मीमांसा दर्शन: Difference between revisions
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<p class="HindiText">* वैदिक दर्शनों का विकास क्रम व समन्वय–देखें [[ दर्शन ]]।</p> | |||
<p>1. मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय</p> | <p class="HindiText"><b>1.मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय</b></p> | ||
<p>(षड्दर्शन समुच्चय/68/66); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p>(<span class="GRef">षड्दर्शन समुच्चय/68/66</span>); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि.च./438</span>) <p class="HindiText">मीमांसादर्शन के दो भेद हैं–1. पूर्वमीमांसा व उत्तरमीमांसा। यद्यपि दोनों मौलिक रूप से भिन्न हैं, परंतु ‘बोधायन’ ने इन दोनों दर्शनों को ‘संहित’ कहकर उल्लेख किया है तथा ‘उपवर्ष’ ने दोनों दर्शनों पर टीकाएँ लिखी हैं, इसी से विद्वानों का मत है कि किसी समय ये दोनों एक ही समझे जाते थे। 2. इनमें से उत्तरीमामांसा को बह्ममीमांसा या वेदांत भी कहते हैं, (इसके लिए–देखें [[ वेदांत ]])। 3. पूर्व मीमांसा के तीन संप्रदाय हैं–कुमारिल भट्ट का ‘भाट्टमत’, प्रभाकर मिश्र का ‘प्राभाकर मत’ या ‘गुरुमत’; तथा मंडन या मुरारीमिश्र का ‘मिश्रमत’। इनका विशेष परिचय निम्न प्रकार है।</p> | ||
<p>2. प्रवर्तक, साहित्य व | <p class="HindiText"><b>2.प्रवर्तक, साहित्य व समय</b></p> | ||
<p>3. तत्त्व विचार</p> | (<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/परि.ङ/436</span>) <p class="HindiText">पूर्वमीमांसा दर्शन के मूल प्रवर्तक वेदव्यास के शिष्य ‘जैमिनिऋषि’ थे, जिन्होंने ई.पू. 200 में ‘जैमिनीसूत्र’ की रचना की। ई. श. 4 में शबरस्वामी ने इस पर ‘शबरभाष्य’ लिखा, जो पीछे आने वाले विचारकों व लेखकों का मूल आधार बना। इस पर प्रभाकर मिश्र ने ई. 650 में और कुमारिलभट्ट ने ई. 700 में स्वतंत्र टीकाएं लिखीं। प्रभाकर की टीका का नाम ‘वृहती’ है। कुमारिल की टीका तीन भागों में विभक्त है–‘श्लोक वार्तिक, ‘तंत्रवार्तिक’ और ‘तुपटीका’। तत्पश्चात् मंडन या मुरारीमिश्र हुए, जिन्होंने ‘विधिविवेक’, ‘मीमांसानुक्रमणी’ और कुमारिल के तंत्रवार्तिक पर टीका लिखी। पार्थसारथिमिश्र ने कुमारिल के श्लोकवार्तिक पर ‘न्याय रत्नाकर’, ‘शास्त्रदीपिका’, ‘तंत्ररत्न’ और ‘न्यायरत्नमाला’ लिखी। सुचारित्र मिश्र ने ‘श्लोकवार्तिक’ की टीका और काशिका व सोमेश्वर भट्ट ने ‘तंत्रवार्तिक टीका’ और ‘न्यायसुधा’ नामक ग्रंथ लिखे। इनके अतिरिक्त भी श्रीमाधव का ‘न्यायमालाविस्तर,’ ‘मीमांसा न्यायप्रकाश’ लौगाक्षि भास्कर का ‘अर्थ संग्रह’ और खंड देव की ‘भाट्टदीपिका’ आदि ग्रंथ उल्लेखनीय है।</p> | ||
<p>1. प्रभाकरमिश्र या गुरुमत की | <p class="HindiText"><b>3.तत्त्व विचार</b></p> | ||
<p>2. कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा―</p> | <p class="HindiText"><b>1. प्रभाकरमिश्र या गुरुमत की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>1. पदार्थ दो हैं–भाव व अभाव। 2. भाव चार हैं–द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। 3. अभाव चार हैं–प्राक्, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष। 4. द्रव्य 11 हैं–प्रभाकर मान्य 9 में तम व शब्द और मिलाने से 11 होते हैं। ‘शब्द’ नित्य व सर्वगत है। ‘तम’ व ‘आकाश’ चक्षु इंद्रिय के विषय हैं। ‘आत्मा’ व ‘मन’ विभु, हैं। 5. ‘गुण’ द्रव्य से भिन्न व अभिन्न हैं। वे 13 हैं–रूप, रस, गंध, स्पर्श, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, तथा स्नेह। 6. कर्म प्रत्यक्ष का विषय है। यह भी द्रव्य से भिन्न तथा अभिन्न है। 7. सामान्य नामा जाति भी द्रव्य से भिन्न व अभिन्न है। ( | <p class="HindiText">–1. पदार्थ आठ हैं–द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति व सादृश्य। लक्षणों के लिए–देखें [[ वैशेषिक दर्शन ]]। 2. द्रव्य नौ हैं–पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक्। आत्मा ज्ञानाश्रय है। मन प्रत्यक्ष का विषय नहीं। तम नाम का कोई पृथक् द्रव्य नहीं। 3. गुण 21 हैं–वैशेषिकमान्य 24 गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व व द्वेष ये चार कम करके एक ‘वेग’ मिलाने से 21 होते हैं । सबके लक्षण वैशेषिक दर्शन के समान है। 4. कर्म प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। संयोग व वियोग प्रत्यक्ष हैं , उन पर से इसका अनुमान होता है। 5. सामान्य का लक्षण वैशेषिक दर्शनवत् है। 6. दो अयुतसिद्धों में समवाय संबंध है जो नित्य पदार्थों में नित्य और अनित्य पदार्थों में अनित्य होता है। 7. संख्या का लक्षण वैशेषिकदर्शनवत् है। 8. सभी द्रव्यों में अपनी-अपनी शक्ति है, जो द्रव्य से भिन्न है। 9. जाति का नाम सादृश्य है जो द्रव्य से भिन्न है। (भारतीय दर्शन।) </p> | ||
<p | <p class="HindiText"><b>2.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा―</b></p> | ||
<p>1. इंद्रियों का अधिकतर शरीर है, जो केवल पार्थिव है, पंचभौतिक नहीं। यह तीन प्रकार का है–जरायुज, अंडज व स्वेदज। वनस्पति का पृथक् से कोई उद्भिज्ज शरीर नहीं है। 2. प्रत्येक शरीर में मन व त्वक् ये दो इंद्रियाँ अवश्य रहती हैं। मन अणुरूप है, तथा ज्ञान का कारण है।</p> | <p class="HindiText">1. पदार्थ दो हैं–भाव व अभाव। 2. भाव चार हैं–द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। 3. अभाव चार हैं–प्राक्, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष। 4. द्रव्य 11 हैं–प्रभाकर मान्य 9 में तम व शब्द और मिलाने से 11 होते हैं। ‘शब्द’ नित्य व सर्वगत है। ‘तम’ व ‘आकाश’ चक्षु इंद्रिय के विषय हैं। ‘आत्मा’ व ‘मन’ विभु, हैं। 5. ‘गुण’ द्रव्य से भिन्न व अभिन्न हैं। वे 13 हैं–रूप, रस, गंध, स्पर्श, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, तथा स्नेह। 6. कर्म प्रत्यक्ष का विषय है। यह भी द्रव्य से भिन्न तथा अभिन्न है। 7. सामान्य नामा जाति भी द्रव्य से भिन्न व अभिन्न है। (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)। </p>। | ||
<p>2. कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText"><b>3. मुरारि मिश्र या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा</b> </p> | ||
<p>मन, इंद्रियाँ व शरीर तीनों पाँचभौतिक हैं। इनमें से मन व इंद्रियाँ ज्ञान के करण हैं। बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इंद्रियों द्वारा मन व आत्मा के संयोग से होता है।</p> | <p class="HindiText">1. परमार्थत: ब्रह्म ही एक पदार्थ है। व्यवहार से पदार्थ चार हैं–धर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष। 2. आत्मा धर्मी है। 3. सुख उसका धर्म विशेष है। उसकी पराकाष्ठा स्वर्ग का प्रदेश है। (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)। </p> | ||
<p>5. ईश्वर व जीवात्मा विचार</p> | <p class="HindiText"><b>4.शरीर व इंद्रिय विचार</b></p> | ||
<p>1. ‘गुरु’ व ‘भट्ट’ दोनों मतों की अपेक्षा </p> | <p class="HindiText"><b>1.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>( | <p class="HindiText">1. इंद्रियों का अधिकतर शरीर है, जो केवल पार्थिव है, पंचभौतिक नहीं। यह तीन प्रकार का है–जरायुज, अंडज व स्वेदज। वनस्पति का पृथक् से कोई उद्भिज्ज शरीर नहीं है। 2. प्रत्येक शरीर में मन व त्वक् ये दो इंद्रियाँ अवश्य रहती हैं। मन अणुरूप है, तथा ज्ञान का कारण है।</p> | ||
<p>1. प्रत्यक्ष गोचर न होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं है। आगम प्रमाण विवाद का विषय होने से स्वीकारणीय नहीं है।(षड् दर्शन समुच्चय /68/67-69)। 2. न तो सृष्टि और प्रलय ही होती है और न उनके कर्तारूप किसी ईश्वर को मानना आवश्यक है। फिर भी व्यवहार चलाने के लिए परमात्मा को स्वीकार किया जा सकता है। 3. आत्मा अनेक हैं। अहं प्रत्यय द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्-पृथक् जाना जाता है व शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, विभु व भोक्ता है। शरीर इसका भोगायतन है। यही एक शरीर से दूसरे शरीर में तथा मोक्ष में जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि प्रभाकर आत्मा को स्वसंवेदनगम्य मानता है, परंतु कुमारिल ज्ञाता व ज्ञेय को सर्वथा भिन्न मानने के कारण उसे स्वसंवेदनगम्य नहीं मानता। (विशेष–देखें [[ आगे प्रामाण्य विचार#8 | आगे प्रामाण्य विचार - 8]]) (भारतीय दर्शन)।</p> | <p class="HindiText"><b>2.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>6. मुक्ति विचार</p> | <p class="HindiText">मन, इंद्रियाँ व शरीर तीनों पाँचभौतिक हैं। इनमें से मन व इंद्रियाँ ज्ञान के करण हैं। बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इंद्रियों द्वारा मन व आत्मा के संयोग से होता है।</p> | ||
<p>1. प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText"><b>5.ईश्वर व जीवात्मा विचार</b></p> | ||
<p>1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं (षड् दर्शनसमुच्चय /69-70/69-70)। 2. धर्म व अधर्म का विशेष प्रकार से नाश हो जाने पर देह की आत्यंतिकी निवृत्ति हो जाना मोक्ष है। सांसारिक दुःखों से उद्विग्नता, लौकिक सुखों से पराङ्मुखता, सांसारिक कर्मों का त्याग, वेद विहित शम, दम आदि का पालन मोक्ष का उपाय है। तब अदृष्ट के सर्व फल का भोग हो जाने पर समस्त संस्कारों का नाश स्वत: हो जाता है। (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText"><b>1.‘गुरु’ व ‘भट्ट’ दोनों मतों की अपेक्षा</b> </p> | ||
<p>2. कुमारिल भट्ट या ‘भट्टमत’ की अपेक्षा</p> | <p>(<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी/परि. ङ./430-432,433</span>); (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)</p> | ||
<p>1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं । वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं–षड् दर्शन समुच्चय /69-70/69-70) 2. सुख दुःख के कारण भूत शरीर, इंद्रिय व विषय इन तीन प्रपंचों की आत्यंतिक निवृत्ति; तथा ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म व संस्कार इन सबसे शून्य; स्वरूप में स्थित आत्मा मुक्त है वहाँ शक्तिमात्र से ज्ञान रहता है। आत्मज्ञान भी नहीं होता। 3. लौकिक कर्मों का त्याग और वेद विहित कर्मों का ग्रहण ही मोक्षमार्ग है ज्ञान नहीं। वह तो मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में कारणमात्र है।</p> | <p class="HindiText">1. प्रत्यक्ष गोचर न होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं है। आगम प्रमाण विवाद का विषय होने से स्वीकारणीय नहीं है।(<span class="GRef">षड् दर्शन समुच्चय /68/67-69</span>)। 2. न तो सृष्टि और प्रलय ही होती है और न उनके कर्तारूप किसी ईश्वर को मानना आवश्यक है। फिर भी व्यवहार चलाने के लिए परमात्मा को स्वीकार किया जा सकता है। 3. आत्मा अनेक हैं। अहं प्रत्यय द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्-पृथक् जाना जाता है व शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, विभु व भोक्ता है। शरीर इसका भोगायतन है। यही एक शरीर से दूसरे शरीर में तथा मोक्ष में जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि प्रभाकर आत्मा को स्वसंवेदनगम्य मानता है, परंतु कुमारिल ज्ञाता व ज्ञेय को सर्वथा भिन्न मानने के कारण उसे स्वसंवेदनगम्य नहीं मानता। (विशेष–देखें [[ आगे प्रामाण्य विचार#8 | आगे प्रामाण्य विचार - 8]]) <span class="GRef">(भारतीय दर्शन</span>)।</p> | ||
<p>(सा.पं./परि.उ./433); ( | <p class="HindiText"><b>6.मुक्ति विचार</b></p> | ||
<p>7. प्रमाण विचार</p> | <p class="HindiText"><b>1.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>1. | <p class="HindiText">1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं (<span class="GRef">षड् दर्शनसमुच्चय /69-70/69-70</span>)। 2. धर्म व अधर्म का विशेष प्रकार से नाश हो जाने पर देह की आत्यंतिकी निवृत्ति हो जाना मोक्ष है। सांसारिक दुःखों से उद्विग्नता, लौकिक सुखों से पराङ्मुखता, सांसारिक कर्मों का त्याग, वेद विहित शम, दम आदि का पालन मोक्ष का उपाय है। तब अदृष्ट के सर्व फल का भोग हो जाने पर समस्त संस्कारों का नाश स्वत: हो जाता है। (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि.ङ./433</span>), (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)।</p> | ||
<p>दोनों मत वेद को प्रमाण मानते हैं। वह नित्य व अपौरुषेय होने के कारण तर्क का विषय नहीं है। अनुमान आदि अन्य प्रमाण उसकी अपेक्षा निम्नकोटि के हैं। (षड्दर्शन समुच्चय/69-70/69-70); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText"><b>2.कुमारिल भट्ट या ‘भट्टमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>2. प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText">1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं । वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं–षड् दर्शन समुच्चय /69-70/69-70) 2. सुख दुःख के कारण भूत शरीर, इंद्रिय व विषय इन तीन प्रपंचों की आत्यंतिक निवृत्ति; तथा ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म व संस्कार इन सबसे शून्य; स्वरूप में स्थित आत्मा मुक्त है वहाँ शक्तिमात्र से ज्ञान रहता है। आत्मज्ञान भी नहीं होता। 3. लौकिक कर्मों का त्याग और वेद विहित कर्मों का ग्रहण ही मोक्षमार्ग है ज्ञान नहीं। वह तो मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में कारणमात्र है।</p> | ||
<p>(षड्दर्शन समुच्चय /71-75/71-72); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText">(<span class="GRef">सा.पं./परि.उ./433</span>); (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)</p> | ||
<p>3. कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText"><b>7.प्रमाण विचार</b></p> | ||
<p>(षड्दर्शन समुच्चय /71-76/71-73); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText"><b>1.वेद प्रमाण सामान्य</b></p> | ||
<p>8. प्रामाण्य विचार</ | <p class="HindiText">दोनों मत वेद को प्रमाण मानते हैं। वह नित्य व अपौरुषेय होने के कारण तर्क का विषय नहीं है। अनुमान आदि अन्य प्रमाण उसकी अपेक्षा निम्नकोटि के हैं। (<span class="GRef">षड्दर्शन समुच्चय/69-70/69-70</span>); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि.ङ./428-429</span>)। (2) वह पाँच प्रकार का है–मंत्र वेदविधि, ब्राह्मण वेदविधि, मंत्र नामधेय, निषेध और अर्थवाद। ‘विधि’ धर्म संबंधी नियमों को बताती है। ‘मंत्र’ से याज्ञिक देवी, देवताओं का ज्ञान होता है। निंदा, प्रशंसा, परकृति और पुराकल्प के भेद से ‘अर्थवाद’ चार प्रकार का है। (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि. ङ./429-430</span>)।</p> | ||
<p>(<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText"><b>2.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>1. प्रभाकर मिश्र या गुरुमत की अपेक्षा</p> | <p>(<span class="GRef">षड्दर्शन समुच्चय /71-75/71-72</span>); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ. /432</span>); (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)।<p class="HindiText"> (1) स्वप्न व संशय से भिन्न अनुभूति प्रमाण है। वह पाँच प्रकार का है–प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द व अर्थापत्ति। (2) प्रत्यक्ष में चार प्रकार का सन्निकर्ष होता है–आत्मा से मन का, मन से इंद्रिय का, इंद्रिय से द्रव्य का, तथा इंद्रिय से उस द्रव्य के गुण का। ये द्रव्य व गुणका प्रत्यक्ष पृथक् पृथक् मानते हैं। वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है–सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प प्रत्यक्ष निर्विकल्प पूर्वक होता है। योगज व प्रातिभ प्रत्यक्ष इन्हीं दोनों में गर्भित हो जाते हैं। (3) अनुमान व उपमान नैयायिक दर्शनवत् हैं। (4) केवल विध्यर्थक वेदवाक्य शब्द प्रमाण है, जिनके सन्निकर्ष से परोक्षभूत विषयों का ज्ञान होता है। (5) ‘दिन में नहीं खाकर भी देवदत्त मोटा है तो पता चलता है कि यह अवश्य रात को खाता होगा’ यह अर्थापत्ति का उदाहरण है।</p> | ||
<p | <p class="HindiText"><b>3.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>2. कुमारिलभट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</p> | <p>(<span class="GRef">षड्दर्शन समुच्चय /71-76/71-73</span>); (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि-ड./432</span>); (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)।<p class="HindiText"> (1) प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं, वह छह प्रकार का है–प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। (2) प्रत्यक्ष ज्ञान में केवल दो प्रकार का सन्निकर्ष होता है–संयोग व संयुक्ततादात्म्य। समवाय नाम का कोई तीसरा संबंध नहीं है। अन्य सब कथन गुरुमतवत् है। (3) अनुमान में तीन अवयव हैं–प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण, अथवा उदाहरण उपनय व निगमन। (4) ज्ञात शब्द में पदार्थ का स्मरणात्मक ज्ञान होने पर जो वाक्यार्थ का ज्ञान होता है, वह शब्द प्रमाण है। वह दो प्रकार का है–पौरुषेय व अपौरुषेय। प्रत्यक्ष-द्रष्टा ऋषियों के वाक्य पौरुषेय तथा वेदवाक्य अपौरुषेय है। वेदवाक्य दो प्रकार के हैं–सिद्धयर्थक व विधायक। स्वरूपप्रतिपादक वाक्य सिद्धयर्थक हैं। आदेशात्मक व प्रेरणात्मक वाक्य विधायक हैं। विधायक भी दो प्रकार हैं–उपदेश व आदेश या अतिदेश। (5) अर्थापत्ति का लक्षण प्रभाकर भट्टवत् है, पर यहाँ उसके दो भेद हैं–दृष्टार्थापत्ति और श्रुतार्थापत्ति। दृष्टार्थापत्ति का उदाहरण पहले दिया जा चुका है। श्रुतार्थापत्ति का उदाहरण ऐसा है कि ‘देवदत्त घर पर नहीं है’ ऐसा उत्तर पाने पर स्वत: यह ज्ञान हो जाता है कि ‘वह बाहर अवश्य है’। (6) ‘प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जो सिद्ध न हो वह पदार्थ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय होना अनुपलब्धि है।</p> | ||
<p>मिथ्याज्ञान अन्यथाख्याति है। रज्जू में सर्प का ज्ञान भी सम्यक् है, क्योंकि, भय आदि की अन्यथा उत्पत्ति संभव नहीं है। पीछे दूसरे के बतलाने से उसका मिथ्यापना जाना जाये यह दूसरी बात है। इतना मानते हुए भी यह ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानता। पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, पीछे ‘मैंने घट जाना है’ ऐसा ज्ञातता नामक धर्म उत्पन्न होता है। इस ज्ञातता से ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए यह परत: प्रामाण्यवादी है।</p> | <p class="HindiText"><b>8.प्रामाण्य विचार</b></p> | ||
<p>3. मंडन–मुरारी या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा</p> | <p>(<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ्./432</span>); (<span class="GRef">भारतीय दर्शन</span>)।</p> | ||
<p>पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, फिर ‘मैं घट क जानने वाला हूँ’ ऐसा ग्रहण होता है। अत: यह भी ज्ञान को स्वप्रकाशक न मानने के कारण परत: प्रामाण्यवादी है।</p> | <p class="HindiText"><b>1.प्रभाकर मिश्र या गुरुमत की अपेक्षा</b></p> | ||
<p>9. जैन व मीमांसा दर्शन की तुलना</p> | <p class="HindiText">ज्ञान कभी मिथ्या व भ्रांति रूप नहीं होता। यदि उसमें संशय न हो तो अंतरंग ज्ञेय की अपेक्षा वह सम्यक् ही है। सीपी में रजत का ज्ञान भी ज्ञानाकार की अपेक्षा सम्यक् ही है। इसे अख्याति कहते हैं। स्वप्रकाशक होने के कारण वह ज्ञान स्वयं प्रमाण है। इस प्रकार यह स्वत: प्रामाण्यवादी है।</p> | ||
<p>(<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ | <p class="HindiText"><b>2.कुमारिलभट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा</b></p> | ||
<p class="HindiText">मिथ्याज्ञान अन्यथाख्याति है। रज्जू में सर्प का ज्ञान भी सम्यक् है, क्योंकि, भय आदि की अन्यथा उत्पत्ति संभव नहीं है। पीछे दूसरे के बतलाने से उसका मिथ्यापना जाना जाये यह दूसरी बात है। इतना मानते हुए भी यह ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानता। पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, पीछे ‘मैंने घट जाना है’ ऐसा ज्ञातता नामक धर्म उत्पन्न होता है। इस ज्ञातता से ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए यह परत: प्रामाण्यवादी है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>3.मंडन–मुरारी या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा</b></p> | |||
<p class="HindiText">पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, फिर ‘मैं घट क जानने वाला हूँ’ ऐसा ग्रहण होता है। अत: यह भी ज्ञान को स्वप्रकाशक न मानने के कारण परत: प्रामाण्यवादी है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>9.जैन व मीमांसा दर्शन की तुलना</b></p> | |||
<p>(<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ./पृ. 434</span>)। <p class="HindiText">(1) मीमांसक लोग वेद को अपौरुषेय व स्वत: प्रमाण वेदविहित हिंसा यज्ञादिक को धर्म, जन्म से ही वर्णव्यवस्था तथा ब्राह्मण को सर्वपूज्य मानते हैं। जैन लोग उपरोक्त सर्व बातों का कड़ा विरोध करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद है, अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा विधान ही सच्चे यज्ञ हैं, वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं गुण व कर्म से होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है। इस प्रकार दोनों में भेद है। (2) कुमारिलभट्ट पदार्थों को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, अवयव अवयवी में भेदाभेद, वस्तु को स्व की अपेक्षा सत् और पर की अपेक्षा असत् तथा सामान्य विशेष को सापेक्ष मानता है। अत: किसी अंश में वह अनेकांतवादी है। इसकी अपेक्षा जैन व मीमांसक तुल्य हैं। (3) (तत्त्वों की अपेक्षा जैन व मीमांसकों की तुलना वैशेषिकदर्शनवत् ही है।) (देखें [[ वैशेषिक दर्शन ]])। अन्य विषयों में भी दोनों में भेद व तुल्यता है। जैसे–दोनों ही जरायुज, अंडज व स्वेदज (संमूर्च्छन) शरीरों को पाँच भौतिक स्वीकार करते हैं। दोनों ही इंद्रिय विषयों के त्याग आदि को मोक्ष का साधन मानते हैं। दोनों ही शरीरादि की आत्यंतिक निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं। इस प्रकार दोनों में तुल्यता है। परंतु जैनों की भाँति मीमांसक सर्वज्ञत्व का अस्तित्व नहीं मानते, आत्मा को स्वसंवेदनगम्य नहीं मानते। इस प्रकार दोनों में भेद है। </p> | |||
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</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: म]] | [[Category: म]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Revision as of 20:17, 20 January 2023
* वैदिक दर्शनों का विकास क्रम व समन्वय–देखें दर्शन ।
1.मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय
(षड्दर्शन समुच्चय/68/66); ( स्याद्वादमंजरी/ परि.च./438)
मीमांसादर्शन के दो भेद हैं–1. पूर्वमीमांसा व उत्तरमीमांसा। यद्यपि दोनों मौलिक रूप से भिन्न हैं, परंतु ‘बोधायन’ ने इन दोनों दर्शनों को ‘संहित’ कहकर उल्लेख किया है तथा ‘उपवर्ष’ ने दोनों दर्शनों पर टीकाएँ लिखी हैं, इसी से विद्वानों का मत है कि किसी समय ये दोनों एक ही समझे जाते थे। 2. इनमें से उत्तरीमामांसा को बह्ममीमांसा या वेदांत भी कहते हैं, (इसके लिए–देखें वेदांत )। 3. पूर्व मीमांसा के तीन संप्रदाय हैं–कुमारिल भट्ट का ‘भाट्टमत’, प्रभाकर मिश्र का ‘प्राभाकर मत’ या ‘गुरुमत’; तथा मंडन या मुरारीमिश्र का ‘मिश्रमत’। इनका विशेष परिचय निम्न प्रकार है।
2.प्रवर्तक, साहित्य व समय
(स्याद्वादमंजरी/परि.ङ/436)
पूर्वमीमांसा दर्शन के मूल प्रवर्तक वेदव्यास के शिष्य ‘जैमिनिऋषि’ थे, जिन्होंने ई.पू. 200 में ‘जैमिनीसूत्र’ की रचना की। ई. श. 4 में शबरस्वामी ने इस पर ‘शबरभाष्य’ लिखा, जो पीछे आने वाले विचारकों व लेखकों का मूल आधार बना। इस पर प्रभाकर मिश्र ने ई. 650 में और कुमारिलभट्ट ने ई. 700 में स्वतंत्र टीकाएं लिखीं। प्रभाकर की टीका का नाम ‘वृहती’ है। कुमारिल की टीका तीन भागों में विभक्त है–‘श्लोक वार्तिक, ‘तंत्रवार्तिक’ और ‘तुपटीका’। तत्पश्चात् मंडन या मुरारीमिश्र हुए, जिन्होंने ‘विधिविवेक’, ‘मीमांसानुक्रमणी’ और कुमारिल के तंत्रवार्तिक पर टीका लिखी। पार्थसारथिमिश्र ने कुमारिल के श्लोकवार्तिक पर ‘न्याय रत्नाकर’, ‘शास्त्रदीपिका’, ‘तंत्ररत्न’ और ‘न्यायरत्नमाला’ लिखी। सुचारित्र मिश्र ने ‘श्लोकवार्तिक’ की टीका और काशिका व सोमेश्वर भट्ट ने ‘तंत्रवार्तिक टीका’ और ‘न्यायसुधा’ नामक ग्रंथ लिखे। इनके अतिरिक्त भी श्रीमाधव का ‘न्यायमालाविस्तर,’ ‘मीमांसा न्यायप्रकाश’ लौगाक्षि भास्कर का ‘अर्थ संग्रह’ और खंड देव की ‘भाट्टदीपिका’ आदि ग्रंथ उल्लेखनीय है।
3.तत्त्व विचार
1. प्रभाकरमिश्र या गुरुमत की अपेक्षा
–1. पदार्थ आठ हैं–द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति व सादृश्य। लक्षणों के लिए–देखें वैशेषिक दर्शन । 2. द्रव्य नौ हैं–पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक्। आत्मा ज्ञानाश्रय है। मन प्रत्यक्ष का विषय नहीं। तम नाम का कोई पृथक् द्रव्य नहीं। 3. गुण 21 हैं–वैशेषिकमान्य 24 गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व व द्वेष ये चार कम करके एक ‘वेग’ मिलाने से 21 होते हैं । सबके लक्षण वैशेषिक दर्शन के समान है। 4. कर्म प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। संयोग व वियोग प्रत्यक्ष हैं , उन पर से इसका अनुमान होता है। 5. सामान्य का लक्षण वैशेषिक दर्शनवत् है। 6. दो अयुतसिद्धों में समवाय संबंध है जो नित्य पदार्थों में नित्य और अनित्य पदार्थों में अनित्य होता है। 7. संख्या का लक्षण वैशेषिकदर्शनवत् है। 8. सभी द्रव्यों में अपनी-अपनी शक्ति है, जो द्रव्य से भिन्न है। 9. जाति का नाम सादृश्य है जो द्रव्य से भिन्न है। (भारतीय दर्शन।)
2.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा―
1. पदार्थ दो हैं–भाव व अभाव। 2. भाव चार हैं–द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। 3. अभाव चार हैं–प्राक्, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष। 4. द्रव्य 11 हैं–प्रभाकर मान्य 9 में तम व शब्द और मिलाने से 11 होते हैं। ‘शब्द’ नित्य व सर्वगत है। ‘तम’ व ‘आकाश’ चक्षु इंद्रिय के विषय हैं। ‘आत्मा’ व ‘मन’ विभु, हैं। 5. ‘गुण’ द्रव्य से भिन्न व अभिन्न हैं। वे 13 हैं–रूप, रस, गंध, स्पर्श, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, तथा स्नेह। 6. कर्म प्रत्यक्ष का विषय है। यह भी द्रव्य से भिन्न तथा अभिन्न है। 7. सामान्य नामा जाति भी द्रव्य से भिन्न व अभिन्न है। (भारतीय दर्शन)।
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3. मुरारि मिश्र या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा
1. परमार्थत: ब्रह्म ही एक पदार्थ है। व्यवहार से पदार्थ चार हैं–धर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष। 2. आत्मा धर्मी है। 3. सुख उसका धर्म विशेष है। उसकी पराकाष्ठा स्वर्ग का प्रदेश है। (भारतीय दर्शन)।
4.शरीर व इंद्रिय विचार
1.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा
1. इंद्रियों का अधिकतर शरीर है, जो केवल पार्थिव है, पंचभौतिक नहीं। यह तीन प्रकार का है–जरायुज, अंडज व स्वेदज। वनस्पति का पृथक् से कोई उद्भिज्ज शरीर नहीं है। 2. प्रत्येक शरीर में मन व त्वक् ये दो इंद्रियाँ अवश्य रहती हैं। मन अणुरूप है, तथा ज्ञान का कारण है।
2.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा
मन, इंद्रियाँ व शरीर तीनों पाँचभौतिक हैं। इनमें से मन व इंद्रियाँ ज्ञान के करण हैं। बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इंद्रियों द्वारा मन व आत्मा के संयोग से होता है।
5.ईश्वर व जीवात्मा विचार
1.‘गुरु’ व ‘भट्ट’ दोनों मतों की अपेक्षा
(स्याद्वादमंजरी/परि. ङ./430-432,433); (भारतीय दर्शन)
1. प्रत्यक्ष गोचर न होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं है। आगम प्रमाण विवाद का विषय होने से स्वीकारणीय नहीं है।(षड् दर्शन समुच्चय /68/67-69)। 2. न तो सृष्टि और प्रलय ही होती है और न उनके कर्तारूप किसी ईश्वर को मानना आवश्यक है। फिर भी व्यवहार चलाने के लिए परमात्मा को स्वीकार किया जा सकता है। 3. आत्मा अनेक हैं। अहं प्रत्यय द्वारा प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्-पृथक् जाना जाता है व शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, विभु व भोक्ता है। शरीर इसका भोगायतन है। यही एक शरीर से दूसरे शरीर में तथा मोक्ष में जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि प्रभाकर आत्मा को स्वसंवेदनगम्य मानता है, परंतु कुमारिल ज्ञाता व ज्ञेय को सर्वथा भिन्न मानने के कारण उसे स्वसंवेदनगम्य नहीं मानता। (विशेष–देखें आगे प्रामाण्य विचार - 8) (भारतीय दर्शन)।
6.मुक्ति विचार
1.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा
1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं (षड् दर्शनसमुच्चय /69-70/69-70)। 2. धर्म व अधर्म का विशेष प्रकार से नाश हो जाने पर देह की आत्यंतिकी निवृत्ति हो जाना मोक्ष है। सांसारिक दुःखों से उद्विग्नता, लौकिक सुखों से पराङ्मुखता, सांसारिक कर्मों का त्याग, वेद विहित शम, दम आदि का पालन मोक्ष का उपाय है। तब अदृष्ट के सर्व फल का भोग हो जाने पर समस्त संस्कारों का नाश स्वत: हो जाता है। ( स्याद्वादमंजरी/ परि.ङ./433), (भारतीय दर्शन)।
2.कुमारिल भट्ट या ‘भट्टमत’ की अपेक्षा
1. वेदाध्ययन से धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं । वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्ष के कारण हैं–षड् दर्शन समुच्चय /69-70/69-70) 2. सुख दुःख के कारण भूत शरीर, इंद्रिय व विषय इन तीन प्रपंचों की आत्यंतिक निवृत्ति; तथा ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म व संस्कार इन सबसे शून्य; स्वरूप में स्थित आत्मा मुक्त है वहाँ शक्तिमात्र से ज्ञान रहता है। आत्मज्ञान भी नहीं होता। 3. लौकिक कर्मों का त्याग और वेद विहित कर्मों का ग्रहण ही मोक्षमार्ग है ज्ञान नहीं। वह तो मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में कारणमात्र है।
(सा.पं./परि.उ./433); (भारतीय दर्शन)
7.प्रमाण विचार
1.वेद प्रमाण सामान्य
दोनों मत वेद को प्रमाण मानते हैं। वह नित्य व अपौरुषेय होने के कारण तर्क का विषय नहीं है। अनुमान आदि अन्य प्रमाण उसकी अपेक्षा निम्नकोटि के हैं। (षड्दर्शन समुच्चय/69-70/69-70); ( स्याद्वादमंजरी/ परि.ङ./428-429)। (2) वह पाँच प्रकार का है–मंत्र वेदविधि, ब्राह्मण वेदविधि, मंत्र नामधेय, निषेध और अर्थवाद। ‘विधि’ धर्म संबंधी नियमों को बताती है। ‘मंत्र’ से याज्ञिक देवी, देवताओं का ज्ञान होता है। निंदा, प्रशंसा, परकृति और पुराकल्प के भेद से ‘अर्थवाद’ चार प्रकार का है। ( स्याद्वादमंजरी/ परि. ङ./429-430)।
2.प्रभाकर मिश्र या ‘गुरुमत’ की अपेक्षा
(षड्दर्शन समुच्चय /71-75/71-72); ( स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ. /432); (भारतीय दर्शन)।
(1) स्वप्न व संशय से भिन्न अनुभूति प्रमाण है। वह पाँच प्रकार का है–प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द व अर्थापत्ति। (2) प्रत्यक्ष में चार प्रकार का सन्निकर्ष होता है–आत्मा से मन का, मन से इंद्रिय का, इंद्रिय से द्रव्य का, तथा इंद्रिय से उस द्रव्य के गुण का। ये द्रव्य व गुणका प्रत्यक्ष पृथक् पृथक् मानते हैं। वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है–सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प प्रत्यक्ष निर्विकल्प पूर्वक होता है। योगज व प्रातिभ प्रत्यक्ष इन्हीं दोनों में गर्भित हो जाते हैं। (3) अनुमान व उपमान नैयायिक दर्शनवत् हैं। (4) केवल विध्यर्थक वेदवाक्य शब्द प्रमाण है, जिनके सन्निकर्ष से परोक्षभूत विषयों का ज्ञान होता है। (5) ‘दिन में नहीं खाकर भी देवदत्त मोटा है तो पता चलता है कि यह अवश्य रात को खाता होगा’ यह अर्थापत्ति का उदाहरण है।
3.कुमारिल भट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा
(षड्दर्शन समुच्चय /71-76/71-73); ( स्याद्वादमंजरी/ परि-ड./432); (भारतीय दर्शन)।
(1) प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं, वह छह प्रकार का है–प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। (2) प्रत्यक्ष ज्ञान में केवल दो प्रकार का सन्निकर्ष होता है–संयोग व संयुक्ततादात्म्य। समवाय नाम का कोई तीसरा संबंध नहीं है। अन्य सब कथन गुरुमतवत् है। (3) अनुमान में तीन अवयव हैं–प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण, अथवा उदाहरण उपनय व निगमन। (4) ज्ञात शब्द में पदार्थ का स्मरणात्मक ज्ञान होने पर जो वाक्यार्थ का ज्ञान होता है, वह शब्द प्रमाण है। वह दो प्रकार का है–पौरुषेय व अपौरुषेय। प्रत्यक्ष-द्रष्टा ऋषियों के वाक्य पौरुषेय तथा वेदवाक्य अपौरुषेय है। वेदवाक्य दो प्रकार के हैं–सिद्धयर्थक व विधायक। स्वरूपप्रतिपादक वाक्य सिद्धयर्थक हैं। आदेशात्मक व प्रेरणात्मक वाक्य विधायक हैं। विधायक भी दो प्रकार हैं–उपदेश व आदेश या अतिदेश। (5) अर्थापत्ति का लक्षण प्रभाकर भट्टवत् है, पर यहाँ उसके दो भेद हैं–दृष्टार्थापत्ति और श्रुतार्थापत्ति। दृष्टार्थापत्ति का उदाहरण पहले दिया जा चुका है। श्रुतार्थापत्ति का उदाहरण ऐसा है कि ‘देवदत्त घर पर नहीं है’ ऐसा उत्तर पाने पर स्वत: यह ज्ञान हो जाता है कि ‘वह बाहर अवश्य है’। (6) ‘प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जो सिद्ध न हो वह पदार्थ है ही नहीं’ ऐसा निश्चय होना अनुपलब्धि है।
8.प्रामाण्य विचार
( स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ्./432); (भारतीय दर्शन)।
1.प्रभाकर मिश्र या गुरुमत की अपेक्षा
ज्ञान कभी मिथ्या व भ्रांति रूप नहीं होता। यदि उसमें संशय न हो तो अंतरंग ज्ञेय की अपेक्षा वह सम्यक् ही है। सीपी में रजत का ज्ञान भी ज्ञानाकार की अपेक्षा सम्यक् ही है। इसे अख्याति कहते हैं। स्वप्रकाशक होने के कारण वह ज्ञान स्वयं प्रमाण है। इस प्रकार यह स्वत: प्रामाण्यवादी है।
2.कुमारिलभट्ट या ‘भाट्टमत’ की अपेक्षा
मिथ्याज्ञान अन्यथाख्याति है। रज्जू में सर्प का ज्ञान भी सम्यक् है, क्योंकि, भय आदि की अन्यथा उत्पत्ति संभव नहीं है। पीछे दूसरे के बतलाने से उसका मिथ्यापना जाना जाये यह दूसरी बात है। इतना मानते हुए भी यह ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानता। पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, पीछे ‘मैंने घट जाना है’ ऐसा ज्ञातता नामक धर्म उत्पन्न होता है। इस ज्ञातता से ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए यह परत: प्रामाण्यवादी है।
3.मंडन–मुरारी या ‘मिश्रमत’ की अपेक्षा
पहले ‘यह घट है’ ऐसा ज्ञान होता है, फिर ‘मैं घट क जानने वाला हूँ’ ऐसा ग्रहण होता है। अत: यह भी ज्ञान को स्वप्रकाशक न मानने के कारण परत: प्रामाण्यवादी है।
9.जैन व मीमांसा दर्शन की तुलना
( स्याद्वादमंजरी/ परि-ङ./पृ. 434)।
(1) मीमांसक लोग वेद को अपौरुषेय व स्वत: प्रमाण वेदविहित हिंसा यज्ञादिक को धर्म, जन्म से ही वर्णव्यवस्था तथा ब्राह्मण को सर्वपूज्य मानते हैं। जैन लोग उपरोक्त सर्व बातों का कड़ा विरोध करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद है, अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा विधान ही सच्चे यज्ञ हैं, वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं गुण व कर्म से होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है। इस प्रकार दोनों में भेद है। (2) कुमारिलभट्ट पदार्थों को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, अवयव अवयवी में भेदाभेद, वस्तु को स्व की अपेक्षा सत् और पर की अपेक्षा असत् तथा सामान्य विशेष को सापेक्ष मानता है। अत: किसी अंश में वह अनेकांतवादी है। इसकी अपेक्षा जैन व मीमांसक तुल्य हैं। (3) (तत्त्वों की अपेक्षा जैन व मीमांसकों की तुलना वैशेषिकदर्शनवत् ही है।) (देखें वैशेषिक दर्शन )। अन्य विषयों में भी दोनों में भेद व तुल्यता है। जैसे–दोनों ही जरायुज, अंडज व स्वेदज (संमूर्च्छन) शरीरों को पाँच भौतिक स्वीकार करते हैं। दोनों ही इंद्रिय विषयों के त्याग आदि को मोक्ष का साधन मानते हैं। दोनों ही शरीरादि की आत्यंतिक निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं। इस प्रकार दोनों में तुल्यता है। परंतु जैनों की भाँति मीमांसक सर्वज्ञत्व का अस्तित्व नहीं मानते, आत्मा को स्वसंवेदनगम्य नहीं मानते। इस प्रकार दोनों में भेद है।