आक्रोश परिषह: Difference between revisions
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/424</span> <p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनोदृक्तामर्ष परूषावज्ञानिंदासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिखाप्रवर्धनानि निशृण्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुमपि शक्नुवतः पापकर्मविपाकमचिंतयतस्तांयाकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/424</span> <p class="SanskritText">मिथ्यादर्शनोदृक्तामर्ष परूषावज्ञानिंदासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिखाप्रवर्धनानि निशृण्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुमपि शक्नुवतः पापकर्मविपाकमचिंतयतस्तांयाकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= मिथ्यादर्शन के उद्रेक से कहे गये जो क्रोधाग्नि की शिखा को बढ़ाते हैं ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञा कर, निंदारूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषयो में चित्त नहीं जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतिकार करने में समर्थ हैं फिर भी यह सब पाप कर्म का विपाक है इस तरह जो चिंतवन करता है, जो उन शब्दों को सुनकर तपश्चरण की भावना में तत्पर होता है और जो कषाय विष के लेश मात्र को भी अपने हृदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोश परिषह सहन निश्चित होता है।</p> | ||
<p>(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/9/17/610/35</span>) (<span class="GRef"> चारित्रसार पृष्ठ 120/4</span>)</p> | <p>(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/9/17/610/35</span>) (<span class="GRef"> चारित्रसार पृष्ठ 120/4</span>)</p> | ||
Revision as of 15:46, 5 January 2023
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/424
मिथ्यादर्शनोदृक्तामर्ष परूषावज्ञानिंदासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिखाप्रवर्धनानि निशृण्वतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतसः सहसा तत्प्रतिकारं कर्तुमपि शक्नुवतः पापकर्मविपाकमचिंतयतस्तांयाकर्ण्य तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते।
= मिथ्यादर्शन के उद्रेक से कहे गये जो क्रोधाग्नि की शिखा को बढ़ाते हैं ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञा कर, निंदारूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषयो में चित्त नहीं जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतिकार करने में समर्थ हैं फिर भी यह सब पाप कर्म का विपाक है इस तरह जो चिंतवन करता है, जो उन शब्दों को सुनकर तपश्चरण की भावना में तत्पर होता है और जो कषाय विष के लेश मात्र को भी अपने हृदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोश परिषह सहन निश्चित होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9/17/610/35) ( चारित्रसार पृष्ठ 120/4)