ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 155 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोथ भावेण । (155)
सो तेण परचरित्तो हवदित्ति जिणा परूवेंति ॥165॥
अर्थ:
आत्मा के जिस भाव से पुण्य या पाप का आस्रव होता है, वह उससे परचारित्र वाला होता है -- ऐसा 'जिन' प्ररूपित करते हैं ।
समय-व्याख्या:
परचरितप्रवृत्तेर्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिषेधनमेतत् ।
इह किल शुभोपरक्तो भावः पुण्यास्रवः, अशुभोपरक्तः पापास्रव इति । तत्रपुण्यं पापं वा येन भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररूप्यते । ततः परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्गइति ॥१५५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ, पर-चारित्र प्रवृति बंध-हेतु-भूत होने से उसे मोक्ष-मार्गपने का निषेध किया गया है (अर्थात् पर-चारित्र में प्रवर्तन बंध का हेतु होने से वह मोक्ष-मार्ग नहीं है ऐसा इस गाथा में दर्शाया है)--
यहाँ वास्तव में शुभोपरक्त भाव (शुभरूप विकारी भाव) वह पुण्यास्रव है और अशुभोपरक्त भाव (अशुभरूप विकारी भाव) पापास्रव है । वहाँ, पुण्य अथवा पाप जिस भाव से आस्रवित होते हैं, वह भाव जब जिस जीव को हो तब वह जीव उस भाव द्वारा पर-चारित्र है -- ऐसा (जिनेंद्रों द्वारा) प्ररूपित किया जाता है । इसलिये (ऐसा निश्चित होता है कि) पर-चारित्र में प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही है, मोक्षमार्ग नहीं है ॥१५५॥