पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 135 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 11: | Line 11: | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 136 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 136 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र गाथा 135 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 135 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] |
Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
तिसिदं वुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दु दुहिद मणो । (135)
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥145॥
अर्थ:
तृषातुर, क्षुधातुर या दुखी को देखकर जो दुखित मनवाला उनके प्रति कृपा पूर्वक प्रवर्तन करता है, उसके यह अनुकम्पा है ।
समय-व्याख्या:
अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत् ।
कञ्चिदुदन्यादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनो-ऽनुकम्पा । ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मनः-खेद इत ॥१३५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, अनुकम्पा के स्वरूप का कथन है ।
किसी तृषादि दुःख से पीडित प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतिकार (उपाय) करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना वह अज्ञानी की अनुकम्पा है । ज्ञानी की अनुकम्पा तो, निचली भूमिका में विहरते हुए (स्वयं निचले गुणस्थानों में वर्तता हो तब), जन्मार्णव में निमग्न जगत के अवलोकन से (अर्थात् संसार-सागर में डूबे हुए जगत को देखने से) मन में किंचित खेद होना, वह है ॥१३५॥