ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 134 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । (134)
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति ॥144॥
अर्थ:
अरहन्त, सिद्ध, साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में यथार्थतया चेष्टा और गुरुओं का भी अनुगमन प्रशस्त राग है, ऐसा कहते हैं ।
समय-व्याख्या:
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत् ।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति :, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा, गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम् — एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात् ।अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्ति प्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धा-स्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति ॥१३४॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, प्रशस्त राग के स्वरूप का कथन है ।
१अर्हन्त-सिद्ध-साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में, व्यवहार-चारित्र के २अनुष्ठान में, ३भावना-प्रधान चेष्टा और गुरुओं का-आचार्यादिका, रसिक-भाव से ४अनुगमन, यह 'प्रशस्त राग' है क्योंकि उसका विषय प्रशस्त है ।
यह (प्रशस्त राग) वास्तव में, जो स्थूल-लक्ष्यवाला होने से केवल भक्ति प्रधान है ऐसे अज्ञानी को होता है, उच्च भूमिका में (ऊपर के गुणस्थानों में) स्थिति प्राप्त न की हो तब, ५अस्थान का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र राग-ज्वर हटाने के हेतु, कदाचित ज्ञानी को भी होता है ॥१३४॥
१अर्हन्त-सिद्ध-साधुओं में अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पाँचों का समावेश हो जाता है क्योंकि 'साधुओं' में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीन का समावेश होता है।
२अनुष्ठान= आचरण, आचरना, अमल में लाना।
३भावनाप्रधान चेष्टा= भावप्रधान प्रवृत्ति, शुभभावप्रधान व्यापार।
४अनुगमन= अनुसरण, आज्ञांकितपना, अनुकूल वर्तन ।
५अस्थान का= अयोग्य स्थान का, अयोग्य विषय की ओर का, अयोग्य पदार्थो का अवलम्बन लेने वाला।