उपलब्धि समा: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 3: | Line 3: | ||
<span class="GRef">न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5।1।27 </span><span class="SanskritText"> निर्दिष्टकारणाभावेऽप्युपलंभादुपलब्धिसमः ।28। निर्दिष्टस्य प्रयत्नांतरीयकत्वसयानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनाद्वृक्षशाखाभंगजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपलभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमः।</span> | <span class="GRef">न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5।1।27 </span><span class="SanskritText"> निर्दिष्टकारणाभावेऽप्युपलंभादुपलब्धिसमः ।28। निर्दिष्टस्य प्रयत्नांतरीयकत्वसयानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनाद्वृक्षशाखाभंगजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपलभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमः।</span> | ||
<span class="HindiText">= वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होने पर भी साध्य धर्म का उपलंभ हो जाने से, उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायु के द्वारा वृक्ष की शाखा आदि के भंग से उत्पन्न हुए शब्द में या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्व का अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्मरूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए शब्द को `नित्य' सिद्ध करने में दिया गया प्रयत्नांतरीयकत्व हेतु ठीक नहीं है।</span> | <span class="HindiText">= वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होने पर भी साध्य धर्म का उपलंभ हो जाने से, उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायु के द्वारा वृक्ष की शाखा आदि के भंग से उत्पन्न हुए शब्द में या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्व का अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्मरूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए शब्द को `नित्य' सिद्ध करने में दिया गया प्रयत्नांतरीयकत्व हेतु ठीक नहीं है।</span> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या. 419/525/13 )</span></p> </li> | ||
<li><span class="HindiText" id="2"><strong>अनुपलब्धि समा जाति</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="2"><strong>अनुपलब्धि समा जाति</strong> <br /></span> | ||
<span class="GRef">न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5-1/29</span><span class="SanskritText"> तदनुपलब्धेरनुपलंभादभावसिद्धौ परीतोपपत्तेरनुपलब्धिसमः ।29। तेषामावरणादीनामनुपलब्धिर्नोपलभ्यते अनुपलंभान्नास्तीत्यभावोऽस्याः सिध्यति अभावसिद्धौ हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञातं न प्रागुच्चारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणाद्यनुपलब्धौ च समयानुपलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनुपलब्धिसमो भवति।</span> | <span class="GRef">न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5-1/29</span><span class="SanskritText"> तदनुपलब्धेरनुपलंभादभावसिद्धौ परीतोपपत्तेरनुपलब्धिसमः ।29। तेषामावरणादीनामनुपलब्धिर्नोपलभ्यते अनुपलंभान्नास्तीत्यभावोऽस्याः सिध्यति अभावसिद्धौ हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञातं न प्रागुच्चारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणाद्यनुपलब्धौ च समयानुपलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनुपलब्धिसमो भवति।</span> | ||
<span class="HindiText">= निषेध करने योग्य शब्द की जो अनुपलब्धि है, उस "अनुपलब्धि" की भी अनुपलब्धि हो जाने से अभाव का साधन करने पर, विपर्यास से उस अनुपलब्धि के अभाव की उपपत्ति करना प्रतिवादी की अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-`उच्चारण के प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे ही शब्द का अनुपलंभ है। विद्यमान शब्द का अदर्शन नहीं है, इस प्रकार स्वीकार करने वाले वादी के लिए जिस किसी भी प्रतिवादी की ओर से यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, कि उस शब्द के आवरण, अंतराल आदिकों के अदर्शन का भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिकों की जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारण से पहिले विद्यमान हो रहे ही शब्द का सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योंकि अनादिकाल से सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकों के अभाव का भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है।</span> | <span class="HindiText">= निषेध करने योग्य शब्द की जो अनुपलब्धि है, उस "अनुपलब्धि" की भी अनुपलब्धि हो जाने से अभाव का साधन करने पर, विपर्यास से उस अनुपलब्धि के अभाव की उपपत्ति करना प्रतिवादी की अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-`उच्चारण के प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे ही शब्द का अनुपलंभ है। विद्यमान शब्द का अदर्शन नहीं है, इस प्रकार स्वीकार करने वाले वादी के लिए जिस किसी भी प्रतिवादी की ओर से यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, कि उस शब्द के आवरण, अंतराल आदिकों के अदर्शन का भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिकों की जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारण से पहिले विद्यमान हो रहे ही शब्द का सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योंकि अनादिकाल से सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकों के अभाव का भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है।</span> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( श्लोकवार्तिक 4/न्या. 425/628/10 तथा पृ. 531/14 )</span>।</p> </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
- उपलब्धि समा
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5।1।27 निर्दिष्टकारणाभावेऽप्युपलंभादुपलब्धिसमः ।28। निर्दिष्टस्य प्रयत्नांतरीयकत्वसयानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनाद्वृक्षशाखाभंगजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपलभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमः। = वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होने पर भी साध्य धर्म का उपलंभ हो जाने से, उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायु के द्वारा वृक्ष की शाखा आदि के भंग से उत्पन्न हुए शब्द में या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्व का अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्मरूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए शब्द को `नित्य' सिद्ध करने में दिया गया प्रयत्नांतरीयकत्व हेतु ठीक नहीं है।( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या. 419/525/13 )
- अनुपलब्धि समा जाति
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय व भाष्य 5-1/29 तदनुपलब्धेरनुपलंभादभावसिद्धौ परीतोपपत्तेरनुपलब्धिसमः ।29। तेषामावरणादीनामनुपलब्धिर्नोपलभ्यते अनुपलंभान्नास्तीत्यभावोऽस्याः सिध्यति अभावसिद्धौ हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञातं न प्रागुच्चारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणाद्यनुपलब्धौ च समयानुपलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनुपलब्धिसमो भवति। = निषेध करने योग्य शब्द की जो अनुपलब्धि है, उस "अनुपलब्धि" की भी अनुपलब्धि हो जाने से अभाव का साधन करने पर, विपर्यास से उस अनुपलब्धि के अभाव की उपपत्ति करना प्रतिवादी की अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-`उच्चारण के प्रथम नहीं विद्यमान हो रहे ही शब्द का अनुपलंभ है। विद्यमान शब्द का अदर्शन नहीं है, इस प्रकार स्वीकार करने वाले वादी के लिए जिस किसी भी प्रतिवादी की ओर से यों प्रत्यवस्थान उठाया जाता है, कि उस शब्द के आवरण, अंतराल आदिकों के अदर्शन का भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिकों की जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारण से पहिले विद्यमान हो रहे ही शब्द का सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योंकि अनादिकाल से सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकों के अभाव का भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है।( श्लोकवार्तिक 4/न्या. 425/628/10 तथा पृ. 531/14 )।