पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 155 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोथ भावेण । (155)
सो तेण परचरित्तो हवदित्ति जिणा परूवेंति ॥165॥
अर्थ:
आत्मा के जिस भाव से पुण्य या पाप का आस्रव होता है, वह उससे परचारित्र वाला होता है -- ऐसा 'जिन' प्ररूपित करते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[आसवदि जेण पुण्णं पावं वा] जिससे पुण्य या पाप का आस्रव होता है; निरास्रव परमात्म-तत्त्व से विपरीत जिससे सम्यक्तया आस्रव होता है । किनका होता है? पुण्य या पाप का होता है । जिससे किससे होता है? भाव से, परिणाम से होता है । किसके भाव से होता है ? [अप्पणो] आत्मा के भाव से होता है । [अथ] अहो! [सो तेण परचरित्तो हवदित्ति जिणा परूवेंति] वह जीव यदि निरास्रव परमात्म-स्वभाव से च्युत होकर उस पूर्वोक्त आस्रव भाव को करता है, तब वह जीव उस भाव द्वारा शुद्धात्मानुभूति रूप आचरण लक्षण स्वचारित्र से भ्रष्ट होता हुआ परचारित्र होता है, ऐसा जिन प्ररूपित करते हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ कि आस्रव सहित भाव से मोक्ष नहीं होता है ॥१६५॥
इसप्रकार विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी शुद्धात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान और अनुभूति रूप निश्चय मोक्षमार्ग से विलक्षण परसमय के विशेष विवरण की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।