स्थितिकरण: Difference between revisions
From जैनकोष
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</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देख धर्म बुद्धिकर सुख के निमित्त हितमित वचनों से उनके दोषों को दूर करके धर्म में दृढ करता है वह शुद्धसम्यक्त्वी स्थितिकरण गुणवाला है।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देख धर्म बुद्धिकर सुख के निमित्त हितमित वचनों से उनके दोषों को दूर करके धर्म में दृढ करता है वह शुद्धसम्यक्त्वी स्थितिकरण गुणवाला है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/175/3 </span>चातुर्वर्णसंघस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्यक्तं वांछति तदागमाविरोधेन-यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थे न वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितिकरणमिति।</span> = <span class="HindiText">चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन ज्ञान को या चारित्र मोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/175/3 </span>चातुर्वर्णसंघस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्यक्तं वांछति तदागमाविरोधेन-यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थे न वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितिकरणमिति।</span> = <span class="HindiText">चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन ज्ञान को या चारित्र मोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/802 </span>सुस्थितिकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात। भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुन:।802।</span> = <span class="HindiText">स्व व पर स्थितिकरणों में अपने पद से भ्रष्ट हुए अन्य जीवों को जो उत्तम दया भाव से उनके पद में फिर से स्थापित करना है वह | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/802 </span>सुस्थितिकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात। भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुन:।802।</span> = <span class="HindiText">स्व व पर स्थितिकरणों में अपने पद से भ्रष्ट हुए अन्य जीवों को जो उत्तम दया भाव से उनके पद में फिर से स्थापित करना है वह पर स्थितिकरण है।802।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText">2. स्वधर्मबाधक पर का स्थितिकरण करना योग्य नहीं</strong></p> | <strong class="HindiText">2. स्वधर्मबाधक पर का स्थितिकरण करना योग्य नहीं</strong></p> |
Revision as of 11:39, 21 July 2023
सिद्धांतकोष से
1. स्थितिकरण अंग का लक्षण
1. निश्चय
समयसार/234 उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेद। सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो। = जो चेतयिता उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को भी मार्ग में स्थापित करता है वह स्थितिकरण युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
राजवार्तिक/6/24/1/529/14 कषायोदयादिषु धर्मपरिभ्रंशकारणेषु उपस्थितेष्वात्मनो धर्माप्रच्यवनं परिपालनं स्थितिकरणम् । = कषायोदय आदि से धर्म भ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से परिच्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/28 कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मन: परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।28। = काम, क्रोध, मद, लोभादिक भावों के होने पर न्याय मार्ग से च्युत करने को प्रगट होते हुए अपने आत्मा को...जिस किस प्रकार धर्म में स्थित करना भी कर्तव्य है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/795 )
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/420 धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि। अप्पाणं पि सुदिढयदि ठिदिकरणं होदि तस्सेव।420। = जो धर्म से चलायमान...अपने को धर्म में दृढ करता है उसी के स्थितिकरण गुण होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/175/7 निश्चयेन पुनस्तेनैव व्यवहारेण स्थितिकरणगुणेन धर्मदृढत्वे जाते सति...रागादिविकल्पजालत्यागेन निजपरमात्मस्वभावभावनोत्पंनपरमानंदैकलक्षणसुखामृतरसास्वादेन तल्लयतन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थिरीकरणमेव स्थितिकरणमिति। = व्यवहार स्थिति करण गुण से धर्म में दृढता होने पर...रागादि विकल्पों के त्याग द्वारा निज परमात्म स्वभाव की भावना से उत्पन्न परम आनंद सुखामृत के आस्वाद रूप परमात्मा में लीन अथवा परमात्म स्वरूप में समरसी भाव से चित्त का स्थिर करना, निश्चय से स्थितिकरण है।
2. व्यवहार
मूलआराधना/262 दंसणचरणुवभट्ठे जीवे दट्ठूण धम्मबुद्धीए। हिदमिदमबगूहिय ते खिप्पं तत्तो णियत्तेइ।262। = सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देख धर्म बुद्धिकर सुख के निमित्त हितमित वचनों से उनके दोषों को दूर करके धर्म में दृढ करता है वह शुद्धसम्यक्त्वी स्थितिकरण गुणवाला है।
रत्नकरंड श्रावकाचार/16 दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलै:। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै: स्थितिकरणमुच्यते।16। = सम्यग्दर्शन वा चारित्र से डिगते हुए पुरुष को जो उसी में स्थिर कर देना है सो विद्वानों के द्वारा स्थितिकरण अंग कहा गया है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/420 धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि।...ठिदि-करणं होदि तस्सेव।420। = जो धर्म से चलायमान अन्य जीव को धर्म में स्थिर करता है।...उसी के स्थितिकरण गुण होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/175/3 चातुर्वर्णसंघस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्यक्तं वांछति तदागमाविरोधेन-यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थे न वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितिकरणमिति। = चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन ज्ञान को या चारित्र मोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उसको धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितिकरण है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/802 सुस्थितिकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात। भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुन:।802। = स्व व पर स्थितिकरणों में अपने पद से भ्रष्ट हुए अन्य जीवों को जो उत्तम दया भाव से उनके पद में फिर से स्थापित करना है वह पर स्थितिकरण है।802।
2. स्वधर्मबाधक पर का स्थितिकरण करना योग्य नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/84 धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रह: परे। नात्मव्रतं विहायास्तु तत्पर: पररक्षणे।802। = धर्म के आदेश वा उपदेश से ही दूसरे जीवों पर अनुग्रह करना चाहिए। किंतु अपने व्रत को छोड़कर दूसरों के व्रतों की रक्षा नहीं करनी चाहिए।802।
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन के आठ अगो में छठा अंग-सम्यग्दर्शन, तप, चारित्र आदि को अंगीकार करके उनसे विचलित (अस्थिर) हुए जीवों को उपदेश आदि के द्वारा उन्हीं गुणों में पुन स्थापित कर देना, कषायों के होने पर उनसे अपना या दूसरे का बचाव करना, दोनों को धर्म से च्युत नहीं होने देना । महापुराण 63.319, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.68