अभाव में द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है।</span><br /> | ||
<span class="GRef">पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/70</span><span class="SanskritText">...दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रं।70।</span>=<span class="HindiText">वह सम्यग्दर्शन जयवंत वर्तो, कि जिसके बिना मती भी कुमति है और चारित्र भी दुश्चरित्र है।</span><br /> | <span class="GRef">पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/70</span><span class="SanskritText">...दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रं।70।</span>=<span class="HindiText">वह सम्यग्दर्शन जयवंत वर्तो, कि जिसके बिना मती भी कुमति है और चारित्र भी दुश्चरित्र है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/4/27 </span> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/4/27 में उद्धृत</span>–<span class="SanskritGatha">हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिन: क्रिया। धावंनप्यंधको नष्ट: पश्चन्नपि च पंगुक:।</span> =<span class="HindiText">क्रिया रहित तो ज्ञान नष्ट है और अज्ञानी की क्रिया नष्ट हुई। देखो दौड़ता दौड़ता तो अंधा (ज्ञान रहित क्रिया) नष्ट हो गया और देखता देखता पंगुल (क्रिया रहित ज्ञान) नष्ट हो गया।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/3/277 </span><span class="SanskritText">ज्ञानमज्ञानमेव यद्विना सद्दर्शनं यथा। चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा।2।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है।3।<br /> | <span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/3/277 </span><span class="SanskritText">ज्ञानमज्ञानमेव यद्विना सद्दर्शनं यथा। चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा।2।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है।3।<br /> | ||
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<span class="GRef"> समयसार/152 </span><span class="PrakritGatha">परमट्ठम्हि हु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हु।152।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रत को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार/152 </span><span class="PrakritGatha">परमट्ठम्हि हु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हु।152।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रत को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> रयणसार/71 </span><span class="PrakritText">उवसमभवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई। णाणी कसायवसगो असंजदो होइ स ताव।71।</span>=<span class="HindiText">उपशम भाव से धारे गये व्रतादि तो संयम भाव को प्राप्त हो जाते हैं, परंतु कषाय वश किये गये व्रतादि असंयम भाव को ही प्राप्त होते हैं। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/41)</span><br /> | <span class="GRef"> रयणसार/71 </span><span class="PrakritText">उवसमभवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई। णाणी कसायवसगो असंजदो होइ स ताव।71।</span>=<span class="HindiText">उपशम भाव से धारे गये व्रतादि तो संयम भाव को प्राप्त हो जाते हैं, परंतु कषाय वश किये गये व्रतादि असंयम भाव को ही प्राप्त होते हैं। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/41)</span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/995</span><span class="PrakritGatha"> भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुगई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी।995।</span>=<span class="HindiText">जो अंतरंग में विरक्त है वही विरक्त है, बाह्य वृत्ति से विरक्त होने वाले की शुभ गति नहीं होती। इसलिए मनरूपी हाथी को जो कि क्रीड़ावन में लंपट है रोकना चाहिए।995।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/3/66</span> <span class="PrakritGatha">वंदिउ णिंदउ पडिकमउ भाव असद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास।66।</span>=<span class="HindiText">नि:शंक वंदना करो, निंदा करो, प्रमिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम है, उसके नियम से संयम नहीं हो सकता।66।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/277 </span><span class="SanskritText">शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रय: षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।<br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/277 </span><span class="SanskritText">शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रय: षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।<br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/273 </span>निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात् । </span>=<span class="HindiText">शुद्ध आत्मा ही चारित्र का आश्रय है, क्योंकि छह जीव निकाय के सद्भाव में या असद्भाव में उसके सद्भाव से ही चारित्र का सद्भाव होता है।277।=निश्चय चारित्र का अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि वह निश्चय चारित्र के ज्ञान श्रद्धान से शून्य है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/273 </span>निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात् । </span>=<span class="HindiText">शुद्ध आत्मा ही चारित्र का आश्रय है, क्योंकि छह जीव निकाय के सद्भाव में या असद्भाव में उसके सद्भाव से ही चारित्र का सद्भाव होता है।277।=निश्चय चारित्र का अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि वह निश्चय चारित्र के ज्ञान श्रद्धान से शून्य है।</span><br /> | ||
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</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> व्यवहार चारित्र वृथा व अपराध है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> व्यवहार चारित्र वृथा व अपराध है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/345 </span><span class="PrakritText">आलोयणादि किरिया जं विसकुंभेति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण एएण अत्थेण।</span> =<span class="HindiText"> आलोचनादि क्रियाओं को समयसार ग्रंथ में शुद्धचारित्रवान् के लिए विषकुंभ कहा है, ऐसा तू श्रुतज्ञान द्वारा जान (<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/306 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/392 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/109/ </span> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/345 </span><span class="PrakritText">आलोयणादि किरिया जं विसकुंभेति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण एएण अत्थेण।</span> =<span class="HindiText"> आलोचनादि क्रियाओं को समयसार ग्रंथ में शुद्धचारित्रवान् के लिए विषकुंभ कहा है, ऐसा तू श्रुतज्ञान द्वारा जान (<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/306 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/392 </span>); (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/109/ कलश 155</span>) और भी देखें [[ चारित्र#4.3 | चारित्र - 4.3]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef">योगसार/अमितगति/9/71</span> <span class="SanskritText">रागद्वेषप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा। रागद्वेषाप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा।</span><span class="HindiText">=राग-द्वेष करके जो युक्त है उनके लिए प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है। और राग-द्वेष करके जो रहित हैं उनको भी प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">व्यवहार चारित्र बंध का कारण है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">व्यवहार चारित्र बंध का कारण है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/ | <span class="GRef"> राजवार्तिक/8/ उत्थानिका/561/13</span><span class="SanskritText"> षष्ठसप्तमयो: विविधफलानुग्रहतंत्रास्रवप्रकरणवशात् सप्रपंचात्मन: कर्मबंधहेतवो व्याख्याता:।</span>=<span class="HindiText">विविध प्रकार के फलों को प्रदान करने वाले आस्रव होने के कारण, जिनका छठे सातवें अध्याय में विस्तार से वर्णन किया गया है वे (व्रतादि भी) आत्मा को कर्मबंध के हेतु हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-1/3/8/7 </span><span class="PrakritText"> पुण्णबंधहेउत्तं पडिविसेसाभावादो।</span>=<span class="HindiText">देशव्रत और सरागसंयम में पुण्यबंध के कारणों के प्रति कोई विशेषता नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-1/3/8/7 </span><span class="PrakritText"> पुण्णबंधहेउत्तं पडिविसेसाभावादो।</span>=<span class="HindiText">देशव्रत और सरागसंयम में पुण्यबंध के कारणों के प्रति कोई विशेषता नहीं है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वसार/4/101 </span><span class="SanskritText">हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसंन्यासलक्षणम् । व्रतं पुण्यास्रवोत्थानं भावेनेति प्रपंचितम् ।10।</span> <span class="HindiText">हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के त्याग को व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्यास्रव के कारणरूप भाव समझने चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वसार/4/101 </span><span class="SanskritText">हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसंन्यासलक्षणम् । व्रतं पुण्यास्रवोत्थानं भावेनेति प्रपंचितम् ।10।</span> <span class="HindiText">हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के त्याग को व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्यास्रव के कारणरूप भाव समझने चाहिए।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6">व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span> | <span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/90</span><span class="PrakritText"> भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण। मा जणरंजणकरणं वाहिखवयवेस तं कुणसु।90। </span>=<span class="HindiText"> इंद्रियों की सेना को भंजनकर, मनरूपी बंदर को वशकर, लोकरंजक बाह्य वेष मत धारण कर।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समाधिशतक/ </span> | <span class="GRef"> समाधिशतक/ मूल/83</span><span class="SanskritText"> अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्यय:। अव्रतानीवमोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।83।</span><span class="HindiText"> हिंसादि पाँच अव्रतों से पाँच पाप का और अहिंसादि पाँच व्रतों से पुण्य का बंध होता है। पुण्य और पाप दोनों कर्मों का विनाश मोक्ष है, इसलिए मोक्ष के इच्छुक भव्य पुरुष को चाहिए कि अव्रतों की तरह व्रतों को भी छोड़ दे।– (देखें [[ चारित्र#4.1 | चारित्र - 4.1]]); (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/32/87 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/57/229/5 </span>) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/381 </span><span class="PrakritGatha">णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो जम्हा। तम्हा णिव्वुदिकायो बवहारो चयदु तिविहेण।381।</span> =<span class="HindiText">निश्चय चारित्र से मोक्ष होता है और व्यवहार चारित्र से बंध। इसलिए मोक्ष के इच्छुक को मन, वचन, काय से व्यवहार छोड़ना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/381 </span><span class="PrakritGatha">णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो जम्हा। तम्हा णिव्वुदिकायो बवहारो चयदु तिविहेण।381।</span> =<span class="HindiText">निश्चय चारित्र से मोक्ष होता है और व्यवहार चारित्र से बंध। इसलिए मोक्ष के इच्छुक को मन, वचन, काय से व्यवहार छोड़ना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 </span><span class="SanskritText"> अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ।</span> = <span class="HindiText">अनिष्ट फल वाला होने से सराग चारित्र हेय है।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 </span><span class="SanskritText"> अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ।</span> = <span class="HindiText">अनिष्ट फल वाला होने से सराग चारित्र हेय है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/147/ </span> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/147/ कलश 255</span><span class="SanskritText"> यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदु:खापहं, मुक्तिप्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति य: सर्वदा, सोऽयं त्यक्तक्रियो मुनिपति: पापाटवीपावक:।255।=</span><span class="HindiText">जिनात्मनियत चारित्र को, संसारदु:ख नाशक और मुक्ति श्रीरूपी सुंदरी से उत्पन्न अतिशय सुख का कारण जानकर, सदैव समयसार को ही निष्पाप मानने वाला, बाह्य क्रिया को छोड़ने वाला मुनिपति पापरूपी अटवी को जलाने वाला होता है।255।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1">व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1">व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/329 </span><span class="PrakritText">णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं।</span>=<span class="HindiText">निश्चय चारित्र साध्य स्वरूप है और सराग चारित्र उसका साधन है। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/45-46 | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/329 </span><span class="PrakritText">णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं।</span>=<span class="HindiText">निश्चय चारित्र साध्य स्वरूप है और सराग चारित्र उसका साधन है। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/45-46 की उत्थानिका 194, 197</span>)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> व्यवहार चारित्र निश्चय का या मोक्ष का परंपरा कारण है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> व्यवहार चारित्र निश्चय का या मोक्ष का परंपरा कारण है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/45/194 </span> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/45/194 की उत्थानिका</span>-<span class="SanskritText">वीतरागचारित्र्यस्य पारंपर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति।</span> =<span class="HindiText"> वीतराग चारित्र का परंपरा साधक सराग चारित्र है। उसका प्रतिपादन करते हैं।</span></li> | ||
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Revision as of 20:15, 15 December 2022
सिद्धांतकोष से
चारित्र मोक्षमार्ग का एक प्रधान अंग है। अभिप्राय के सम्यक् व मिथ्या होने से वह सम्यक् व मिथ्या हो जाता है। निश्चय, व्यवहार, सराग, वीतराग, स्व, पर आदि भेदों से वह अनेक प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है, परंतु वास्तव में वे सब भेद प्रभेद किसी न किसी एक वीतरागता रूप निश्चय चारित्र के पेट में समा जाते हैं। ज्ञाता दृष्टा मात्र साक्षीभाव या साम्यता का नाम वीतरागता है। प्रत्येक चारित्र में उसका अंश अवश्य होता है। उसका सर्वथा लोप होने पर केवल बाह्य वस्तुओं का त्याग आदि चारित्र संज्ञा को प्राप्त नहीं होता। परंतु इसका यह अर्थ भी नहीं कि बाह्य व्रतत्याग आदि बिलकुल निरर्थक है, वह उस वीतरागता के अविनाभावी है तथा पूर्व भूमिका वालों को उसके साधक भी।
- चारित्र निर्देश
- चारित्र सामान्य का निर्देश
- चरण व चारित्र सामान्य के लक्षण।
- चारित्र के एक दो आदि अनेकों विकल्प
- चारित्र के 13 अंग।
- समिति गुप्ति व्रत आदि के लक्षण व निर्देश–देखें वह वह नाम ।
- सम्यग्चारित्र के अतिचार–देखें व्रत समिति गुप्ति आदि ।
- चारित्र अधिममज ही होता है–देखें अधिगम ।
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प है–देखें गुण - 2।
- चारित्र में कथंचित् ज्ञानपना–देखें ज्ञान - I.2।
- स्व–पर चारित्र अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र निर्देश–भेद निर्देश।
- स्वपर चारित्र के लक्षण।
- सम्यक् व मिथ्याचारित्र के लक्षण।
- निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश (भेद निर्देश)।
- निश्चय चारित्र का लक्षण–
- व्यवहार चारित्र का लक्षण।
- 13-15. सराग वीतराग चारित्र निर्देश व उनके लक्षण।
- संयमाचरण के दो भेद–सकल व देश चारित्र–स्वरूपाचरण
- स्वरूपाचरण व सम्यक्त्वाचरण चारित्र–देखें स्वरूपाचरण
- उपशम व क्षायिक चारित्र की विशेषताएँ–देखें श्रेणी ।
- क्षायोपशमिक चारित्र की विशेषताएँ–देखें संयत ।
- चारित्रमोहनीय की उपशम व क्षपक विधि–देखें उपशम क्षय ।
- क्षायिक चारित्र में भी कथंचित् मल का सद्भाव–देखें केवली - 2.2।
- पाँचों के लक्षण–देखें वह वह नाम ।
- भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन–देखें सल्लेखना - 3।
- अथालंद व जिनकल्प चारित्र–देखें वह वह नाम ।
- मोक्षमार्ग में चारित्र की प्रधानता
- संयम मार्गणा में भाव संयम इष्ट है–देखें मार्गणा ।
- चारित्र ही धर्म है।
- चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है।
- चारित्राराधना में अन्य सब आराधनाएँ गर्भित हैं
- रत्नत्रय में कथंचित् भेद व अभेद–देखें मोक्षमार्ग - 3,4।
- सम्यक्त्व होने पर ज्ञान व वैराग्य की शक्ति अवश्य प्रगट हो जाती है–देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- चारित्र में सम्यक्त्व का स्थान
- सम्यक्चारित्र में सम्यक्पद का महत्त्व।
- चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है।
- चारित्र सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है।
- सम्यक् हो जाने पर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है।
- सम्यक् हो जाने के पश्चात् चारित्र क्रमश: स्वत: हो जाता है।
- सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है।
- सम्यक्त्व रहित का ‘चारित्र’ चारित्र नहीं।
- सम्यक्त्व के बिना चारित्र संभव नहीं।
- सम्यक्त्व शून्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्ति का कारण नहीं।
- सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है।
- सम्यक्चारित्र में सम्यक्पद का महत्त्व।
- निश्चय चारित्र की प्रधानता
- निश्चय चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है–देखें चारित्र - 2.2।
- निश्चय चारित्र के अपरनाम–देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- निश्चय चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है–देखें चारित्र - 2.2।
- पंचम काल व अल्प भूमिकाओं में भी निश्चय चारित्र कथंचित् संभव है–देखें अनुभव - 5।
- व्यवहार चारित्र की गौणता
- मिथ्यादृष्टि सांगोपांग चारित्र पालता भी संसार में भटकता है–देखें मिथ्यादृष्टि - 2।
- मिथ्यादृष्टि सांगोपांग चारित्र पालता भी संसार में भटकता है–देखें मिथ्यादृष्टि - 2।
- प्रवृत्ति रूप व्यवहार संयम शुभास्रव है संवर नहीं–देखें संवर - 2।
- व्यवहार चारित्र निर्जरा व मोक्ष का कारण नहीं।
- व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्ट फलप्रदायी है।
- व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है।
- व्यवहार चारित्र की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है।
- व्यवहार चारित्र निश्चय का या मोक्ष का परंपरा कारण है।
- दीक्षा धारण करते समय पंचाचार अवश्य धारण किये जाते हैं।
- व्यवहारपूर्वक ही निश्चय चारित्र की उत्पत्ति का क्रम है।
- तीर्थंकरों व भरत चक्री को भी चारित्र धारण करना पड़ा था।
- व्यवहार चारित्र का फल गुणश्रेणी निर्जरा।
- व्यवहार चारित्र की इष्टता।
- मिथ्यादृष्टियों का चारित्र भी कथंचित् चारित्र है।
- बाह्य वस्तु के त्याग के बिना प्रतिक्रमणादि संभव नहीं।–देखें परिग्रह - 4.2।
- बाह्य चारित्र के बिना अंतरंग चारित्र संभव नहीं।–देखें वेद - 7.4।
- व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है।
- निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय
- निश्चय चारित्र की प्रधानता का कारण।
- व्यवहार चारित्र की गौणता व निषेध का कारण व प्रयोजन।
- व्यवहार को निश्चय चारित्र का साधन कहने का कारण।
- व्यवहार चारित्र को चारित्र कहने का कारण।
- व्यवहार चारित्र की उपादेयता का कारण व प्रयोजन।
- बाह्य और अभ्यंतर चारित्र परस्पर अविनाभावी हैं।
- एक ही चारित्र में युगपत् दो अंश होते हैं।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के चारित्र में अंतर–देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- उत्सर्ग व अपवादमार्ग का समन्वय व परस्पर सापेक्षता–देखें अपवाद - 4।
- सामायिकादि पाँचों चारित्रों में कथंचित् भेदाभेद–देखें छेदोपस्थापना ।
- सविकल्प अवस्था से निर्विकल्पावस्था पर आरोहण का क्रम–देखें धर्म - 6.4।
- ज्ञप्ति व करोति क्रिया का समन्वय–देखें चेतना - 3.8।
- वास्तव में व्रतादि बंध के कारण नहीं बल्कि उनमें अध्यवसान बंध का कारण है।
- व्रतों को छोड़ने का उपाय व क्रम।
- कारण सदृश कार्य का तात्पर्य–देखें समयसार ।
- काल के अनुसार चारित्र में हीनाधिकता अवश्य आती है–देखें निर्यापक - 1 में भगवती आराधना/671 ।
- चारित्र व संयम में अंतर–देखें संयम - 2।
- निश्चय चारित्र की प्रधानता का कारण।
- चारित्र निर्देश
- चारित्र सामान्य निर्देश
चरण का लक्षण
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/412-413 चरणं क्रिया।412। चरणं वाक्काय चेतोभिर्व्यापार: शुभकर्मसु।413।=तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना चरण कहलाता है। अर्थात मन, वचन, काय से शुभ कर्मों में प्रवृत्ति करना चरण है।
- चारित्र सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/1/6/2 चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् ।=जो आचरण करता है, अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है। ( राजवार्तिक/1/1/4/25;1/1/24/8/34;1/1/26/9/12 ) ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/23 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/8/41/11 चरति याति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारणं चेति चारित्रम् । चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं सामायिकादिकम् ।=जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं। अथवा सज्जन जिसका आचरण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं (जिसके सामायिकादि भेद हैं। और भी देखो चारित्र 1/11/1 संसार की कारणभूत बाह्य और अंतरंग क्रियाओं से निवृत्ति होना चारित्र है।
- चारित्र के एक दो आदि अनेक विकल्प
राजवार्तिक/1/7/14/41/8 चारित्रनिर्देश:...सामान्यादेकम्, द्विधा बाह्याभ्यंतरनिवृत्तिभेदात्, त्रिधा औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकविकल्पात्, चतुर्धा चतुर्यमभेदात्, पच्चधा सामायिकादिविकल्पात् । इत्येवं संख्येयासंख्येयानंतविकल्पं च भवति परिणामभेदात् ।
राजवार्तिक/9/17/7/616/18 यदवोचाम चारित्रम्, तच्चारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणात्मविशुद्धिलब्धिसामान्यापेक्षया एकम् । प्राणिपीड़ापरिहारेंद्रियदर्पनिग्रहशक्तिभेदाद् द्विविधम् । उत्कृष्टमध्यमजघन्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षंयोगात्तृतीयमवस्थानमनुभवति। विकलज्ञानविषयसरागवीतराग-सकलावबोधगोचरसयोगायोगविकल्पाच्चातुर्विध्यमप्यश्नुते। पच्चतयीं च वृत्तिमास्कंदति तद्यथा–
तत्त्वार्थसूत्र/9/18 सामायिकछेदापस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।18।=सामान्यपने एक प्रकार चारित्र है अर्थात् चारित्रमोह के उपशम क्षय व क्षयोपशम से होने वाली आत्मविशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यंतर निवृत्ति अथवा व्यवहार व निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है। या प्राणसंयम व इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है; अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य विशुद्धि के भेद से तीन प्रकार का है। चार प्रकार से यति की दृष्टि से या चातुर्यम की अपेक्षा चार प्रकार का है, अथवा छद्मस्थों का सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात असंख्यात और अनंत विकल्परूप होता है।
जैनसिद्धांत प्रवेशिका/222 चार हैं–स्वरूपाचरण चारित्र, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्र।
- चारित्र के 13 अंग
द्रव्यसंग्रह/45 वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियम् ।=वह चारित्र व्यवहार नय से पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इस प्रकार 13 भेद रूप है।
- चारित्र की भावनाएँ
महापुराण/21/98 ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाक्कायगुप्तय:। परिषहसहिष्णुत्वम् इति चारित्रभावना।98।=चलने आदि के विषय में यत्न रखना अर्थात् ईर्यादि पाँच समितियों का पालन करना, मन, वचन व काय की गुप्तियों का पालन करना, तथा परिषहों को सहन करना। ये चारित्र की भावनाएँ जाननी चाहिए।
- चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं
धवला 7/2,1,56/96/1 संजमो णाम जीवसहावो, तदो ण सो अण्णेहि विणासिज्जदि तव्विणासे जीवदव्वस्स वि विणासप्पसंगादो। ण; उवजोगस्सेव संजमस्स जीवस्स लक्खणत्ताभावादो। प्रश्न–संयम तो जीव का स्वभाव ही है, इसीलिए वह अन्य के द्वारा अर्थात् कर्मों के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका विनाश होने पर जीव द्रव्य के भी विनाश का प्रसंग आता है ? उत्तर–नहीं आयेगा, क्योंकि, जिस प्रकार उपयोग जीव का लक्षण माना गया है, उस प्रकार संयम जीव का लक्षण नहीं होता।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/7 स्वरूपे चरणं चारित्रं। स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ:। तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म:।=स्वरूप में रमना सो चारित्र है। स्वसमय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/39 चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।=क्योंकि समस्त पापयुक्त मन, वचन, काय के योगों के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित अतएव, निर्मल, परपदार्थों से विरक्ततारूप चारित्र होता है, इसलिए वह आत्मा का स्वरूप है।
- स्व व पर अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र निर्देश
नियमसार/11 मिच्छादंसणणाणचरित्तं...सम्मत्तणाणचरणं।=मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र...सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154 द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं-स्वचरितं परचरितं च। स्वसमयपरसमयावित्यर्थ:।= संसारियों का चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है—स्वचारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र। स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है। (विशेष देखें समय ) (योगसार/अमितगति/8/96)।
- स्वपर चारित्र के लक्षण
पंचास्तिकाय/156-159 जो परदव्वम्मि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं। सो सगचरित्तभट्ठो परचरियचरो हवदि जीवो।156। आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोघ भावेण। सो तेण परचरित्तो हवदि त्ति जिणा परूवंति।157। जो सव्वसगमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेण। जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो।158। चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावहिदप्पा। दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।159।=जो राग से परद्रव्य में शुभ या अशुभ भाव करता है वह जीव स्वचारित्र भ्रष्ट ऐसा परचारित्र का आचरण करने वाला है।156। जिस भाव से आत्मा को पुण्य अथवा पाप आस्रवित होते हैं उस भाव द्वारा वह (जीव) परचारित्र है।157। जो सर्वसंगमुक्त और अनन्य मन वाला वर्तता हुआ आत्मा को (ज्ञानदर्शनरूप) स्वभाव द्वारा नियत रूप से जानता देखता है वह जीव स्वचारित्र आचरता है।158। जो परद्रव्यात्मक भावों से रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ, दर्शन ज्ञानरूप भेद को आत्मा से अभेदरूप आचरता है वह स्वचारित्र को आचरता है।159 ( तिलोयपण्णत्ति/9/22 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154/ तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं परचरितम् ।=तहाँ स्वभाव में अवस्थित अस्तित्वस्वरूप वह स्वचारित्र है और परभाव में अवस्थित अस्तित्वस्वरूप वह परचारित्र है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/156-159 य: कर्ता:...शुद्धात्मद्रव्यात्परिभ्रष्टो भूत्वारागभावेन परिणम्य...शुद्धोपयोगाद्विपरीत: समस्तपरद्रव्येषु शुभमशुभं वा भावं करोति स ज्ञानानंदैकस्वभावात्मा... स्वकीयचारित्राद्भ्रष्ट: सन् स्वसंवित्त्यनुष्ठानविलक्षणपरचारित्रचरो भवतीति सूत्राभिप्राय:।156। निजशुद्धात्मसंवित्त्यनुचरणरूपं परमागमभाषया वीतरागपरमसामायिकसंज्ञं स्वचरितम् ।158। पूर्वं सविकल्पावस्थायां ज्ञाताहं द्रष्टाहमिति यद्विकल्पद्वयं तंनिर्विकल्पसमाधिकालेऽनंतज्ञानादिगुणस्वभावादात्मन: सकाशादभिन्नं चरतीति सूत्रार्थ:।159।=जो व्यक्ति शुद्धात्म द्रव्य से परिभ्रष्ट होकर, रागभाव रूप से परिणमन करके, शुद्धोपयोग से विपरीत समस्त परद्रव्यों में शुभ व अशुभ भाव करता है, वह ज्ञानानंदरूप एकस्वभावात्मक स्वकीय चारित्र से भ्रष्ट हो, स्वसंवेदन से विलक्षण परचारित्र को आचरने वाला होता है, ऐसा सूत्र का तात्पर्य है।156। निज शुद्धात्मा के संवेदन में अनुचरण करने रूप अथवा आगमभाषा में वीतराग परमसामायिक नामवाला अर्थात् समता भावरूप स्वचारित्र होता है।158। पहले सविकल्पावस्था में ‘मैं ज्ञाता हूँ, मैं दृष्टा हूँ’ ऐसे जो दो विकल्प रहते थे वे अब इस निर्विकल्प समाधिकाल में अनंतज्ञानादि गुणस्वभाव होने के कारण आत्मा से अभिन्न ही आचरण करता है, ऐसा सूत्र का अर्थ है।159। और भी देखो ‘समय’ के अंतर्गत स्वसमय व परसमय।
- सम्यक् व मिथ्या चारित्र के लक्षण
मोक्षपाहुड़/100 जदि काहि बहुविहे य चारित्ते। तं बाल...चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीद।=बहुत प्रकार से धारण किया गया भी चारित्र यदि आत्मस्वभाव से विपरीत है तो उसे बालचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र जानना।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/91 भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभास....तन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च।...अथवा स्वात्म... अनुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्या...चारित्रं।=भगवान अर्हंत परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का आचरण करना वह मिथ्याचारित्र है। अथवा निज आत्मा के अनुष्ठान के रूप से विमुखता वही मिथ्याचारित्र है।
नोट—सम्यक्चारित्र के लक्षण के लिए देखो चारित्र सामान्य का, अथवा निश्चय व्यवहार चारित्र का अथवा सराग वीतराग चारित्र का लक्षण।
- निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश
चारित्र यद्यपि एक प्रकार का है परंतु उसमें जीव के अंतरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत् उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओं में विकल्प व निर्विकल्पता की प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकार से किया जाता है–निश्चय चारित्र व व्यवहार चारित्र।
तहाँ जीव की अंतरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओं का ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं में यत्नाचार रूप समिति और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने रूप गुप्ति ये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्र का नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्र का नाम वीतराग चारित्र। निचली भूमिकाओं में व्यवहार चारित्र की प्रधानता रहती है और ऊपर ऊपर की ध्यानस्थ भूमिकाओं में निश्चय चारित्र की।
- निश्चय चारित्र का लक्षण
- बाह्याभ्यंतर क्रियाओं से निवृत्ति–
मोक्षपाहुड़/37 तच्चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं।=पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है। ( नयचक्र बृहद्/378 )।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/8 संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: कर्मादानक्रियोपरम: सम्यग्चारित्रम् ।=जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं। ( राजवार्तिक/1/1/3/4/9;1/7/14/41/5 ); ( भगवती आराधना वि./6/32/12) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 ) ( लाटी संहिता/4/263/191 )।
द्रव्यसंग्रह मूल/46 व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयति–बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासट्ठं। णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं।46।=व्यवहार चारित्र से साध्य निश्चय चारित्र का निरूपण करते हैं–ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए बाह्य और अंतरंग क्रियाओं का निरोध होता है वह उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/72 चारित्रं विरति: प्रमादविलसत्कर्मास्रवाद्योगिनां।=योगियों का प्रमाद से होने वाले कर्मास्रव से रहित होने का नाम चारित्र है।
- ज्ञान व दर्शन की एकता ही चारित्र है
चारित्तपाहुड़/ पू./3 जं जाणइ तं णाणं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं। णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।3।=जो जानै सो ज्ञान है, बहुरि जो देखे सो दर्शन है, ऐसा कह्या है। बहुरि ज्ञान और दर्शन के समायोग तै चारित्र होय है।
- साम्यता या ज्ञाता दृष्टाभाव का नाम चारित्र है
प्रवचनसार/7 चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।7।=चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। साम्य मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है।7। ( मोक्षपाहुड़/50 ); ( पंचास्तिकाय/107 )
महापुराण/24/119 माध्यस्थलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितुषो मुने:। मोक्षकामस्य निर्मुक्तश्चेलसाहिंसकस्य तत् ।119। =इष्ट अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह सम्यग्चारित्र यथार्थ रूप से तृषा रहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले वस्त्ररहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज के ही होता है।
नयचक्र बृहद्/356 समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहाव आराहणा भणिया।356।=समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 ); ( लाटी संहिता/4/263/191 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/242 ज्ञेयज्ञातृक्रियांतरनिवृत्तिसूव्यमाणद्रष्ट्टज्ञातृत्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण ...।=ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियांतर से अर्थात् अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में (ज्ञाता द्रष्टा भाव में) परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है।
- स्वरूप में चरण करना चारित्र है
समयसार / आत्मख्याति/386 स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरंतरचरणाच्चारित्रं भवति।=अपने में अर्थात् ज्ञानस्वभाव में ही निरंतर चरने से चारित्र है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/7 स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ:। तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म:।=स्वरूप में चरण करना चारित्र है, स्वसमय में प्रवृत्ति करना इसका अर्थ है। यही वस्तु का (आत्मा का) स्वभाव होने से धर्म है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/154/224/14 जीवस्वभावनियतचारित्रं भवति। तदपि कस्मात् । स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वचनात् ।=जीव स्वभाव में अवस्थित रहना ही चारित्र है, क्योंकि, स्वरूप में चरण करने को चारित्र कहा है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/3 )
- स्वात्मा में स्थिरता चारित्र है
पंचास्तिकाय/162 जे चरदि णाणी पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं। सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।162।=जो (आत्मा) अनन्यमय आत्मा को आत्मा से आचरता है वह आत्मा ही चारित्र है।
मोक्षपाहुड़/83 णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोइ सो लहइ णिव्वाणं।83।=जो आत्मा आत्मा ही विषै आपहीकै अर्थि भले प्रकार रत होय है। यो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाण कूँ पावै है।
समयसार / आत्मख्याति/155 रागादिपरिहरणं चरणं।=रागादिक का परिहार करना चारित्र है। ( धवला 13/358/2 )
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/30 जाणवि मण्णवि अप्पपरु जो परभाउ चएहि। सो णियसुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ।30।=अपनी आत्मा को जानकर व उसका श्रद्धान करके जो परभाव को छोड़ता है, वह निजात्मा का शुद्धभाव चारित्र होता है। ( मोक्षपाहुड़/37 )
मोक्ष पंचाशत्/मूल/45 निराकुलत्वजं सौख्यं स्वयमेवावतिष्ठत:। यदात्मनैव संवेद्यं चारित्रं निश्चयात्मकम् ।45।=आत्मा द्वारा संवेद्य जो निराकुलताजनक सुख सहज ही आता है, वह निश्चयात्मक चारित्र है।
नयचक्र बृहद्/354 सामण्णे णियबोहे बियलियपरभावपरमसब्भावे। तत्थाराहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती। =परभावों से रहित परम स्वभावरूप सामान्य निज बोध में अर्थात् शुद्धचैतन्य स्वभाव में तत्त्वाराधना युक्त होने वाला शुद्ध चारित्री कहलाता है।
योगसार (अमितगति)/8/95 विविक्तचेतनध्यानं जायते परमार्थत:।–निश्चयनय से विविक्त चेतनध्यान -निश्चय चारित्र मोक्ष का कारण है। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/244/338/17 )
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/19 अप्पसरूवं वत्थु चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं। सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं।99।=रागादि दोषों से रहित शुभ ध्यान में लीन आत्मस्वरूप वस्तु को उत्कृष्ट चारित्र जानों।99।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/55 स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् ।=निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/3 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/6/7/14 आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये यन्निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं, तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते।=आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्धात्म द्रव्य में निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्र का लक्षण है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/38 ), ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति /155), ( द्रव्यसंग्रह टीका/46/197/8 )
द्रव्यसंग्रह टीका/40/163/13 संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुन: पुन: स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् ।=समस्त संकल्प विकल्पों के त्याग द्वारा, उसी (वीतराग) सुख में संतुष्ट तृप्त तथा एकाकार परम समता भाव से द्रवीभूत चित्त का पुन: पुन: स्थिर करना सम्यक्चारित्र है। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/30 की उत्थानिका)
- बाह्याभ्यंतर क्रियाओं से निवृत्ति–
- व्यवहार चारित्र का लक्षण
समयसार/386 णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वई णिच्चं पडिकम्मदि यो य। णिच्चं आलोचेयइ सो हु चारित्तं हवइ चेया।386।=जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है।386।
भगवती आराधना/9/45 कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो।=यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होने के अनंतर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है।
रत्नकरंड श्रावकाचार/49 हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च। पापप्रणालिकाभ्यो विरति: संज्ञस्य चारित्रं।49। =हिंसा, असत्य, चोरी, तथा मैथुनसेवा और परिग्रह इन पाँचों पापों की प्रणालियों से विरक्त होना चारित्र है। ( धवला 6/1,9-1,22/40/5 ), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/52 ), ( मोक्षपाहुड़/ टीका/37,38/328)
योगसार/अमितगति/8/95 कारणं निर्वृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारत:।...।95। व्रतादि का आचरण करना व्यवहार चारित्र है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/39 चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।39।=समस्त पापयुक्त, मन, वचन, काय के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित अतएव निर्मल परपदार्थों से विरक्ततारूप चारित्र होता है। इसलिए वह चारित्र आत्मा का स्वभाव है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/33/1 एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया...।=अविरति, प्रमाद, कषायों का त्याग स्वाध्याय करने से तथा ध्यान करने से होता है, इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं।
द्रव्यसंग्रह/45 असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवववहारणयादु जिण भणियं।45।=अशुभ कार्यों से निवृत्त होना और शुभकार्यों में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। व्यवहार नय से उस चारित्र को व्रत, समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है।
तत्त्वानुशासन/27 चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितै:। पापक्रियाणां यस्त्याग: सच्चारित्रमुषंति तत् ।27। = मन से, वचन से, काय से, कृत कारित अनुमोदना के द्वारा जो पापरूप क्रियाओं का त्याग है उसको सम्यग्चारित्र कहते हैं।
- सराग वीतराग चारित्र निर्देश
[वह चारित्र अन्य प्रकार से भी दो भेद रूप कहा जाता है—सराग व वीतराग। शुभोपयोगी साधु का व्रत, समिति, गुप्ति के विकल्पोंरूप चारित्र सराग है, और शुद्धोपयोगी साधु के वीतराग संवेदनरूप ज्ञाता दृष्टा भाव वीतराग चारित्र है।]
- सराग चारित्र का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/2 संसारकारणविनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णोऽक्षीणाशय: सराग इत्युच्छते। प्राणींद्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरति: संयम:। सरागस्य संयम: सरागो वा संयम: सरागसंयम:। = जो संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक है, परंतु जिसके मन से राग के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, वह सराग कहलाता है। प्राणी और इंद्रियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं। सरागी जीव का संयम सराग है। ( राजवार्तिक/6/12/5-6/522/21 )
नयचक्र बृहद्/334 मूलुत्तरसमणण्णुणा धारण कहणं च पंच आयारो। सो ही तहव सणिट्ठा सरायचरिया हवइ एवं।334।=श्रमण जो मूल व उत्तर गुणों को धारण करता है तथा पंचाचारों का कथन करता है अर्थात् उपदेश आदि देता है, और आठ प्रकार की शुद्धियों में निष्ठ रहता है, वह उसका सराग चारित्र है।
द्रव्यसंग्रह/45/194 वीतरागचारित्रस्य साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति।..."असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त। वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं।45।=वीतराग चारित्र के परंपरा साधक सराग चारित्र को कहते हैं–जो अशुभ कार्य से निवृत्त होना और शुभकार्य में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए, व्यवहार नय से उसको व्रत, समिति, गुप्ति स्वरूप कहा है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/230/315/10 तत्रासमर्थ: पुरुष:–शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गुह्णातीत्यपवादो ‘व्यवहारनय’ एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयम: सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थ:।=वीतराग चारित्र में असमर्थ पुरुष शुद्धात्म भावना के सहकारीभूत जो कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञानादि के उपकरणों का ग्रहण करता है, वह अपवाद मार्ग,–व्यवहार नय या व्यवहार चारित्र, एकदेश परित्याग, अपहृत संयम, सराग चारित्र या शुभोपयोग कहलाता है। यह सब शब्द एकार्थवाची है।
नोट–और भी–देखें चारित्र - 1.12 में व्यवहार चारित्रसंयम/1 में अपहृत संयम, ‘अपवाद’ में अपवादमार्ग।
- वीतराग चारित्र का लक्षण
नयचक्र बृहद्/378 सुहअसुहाण णिवित्ति चरणं साहूस्स वीयरायस्स। =शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के योगों से निवृत्ति, वीतराग साधु का चारित्र है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/152 स्वरूपविश्रांतिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे।=स्वरूप में विश्रांति सो ही परम वीतराग चारित्र है।
द्रव्यसंग्रह टीका/52/219/1 रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखस्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचार:=उस शुद्धात्मा में रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुख के आस्वादन से निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है। उसमें जो आचरण करना सो निश्चय चारित्राचार है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/2/8/10 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/1 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/230/315/8 शुद्धात्मन: सकाशादंयबाह्याभ्यंतरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गो ‘निश्चय नय:’ सर्वपरित्याग: परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्तं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थ:।=शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह रूप पदार्थों का त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है। उसे ही निश्चयनय या निश्चयचारित्र व शुद्धोपयोग भी कहते हैं, इन सब शब्दों का एक ही अर्थ है।
नोट–और भी देखें चारित्र/1/11 में निश्चय चारित्र: संयम/1 में उपेक्षा संयम; अपवाद में उत्सर्ग मार्ग।
- स्वरूपाचरण व संयमाचरण चारित्र निर्देश
चारित्तपाहुड़/ मूल 5 जिणाणाणदिट्ठिसुद्धपढमं सम्मत्तं चरणचारित्तं। विदियं संजमचरणं जिणणाणदेसियं तं पि।5। =पहला तो, जिनदेव ज्ञान दर्शन व श्रद्धाकरि शुद्ध ऐसा सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा संयमाचरण चारित्र है।
चारित्तपाहुड़/ टीका/3/32/3 द्विविधं चारित्रं–दर्शनाचारचारित्राचारलक्षणं।=दर्शनाचार और चारित्राचार लक्षणवाला चारित्र दो प्रकार का है। जैन सिद्धांत प्रवेशिका/223 शुद्धात्मानुभवन से अविनाभावी चारित्रविशेष को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।
- अधिगत व अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण
राजवार्तिक/3/36/2/201/8 चारित्रार्या द्वेधा अधिगतचारित्रार्या: अनधिगतचारित्रार्याश्चेति। तद्भेद: अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृत:। चारित्रमोहस्योपशमात् क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कंदिन: उपशांतकषाया: क्षीणकषायाश्चाधिगतचारित्रार्या: अंतश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्या:। =असावद्यकर्मार्य दो प्रकार के हैं–अधिगत चारित्रार्य और अनधिगत चारित्रार्य। जो बाह्य उपदेश के बिना स्वयं ही चारित्रमोह के उपशम वा क्षय से प्राप्त आत्म प्रसाद से चारित्र परिणाम को प्राप्त हुए हैं, ऐसे उपशांत कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थावर्ती जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और जो अंदर में चारित्रमोह का क्षयोपशम होने पर बाह्योपदेश के निमित्त से विरति परिणाम को प्राप्त हुए हैं वे अनधिगत चारित्रार्य हैं। तात्पर्य यह है कि उपशम व क्षायिकचारित्र तो अधिगत कहलाते हैं और क्षयोपशम चारित्र अनधिगत।
- क्षायिकादि चारित्र निर्देश
धवला 6/1,9-8,14/281/1 सयलचारित्तं तिविहं खओवसमियं, ओवसमियं खइयं चेदि।=क्षायोपशमिक, औपशमिक व क्षायिक के भेद से सकल चारित्र तीन प्रकार का है। ( लब्धिसार/ मू./189/243)।
- औपशमिक चारित्र का लक्षण
राजवार्तिक/2/3/3/105/17 अष्टाविंशतिमोहविकल्पोपशमादौपशमिकं चारित्रम् =अनंतानुबंधी आदि 16 कषाय और हास्य आदि नव नोकषाय, इस प्रकार 25 तो चारित्रमोह की और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीय की–ऐसे मोहनीय की कुल 28 प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है। ( सर्वार्थसिद्धि/2/3/153/7 )।
- क्षायिक चारित्र का लक्षण
राजवार्तिक/2/4/7/107/11 पूर्वोक्तस्य दर्शनमोहत्रिकस्य चारित्रमोहस्य च पच्चविंशतिविकल्पस्य निरवशेषक्षयात् क्षायिके सम्यक्त्वचारित्रे भवत:।=पूर्वोक्त (देखो ऊपर औपशमिक चारित्र का लक्षण) दर्शन मोह की तीन और चारित्र मोह की 25; इन 28 प्रकृतियों के निरवशेष विनाश से क्षायिक चारित्र होता है। ( सर्वार्थसिद्धि/2/4/155/1 )
- क्षायोपशमिक चारित्र का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/5/157/8 अनंतानुबंधयप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमदेशघातिस्पर्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मन: क्षायोपशमिकं चारित्रम्=अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा चार संज्वलन कषायों में से किसी एक देशघाती प्रकृति के उदय होने पर और नव नोकषायों का यथा संभव उदय होने पर जो त्यागरूप परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक चारित्र है। ( राजवार्तिक/2/5/8/108/3 ) इस विषयक विशेषताएँ व तर्क आदि। देखें क्षयोपशम ।
- सामायिकादि चारित्र पच्चक निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/9/18 सामायिकछेदोपस्थानापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।=सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात–ऐसे चारित्र पाँच प्रकार का है। (और भी–देखें संयम - 1।
- चारित्र सामान्य निर्देश
- मोक्षमार्ग में चारित्र की प्रधानता
- चारित्र ही धर्म है
प्रवचनसार/7 चारित्तं खलु धम्मो=चारित्र वास्तव में धर्म है ( मोक्षपाहुड़/50 ) ( पंचास्तिकाय/107 )।
- चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है
चारित्तपाहुड़/ मूल/8-9 तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तं चरणचारित्तं।8। सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं।9।=प्रथम सम्यक्त्व चरणचारित्र मोक्षस्थान के अर्थ है।8। जो अमूढदृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण और संयमाचरण दोनों से विशुद्ध होता है, वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है।
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/4 चारित्रमंते गृह्यंते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्करणमिति ज्ञापनार्थं=चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है यह बात जानने के लिए सूत्र में इसका ग्रहण अंत में किया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्ष:। तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपा बंध:=दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्र से यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेंद्र, असुरेंद्र, व नरेंद्र के वैभव क्लेशरूप बंध की प्राप्ति होती है, (यो.सा.अ/6/12)
पंचाध्यायी/ उत्तरार्ध/759 चारित्रं निर्जरा हेतुर्न्यायादप्यस्त्यबाधितम् । सर्वस्वार्थक्रियामर्हन्, सार्थनामास्ति दीपवत् ।759। = वह चारित्र (पूर्व श्लोक में कथित शुद्धोपयोग रूप चारित्र) निर्जरा का कारण है, यह बात न्याय से भी अबाधित है। वह चारित्र अन्वर्थ क्रिया में समर्थ होता हुआ दीपक की तरह अन्वर्थ नामधारी है।
- चारित्राराधना में अन्य सर्व आराधनाएँ गर्भित हैं
भगवती आराधना/8/41 अहवा चारित्राराहणाए आहारियं सव्वं। आराहणाए सेसस्स चारित्राराहणा भज्जा।8।=चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान व तप, यह तीनों आराधनाएँ भी हो जाती हैं। परंतु दर्शनादि की आराधना से चारित्र की आराधना हो या न भी हो।
- चारित्रसहित ही सम्यक्त्व, ज्ञान व तप सार्थक है
शीलपाहुड़/ मूल/5 णाणं चरित्तहीणं लिंगगहणं च दंसणविहूणं। संजमहीणो य तवो तइ चरइ णिरत्थयं सव्वं।5। = चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिंग तथा संयमहीन तप ऐसे सर्व का आचरण निरर्थक है। ( मोक्षपाहुड़/57,59,67 ) (मूलाचार/950) (अ.आ./मू./770/929); (आराधनासार/54/129)।
मूलाचार/897 थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चारित्तं। संपुण्णो जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण।897।=जो मुनि चारित्र से पूर्ण है, वह थोड़ा भी पढ़ा हुआ हो तो भी दशपूर्व के पाठी को जीत लेता है। (अर्थात् वह तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और संयमहीन दशपूर्व का पाठी संसार में ही भटकता है) क्योंकि जो चारित्र रहित है, वह बहुत से शास्त्रों का जानने वाला हो जाये तो भी उसके बहुत शास्त्र पढ़े होने से क्या लाभ (मूलाचार/894)।
भगवती आराधना/12/56 चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं। चक्खू होइ णिरत्थं दठ्ठूण बिले पडंतस्स।52।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/12/56/17 ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदर्शि तद्युक्तं ज्ञानस्योपकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थांसिद्धि: यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं। =नेत्र और उससे होने वाला जो ज्ञान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दु:खों का परिहार करना है। परंतु जो बिल आदिक देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्र ज्ञान वृथा है।2। प्रश्न–ज्ञान इष्ट अनिष्ट मार्ग को दिखाता है, इसलिए उसको उपकारपना युक्त है (परंतु क्रिया आदि का उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। उत्तर–यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान मात्र से इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुए के समान है। जैसे नेत्र के होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं।
समाधिशतक/81 शृण्वन्नप्यन्यत: कामं वदन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ।81। =आत्मा का स्वरूप उपाध्याय आदि के मुख से खूब इच्छानुसार सुनने पर भी, तथा अपने मुख से दूसरों को बतलाते हुए भी जब तक आत्मस्वरूप की शरीरादि परपदार्थों से भिन्न भावना नहीं की जाती, तब तक यह जीव मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/81 बुज्झइ सत्थइं तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ। ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ।82।=शास्त्रों को खूब जानता हो और तपस्या करता हो, लेकिन परमात्मा को जो नहीं जानता या उसका अनुभव नहीं करता, तब तक वह नहीं छूटता।
समयसार / आत्मख्याति/72 यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्या निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति। =यदि आत्मा और आस्रवों का भेदज्ञान होने पर भी आस्रवों से निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/237 अयं जीव: श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यपि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न किमपि।=यह जीव श्रद्धान या ज्ञान सहित होता हुआ भी यदि चारित्ररूप पुरुषार्थ के बल से रागादि विकल्परूप असंयम से निवृत्त नहीं होता तो उसका वह श्रद्धान व ज्ञान उसका क्या हित कर सकता है। कुछ भी नहीं।
मोक्षपाहुड़/ पं.जयचंद/98 जो ऐसे श्रद्धान करै, जो हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगड़ै तौ बिगड़ौ, हम मोक्षमार्गी ही हैं, तौ ऐसे श्रद्धान तै तौ जिनाज्ञा होनेतै सम्यक्त्व का भंग होय है। तब मोक्ष कैसे होय।
शीलपाहुड़/ पं.जयचंद/98 सम्यक्त्व होय तब विषयनितै विरक्त होय ही होय। जो विरक्त न होय तो संसार मोक्ष का स्वरूप कहा जानना।
- चारित्रधारणा ही सम्यग्ज्ञान का फल है
धवला 1/1,1,115/353/8 किं तद्ज्ञानकार्यमिति चेत्तत्त्वार्थे रुचि: प्रत्यय: श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च। =प्रश्न–ज्ञान का कार्य क्या है ? उत्तर–तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना कार्य है।
द्रव्यसंग्रह टीका/36/153/5 यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्ति।=जो रागादिक का भेद विज्ञान हो जाने पर रागादिक का त्याग करता है, उसे भेद विज्ञान का फल है।
- चारित्र ही धर्म है
- चारित्र में सम्यक्त्व का स्थान
- सम्यक् चारित्र में सम्यक् पद का महत्त्व
सर्वार्थसिद्धि/1/1/5/9 अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् । =अज्ञानपूर्वक आचरण के निराकरण के अर्थ सम्यक् विशेषण दिया गया है।
- चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है
समयसार/19,34 एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।18। सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाइं परे त्ति णादूणं। तम्हा पचक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वा।34।=मोक्ष के इच्छुक को पहले जीवराजा को जानना चाहिए, फिर उसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए, और तत्पश्चात् उसका आचरण करना चाहिए।18। अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर है, ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, अत: प्रत्याख्यान ज्ञान ही है ( पंचास्तिकाय/104 )।
सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/3 चारित्रात्पूर्वं ज्ञानं प्रयुक्तं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य। = सूत्र में चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है। ( राजवार्तिक/1/1/32/9/32 ), ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/38 )।
धवला 13/5,5,50/288/6 चारित्राच्छ्रुतं प्रधानमिति अग्रयम् । कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमंतरेण चारित्रानुपपत्ते:।=चारित्र से श्रुत प्रधान है, इसलिए उसकी अग्रय संज्ञा है। प्रश्न–चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण से है? उत्तर–क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है।
समयसार / आत्मख्याति/34 य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न पुनरन्य ... प्रत्याख्यानं ज्ञानमेव इत्यनुभवनीयम् । =जो पहले जानता है वही त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करने वाला नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही है।
- चारित्र सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है
चारित्तपाहुड़/ मूल/8 जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।8।
चारित्तपाहुड़/ टीका/8/35/16 द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्वाचारचारित्रं प्रथमं भवति।=दर्शनाचार और चारित्राचार इन दोनों में सम्यक्त्वाचरण चारित्र पहले होता है।
रयणसार/73 पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्जं। पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियसम्मभेसज्जं।73। = भव्य जीवों को सम्यक्त्वरूपी रसायन द्वारा पहले मिथ्यामल का शोधन करना चाहिए, पुन: चारित्ररूप औषध का सेवन करना चाहिए। इस प्रकार करने से कर्मरूपी रोग तत्काल ही नाश हो जाता है।
मोक्ष पाहुड/मूल/8 तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।8।=जिनका सम्यक्त्वविशुद्ध होय ताहि यथार्थ ज्ञान करि आचरण करै, सो प्रथम सम्यक्त्वाचरण चारित्र है, सो मोक्षस्थान के अर्थ होय है।8।
सर्वार्थसिद्धि/2/3/153/7 सम्यक्त्वस्यादौ वचनं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य। =’सम्यक्त्वचारित्रे’ इस सूत्र में सम्यक्त्व पद को आदि में रखा है, क्योंकि चारित्र सम्यक्त्वपूर्वक होता है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/273/10 )।
राजवार्तिक/2/3/4/105/21 पूर्वं सम्यक्त्वपर्यायेणाविर्भाव आत्मनस्तत: क्रमाच्चारित्रपर्याय आविर्भवतीति सम्यक्त्वस्यादौ ग्रहणं क्रियते। =पहले औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। तत्पश्चात् क्रम से आत्मा में औपशमिक चारित्र पर्याय का प्रादुर्भाव होता है, इसी से सम्यक्त्व का ग्रहण सूत्र के आदि में किया गया है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/21 तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च।21।=इन तीनों (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) के पहले समस्त प्रकार से सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व होते हुए ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है।
आत्मानुशासन/120-121 प्राक् प्रकाशप्रधान: स्यात् प्रदीप इव संयमी। पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ।120। भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रभास्वर:। स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वत्कर्मकज्जलप् ।121।=साधु पहले दीप के समान प्रकाशप्रधान होता है। तत्पश्चात् वह सूर्य के समान ताप और प्रकाश दोनों से शोभायमान होता है।120। वह बुद्धिमान साधु (सम्यक्त्व द्वारा) दीपक के समान होकर ज्ञान और चारित्र से प्रकाशमान होता है, तब वह कर्म रूप काजल को उगलता हुआ स्व के साथ पर को प्रकाशित करता है।
- सम्यक्त्व हो जाने पर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/768 अर्थोऽयं सति सम्यक्त्वे ज्ञानं चारित्रमत्र यत् । भूतपूर्वं भवेत्सम्यक् सूते वाभूतपूर्वकम् ।768। = सम्यग्दर्शन के होते ही जो भूतपूर्व ज्ञान व चारित्र था, वह सम्यक् विशेषण सहित हो जाता है। अत: सम्यग्दर्शन अभूतपूर्व के समान ही सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को उत्पन्न करता है, ऐसा कहा जाता है।
- सम्यक्त्व हो जाने के पश्चात् क्रमश: चारित्र स्वत: हो जाता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/940 स्वसंवेदनप्रत्यक्षं ज्ञानं स्वानुभवाह्वयम् । वैराग्यं भेदविज्ञानमित्याद्यस्तीह किं बहु।940।=सम्यग्दर्शन के होने पर आत्मा में प्रत्यक्ष, स्वानुभव नाम का ज्ञान, वैराग्य और भेद विज्ञान इत्यादि गुण प्रगट हो जाते हैं।
शीलपाहुड़/ पं.जयचंद/40 सम्यक्त्व होय तो विषयनितैं विरक्त होय ही होय। जो विरक्त न होय तौ संसार मोक्ष का स्वरूप कहा जान्या ?
- सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है
चारित्तपाहुड़/ मूल 3 णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।
बोधपाहुड़/ मूल/20 संजमसंजुतस्स य सुज्झाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स। णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं। = ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है।3। संयम करि संयुक्त और ध्यान के योग्य ऐसा जो मोक्षमार्ग ताका लक्ष्य जो अपना निज स्वरूप सो ज्ञानकरि पाइये है तातै ऐसे लक्षकूं जाननेकूं ज्ञानकूं जानना।20।
धवला 12/4,2,7,177/81/10 सो संजमो जो सम्माविणाभावीण अण्णो। तत्थ गुणसेडिणिज्जराकज्जणुवलंभादो। तदो संजमगहणादेव सम्मत्तसहायसंजमसिद्धी जादा। = संयम वही है, जो सम्यक्त्व का अविनाभावी है, अन्य नहीं। क्योंकि, अन्य में गुणश्रेणी निर्जरारूप कार्य नहीं उपलब्ध होता। इसलिए संयम के ग्रहण करने से ही सम्यक्त्व सहित संयम की सिद्धि हो जाती है।
- सम्यक्त्व रहित का चारित्र चारित्र नहीं है
सर्वार्थसिद्धि/6/21/336/7 सम्यक्त्वाभावे सति तद्वयपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रांतर्भवति।=सम्यक्त्व के अभाव में सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनों का यही (सूत्र के ‘सम्यक्त्व’ शब्द में) अंतर्भाव होता है।
राजवार्तिक/6/21/2/528/4 नासतिसम्यक्त्वे सरागसंयम-संयमासंयम-व्यपदेश इति।=सम्यक्त्व के न होने पर सरागसंयम और संयमासंयम ये व्यपदेश ही नहीं होता। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/38 )।
श्लोकवार्तिक/ संस्कृत/6/23/7/पृष्ठ 556 संसारात् भीरुताभीक्ष्णं संवेग:। सिद्धयताम् यत: न तु मिथ्यादृशाम् । तेषाम् संसारस्य अप्रसिद्धित:।=बुद्धिमानों में ऐसी सम्मति है कि संसारभीरु निरंतर संविग्न रहता है। परंतु यह बात मिथ्यादृष्टियों में नहीं है। उन बुद्धिमानों में संसार की प्रसिद्धि नहीं है।
धवला 1/1,1,4/144/4 संयमनं संयम:। न द्रव्ययम: संयमस्तस्य ‘सं’ शब्देनापादित्वात् । = संयमन करने को संयम कहते हैं, संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर द्रव्य यम अर्थात् भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र संयम नहीं हो सकता। क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये ‘सं’ शब्द से उसका निराकरण कर दिया गया है। ( धवला 1/1,1,14/177/4 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/236/326/11 यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि ...पंचेंद्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावर्तोऽपि संयतो न भवति।=निर्दोष निज परमानंद ही उपादेय है, यदि ऐसा रुचि रूप सम्यक्त्व नहीं है, तब पंचेंद्रियों के विषयों की अभिलाषा का त्याग रूप इंद्रिय संयम तथा षट्काय के जीवों का वध का त्यागरूप प्राणि संयम ही नहीं होता ।
मार्गणा–[मार्गणा प्रकरण में सर्वत्र भाव मार्गणा इष्ट है]।
- सम्यक्त्व के बिना चारित्र संभव नहीं
रयणसार/47 सम्मत्तं विणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण।=सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नियमपूर्वक नहीं होते हैं।47। (और भी–देखें लिंग - 2) (स.सं/6/21/336/7); ( राजवार्तिक/6/21/2/528/4 )।
धवला 1/1,1,13/175/3 तांयंतरेणाप्रत्याख्यानस्योत्पत्तिविरोधात् । सम्यक्त्वमंतरेणापि देशयतयो दृश्यंते इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकांक्षस्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते:।
धवला 1/1,1,130/378/7 मिथ्यादृष्टयोऽपि केचित्संयतो दृश्यंते इति चेन्न, सम्यक्त्वमंतरेण संयमानुपपत्ते:।=1. औपशमिक, क्षायिक व क्षोयापशमिक इन तीनों में से किसी एक सम्यग्दर्शन के बिना अप्रत्याख्यान चारित्र का (संयमासंयम का) प्रादर्भाव नहीं हो सकता। प्रश्न–सम्यग्दर्शन के बिना भी देश संयमी देखने में आते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जो जीव मोक्ष की आकांक्षा से रहित हैं, और जिनकी विषय पिपासा दूर नहीं हुई है, उनको अप्रत्याख्यान संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। प्रश्न–कितने ही मिथ्यादृष्टि संयत देखे जाते हैं ? उत्तर–नहीं; क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/8/41/17 मिथ्यादृष्टिस्त्वनशनादावुद्यतोऽपि न चारित्रमाराधयति।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/273/10 न श्रद्धानं ज्ञानं चांतरेण संयम: प्रवर्तते। अजानत: श्रद्धानरहितस्य वासंयमपरिहारो न संभाव्यते। =1. मिथ्यादृष्टि को अनशनादि तप करते हुए भी चारित्र की आराधना नहीं होती। 2. श्रद्धान और ज्ञान के बिना संयम की प्रवृत्ति ही नहीं होती। क्योंकि जिसको ज्ञान नहीं होता, और जो श्रद्धान रहित है, वह असंयम का त्याग नहीं करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/236 इह हि सर्वस्यापि...तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणया दृष्टया शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायै: सहैक्यमध्यवसतो...सर्वतो निवृत्त्यभावात् परमात्मज्ञानाभावाद् ...ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धयेत् ।=इस लोक में वास्तव में तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षणवाली दृष्टि से जो शून्य है, उन सभी को संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वपर विभाग के अभाव के कारण काया और कषायों की एकता का अध्यवसाय करने वाले उन जीवों के सर्वत: निवृत्ति का अभाव है, तथापि उनके परमात्मज्ञान के अभाव के कारण आत्मतत्त्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति के अभाव में संयम ही सिद्ध नहीं होता।
- सम्यक्त्व शून्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्ति का कारण नहीं है
चारित्तपाहुड़/ मूल/10सम्मत्तचरणभट्टा संजमचरणं चरंति जे वि णरा। अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं।10।=जो पुरुष सम्यक्त्व चरण चारित्र (स्वरूपाचरण चारित्र) करि भ्रष्ट हैं, अर संयम आचरण करे हैं तोऊ ते अज्ञानकरि मूढ दृष्टि भए संते निर्वाणकूं नहीं पावैं हैं।
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/82 बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइं पर परमत्थु ण वेइ। ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ।8।=शास्त्रों को जानता है, तपस्या करता है, लेकिन परमात्मा को नहीं जानता, और जब तक पूर्व प्रकार से उसको नहीं जानता तब तक नहीं छूटता।
योगसार/अमितगति/2/50 अजीवतत्त्वं न विदंति सम्यक् यो जीवत्वाद्विधिनाविभक्तं। चारित्रवंतोऽपि न ते लभंते विविक्तमानमपास्तदोषम् । = जो विधि पूर्वक जीव तत्त्व से सम्यक् प्रकार विभक्त (भिन्न किये गये) अजीव तत्त्व को नहीं जानते वे चारित्रवंत होते हुए भी निर्दोष परमात्मतत्त्व को नहीं प्राप्त होते।
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/7/26/भाषाकार–मोक्ष के अभिप्राय से धारे गये व्रत ही सार्थक हैं। देखें मिथ्यादृष्टि - 4 (सांगोपांग चारित्र का पालन करते हुए भी मिथ्यादृष्टि मुक्त नहीं होता)।
- सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है इत्यादि
समयसार/273 वदसमिदिगुत्तीओ सीलतवं जिनवरेहिं पण्णत्तं। कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छादिट्ठी दु।273।=जिनेंद्र देव के द्वारा कथित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप करता हुआ भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है। ( भगवती आराधना/771/929 )।
मोक्षपाहुड़/100 जदि पढदि बहुसुदाणि जदि कहिदि बहुविहं य चारित्तं। तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं।=जो आत्म स्वभाव से विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रों को पढेगा और बहुत प्रकार के चारित्र को आचरेगा तो वह सब बालश्रुत व बालचारित्र होगा।
महापुराण/24/122 चारित्रं दर्शनज्ञानविकलं नार्थकृन्मतम् । प्रमातायैव तद्धिस्यात् अंधस्येव विवल्गितम् ।122। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किंतु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार वह उसके पतन का कारण होता है अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है।
नयचक्र लघु./8 बुज्झहता जिणवयणं पच्छा णिजकज्जसंजुआ होह। अहवा तंदुलरहियं पलालसंधुणाणं सव्वं। = पहिले जिन-वचनों को जानकर पीछे निज कार्य से अर्थात् चारित्र से संयुक्त होना चाहिए, अन्यथा सर्व चारित्र तप आदि तंदुल रहित पलाल कूटने के समान व्यर्थ है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 52 स्वकार्यविरुद्धा क्रिया मिथ्याचारित्रं।=निजकार्य से विरुद्ध क्रिया मिथ्याचारित्र है।
समयसार / आत्मख्याति/306 अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु...साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवति।...तथैव च निरपराधो भवति चेतयिता। तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव।=जो अप्रतिक्रमणादि रूप अर्थात् प्रतिक्रमण आदि के विकल्पों से रहित) तीसरी भूमिका है वह स्वयं साक्षात् अमृत कुंभ है। उससे ही आत्मा निरपराध होता है। उसके अभाव में द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है।
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/70...दर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रं।70।=वह सम्यग्दर्शन जयवंत वर्तो, कि जिसके बिना मती भी कुमति है और चारित्र भी दुश्चरित्र है।
ज्ञानार्णव/4/27 में उद्धृत–हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिन: क्रिया। धावंनप्यंधको नष्ट: पश्चन्नपि च पंगुक:। =क्रिया रहित तो ज्ञान नष्ट है और अज्ञानी की क्रिया नष्ट हुई। देखो दौड़ता दौड़ता तो अंधा (ज्ञान रहित क्रिया) नष्ट हो गया और देखता देखता पंगुल (क्रिया रहित ज्ञान) नष्ट हो गया।
अनगारधर्मामृत/4/3/277 ज्ञानमज्ञानमेव यद्विना सद्दर्शनं यथा। चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा।2। =जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है।3।
- सम्यक् चारित्र में सम्यक् पद का महत्त्व
- निश्चय चारित्र की प्रधानता
- शुभ-अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक चारित्र है
समयसार / आत्मख्याति/306 यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि: स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन स्वमेवापराधत्वाद्विषकुंभ एव; किं तस्य विचारेण। यस्तु द्रव्यरूप: प्रक्रमणादि: स सर्वापराधदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुंभोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयिकीं भूमिमपश्यत: स्वकार्याकारित्वाद्विषकुंभ एव स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वंकषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवतीति।=प्रथम तो अज्ञानी जनसाधारण के प्रतिक्रमणादि (असंयमादि) हैं वे तो शुद्धात्मा की सिद्धि के अभावरूप स्वभाव वाले हैं; इसलिए स्वयमेव अपराध रूप होने से विषकुंभ ही हैं; उनका विचार यहाँ करने से प्रयोजन ही क्या ?–और जो द्रव्य प्रतिक्रमणादि हैं वे सब अपराधरूप विष के दोष को (क्रमश:) कम करने में समर्थ होने से यद्यपि व्यवहार आचारशास्त्र के अनुसार अमृत कुंभ है तथापि प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमणादि से विलक्षण (अर्थात् प्रतिक्रमणादि के विकल्पों से दूर और लौकिक असंयम के भी अभाव स्वरूप पूर्ण ज्ञाता दृष्टा भावस्वरूप निर्विकल्प समाधि दशारूप) जो तीसरी साम्य भूमिका है, उसे न देखने वाले पुरुष को वे द्रव्य प्रतिक्रमणादि (अपराध काटनेरूप) अपना कार्य करने को असमर्थ होने से और विपक्ष (अर्थात् बंध का) कार्य करते होने से विषकुंभ ही हैं।–जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप होने के कारण समस्त अपराधरूपी विष के दोषों को सर्वथा नष्ट करने वाली होने से, साक्षात् स्वयं अमृत कुंभ है।
- चारित्र वास्तव में एक ही प्रकार का है
परमात्मप्रकाश टीका/2/67 उपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव (शुद्धोपयोगिनामेव) संभवत:। अथवा सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदेन पंचधा संयम: सोऽपि लभ्यते तेषामेव।...येन कारणेन पूर्वोक्ता संयमादयो गुणा: शुद्धोपयोगे लभ्यंते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेय:। =उपेक्षा संयम या वीतराग चारित्र और अपहृत संयम या सराग चारित्र ये दोनों भी एक उसी शुद्धोपयोग में प्राप्त होते हैं। अथवा सामायिकादि पाँच प्रकार के संयम भी उसी में प्राप्त होते हैं। क्योंकि उपरोक्त संयमादि समस्त गुण एक शुद्धोपयोग में प्राप्त होते हैं, इसलिए वही प्रधानरूप से उपादेय है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/11/13/16 धर्मशब्देनाहिंसालक्षण: सागारानागाररूपस्तथोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणाम: शुद्धवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते। स एव धर्म: पर्यायांतरेण चारित्रं भण्यते। = धर्म शब्द से–अहिंसा लक्षणधर्म, सागार-अनागारधर्म, उत्तमक्षमादिलक्षणधर्म, रत्नत्रयात्मकधर्म, तथा मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम या शुद्ध वस्तु स्वभाव ग्रहण करना चाहिए। वह ही धर्म पर्यायांतर शब्द द्वारा चारित्र भी कहा जाता है।
- निश्चय चारित्र से ही व्यवहार चारित्र सार्थक है, अन्यथा वह अचारित्र है
प्रवचनसार/79 चत्ता पावारंभो समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं।79।=पापारंभ को छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होने पर भी यदि जीव मोहादि को नहीं छोड़ता है तो वह शुद्धात्मा को नहीं प्राप्त होता है।
नियमसार/144 जो चरदि संजदो खलु सुहभावो सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे।144।=जो जीव संयत रहता हुआ वास्तव में शुभभाव में प्रवर्तता है, वह अन्यवश है। इसलिए उसे आवश्यक स्वरूप कर्म नहीं है।144। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/148 )
समयसार/152 परमट्ठम्हि हु अहिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हु।152।=परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रत को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
रयणसार/71 उवसमभवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई। णाणी कसायवसगो असंजदो होइ स ताव।71।=उपशम भाव से धारे गये व्रतादि तो संयम भाव को प्राप्त हो जाते हैं, परंतु कषाय वश किये गये व्रतादि असंयम भाव को ही प्राप्त होते हैं। ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/41)
मूलाचार/995 भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुगई होई। विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी।995।=जो अंतरंग में विरक्त है वही विरक्त है, बाह्य वृत्ति से विरक्त होने वाले की शुभ गति नहीं होती। इसलिए मनरूपी हाथी को जो कि क्रीड़ावन में लंपट है रोकना चाहिए।995।
परमात्मप्रकाश/ मूल/3/66 वंदिउ णिंदउ पडिकमउ भाव असद्धउ जासु। पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास।66।=नि:शंक वंदना करो, निंदा करो, प्रमिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम है, उसके नियम से संयम नहीं हो सकता।66।
समयसार / आत्मख्याति/277 शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रय: षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।
समयसार / आत्मख्याति/273 निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात् । =शुद्ध आत्मा ही चारित्र का आश्रय है, क्योंकि छह जीव निकाय के सद्भाव में या असद्भाव में उसके सद्भाव से ही चारित्र का सद्भाव होता है।277।=निश्चय चारित्र का अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि वह निश्चय चारित्र के ज्ञान श्रद्धान से शून्य है।
समयसार / आत्मख्याति/306 अप्रतिक्रमणादितृतीयभूमिस्तु....साक्षात्स्वयममृतकुंभो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुंभत्वं साधयति।...तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव।= अप्रतिक्रमणादिरूप जो तीसरी भूमि है, वही स्वयं साक्षात् अमृतकुंभ होती हुई, द्रव्यप्रतिक्रमणादि को अमृत कुंभपना सिद्ध करती है। अर्थात् विकल्पात्मक दशा में किये गये द्रव्यप्रतिक्रमणादि भी तभी अमृतकुंभरूप हो सकते हैं जब कि अंतरंग में तीसरी भूमि का अंश या झुकाव विद्यमान हो। उसके अभाव में द्रव्य प्रतिक्रमणादि भी अपराध हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/241 ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वत: साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयाम् । = ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिणति अचलित हुई है, उस पुरुष को वास्तव में जो सर्वत: साम्य है, सो संयत का लक्षण समझना चाहिए, कि जिस संयत के आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्व की युगपतता के साथ आत्मज्ञान की युगपतता सिद्ध हुई है।
ज्ञानार्णव/22/14 मन:शुद्धयैव शुद्धि: स्याद्देहिनां नात्र संशय:। वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।14। =नि:संदेह मन की शुद्धि से ही जीवों के शुद्धता होती है, मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना वृथा है।
देखें चारित्र - 3.8 (मिथ्यादृष्टि संयत नहीं हो सकता)।
- निश्चय चारित्र वास्तव में उपादेय है
तिलोयपण्णत्ति/9/23 णाणम्मि भावना खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य। ते पुण आदा तिण्णि वि तम्हा कुण भावणं आदो।23।=ज्ञान, दर्शन और चारित्र में भावना करना चाहिए, चूँकि वे तीनों आत्मस्वरूप हैं, इसलिए आत्मा में भावना करो।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयम् । = मुमुक्षु जनों को इष्ट फल रूप होने के कारण वीतरागचारित्र उपादेय है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/5,11 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/105 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/761 नासौ वरं वरं य: स नापकारोपकारकृत् । = यह (शुभोपयोग बंध का कारण होने से) उत्तम नहीं है, क्योंकि जो उपकार व अपकार करने वाला नहीं है, ऐसा साम्य या शुद्धोपयोग ही उत्तम है।
- शुभ-अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक चारित्र है
- व्यवहार चारित्र की गौणता
- व्यवहार चारित्र वास्तव में चारित्र नहीं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/202 अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपंचमहाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषैषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि। = अहो ! मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंच महाव्रत सहित मनवचनकाय-गुप्ति और ईर्यादि समिति रूप चारित्राचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है ?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/760 रूढे: शुभोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसंज्ञया। स्वार्थक्रियामकुर्वाण: सार्थनामा न निश्चयात् ।760। = यद्यपि लोकरूढि से शुभोपयोग को चारित्र नाम से कहा जाता है, परंतु निश्चय से वह चारित्र स्वार्थ क्रिया को नहीं करने से अर्थात् आत्मलीनता अर्थ का धारी न होने से अन्वर्थनामधारी नहीं है।
- व्यवहार चारित्र वृथा व अपराध है
नयचक्र बृहद्/345 आलोयणादि किरिया जं विसकुंभेति सुद्धचरियस्स। भणियमिह समयसारे तं जाण एएण अत्थेण। = आलोचनादि क्रियाओं को समयसार ग्रंथ में शुद्धचारित्रवान् के लिए विषकुंभ कहा है, ऐसा तू श्रुतज्ञान द्वारा जान ( समयसार / आत्मख्याति/306 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/392 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/109/ कलश 155) और भी देखें चारित्र - 4.3)।
योगसार/अमितगति/9/71 रागद्वेषप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा। रागद्वेषाप्रवृत्तस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा।=राग-द्वेष करके जो युक्त है उनके लिए प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है। और राग-द्वेष करके जो रहित हैं उनको भी प्रत्याख्यानादिक करना व्यर्थ है।
- व्यवहार चारित्र बंध का कारण है
राजवार्तिक/8/ उत्थानिका/561/13 षष्ठसप्तमयो: विविधफलानुग्रहतंत्रास्रवप्रकरणवशात् सप्रपंचात्मन: कर्मबंधहेतवो व्याख्याता:।=विविध प्रकार के फलों को प्रदान करने वाले आस्रव होने के कारण, जिनका छठे सातवें अध्याय में विस्तार से वर्णन किया गया है वे (व्रतादि भी) आत्मा को कर्मबंध के हेतु हैं।
कषायपाहुड़/1/1-1/3/8/7 पुण्णबंधहेउत्तं पडिविसेसाभावादो।=देशव्रत और सरागसंयम में पुण्यबंध के कारणों के प्रति कोई विशेषता नहीं है।
तत्त्वसार/4/101 हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसंन्यासलक्षणम् । व्रतं पुण्यास्रवोत्थानं भावेनेति प्रपंचितम् ।10। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के त्याग को व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्यास्रव के कारणरूप भाव समझने चाहिए।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/5 जीवत्कषायकणतया पुण्यबंधसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रम् ।=जिस में कषायकण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्य बंध की प्राप्ति का कारण है ऐसे सराग चारित्र को-( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 )
द्रव्यसंग्रह टीका/38/158/2 पुण्यं पापं च भवंति खलु स्फुटं जीवा:। कथंभूता: संत:...पंचव्रतरक्षां कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् । दुर्दांतेंद्रियविजयं तप:सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् ।2। इत्यार्याद्वयकथितलक्षणेन शुभोपयोगपरिणामेन तद्विलक्षणा शुभोपयोगपरिणामेन च युक्ता: परिणता:। = कैसे होते हुए जीव पुण्य-पाप को धारण करते हैं। ‘पंचमहाव्रतों का पालन करो, क्रोधादि कषायों का निग्रह करो और प्रबल इंद्रिय शत्रुओं को विजय करो तथा बाह्य व अभ्यंतर तप को सिद्ध करने में उद्योग करो–इस आर्या छंद में कहे अनुसार शुभाशुभ उपयोग रूप परिणाम से युक्त जीव हैं वे पुण्य-पाप को धारण करते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/762 विरुद्धकार्यकारित्वं नास्त्यसिद्ध विचारणात् । बंधस्यैकांततो हेतु: शुद्धादन्यत्र संभवात् । = नियम से शुद्ध क्रिया को छोड़कर शेष क्रियाएँ बंध की ही जनक होती हैं, इस हेतु से विचार करने पर इस शुभोपयोग को विरुद्ध कार्यकारित्व असिद्ध नहीं है।
- व्यवहार चारित्र निर्जरा व मोक्ष का कारण नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/763 नोह्यं प्रज्ञापराधत्वंनिर्जराहेतुरंशत:। अस्ति नाबंधहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात् । =बुद्धि की मंदता से यह भी आशंका नहीं करनी चाहिए कि शुभोपयोग एक देश से निर्जरा का कारण हो सकता है, कारण कि निश्चयनय से शुभोपयोग भी संसार का कारण होने से निर्जरादिक का हेतु नहीं हो सकता है।
- व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्टफल प्रदायी है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6, 11 अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ।6। यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्तत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थ: कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्र: शिखितप्तघृतोपशक्तिपुरुषो दाहदु:खमिव स्वर्गसुखबंधमवाप्नोति।11। =अनिष्ट फलप्रदायी होने सराग चारित्र हेय है।6। जो वह धर्म परिणत स्वभाव वाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है, तब जो विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ है, और कथंचित् विरुद्ध कार्य (अर्थात् बंध को) करने वाला है ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलन से दु:खी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुख के बंध को प्राप्त होता है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/164 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/147 )।
- व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है
भावपाहुड़/ मूल/90 भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण। मा जणरंजणकरणं वाहिखवयवेस तं कुणसु।90। = इंद्रियों की सेना को भंजनकर, मनरूपी बंदर को वशकर, लोकरंजक बाह्य वेष मत धारण कर।
समाधिशतक/ मूल/83 अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्यय:। अव्रतानीवमोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।83। हिंसादि पाँच अव्रतों से पाँच पाप का और अहिंसादि पाँच व्रतों से पुण्य का बंध होता है। पुण्य और पाप दोनों कर्मों का विनाश मोक्ष है, इसलिए मोक्ष के इच्छुक भव्य पुरुष को चाहिए कि अव्रतों की तरह व्रतों को भी छोड़ दे।– (देखें चारित्र - 4.1); ( ज्ञानार्णव/32/87 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/57/229/5 )
नयचक्र बृहद्/381 णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो जम्हा। तम्हा णिव्वुदिकायो बवहारो चयदु तिविहेण।381। =निश्चय चारित्र से मोक्ष होता है और व्यवहार चारित्र से बंध। इसलिए मोक्ष के इच्छुक को मन, वचन, काय से व्यवहार छोड़ना चाहिए।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/6 अनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् । = अनिष्ट फल वाला होने से सराग चारित्र हेय है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/147/ कलश 255 यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदु:खापहं, मुक्तिप्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति य: सर्वदा, सोऽयं त्यक्तक्रियो मुनिपति: पापाटवीपावक:।255।=जिनात्मनियत चारित्र को, संसारदु:ख नाशक और मुक्ति श्रीरूपी सुंदरी से उत्पन्न अतिशय सुख का कारण जानकर, सदैव समयसार को ही निष्पाप मानने वाला, बाह्य क्रिया को छोड़ने वाला मुनिपति पापरूपी अटवी को जलाने वाला होता है।255।
- व्यवहार चारित्र वास्तव में चारित्र नहीं
- व्यवहार चारित्र की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है
नयचक्र बृहद्/329 णिच्छय सज्झसरूवं सराय तस्सेव साहणं चरणं।=निश्चय चारित्र साध्य स्वरूप है और सराग चारित्र उसका साधन है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/45-46 की उत्थानिका 194, 197)
- व्यवहार चारित्र निश्चय का या मोक्ष का परंपरा कारण है
द्रव्यसंग्रह टीका/45/194 की उत्थानिका-वीतरागचारित्र्यस्य पारंपर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति। = वीतराग चारित्र का परंपरा साधक सराग चारित्र है। उसका प्रतिपादन करते हैं।
- व्यवहार चारित्र निश्चय का साधन है
पुराणकोष से
आत्मा के हित के लिए किया हुआ आचरण । यह दो प्रकार का होता है― सागार और अनागार । इसमें सागार चारित्र गेहियों के लिए होता है और अनागार चारित्र मुनियों के लिए । पद्मपुराण 33.121, 97.38 अनागार चारित्र मोक्ष का साधन है । इसमें समताभाव आवश्यक है । यह जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक होता है तभी कार्यकारी है । इनके बिना यह कार्यकारी नहीं होता । इसके सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ये पाँच भेद होते हैं । ईर्यादि पाँच समितियों मन-वचन-काय निरोध कृत त्रिगुप्तियों और क्षुधा आदि परीषहों को सहन करना इसकी भावनाएँ है । महापुराण 21.98, 24.119-122, हरिवंशपुराण, 2.129, 64.15-19