सुख: Difference between revisions
From जैनकोष
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< | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">सामान्य व लौकिक सुख निर्देश</strong> | ||
<p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/14 | </span> | ||
<p><span class="GRef"> तत्त्वसार/8/47 </span><span class="SanskritText">लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।47।</span> <span class="HindiText"> =जगत् में सुख शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं-विषय, वेदना का अभाव, पुण्यकर्म का फल प्राप्त होना, मुक्त हो जाना।</span></ | <ol> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">सुख के भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/398 </span><span class="PrakritText">इंदियमणस्स पसमज आदत्थं तहय सोक्ख चउभेयं।398।</span> =<span class="HindiText"> सुख चार प्रकार का है-इंद्रियज, मनोत्पन्न, प्रशम से उत्पन्न और आत्मोपन्न।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/20/288/12 </span><span class="SanskritText">सदसद्वेद्योदयेऽंतरंगहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमान: प्रीतिपरितापरूप: परिणाम: सुखदु:खमित्याख्यायते।</span> =<span class="HindiText"> इंद्रियों के विषयों के अनुभव करने को सुख कहते हैं | <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/14 पर फुटनोट</span><span class="SanskritText">-इंद्रियजमतींद्रियं चेति सुखस्य द्वौ भेदौ।</span> =<span class="HindiText"> इंद्रियज और अतींद्रियज ऐसे सुख के दो भेद हैं।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> तत्त्वसार/8/47 </span><span class="SanskritText">लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।47।</span> <span class="HindiText"> =जगत् में सुख शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं-विषय, वेदना का अभाव, पुण्यकर्म का फल प्राप्त होना, मुक्त हो जाना।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">लौकिक सुख का लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/20/251/8 </span><span class="SanskritText">सुखमिंद्रियार्थानुभव:।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/20/288/12 </span><span class="SanskritText">सदसद्वेद्योदयेऽंतरंगहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमान: प्रीतिपरितापरूप: परिणाम: सुखदु:खमित्याख्यायते।</span> =<span class="HindiText"> इंद्रियों के विषयों के अनुभव करने को सुख कहते हैं <span class="GRef"> (राजवार्तिक/4/20/3/235/15) </span><br/> | |||
<span class="HindiText"> साता और असाता रूप अंतरंग परिणाम के रहते हुए बाह्य द्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वे सुख और दु:ख कहे जाते हैं। <span class="GRef"> (राजवार्तिक/5/20/1/474/22); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/15) </span></span></p> | |||
<p><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ वृत्ति/1/115/428/20 पर उद्धृत</span><span class="SanskritText">-सुखमाह्लादनाकारम् ।</span> =<span class="HindiText"> सुख आह्लादरूप होता है।</span></p> | <p><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ वृत्ति/1/115/428/20 पर उद्धृत</span><span class="SanskritText">-सुखमाह्लादनाकारम् ।</span> =<span class="HindiText"> सुख आह्लादरूप होता है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 13/5,4,24/51/4 </span><span class="PrakritText">किंलक्खणमेत्थसुहं। सयलबाहाविरहलक्खणं।</span> =<span class="HindiText"> सर्व प्रकार की बाधाओं का दूर होना, यही प्रकृत में (ईर्यापथ आस्रव के प्रकरण में) उसका (सुख का) लक्षण है।</span></p> | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,4,24/51/4 </span><span class="PrakritText">किंलक्खणमेत्थसुहं। सयलबाहाविरहलक्खणं।</span> =<span class="HindiText"> सर्व प्रकार की बाधाओं का दूर होना, यही प्रकृत में (ईर्यापथ आस्रव के प्रकरण में) उसका (सुख का) लक्षण है।</span></p> | ||
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<li>पुण्यकर्म के विपाक से इष्ट विषय की प्राप्ति होने से जो सुख का संकल्प होता है, वह सुख का तीसरा अर्थ है।49।</li> | <li>पुण्यकर्म के विपाक से इष्ट विषय की प्राप्ति होने से जो सुख का संकल्प होता है, वह सुख का तीसरा अर्थ है।49।</li> | ||
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<p><span class="HindiText">देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]]वेदना का उपशांत होना, अथवा उत्पन्न न होना, अथवा दु:खोपशांति के द्रव्यों की उपलब्धि होना सुख है।</span></ | <p><span class="HindiText">देखें [[ वेदनीय#8 | वेदनीय - 8 ]] - वेदना का उपशांत होना, अथवा उत्पन्न न होना, अथवा दु:खोपशांति के द्रव्यों की उपलब्धि होना सुख है।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">लौकिक सुख वास्तव में दु:ख है</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> भगवती आराधना/1248-1249 </span><span class="PrakritText">भोगोवभोगसोक्खं जं जं दुक्खं च भोगणासम्मि। एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसिट्ठं।1248। देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं। दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चेव सोक्खं खु।1249।</span> =<span class="HindiText">भोगसाधनात्मक इन भोगों का वियोग होने से जो दु:ख उत्पन्न होता है तथा भोगोपभोग से जो सुख मिलता है, इन दोनों में दु:ख ही अधिक समझना।1248। यह देह भूख, प्यास, शीत, उष्ण और रोगों से पीड़ित होता है, तथा अनित्य भी ऐसे देह में आसक्त होने से कितना सुख प्राप्त होगा। अत्यल्प सुख की प्राप्ति होगी। दु:ख निवारण होना अथवा दु:ख की कमी होना ही सुख है, ऐसा संसार में माना जाता है।1249।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> प्रवचनसार/64,76 | <p><span class="GRef"> प्रवचनसार/64,76</span><span class="PrakritGatha">जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं। जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं।64। सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इंदियेंहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।76।</span> =<span class="HindiText">जिन्हें विषयों में रति है उन्हें दु:ख स्वाभाविक जानो, क्योंकि यदि वह दुख स्वभाव न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो।64। जो इंद्रियों से प्राप्त होता है वह सुख परसंबंधयुक्त, बाधासहित विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है, इस प्रकार वह दु:ख ही है। <span class="GRef"> (योगसार (अमितगति)/3/35); (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/245)</span></span></p> | ||
<p><span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/3 </span><span class="SanskritText">शतह्नदोन्मेषचलं हि सौख्यं-तृष्णामयाप्यायन-मात्र-हेतु:। तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्रं तापस्तदायासयतीत्यवादी:।3।</span> =<span class="HindiText">आपने पीड़ित जगत् को उसके दु:ख का निदान बताया है कि-इंद्रिय विषय बिजली की चमक के समान चंचल है, तृष्णा रूपी रोग की वृद्धि का एकमात्र हेतु है, तृष्णा की अभिवृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है, और वह ताप जगत् को अनेक दु:ख परंपरा से पीड़ित करता है। | <p><span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/3 </span><span class="SanskritText">शतह्नदोन्मेषचलं हि सौख्यं-तृष्णामयाप्यायन-मात्र-हेतु:। तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्रं तापस्तदायासयतीत्यवादी:।3।</span> =<span class="HindiText">आपने पीड़ित जगत् को उसके दु:ख का निदान बताया है कि-इंद्रिय विषय बिजली की चमक के समान चंचल है, तृष्णा रूपी रोग की वृद्धि का एकमात्र हेतु है, तृष्णा की अभिवृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है, और वह ताप जगत् को अनेक दु:ख परंपरा से पीड़ित करता है। <span class="GRef"> (स्वयंभू स्तोत्र/20,31,82) </span></span></p> | ||
<p><span class="GRef"> इष्टोपदेश/ सूत्र/6</span> <span class=" | <p><span class="GRef"> इष्टोपदेश/ सूत्र/6</span> <span class="SanskritGatha">वासनामात्रमेवैतत्सुखं दु:खं च देहिनाम् । तथा ह्युद्वेजयंत्येते भोगा रोगा इवापदि।6।</span> =<span class="HindiText">संसारी जीवों का इंद्रिय सुख वासना मात्र से जनित होने के कारण दु:खरूप ही है, क्योंकि आपत्ति काल में रोग जिस प्रकार चित्त में उद्वेग उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार भोग भी उद्वेग करने वाले हैं।6।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/11,63 </span><span class="SanskritText">शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदु:खमिव स्वर्गसुखबंधमवाप्नोति।11। तद्दु:खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते। ततो व्याधिस्थानीयत्वादिंद्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च छद्मस्थानां न पारमार्थिकं सौख्यम् ।63।</span> =<span class="HindiText">जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर गिर जावे तो वह उसकी जलन से दु:खी होता है, उसी प्रकार स्वर्ग के सुखरूप बंध को प्राप्त होता है। अर्थात् स्वर्ग ऐंद्रियक सुख दु:ख ही है।11। दु:ख के वेग को सहन न कर सकने के कारण उन्हें (संसारी जीवों को) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिए इंद्रिय व्याधि के समान होने से और विषय व्याधि प्रतिकार के समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है।63।</span></p> | <p><span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/11,63 </span><span class="SanskritText">शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदु:खमिव स्वर्गसुखबंधमवाप्नोति।11। तद्दु:खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते। ततो व्याधिस्थानीयत्वादिंद्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च छद्मस्थानां न पारमार्थिकं सौख्यम् ।63।</span> =<span class="HindiText">जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर गिर जावे तो वह उसकी जलन से दु:खी होता है, उसी प्रकार स्वर्ग के सुखरूप बंध को प्राप्त होता है। अर्थात् स्वर्ग ऐंद्रियक सुख दु:ख ही है।11। दु:ख के वेग को सहन न कर सकने के कारण उन्हें (संसारी जीवों को) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिए इंद्रिय व्याधि के समान होने से और विषय व्याधि प्रतिकार के समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है।63।</span></p> | ||
<p><span class="GRef">योगसार/अमितगति/3/36</span> <span class="SanskritText">सांसारिकं सुखं सर्वं दु:खतो न विशिष्यते। यो नैव बुध्यते मूढ: स चारित्री न भण्यते।36।</span> =<span class="HindiText">सांसारिक सुख दु:ख ही हैं, सांसारिक सुख व दु:ख में कोई विशेषता नहीं है। किंतु मूढ़ प्राणी इसमें भेद मानता है वह चारित्र स्वरूप नहीं कहा जाता।36। | <p><span class="GRef">योगसार/अमितगति/3/36</span> <span class="SanskritText">सांसारिकं सुखं सर्वं दु:खतो न विशिष्यते। यो नैव बुध्यते मूढ: स चारित्री न भण्यते।36।</span> =<span class="HindiText">सांसारिक सुख दु:ख ही हैं, सांसारिक सुख व दु:ख में कोई विशेषता नहीं है। किंतु मूढ़ प्राणी इसमें भेद मानता है वह चारित्र स्वरूप नहीं कहा जाता।36। <span class="GRef">(पद्मनन्दि पंचविंशतिका/4/73)</span></span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/61 </span><span class=" | <p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/61 </span><span class="PrakritGatha">देवाणं पि य सुक्खं मणहर विसएहिं कीरदे जदि हि। विसय-वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि।61।</span> =<span class="HindiText">देवों का सुख मनोहर विषयों से उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयों के अधीन है वह दु:ख का भी कारण है।61।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ परिग्रह#5.3 | परिग्रह - 5.3 ]]परिग्रह दु:ख व दु:ख का कारण है।</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ परिग्रह#5.3 | परिग्रह - 5.3 ]]परिग्रह दु:ख व दु:ख का कारण है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/238 </span><span class="SanskritText">ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् । न तत्सुखं सुखाभासं किंतु दु:खमसंशयम् ।238।</span> =<span class="HindiText">जो लौकिक सुख है, वह सब इंद्रिय विषयक माना जाता है, इसलिए वह सब केवल सुखाभास ही नहीं है, किंतु निस्संदेह दु:खरूप भी है।238।</span></ | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/238 </span><span class="SanskritText">ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् । न तत्सुखं सुखाभासं किंतु दु:खमसंशयम् ।238।</span> =<span class="HindiText">जो लौकिक सुख है, वह सब इंद्रिय विषयक माना जाता है, इसलिए वह सब केवल सुखाभास ही नहीं है, किंतु निस्संदेह दु:खरूप भी है।238।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">लौकिक सुख को दु:ख कहने का कारण</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/10/349/3 </span><span class="SanskritText">ननु च तत्सर्वं न दु:खमेव; विषयरतिसुखसद्भावात् । न तत्सुखम्; वेदनाप्रतीकारत्वात्कच्छूकंडूयनवत् ।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-ये हिंसादि सब के सब केवल दु:खरूप ही हैं, यह बात नहीं है, क्योंकि विषयों के सेवन में सुख उपलब्ध होता है ? | ||
<strong>उत्तर</strong>-विषयों के सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किंतु दाद को खुजलाने के समान केवल वेदना का | <strong>उत्तर</strong>-विषयों के सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किंतु दाद को खुजलाने के समान केवल वेदना का प्रतिकार मात्र है।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">लौकिक सुख शत्रु हैं</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> भगवती आराधना/1271 </span><span class="PrakritGatha">दुक्खं उप्पादिंता पुरिसा पुरिसस्स होदि जदि सत्तू। अदिदुक्खं कदमाणा भोगा सत्तू किह ण हुंती।1271।</span> =<span class="HindiText"> दु:ख उत्पन्न करने से यदि पुरुष पुरुष के शत्रु के समान होते हैं, तो अतिशय दु:ख देने वाले इंद्रिय सुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ? (अर्थात् लौकिक सुख तो शत्रु हैं ही)।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">विषयों में सुख-दु:ख की कल्पना रुचि के अधीन है</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,13-14/220/ गाथा 120/272 </span><span class="SanskritText">तिक्ता च शीतलं तोयं पुत्रादिर्मुद्रिका-(र्मृद्वीका) फलम् । निंबक्षीरं ज्वरार्तस्य नीरोगस्य गुडादय:।120।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,13-14/222/चूर्णसूत्र/274 </span> <span class="PrakritText">'संगह-ववहाराणं उजुसुदस्स च सव्वं दव्वं पेज्जं।' जं किंचि दव्वं णाम तं सव्वं पेज्जं चेव; कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेज्जभावेण वट्टमाणाणाणमुवलंभादो। तं जहा, विसं पि पेज्जं, विसुप्पण्णजीवाणं कोढियाणं मरणमारणिच्छाणं च हिद-सुह-पियकारणत्तादो। एवं पत्थरतणिंधणग्गिच्छुहाईणं जहासंभवेण पेज्जभावो वत्तव्वो। ... विवेकमाणाणं हरिसुप्पायणेण तत्थ (परमाणुम्मि) पि पेज्जभावुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">1. पित्त ज्वर वाले को कुटकी हित द्रव्य है, प्यासे को ठंडा पानी सुख रूप है, किसी को पुत्रादि प्रिय द्रव्य हैं, पित्त-ज्वर से पीड़ित रोगी को नीम हित और प्रिय द्रव्य है, दूध सुख और प्रिय द्रव्य है। तथा नीरोग मनुष्य को गुड़ आदिक हित, सुख और प्रिय द्रव्य हैं।120। 2. संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं। जग में जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीव के किसी न किसी काल में सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-विष भी पेज्ज है, क्योंकि विष में उत्पन्न हुए जीवों के, कोढ़ी मनुष्यों के और मरने तथा मारने की इच्छा रखने वाले जीवों के विष क्रम से हित, सुख और प्रिय भाव का कारण देखा जाता है। इसी प्रकार पत्थर, घास, ईंधन, अग्नि और सुधा आदि में जहाँ जिस प्रकार पेज्ज भाव घटित हो वहाँ उस प्रकार के पेज्ज भाव का कथन कर लेना चाहिए। ...परमाणु को विशेष रूप से जानने वाले पुरुषों के परमाणु हर्ष का उत्पादक है।</span></p> | <p><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,13-14/222/चूर्णसूत्र/274 </span> <span class="PrakritText">'संगह-ववहाराणं उजुसुदस्स च सव्वं दव्वं पेज्जं।' जं किंचि दव्वं णाम तं सव्वं पेज्जं चेव; कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेज्जभावेण वट्टमाणाणाणमुवलंभादो। तं जहा, विसं पि पेज्जं, विसुप्पण्णजीवाणं कोढियाणं मरणमारणिच्छाणं च हिद-सुह-पियकारणत्तादो। एवं पत्थरतणिंधणग्गिच्छुहाईणं जहासंभवेण पेज्जभावो वत्तव्वो। ... विवेकमाणाणं हरिसुप्पायणेण तत्थ (परमाणुम्मि) पि पेज्जभावुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">1. पित्त ज्वर वाले को कुटकी हित द्रव्य है, प्यासे को ठंडा पानी सुख रूप है, किसी को पुत्रादि प्रिय द्रव्य हैं, पित्त-ज्वर से पीड़ित रोगी को नीम हित और प्रिय द्रव्य है, दूध सुख और प्रिय द्रव्य है। तथा नीरोग मनुष्य को गुड़ आदिक हित, सुख और प्रिय द्रव्य हैं।120। 2. संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं। जग में जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीव के किसी न किसी काल में सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-विष भी पेज्ज है, क्योंकि विष में उत्पन्न हुए जीवों के, कोढ़ी मनुष्यों के और मरने तथा मारने की इच्छा रखने वाले जीवों के विष क्रम से हित, सुख और प्रिय भाव का कारण देखा जाता है। इसी प्रकार पत्थर, घास, ईंधन, अग्नि और सुधा आदि में जहाँ जिस प्रकार पेज्ज भाव घटित हो वहाँ उस प्रकार के पेज्ज भाव का कथन कर लेना चाहिए। ...परमाणु को विशेष रूप से जानने वाले पुरुषों के परमाणु हर्ष का उत्पादक है।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ राग#2.5 | राग - 2.5 ]]मोह के कारण ही पदार्थ इष्ट अनिष्ट है।</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ राग#2.5 | राग - 2.5 ]]मोह के कारण ही पदार्थ इष्ट अनिष्ट है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 583 </span><span class="SanskritText">सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरर्थेऽपि यत: किल केषांचिदसुखादिहेतुत्वात् ।583।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर यह संसारी सुख केवल वैषयिक है, तो भी पर विषय में सापेक्ष नहीं है, क्योंकि निश्चय से बाह्य पदार्थों के होते हुए भी किन्हीं को वे असुखादि के कारण होते हैं।583।</span></ | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 583 </span><span class="SanskritText">सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरर्थेऽपि यत: किल केषांचिदसुखादिहेतुत्वात् ।583।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर यह संसारी सुख केवल वैषयिक है, तो भी पर विषय में सापेक्ष नहीं है, क्योंकि निश्चय से बाह्य पदार्थों के होते हुए भी किन्हीं को वे असुखादि के कारण होते हैं।583।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">मुक्त जीवों को लौकिक सुख-दु:ख नहीं होते</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> प्रवचनसार/20 </span><span class="PrakritGatha">सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं।20।</span> =<span class="HindiText">केवलज्ञानी के शरीर संबंधी सुख या दु:ख नहीं है, क्योंकि अतींद्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ऐसा जानना चाहिए।20।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248 </span><span class="PrakritText">ण वि इंदिय-करण-जुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे। णेव य इंदिय-सोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140।</span> =<span class="HindiText">वे सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, और अवग्रहादि क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों का ग्रहण नहीं करते; उनके इंद्रिय सुख भी नहीं है। क्योंकि उनका अनंत ज्ञान व सुख अनिंद्रिय है।140। | <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248 </span><span class="PrakritText">ण वि इंदिय-करण-जुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे। णेव य इंदिय-सोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140।</span> =<span class="HindiText">वे सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, और अवग्रहादि क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों का ग्रहण नहीं करते; उनके इंद्रिय सुख भी नहीं है। क्योंकि उनका अनंत ज्ञान व सुख अनिंद्रिय है।140। <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड/174)</span></span></p> | ||
<p><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/89/3 </span><span class="SanskritText">मोक्षावस्थायाम्, सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति।</span> =<span class="HindiText">मोक्ष अवस्था में वैषयिक सुख भी नहीं है।</span></ | <p><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/89/3 </span><span class="SanskritText">मोक्षावस्थायाम्, सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति।</span> =<span class="HindiText">मोक्ष अवस्था में वैषयिक सुख भी नहीं है।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8">लौकिक सुख बताने का प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/10 </span><span class="SanskritText">अत्र यस्यैव स्वाभाविकसुखामृतस्य भोजनाभावादिंद्रियसुखं भुंजाना: सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातींद्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्राय:।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृत के भोजन के अभाव से आत्मा इंद्रियों के सुखों को भोगता हुआ संसार में भ्रमण करता है, वही अतींद्रिय सुख सब प्रकार से ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है।</span></p> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9">सुख व दु:ख में कथंचित् क्रम व अक्रम</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/333-335 </span><span class="SanskritText">न चैकत: सुखव्यक्तिरेकतो दु:खमस्ति तत् । एकस्यैकपदे सिद्धमित्यनेकांतवादिनाम् ।333। अनेकांत: प्रमाणं स्यादर्थादेकत्र वस्तुनि। गुणपर्याययोर्द्वैतात् गुणमुख्यव्यवस्थया।334। अभिव्यक्तिस्तु पर्यायरूपा स्यात्सुखदुखयो:। तदात्वे तन्न तद्द्वैतं द्वैतं चेद् द्रव्यत: क्वचित् ।335।</span> =<span class="HindiText">यह कहना ठीक नहीं है कि एक आत्मा के एक ही पद में अनेकांतवादियों के अंगीकृत किसी एक दृष्टि से सुख की व्यक्ति और किसी एक दृष्टि से दु:ख भी रहता है।333। वास्तव में एक वस्तु में गौण और मुख्य की व्यवस्था से गुण पर्यायों में द्वैत होने के कारण अनेकांत प्रमाण है।334। परंतु सुख और दु:ख की अभिव्यक्ति पर्यायरूप होती है इसलिए उस सुख और दु:ख की अवस्था में वे दोनों युगपत् नहीं रह सकते। यदि उनमें युगपत् द्वैत रहता है तो दो भिन्न द्रव्यों में रह सकता है पर्यायों में नहीं।335।</span></li></ol></li> | ||
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< | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">अलौकिक सुख निर्देश</strong> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अलौकिक सुख का लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> महापुराण/42/119 </span><span class="SanskritText">...मनसो निर्वृत्तिं सौख्यम् उशंतीह विचक्षणा:।119।</span> =<span class="HindiText"> पंडित जन मन की निराकुलता को ही सुख कहते हैं। <span class="GRef"> (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/59) </span></span></p> | |||
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<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/398 </span><span class="SanskritText">...।...अनुभवनं भवत्यात्मार्थम् ।398।</span> =<span class="HindiText"> आत्मार्थ सुख आत्मानुभव रूप है। <span class="GRef"> (स्याद्वादमंजरी/8/86/1) </span></span></p> | |||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/398 </span><span class="SanskritText">...।...अनुभवनं भवत्यात्मार्थम् ।398।</span> =<span class="HindiText"> आत्मार्थ सुख आत्मानुभव रूप है। | |||
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<span class="GRef"> तत्त्वसार/8/49 </span><span class="SanskritText">कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षै सुखमनुत्तमम् ।</span> =<span class="HindiText"> कर्म जन्य क्लेशों से छूट जाने के कारण मोक्ष अवस्था में जो सुख होता है, वह अनुपम सुख है।</span></p> | <span class="GRef"> तत्त्वसार/8/49 </span><span class="SanskritText">कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षै सुखमनुत्तमम् ।</span> =<span class="HindiText"> कर्म जन्य क्लेशों से छूट जाने के कारण मोक्ष अवस्था में जो सुख होता है, वह अनुपम सुख है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> योगसार (योगेंदुदेव)/97 </span><span class="PrakritText">वज्जिय सयल-वियप्पइं परम-समाहिं लहंति। जं विंदहिं साणंदु क वि सो सिव-सुक्खं भणंति।97।</span> =<span class="HindiText"> जो समस्त विकल्पों से रहित होकर परम समाधि को प्राप्त करते हैं, वे आनंद का अनुभव करते हैं, वह मोक्ष सुख कहा जाता है।97।</span></p> | <span class="GRef"> योगसार (योगेंदुदेव)/97 </span><span class="PrakritText">वज्जिय सयल-वियप्पइं परम-समाहिं लहंति। जं विंदहिं साणंदु क वि सो सिव-सुक्खं भणंति।97।</span> =<span class="HindiText"> जो समस्त विकल्पों से रहित होकर परम समाधि को प्राप्त करते हैं, वे आनंद का अनुभव करते हैं, वह मोक्ष सुख कहा जाता है।97।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/20/24 </span><span class="SanskritText">अपास्य करणं ग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिकं मतम् ।24।</span> =<span class="HindiText"> जो इंद्रियों के विषयों के बिना ही अपने आत्मा में आत्मा से ही सेवन करने में आता है उसको ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है।24।</span></ | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/20/24 </span><span class="SanskritText">अपास्य करणं ग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिकं मतम् ।24।</span> =<span class="HindiText"> जो इंद्रियों के विषयों के बिना ही अपने आत्मा में आत्मा से ही सेवन करने में आता है उसको ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है।24।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अव्याबाध सुख का लक्षण</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/5 </span><span class="SanskritText">सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्नरागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्वं तस्यैव फलभूतमव्याबाधसुखं भण्यते।</span> =<span class="HindiText">स्वाभाविक शुद्ध आत्म स्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा रागादि विभावों से रहित सुखरूपी अमृत का जो एक देश अनुभव पहले किया था, उसी के फलस्वरूप अव्याबाध अनंतसुख गुण सिद्धों में कहा गया है।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">अतींद्रिय सुख से क्या तात्पर्य</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/415/510/7 </span><span class="SanskritText">हे भगवन् ! अतींद्रियसुखं निरंतरं व्याख्यातं भवद्भिस्तच्च जनैर्न ज्ञायते। भगवानाह-कोऽपि देवदत्त: स्त्रीसेवनाप्रभृतिपंचेंद्रियविषयव्यापाररहितप्रस्तावे निर्व्याकुलचित्त: तिष्ठति, स केनापि पृष्ट: भो देवदत्त ! सुखेन तिष्ठसि त्वमिति। तेनोक्त सुखमस्तीति तत्सुखमतींद्रियम् ।...यत्पुन: ...समस्तविकल्पजालरहितानां समाधिस्थपरमयोगिनां स्वसंवेदनगम्यमतींद्रियसुखं तद्विशेषेणेति। यच्च मुक्तात्मनामतींद्रियसुखं तदनुमानगम्यमागमगम्यं च।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-हे भगवन् ! आपने निरंतर अतींद्रिय ऐसे मोक्ष सुख का वर्णन किया है, सो ये जगत् के प्राणी अतींद्रिय सुख को नहीं जानते हैं ? इंद्रिय सुख को ही सुख मानते हैं ? <strong>उत्तर</strong>-जैसे कोई एक देवदत्त नामक व्यक्ति, स्त्री सेवन आदि पंचेंद्रिय व्यापार से रहित, व्याकुल रहित चित्त अकेला स्थित है उस समय उससे किसी ने पूछा कि हे देवदत्त, तुम सुखी हो, तब उसने कहा कि हाँ सुख से हूँ। सो यह सुख तो अतींद्रिय है। (क्योंकि उस समय कोई भी इंद्रिय विषय भोगा नहीं जा रहा है।)...और जो समस्त विकल्प जाल से रहित परम समाधि में स्थित परम योगियों के निर्विकल्प स्वसंवेदनगम्य वह अतींद्रिय सुख विशेषता से होता है। और जो मुक्त आत्मा के अतींद्रिय सुख होता है, वह अनुमान से तथा आगम से जाना जाता है। <span class="GRef"> (परमात्मप्रकाश टीका/2/9) </span></span></p> | |||
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<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/415/510/7 </span><span class="SanskritText">हे भगवन् ! अतींद्रियसुखं निरंतरं व्याख्यातं भवद्भिस्तच्च जनैर्न ज्ञायते। भगवानाह-कोऽपि देवदत्त: स्त्रीसेवनाप्रभृतिपंचेंद्रियविषयव्यापाररहितप्रस्तावे निर्व्याकुलचित्त: तिष्ठति, स केनापि पृष्ट: भो देवदत्त ! सुखेन तिष्ठसि त्वमिति। तेनोक्त सुखमस्तीति तत्सुखमतींद्रियम् ।...यत्पुन: ...समस्तविकल्पजालरहितानां समाधिस्थपरमयोगिनां स्वसंवेदनगम्यमतींद्रियसुखं तद्विशेषेणेति। यच्च मुक्तात्मनामतींद्रियसुखं तदनुमानगम्यमागमगम्यं च।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-हे भगवन् ! आपने निरंतर अतींद्रिय ऐसे मोक्ष सुख का वर्णन किया है, सो ये जगत् के प्राणी अतींद्रिय सुख को नहीं जानते हैं ? इंद्रिय सुख को ही सुख मानते हैं ? <strong>उत्तर</strong>-जैसे कोई एक देवदत्त नामक व्यक्ति, स्त्री सेवन आदि पंचेंद्रिय व्यापार से रहित, व्याकुल रहित चित्त अकेला स्थित है उस समय उससे किसी ने पूछा कि हे देवदत्त, तुम सुखी हो, तब उसने कहा कि हाँ सुख से हूँ। सो यह सुख तो अतींद्रिय है। (क्योंकि उस समय कोई भी इंद्रिय विषय भोगा नहीं जा रहा है।)...और जो समस्त विकल्प जाल से रहित परम समाधि में स्थित परम योगियों के निर्विकल्प स्वसंवेदनगम्य वह अतींद्रिय सुख विशेषता से होता है। और जो मुक्त आत्मा के अतींद्रिय सुख होता है, वह अनुमान से तथा आगम से जाना जाता है। | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">सुख वहाँ है जहाँ दु:ख न हो</strong></span><br /> | ||
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<span class="GRef"> आत्मानुशासन/46 </span><span class="SanskritText">स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् ।...।46।</span> =<span class="HindiText"> धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दु:ख न हो...।</span></p> | <span class="GRef"> आत्मानुशासन/46 </span><span class="SanskritText">स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् ।...।46।</span> =<span class="HindiText"> धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दु:ख न हो...।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/224 </span><span class="SanskritText">नैवं यत: सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छुभं यत्र नाशुभम् ।244।</span> =<span class="HindiText"> ऐहिक सुख नहीं है, क्योंकि वास्तव में वही सुख है, जहाँ दु:ख नहीं, वही धर्म है जहाँ अधर्म नहीं है, वही शुभ है जहाँ पर अशुभ नहीं है।</span></ | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/224 </span><span class="SanskritText">नैवं यत: सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छुभं यत्र नाशुभम् ।244।</span> =<span class="HindiText"> ऐहिक सुख नहीं है, क्योंकि वास्तव में वही सुख है, जहाँ दु:ख नहीं, वही धर्म है जहाँ अधर्म नहीं है, वही शुभ है जहाँ पर अशुभ नहीं है।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">ज्ञान ही वास्तव में सुख है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/60 </span><span class="PrakritGatha">जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा।60।</span> =<span class="HindiText">जो 'केवल' नाम का ज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं कहा गया है, क्योंकि घाती कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं।60।</span></p> | |||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 </span><span class="SanskritText">ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति।</span> =<span class="HindiText">सुख ज्ञानमय होता है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">अलौकिक सुख में लौकिक से अनंतपने की कल्पना</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 </span><span class="SanskritText">ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति।</span> =<span class="HindiText">सुख ज्ञानमय होता है।</span></ | <span class="GRef"> भगवती आराधना/2148-2151 </span><span class="PrakritText">देविंदचक्कवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुवहंति। सद्दरसरूवगंधप्फरिसप्पयमुत्तमं लोए।2148। अव्याबाधं च सुहं सिद्धा जं अणुहवंति लोगग्गे। तस्स हु अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज।2149। जं सव्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति। तत्तो वि अणंतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स।2150। तिसु वि कालेसु सुहाणि जाणि माणुसतिरिक्खदेवाणं। सव्वाणि ताणि ण समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण।2151।</span> =<span class="HindiText">स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इत्यादिकों से जो सुख देवेंद्र चक्रवर्ती वगैरह को प्राप्त होता है, जो कि इस लोक में श्रेष्ठ माना जाता है, वह सुख सिद्धों के सुख का अनंतवाँ हिस्सा है, सिद्धों का सुख बाधा रहित है, वह उनको लोकाग्र में प्राप्त होता है।2148-2149। अप्सराओं के साथ जिस सुख का देवगण अनुभव करते हैं, सिद्धों का सुख उससे अनंत गुणित है, और बाधा रहित है।2150। तीन काल में मनुष्य, तिर्यंच और देवों को जो सुख मिलता है वे सब मिलकर भी सिद्ध के एक क्षण के सुख की भी बराबरी नहीं करते।2151। <span class="GRef"> (ज्ञानार्णव/42/64-68) </span></span></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> मूलाचार/1146</span> <span class="PrakritText">जं च कामसुहं लोए जं च दिव्यमहासुहं। वीतरागसुहस्सेदे णंतभागंपि णग्घंदि ।1146।</span> =<span class="HindiText">लोक में विषयों से जो उत्पन्न सुख है, और जो स्वर्ग में महा सुख है, वे सब वीतराग सुख के अनंतवें भाग की भी समानता नहीं कर सकते हैं।1144। <span class="GRef"> (धवला 13/5,4,24/ गाॉथा/5/51)</span></span></p> | ||
< | <p><span class="GRef"> परमात्म प्रकाश/मूल/1/117</span> <span class="PrakritGatha">जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय अप्पा झायंतु। तं सुह इंद वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु।117।</span> =<span class="HindiText">अपनी आत्मा को ध्यावता परम मुनि जो अनंतसुख पाता है, उस सुख को इंद्र भी करोड़ देवियों के साथ रहता हुआ नहीं पाता।117।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> मूलाचार/1146</span> <span class="PrakritText">जं च कामसुहं लोए जं च दिव्यमहासुहं। वीतरागसुहस्सेदे णंतभागंपि णग्घंदि ।1146।</span> =<span class="HindiText">लोक में विषयों से जो उत्पन्न सुख है, और जो स्वर्ग में महा सुख है, वे सब वीतराग सुख के अनंतवें भाग की भी समानता नहीं कर सकते हैं।1144। | |||
<p><span class="GRef"> परमात्म प्रकाश/मूल/1/117</span> <span class=" | |||
<p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/21/3 </span><span class="SanskritText">यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम् । न तस्यानंतभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।3।</span> =<span class="HindiText">जो सुख वीतराग मुनि के प्रशमरूप विशुद्धता पूर्वक है उसका अनंतवाँ भाग भी इंद्र को प्राप्त नहीं होता है।3।</span></p> | <p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/21/3 </span><span class="SanskritText">यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम् । न तस्यानंतभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।3।</span> =<span class="HindiText">जो सुख वीतराग मुनि के प्रशमरूप विशुद्धता पूर्वक है उसका अनंतवाँ भाग भी इंद्र को प्राप्त नहीं होता है।3।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> त्रिलोकसार/560 </span><span class="PrakritText">चक्किकुरुफणिसुंरिंददेवहमिंदे जं सुहं तिकालभवं। तत्तो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि।560।</span> =<span class="HindiText">चक्रवर्ती, भोगभूमिज, धरणेंद्र, देवेंद्र और अहमिंद्र के, इनके क्रमश: अनंतगुणा अनंतगुण सुख है। इन सबका त्रिकाल में होने वाला अनंत सुख एकत्रित करने पर भी सिद्धों के एक क्षण में होने वाला सुख अनंत गुणा है।560। | <p><span class="GRef"> त्रिलोकसार/560 </span><span class="PrakritText">चक्किकुरुफणिसुंरिंददेवहमिंदे जं सुहं तिकालभवं। तत्तो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि।560।</span> =<span class="HindiText">चक्रवर्ती, भोगभूमिज, धरणेंद्र, देवेंद्र और अहमिंद्र के, इनके क्रमश: अनंतगुणा अनंतगुण सुख है। इन सबका त्रिकाल में होने वाला अनंत सुख एकत्रित करने पर भी सिद्धों के एक क्षण में होने वाला सुख अनंत गुणा है।560। <span class="GRef"> (बोधपाहुड़/ टीका/12/82 पर उद्धृत)</span></span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">छद्मस्थ अवस्था में भी अलौकिक सुख का वेदन होता है</strong></span><br /> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ अनुभव#4.3 | अनुभव - 4.3 ]]आत्मरत होने पर तेरे अवश्यमेव वचन के अगोचर अनंत सुख होगा।</p> | <p class="HindiText">देखें [[ अनुभव#4.3 | अनुभव - 4.3 ]]आत्मरत होने पर तेरे अवश्यमेव वचन के अगोचर अनंत सुख होगा।</p> | ||
<p><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/118</span> <span class=" | <p><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/118</span> <span class="PrakritGatha">अप्पा दंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु। तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु।118।</span> =<span class="HindiText">शुद्धात्मा के दर्शन में जो अनंत सुख जिनेश्वर देवों के होता है, वह सुख वीतराग भावना से परिणत हुआ मुनिराज निजशुद्धात्म स्वभाव को तथा रागादि रहित शांत भाव को जानता हुआ पाता है।118।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/403 </span><span class=" | <p><span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/403 </span><span class="PrakritGatha">सोक्खं च परागसोक्खं जीवे चारित्तेसंजुदे दिट्ठं। वट्ठइ तं जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे।403।</span> =<span class="HindiText">चारित्र से संयुक्त तथा भावना लीन यतिवर्ग में निरंतर परम सुख देखा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/23/3 </span><span class="SanskritText">एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तयाप्यानंद: परमात्मसंनिधिगत: किंचित्समुन्मीलति। किंचित्कालमवाप्य सैव सकलै: शीलैर्गुणैराश्रितां। तामानंदकलां विशालविलसद्बोधां करिष्यत्यसौ।3।</span> =<span class="HindiText">एकत्व की स्थिति के लिए जो मेरी निरंतर बुद्धि होती है, उसके निमित्त से परमात्मा की समीपता को प्राप्त हुआ आनंद कुछ थोड़ा सा प्रकट होता है। वही बुद्धि कुछ काल प्राप्त होकर समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रकट हुए उस विपुल ज्ञान से संपन्न आनंद कला को उत्पन्न करेगी।3।</span></p> | <p><span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/23/3 </span><span class="SanskritText">एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तयाप्यानंद: परमात्मसंनिधिगत: किंचित्समुन्मीलति। किंचित्कालमवाप्य सैव सकलै: शीलैर्गुणैराश्रितां। तामानंदकलां विशालविलसद्बोधां करिष्यत्यसौ।3।</span> =<span class="HindiText">एकत्व की स्थिति के लिए जो मेरी निरंतर बुद्धि होती है, उसके निमित्त से परमात्मा की समीपता को प्राप्त हुआ आनंद कुछ थोड़ा सा प्रकट होता है। वही बुद्धि कुछ काल प्राप्त होकर समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रकट हुए उस विपुल ज्ञान से संपन्न आनंद कला को उत्पन्न करेगी।3।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/87/25 </span><span class="SanskritText">इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव।</span> =<span class="HindiText">संसार अवस्था में भी विषयों की निवृत्ति से उत्पन्न होने वाला सुख अनुभव से सिद्ध है।</span></p> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/87/25 </span><span class="SanskritText">इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव।</span> =<span class="HindiText">संसार अवस्था में भी विषयों की निवृत्ति से उत्पन्न होने वाला सुख अनुभव से सिद्ध है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/1/118 </span><span class="SanskritText">दीक्षाकाले...स्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतौ जीवस्तत्सुखं लभत इति।</span> =<span class="HindiText">दीक्षा के समय तीर्थंकर देव निज शुद्ध आत्मा को अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख को पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प समाधि में लीन विरक्त मुनि पाते हैं। (और भी देखें [[ सुख#2.10 | सुख - 2.10]])</span></ | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/1/118 </span><span class="SanskritText">दीक्षाकाले...स्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतौ जीवस्तत्सुखं लभत इति।</span> =<span class="HindiText">दीक्षा के समय तीर्थंकर देव निज शुद्ध आत्मा को अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख को पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प समाधि में लीन विरक्त मुनि पाते हैं। (और भी देखें [[ सुख#2.10 | सुख - 2.10]])</span></li> | ||
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< | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">सिद्धों के अनंत सुख का सद्भाव है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/10/4/10/643/18 </span><span class="SanskritText">यस्य हि मूर्तिरस्ति तस्य तत्पूर्वक: प्रीतिपरितापसंबंध: स्यात्, न चामूर्तानां मुक्तानां जंममरणद्वंद्वोपनिपातव्याबाधास्ति, अतो निर्व्याबाधात्वात् परमसुखिनस्ते।</span> =<span class="HindiText"> मूर्त अवस्था में ही प्रीति और परिताप की संभावना थी। परंतु अमूर्त ऐसे मुक्त जीवों के जन्म, मरण आदि द्वंद्वों की बाधा नहीं है। पर सिद्ध अवस्था होने से वे परम सुखी हैं।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ गाथा 46/58</span> <span class="PrakritText">अदिसयमाद-समुत्थं विसयादीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवजोगो य सिद्धाणं।46।</span> =<span class="HindiText">अतिशय रूप आत्मा से उत्पन्न हुआ, विषयों से रहित, अनुपम, अनंत और विच्छेद रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धों के होता है।46।</span></p> | <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ गाथा 46/58</span> <span class="PrakritText">अदिसयमाद-समुत्थं विसयादीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवजोगो य सिद्धाणं।46।</span> =<span class="HindiText">अतिशय रूप आत्मा से उत्पन्न हुआ, विषयों से रहित, अनुपम, अनंत और विच्छेद रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धों के होता है।46।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248</span> <span class="PrakritText">णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140।</span> =<span class="HindiText">सिद्ध जीवों के इंद्रिय सुख भी नहीं है, क्योंकि उनका अनंत ज्ञान और अनंत सुख अनिंद्रिय है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/174 </span>)</span></p> | <p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248</span> <span class="PrakritText">णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140।</span> =<span class="HindiText">सिद्ध जीवों के इंद्रिय सुख भी नहीं है, क्योंकि उनका अनंत ज्ञान और अनंत सुख अनिंद्रिय है। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/174 </span>)</span></p> | ||
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<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/86/3 पर उद्धृत श्लोक</span><span class="SanskritText">-सुखमात्यंतिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभि:।</span> =<span class="HindiText">जिस अवस्था में इंद्रियों से बाह्य केवल बुद्धि से ग्रहण करने योग्य आत्यंतिक सुख विद्यमान है वही मोक्ष है।</span></p> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/86/3 पर उद्धृत श्लोक</span><span class="SanskritText">-सुखमात्यंतिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभि:।</span> =<span class="HindiText">जिस अवस्था में इंद्रियों से बाह्य केवल बुद्धि से ग्रहण करने योग्य आत्यंतिक सुख विद्यमान है वही मोक्ष है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/89/4 </span><span class="SanskritText">मोक्षे निरतिशयक्षयमनपेक्षमनंतं च सुखं तद् बाढं विद्यते।</span> =<span class="HindiText">निरतिशय, अक्षय और अनंत सुख मोक्ष में विद्यमान है।</span></ | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/89/4 </span><span class="SanskritText">मोक्षे निरतिशयक्षयमनपेक्षमनंतं च सुखं तद् बाढं विद्यते।</span> =<span class="HindiText">निरतिशय, अक्षय और अनंत सुख मोक्ष में विद्यमान है।</span></li> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">सिद्धों का सुख दु:खाभाव मात्र नहीं है</strong></span><br /> | |||
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<span class="GRef"> धवला 13/5,5,19/208/8 </span><span class="PrakritText">किमेत्थ सुहमिदि घेप्पदे। दुक्खुवसमो सुहं णाम। दुक्खक्खओ सुहमिदि किण्ण घेप्पदे। ण, तस्स कम्मक्खएणुप्पज्जमाणस्स जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-प्रकृत में (वेदनीयकर्म जन्य सुख प्रकरण में) सुख शब्द का क्या अर्थ लिया गया है ? <strong>उत्तर</strong>-प्रकृत में दु:ख के उपशम रूप सुख लिया गया है। <strong>प्रश्न</strong>-दु:ख का क्षय सुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, वह कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। तथा वह जीव का स्वभाव है, अत: उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है।</span></p> | <span class="GRef"> धवला 13/5,5,19/208/8 </span><span class="PrakritText">किमेत्थ सुहमिदि घेप्पदे। दुक्खुवसमो सुहं णाम। दुक्खक्खओ सुहमिदि किण्ण घेप्पदे। ण, तस्स कम्मक्खएणुप्पज्जमाणस्स जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-प्रकृत में (वेदनीयकर्म जन्य सुख प्रकरण में) सुख शब्द का क्या अर्थ लिया गया है ? <strong>उत्तर</strong>-प्रकृत में दु:ख के उपशम रूप सुख लिया गया है। <strong>प्रश्न</strong>-दु:ख का क्षय सुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, वह कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। तथा वह जीव का स्वभाव है, अत: उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/86/5 </span><span class="SanskritText">न चायं सुखशब्दो दु:खाभावमात्रे वर्तते। मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावात् । अयं रोगाद् विप्रमुक्त: सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसंगाच्च। दु:खाभावमात्रस्य रोगाद् विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्ष: पुंसामुपादेयतया संमत:। को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत् । दु:खसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदु:खयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यंभावात् । अत एव त्वदुपहास: श्रूयतेवरं वृंदावने रम्ये क्रोष्ट्टत्वमभिवांछितम् । न तु वैशेषिकीं मुक्तिं गौतमो गंतुमिच्छति।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर (मोक्ष में) सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही नहीं है। यदि सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही किया जाये, तो 'यह रोगी रोग रहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्यों में पुनरुक्ति दोष आना चाहिए। क्योंकि उक्त संपूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोग रहित हुआ है', इतना कहने से ही काम चल जाता है। तथा शिला के समान संपूर्ण सुखों के संवेदन से रहित वैशेषिकों की मुक्ति को प्राप्त करने का कौन प्रयत्न करेगा। क्योंकि वैशेषिकों के अनुसार पाषाण की तरह मुक्त जीव भी सुख के अनुभव से रहित होते हैं। अतएव सुख का इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकों की मुक्ति की इच्छा न करेगा। तथा यदि मोक्ष में सुख का अभाव हो, तो मोक्ष दु:खरूप होना चाहिए। क्योंकि सुख और दु:ख में एक का अभाव होने पर दूसरे का सद्भाव अवश्य रहता है। कुछ लोगों ने वैशेषिकों की मुक्ति का उपहास करते हुए कहा है, ''गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा वृंदावन में शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।''</span></p> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/86/5 </span><span class="SanskritText">न चायं सुखशब्दो दु:खाभावमात्रे वर्तते। मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावात् । अयं रोगाद् विप्रमुक्त: सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसंगाच्च। दु:खाभावमात्रस्य रोगाद् विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्ष: पुंसामुपादेयतया संमत:। को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत् । दु:खसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदु:खयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यंभावात् । अत एव त्वदुपहास: श्रूयतेवरं वृंदावने रम्ये क्रोष्ट्टत्वमभिवांछितम् । न तु वैशेषिकीं मुक्तिं गौतमो गंतुमिच्छति।</span> =<span class="HindiText">यहाँ पर (मोक्ष में) सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही नहीं है। यदि सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही किया जाये, तो 'यह रोगी रोग रहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्यों में पुनरुक्ति दोष आना चाहिए। क्योंकि उक्त संपूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोग रहित हुआ है', इतना कहने से ही काम चल जाता है। तथा शिला के समान संपूर्ण सुखों के संवेदन से रहित वैशेषिकों की मुक्ति को प्राप्त करने का कौन प्रयत्न करेगा। क्योंकि वैशेषिकों के अनुसार पाषाण की तरह मुक्त जीव भी सुख के अनुभव से रहित होते हैं। अतएव सुख का इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकों की मुक्ति की इच्छा न करेगा। तथा यदि मोक्ष में सुख का अभाव हो, तो मोक्ष दु:खरूप होना चाहिए। क्योंकि सुख और दु:ख में एक का अभाव होने पर दूसरे का सद्भाव अवश्य रहता है। कुछ लोगों ने वैशेषिकों की मुक्ति का उपहास करते हुए कहा है, ''गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा वृंदावन में शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।''</span></p> | ||
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<span class="GRef">राजवार्तिक/10/9/14/उद्धृत श्लोक 24-29/650 </span><span class="SanskritText">''स्यादेतदशरीरस्य जंतोर्नष्टाष्टकर्मण:। कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु।24। लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।25। सुखो वह्नि: सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते। दु:खाभावे च पुरुष: सुखितोऽस्मीति भाषते।26। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेंद्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ।27। सुषुप्तावस्थया तुल्यां केचिदिच्छंति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्त्वात् सुखानुशयतस्तथा।28। श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । महोत्पत्तिर्विपाकच्च दर्शनघ्नस्य कर्मण:।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-अशरीरी नष्ट अष्टकर्मा मुक्त जीव के कैसे क्या सुख होता होगा ? <strong>उत्तर</strong>-लोक में सुख शब्द का प्रयोग विषय वेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा जाता है। 'अग्नि सुखकर है, वायु सुखकारी है।' इत्यादि में सुख शब्द विषयार्थक है। रोग आदि दु:खों के अभाव में भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्म के विपाक से इष्ट इंद्रिय विषयों से सुखानुभूति होती है और क्लेश के विमोक्ष से मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है।23-27। कोई इस सुख को सुषुप्त अवस्था के समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्म के उदय से श्रम, क्लम, मद, व्याधि, काम आदि निमित्तों से उत्पन्न होती है और मोह विकार रूप है।28-29।</span></ | <span class="GRef">राजवार्तिक/10/9/14/उद्धृत श्लोक 24-29/650 </span><span class="SanskritText">''स्यादेतदशरीरस्य जंतोर्नष्टाष्टकर्मण:। कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु।24। लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।25। सुखो वह्नि: सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते। दु:खाभावे च पुरुष: सुखितोऽस्मीति भाषते।26। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेंद्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ।27। सुषुप्तावस्थया तुल्यां केचिदिच्छंति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्त्वात् सुखानुशयतस्तथा।28। श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । महोत्पत्तिर्विपाकच्च दर्शनघ्नस्य कर्मण:।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>-अशरीरी नष्ट अष्टकर्मा मुक्त जीव के कैसे क्या सुख होता होगा ? <strong>उत्तर</strong>-लोक में सुख शब्द का प्रयोग विषय वेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा जाता है। 'अग्नि सुखकर है, वायु सुखकारी है।' इत्यादि में सुख शब्द विषयार्थक है। रोग आदि दु:खों के अभाव में भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्म के विपाक से इष्ट इंद्रिय विषयों से सुखानुभूति होती है और क्लेश के विमोक्ष से मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है।23-27। कोई इस सुख को सुषुप्त अवस्था के समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्म के उदय से श्रम, क्लम, मद, व्याधि, काम आदि निमित्तों से उत्पन्न होती है और मोह विकार रूप है।28-29।</span></li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10">सिद्धों में सुख के अस्तित्व की सिद्धि</strong></span><br /> | ||
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<span class="GRef"> आत्मानुशासन/267 </span><span class="SanskritText">स्वाधीन्याद्दु:खमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धा: सुखिन: कथम्</span> =<span class="HindiText">तपस्वी जो स्वाधीनता पूर्वक कायक्लेश आदि के कष्ट को सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है, तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुख से संपन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे अर्थात् अवश्य होंगे।</span></p> | <span class="GRef"> आत्मानुशासन/267 </span><span class="SanskritText">स्वाधीन्याद्दु:खमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धा: सुखिन: कथम्</span> =<span class="HindiText">तपस्वी जो स्वाधीनता पूर्वक कायक्लेश आदि के कष्ट को सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है, तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुख से संपन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे अर्थात् अवश्य होंगे।</span></p> | ||
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<span class="HindiText">देखें [[ सुख#2.3 | सुख - 2.3 ]]इंद्रिय व्यापार से रहित समाधि में स्थित योगियों को वर्तमान में सुख अनुभव होता है और सिद्धों को सुख अनुमान और आगम से जाना जाता है।</span | <span class="HindiText">देखें [[ सुख#2.3 | सुख - 2.3 ]] - इंद्रिय व्यापार से रहित समाधि में स्थित योगियों को वर्तमान में सुख अनुभव होता है और सिद्धों को सुख अनुमान और आगम से जाना जाता है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/30/348 </span><span class="SanskritText">अस्ति शुद्धं सुखं ज्ञानं सर्वत: कस्यचिद्यथा। देशतोऽप्यस्मदादीनां स्वादुमात्रं बत द्वयो:।348।</span> =<span class="HindiText">जैसे किसी जीव के सर्वथा सुख और ज्ञान होने चाहिए क्योंकि खेद है कि हम लोगों के भी उन शुद्ध सुख तथा ज्ञान का एकदेश रूप से अनुभव मात्र पाया जाता है। (अर्थात् जब हम लोगों में शुद्ध सुख का स्वादमात्र पाया जाता है। तो अनुमान है किसी में इनकी पूर्णता अवश्य होनी चाहिए)।348।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11">कर्मों के अभाव में सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/35-36/4 </span><span class="PrakritText">सुह दुक्खाइं कम्मेहिंतो होंति, तो कम्मेसु विणट्ठेसु सुह-दुक्खवज्जएण जीवेण होदव्वं। ...जं किं पि दुक्खं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा।...सुहं पुण ण कम्मादो उप्पज्जदि, ...ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स वावारादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-यदि सुख और दु:ख कर्मों से होते हैं तो कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जीव को सुख और दु:ख से रहित हो जाना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>-दु:ख नाम की जो कोई भी वस्तु है वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होती है, क्योंकि वह जीव का स्वरूप नहीं है। ...किंतु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीव का स्वभाव है। ...सुख को स्वभाव मानने पर साता वेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दु:ख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्यों के संपादन में साता वेदनीय कर्म का व्यापार होता है।</span></p> | <span class="GRef"> धवला 6/35-36/4 </span><span class="PrakritText">सुह दुक्खाइं कम्मेहिंतो होंति, तो कम्मेसु विणट्ठेसु सुह-दुक्खवज्जएण जीवेण होदव्वं। ...जं किं पि दुक्खं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा।...सुहं पुण ण कम्मादो उप्पज्जदि, ...ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स वावारादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-यदि सुख और दु:ख कर्मों से होते हैं तो कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जीव को सुख और दु:ख से रहित हो जाना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>-दु:ख नाम की जो कोई भी वस्तु है वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होती है, क्योंकि वह जीव का स्वरूप नहीं है। ...किंतु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीव का स्वभाव है। ...सुख को स्वभाव मानने पर साता वेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दु:ख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्यों के संपादन में साता वेदनीय कर्म का व्यापार होता है।</span></p> | ||
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Revision as of 09:52, 11 August 2023
सिद्धांतकोष से
सुख दो प्रकार का होता है-लौकिक व अलौकिक। लौकिक सुख विषय जनित होने से सर्वपरिचित है पर अलौकिक सुख इंद्रियातीत होने से केवल विरागीजनों को ही होता है। उसके सामने लौकिक सुख दु:ख रूप ही भासता है। मोक्ष में विकल्पात्मक ज्ञान व इंद्रियों का अभाव हो जाने के कारण यद्यपि सुख के भी अभाव की आशंका होती है, परंतु केवलज्ञान द्वारा लोकालोक को युगपत् जानने रूप परमज्ञाता द्रष्टा भाव रहने से वहाँ सुख की सत्ता अवश्य स्वीकरणीय है, क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान ही वास्तव में सुख है।
- सामान्य व लौकिक सुख निर्देश
- सुख के भेदों का निर्देश।
- लौकिक सुख का लक्षण।
- लौकिक सुख वास्तव में दु:ख है।
- लौकिक सुख को दु:ख कहने का कारण।
- लौकिक सुख शत्रु है।
- विषयों में सुख-दु:ख की कल्पना रुचि के अधीन है।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के सुखानुभव में अंतर।-देखें मिथ्यादृष्टि - 4.1।
- सुख में सम्यग्दर्शन का स्थान।-देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
- लौकिक सुख-दु:ख में वेदनीय कर्म का स्थान।-वेदनीय/3।
- अलौकिक सुख निर्देश
- अलौकिक सुख का कारण वेदनीय या आठों कर्म का अभाव।-देखें मोक्ष - 3.3।
- अव्याबाध सुख के अवरोधक कर्म।-देखें मोक्ष - 3.3।
- सुख वहाँ है जहाँ दु:ख न हो।
- ज्ञान ही वास्तव में सुख है।
- अलौकिक सुख में लौकिक से अनंतपने की कल्पना।
- छद्मस्थ अवस्था में भी अलौकिक सुख का वेदन होता है।
- सिद्धों के अनंत सुख का सद्भाव।
- मोक्ष में अनंत सुख अवश्य प्रकट होता है।-देखें मोक्ष - 6.2।
- सिद्धों का सुख दु:खाभाव मात्र नहीं है।
- सिद्धों में सुख के अस्तित्व की सिद्धि।
- कर्मों के अभाव में सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता।
- इंद्रियों के बिना सुख कैसे संभव है।
- अलौकिक सुख की श्रेष्ठता।
- अलौकिक सुख की प्राप्ति का उपाय।
- दोनों सुखों का भोग एकांत में होता है।-देखें भोग - 7।
- सामान्य व लौकिक सुख निर्देश
- सुख के भेदों का निर्देश
नयचक्र बृहद्/398 इंदियमणस्स पसमज आदत्थं तहय सोक्ख चउभेयं।398। = सुख चार प्रकार का है-इंद्रियज, मनोत्पन्न, प्रशम से उत्पन्न और आत्मोपन्न।नयचक्र बृहद्/14 पर फुटनोट-इंद्रियजमतींद्रियं चेति सुखस्य द्वौ भेदौ। = इंद्रियज और अतींद्रियज ऐसे सुख के दो भेद हैं।
तत्त्वसार/8/47 लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।47। =जगत् में सुख शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं-विषय, वेदना का अभाव, पुण्यकर्म का फल प्राप्त होना, मुक्त हो जाना।
- लौकिक सुख का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/20/251/8 सुखमिंद्रियार्थानुभव:।सर्वार्थसिद्धि/5/20/288/12 सदसद्वेद्योदयेऽंतरंगहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमान: प्रीतिपरितापरूप: परिणाम: सुखदु:खमित्याख्यायते। = इंद्रियों के विषयों के अनुभव करने को सुख कहते हैं (राजवार्तिक/4/20/3/235/15)
साता और असाता रूप अंतरंग परिणाम के रहते हुए बाह्य द्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वे सुख और दु:ख कहे जाते हैं। (राजवार्तिक/5/20/1/474/22); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/15)न्यायविनिश्चय/ वृत्ति/1/115/428/20 पर उद्धृत-सुखमाह्लादनाकारम् । = सुख आह्लादरूप होता है।
धवला 13/5,4,24/51/4 किंलक्खणमेत्थसुहं। सयलबाहाविरहलक्खणं। = सर्व प्रकार की बाधाओं का दूर होना, यही प्रकृत में (ईर्यापथ आस्रव के प्रकरण में) उसका (सुख का) लक्षण है।
धवला 13/5,5,63/334/4 इट्ठत्थसमागमो अणिट्ठत्थविओगो च सुह णाम। = इष्ट अर्थ के समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोग का नाम सुख है।
तत्त्वसार/8/48-49 सुखो वह्नि: सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते। दु:खाभावे च पुरुष: सुखितोऽस्मीति भाषते।48। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेंद्रियार्थजम् ।...।49। =
- शीत ऋतु में अग्नि का स्पर्श और ग्रीष्म ऋतु में हवा का स्पर्श सुखकर होता है।
- प्रथम किसी प्रकार का दु:ख अथवा क्लेश हो रहा हो फिर उस दु:ख का थोड़े समय के लिए अभाव हो जाये तो जीव मानता है मैं सुखी हो गया।48।
- पुण्यकर्म के विपाक से इष्ट विषय की प्राप्ति होने से जो सुख का संकल्प होता है, वह सुख का तीसरा अर्थ है।49।
देखें वेदनीय - 8 - वेदना का उपशांत होना, अथवा उत्पन्न न होना, अथवा दु:खोपशांति के द्रव्यों की उपलब्धि होना सुख है।
- लौकिक सुख वास्तव में दु:ख है
भगवती आराधना/1248-1249 भोगोवभोगसोक्खं जं जं दुक्खं च भोगणासम्मि। एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसिट्ठं।1248। देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं। दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चेव सोक्खं खु।1249। =भोगसाधनात्मक इन भोगों का वियोग होने से जो दु:ख उत्पन्न होता है तथा भोगोपभोग से जो सुख मिलता है, इन दोनों में दु:ख ही अधिक समझना।1248। यह देह भूख, प्यास, शीत, उष्ण और रोगों से पीड़ित होता है, तथा अनित्य भी ऐसे देह में आसक्त होने से कितना सुख प्राप्त होगा। अत्यल्प सुख की प्राप्ति होगी। दु:ख निवारण होना अथवा दु:ख की कमी होना ही सुख है, ऐसा संसार में माना जाता है।1249।प्रवचनसार/64,76जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं। जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं।64। सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इंदियेंहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।76। =जिन्हें विषयों में रति है उन्हें दु:ख स्वाभाविक जानो, क्योंकि यदि वह दुख स्वभाव न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो।64। जो इंद्रियों से प्राप्त होता है वह सुख परसंबंधयुक्त, बाधासहित विच्छिन्न, बंध का कारण और विषम है, इस प्रकार वह दु:ख ही है। (योगसार (अमितगति)/3/35); (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/245)
स्वयंभू स्तोत्र/3 शतह्नदोन्मेषचलं हि सौख्यं-तृष्णामयाप्यायन-मात्र-हेतु:। तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्रं तापस्तदायासयतीत्यवादी:।3। =आपने पीड़ित जगत् को उसके दु:ख का निदान बताया है कि-इंद्रिय विषय बिजली की चमक के समान चंचल है, तृष्णा रूपी रोग की वृद्धि का एकमात्र हेतु है, तृष्णा की अभिवृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है, और वह ताप जगत् को अनेक दु:ख परंपरा से पीड़ित करता है। (स्वयंभू स्तोत्र/20,31,82)
इष्टोपदेश/ सूत्र/6 वासनामात्रमेवैतत्सुखं दु:खं च देहिनाम् । तथा ह्युद्वेजयंत्येते भोगा रोगा इवापदि।6। =संसारी जीवों का इंद्रिय सुख वासना मात्र से जनित होने के कारण दु:खरूप ही है, क्योंकि आपत्ति काल में रोग जिस प्रकार चित्त में उद्वेग उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार भोग भी उद्वेग करने वाले हैं।6।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/11,63 शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदु:खमिव स्वर्गसुखबंधमवाप्नोति।11। तद्दु:खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते। ततो व्याधिस्थानीयत्वादिंद्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च छद्मस्थानां न पारमार्थिकं सौख्यम् ।63। =जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर गिर जावे तो वह उसकी जलन से दु:खी होता है, उसी प्रकार स्वर्ग के सुखरूप बंध को प्राप्त होता है। अर्थात् स्वर्ग ऐंद्रियक सुख दु:ख ही है।11। दु:ख के वेग को सहन न कर सकने के कारण उन्हें (संसारी जीवों को) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिए इंद्रिय व्याधि के समान होने से और विषय व्याधि प्रतिकार के समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है।63।
योगसार/अमितगति/3/36 सांसारिकं सुखं सर्वं दु:खतो न विशिष्यते। यो नैव बुध्यते मूढ: स चारित्री न भण्यते।36। =सांसारिक सुख दु:ख ही हैं, सांसारिक सुख व दु:ख में कोई विशेषता नहीं है। किंतु मूढ़ प्राणी इसमें भेद मानता है वह चारित्र स्वरूप नहीं कहा जाता।36। (पद्मनन्दि पंचविंशतिका/4/73)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/61 देवाणं पि य सुक्खं मणहर विसएहिं कीरदे जदि हि। विसय-वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि।61। =देवों का सुख मनोहर विषयों से उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयों के अधीन है वह दु:ख का भी कारण है।61।
देखें परिग्रह - 5.3 परिग्रह दु:ख व दु:ख का कारण है।
पंचाध्यायी x`/238 ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् । न तत्सुखं सुखाभासं किंतु दु:खमसंशयम् ।238। =जो लौकिक सुख है, वह सब इंद्रिय विषयक माना जाता है, इसलिए वह सब केवल सुखाभास ही नहीं है, किंतु निस्संदेह दु:खरूप भी है।238।
- लौकिक सुख को दु:ख कहने का कारण
सर्वार्थसिद्धि/7/10/349/3 ननु च तत्सर्वं न दु:खमेव; विषयरतिसुखसद्भावात् । न तत्सुखम्; वेदनाप्रतीकारत्वात्कच्छूकंडूयनवत् । = प्रश्न-ये हिंसादि सब के सब केवल दु:खरूप ही हैं, यह बात नहीं है, क्योंकि विषयों के सेवन में सुख उपलब्ध होता है ? उत्तर-विषयों के सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किंतु दाद को खुजलाने के समान केवल वेदना का प्रतिकार मात्र है। - लौकिक सुख शत्रु हैं
भगवती आराधना/1271 दुक्खं उप्पादिंता पुरिसा पुरिसस्स होदि जदि सत्तू। अदिदुक्खं कदमाणा भोगा सत्तू किह ण हुंती।1271। = दु:ख उत्पन्न करने से यदि पुरुष पुरुष के शत्रु के समान होते हैं, तो अतिशय दु:ख देने वाले इंद्रिय सुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ? (अर्थात् लौकिक सुख तो शत्रु हैं ही)। - विषयों में सुख-दु:ख की कल्पना रुचि के अधीन है
कषायपाहुड़/1/1,13-14/220/ गाथा 120/272 तिक्ता च शीतलं तोयं पुत्रादिर्मुद्रिका-(र्मृद्वीका) फलम् । निंबक्षीरं ज्वरार्तस्य नीरोगस्य गुडादय:।120।कषायपाहुड़/1/1,13-14/222/चूर्णसूत्र/274 'संगह-ववहाराणं उजुसुदस्स च सव्वं दव्वं पेज्जं।' जं किंचि दव्वं णाम तं सव्वं पेज्जं चेव; कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेज्जभावेण वट्टमाणाणाणमुवलंभादो। तं जहा, विसं पि पेज्जं, विसुप्पण्णजीवाणं कोढियाणं मरणमारणिच्छाणं च हिद-सुह-पियकारणत्तादो। एवं पत्थरतणिंधणग्गिच्छुहाईणं जहासंभवेण पेज्जभावो वत्तव्वो। ... विवेकमाणाणं हरिसुप्पायणेण तत्थ (परमाणुम्मि) पि पेज्जभावुवलंभादो। =1. पित्त ज्वर वाले को कुटकी हित द्रव्य है, प्यासे को ठंडा पानी सुख रूप है, किसी को पुत्रादि प्रिय द्रव्य हैं, पित्त-ज्वर से पीड़ित रोगी को नीम हित और प्रिय द्रव्य है, दूध सुख और प्रिय द्रव्य है। तथा नीरोग मनुष्य को गुड़ आदिक हित, सुख और प्रिय द्रव्य हैं।120। 2. संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं। जग में जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीव के किसी न किसी काल में सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-विष भी पेज्ज है, क्योंकि विष में उत्पन्न हुए जीवों के, कोढ़ी मनुष्यों के और मरने तथा मारने की इच्छा रखने वाले जीवों के विष क्रम से हित, सुख और प्रिय भाव का कारण देखा जाता है। इसी प्रकार पत्थर, घास, ईंधन, अग्नि और सुधा आदि में जहाँ जिस प्रकार पेज्ज भाव घटित हो वहाँ उस प्रकार के पेज्ज भाव का कथन कर लेना चाहिए। ...परमाणु को विशेष रूप से जानने वाले पुरुषों के परमाणु हर्ष का उत्पादक है।
देखें राग - 2.5 मोह के कारण ही पदार्थ इष्ट अनिष्ट है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 583 सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरर्थेऽपि यत: किल केषांचिदसुखादिहेतुत्वात् ।583। =यहाँ पर यह संसारी सुख केवल वैषयिक है, तो भी पर विषय में सापेक्ष नहीं है, क्योंकि निश्चय से बाह्य पदार्थों के होते हुए भी किन्हीं को वे असुखादि के कारण होते हैं।583।
- मुक्त जीवों को लौकिक सुख-दु:ख नहीं होते
प्रवचनसार/20 सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं।20। =केवलज्ञानी के शरीर संबंधी सुख या दु:ख नहीं है, क्योंकि अतींद्रियता उत्पन्न हुई है, इसलिए ऐसा जानना चाहिए।20।धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248 ण वि इंदिय-करण-जुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे। णेव य इंदिय-सोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140। =वे सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, और अवग्रहादि क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों का ग्रहण नहीं करते; उनके इंद्रिय सुख भी नहीं है। क्योंकि उनका अनंत ज्ञान व सुख अनिंद्रिय है।140। (गोम्मटसार जीवकांड/174)
स्याद्वादमंजरी/8/89/3 मोक्षावस्थायाम्, सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति। =मोक्ष अवस्था में वैषयिक सुख भी नहीं है।
- लौकिक सुख बताने का प्रयोजन
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/10 अत्र यस्यैव स्वाभाविकसुखामृतस्य भोजनाभावादिंद्रियसुखं भुंजाना: सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातींद्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्राय:। =यहाँ पर जिस स्वाभाविक सुखामृत के भोजन के अभाव से आत्मा इंद्रियों के सुखों को भोगता हुआ संसार में भ्रमण करता है, वही अतींद्रिय सुख सब प्रकार से ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। - सुख व दु:ख में कथंचित् क्रम व अक्रम
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/333-335 न चैकत: सुखव्यक्तिरेकतो दु:खमस्ति तत् । एकस्यैकपदे सिद्धमित्यनेकांतवादिनाम् ।333। अनेकांत: प्रमाणं स्यादर्थादेकत्र वस्तुनि। गुणपर्याययोर्द्वैतात् गुणमुख्यव्यवस्थया।334। अभिव्यक्तिस्तु पर्यायरूपा स्यात्सुखदुखयो:। तदात्वे तन्न तद्द्वैतं द्वैतं चेद् द्रव्यत: क्वचित् ।335। =यह कहना ठीक नहीं है कि एक आत्मा के एक ही पद में अनेकांतवादियों के अंगीकृत किसी एक दृष्टि से सुख की व्यक्ति और किसी एक दृष्टि से दु:ख भी रहता है।333। वास्तव में एक वस्तु में गौण और मुख्य की व्यवस्था से गुण पर्यायों में द्वैत होने के कारण अनेकांत प्रमाण है।334। परंतु सुख और दु:ख की अभिव्यक्ति पर्यायरूप होती है इसलिए उस सुख और दु:ख की अवस्था में वे दोनों युगपत् नहीं रह सकते। यदि उनमें युगपत् द्वैत रहता है तो दो भिन्न द्रव्यों में रह सकता है पर्यायों में नहीं।335।
- सुख के भेदों का निर्देश
- अलौकिक सुख निर्देश
- अलौकिक सुख का लक्षण
महापुराण/42/119 ...मनसो निर्वृत्तिं सौख्यम् उशंतीह विचक्षणा:।119। = पंडित जन मन की निराकुलता को ही सुख कहते हैं। (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/59)नयचक्र बृहद्/398 ...।...अनुभवनं भवत्यात्मार्थम् ।398। = आत्मार्थ सुख आत्मानुभव रूप है। (स्याद्वादमंजरी/8/86/1)
तत्त्वसार/8/49 कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षै सुखमनुत्तमम् । = कर्म जन्य क्लेशों से छूट जाने के कारण मोक्ष अवस्था में जो सुख होता है, वह अनुपम सुख है।
योगसार (योगेंदुदेव)/97 वज्जिय सयल-वियप्पइं परम-समाहिं लहंति। जं विंदहिं साणंदु क वि सो सिव-सुक्खं भणंति।97। = जो समस्त विकल्पों से रहित होकर परम समाधि को प्राप्त करते हैं, वे आनंद का अनुभव करते हैं, वह मोक्ष सुख कहा जाता है।97।
ज्ञानार्णव/20/24 अपास्य करणं ग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् । सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिकं मतम् ।24। = जो इंद्रियों के विषयों के बिना ही अपने आत्मा में आत्मा से ही सेवन करने में आता है उसको ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है।24।
- अव्याबाध सुख का लक्षण
द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/5 सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्नरागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्वं तस्यैव फलभूतमव्याबाधसुखं भण्यते। =स्वाभाविक शुद्ध आत्म स्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा रागादि विभावों से रहित सुखरूपी अमृत का जो एक देश अनुभव पहले किया था, उसी के फलस्वरूप अव्याबाध अनंतसुख गुण सिद्धों में कहा गया है। - अतींद्रिय सुख से क्या तात्पर्य
समयसार / आत्मख्याति/415/510/7 हे भगवन् ! अतींद्रियसुखं निरंतरं व्याख्यातं भवद्भिस्तच्च जनैर्न ज्ञायते। भगवानाह-कोऽपि देवदत्त: स्त्रीसेवनाप्रभृतिपंचेंद्रियविषयव्यापाररहितप्रस्तावे निर्व्याकुलचित्त: तिष्ठति, स केनापि पृष्ट: भो देवदत्त ! सुखेन तिष्ठसि त्वमिति। तेनोक्त सुखमस्तीति तत्सुखमतींद्रियम् ।...यत्पुन: ...समस्तविकल्पजालरहितानां समाधिस्थपरमयोगिनां स्वसंवेदनगम्यमतींद्रियसुखं तद्विशेषेणेति। यच्च मुक्तात्मनामतींद्रियसुखं तदनुमानगम्यमागमगम्यं च। = प्रश्न-हे भगवन् ! आपने निरंतर अतींद्रिय ऐसे मोक्ष सुख का वर्णन किया है, सो ये जगत् के प्राणी अतींद्रिय सुख को नहीं जानते हैं ? इंद्रिय सुख को ही सुख मानते हैं ? उत्तर-जैसे कोई एक देवदत्त नामक व्यक्ति, स्त्री सेवन आदि पंचेंद्रिय व्यापार से रहित, व्याकुल रहित चित्त अकेला स्थित है उस समय उससे किसी ने पूछा कि हे देवदत्त, तुम सुखी हो, तब उसने कहा कि हाँ सुख से हूँ। सो यह सुख तो अतींद्रिय है। (क्योंकि उस समय कोई भी इंद्रिय विषय भोगा नहीं जा रहा है।)...और जो समस्त विकल्प जाल से रहित परम समाधि में स्थित परम योगियों के निर्विकल्प स्वसंवेदनगम्य वह अतींद्रिय सुख विशेषता से होता है। और जो मुक्त आत्मा के अतींद्रिय सुख होता है, वह अनुमान से तथा आगम से जाना जाता है। (परमात्मप्रकाश टीका/2/9) - सुख वहाँ है जहाँ दु:ख न हो
आत्मानुशासन/46 स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् ।...।46। = धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म न हो, सुख वह है जिसके होने पर दु:ख न हो...।पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/224 नैवं यत: सुखं नैतत् तत्सुखं यत्र नासुखम् । स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छुभं यत्र नाशुभम् ।244। = ऐहिक सुख नहीं है, क्योंकि वास्तव में वही सुख है, जहाँ दु:ख नहीं, वही धर्म है जहाँ अधर्म नहीं है, वही शुभ है जहाँ पर अशुभ नहीं है।
- ज्ञान ही वास्तव में सुख है
प्रवचनसार/60 जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा।60। =जो 'केवल' नाम का ज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं कहा गया है, क्योंकि घाती कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं।60।सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति। =सुख ज्ञानमय होता है।
- अलौकिक सुख में लौकिक से अनंतपने की कल्पना
भगवती आराधना/2148-2151 देविंदचक्कवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुवहंति। सद्दरसरूवगंधप्फरिसप्पयमुत्तमं लोए।2148। अव्याबाधं च सुहं सिद्धा जं अणुहवंति लोगग्गे। तस्स हु अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज।2149। जं सव्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति। तत्तो वि अणंतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स।2150। तिसु वि कालेसु सुहाणि जाणि माणुसतिरिक्खदेवाणं। सव्वाणि ताणि ण समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण।2151। =स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इत्यादिकों से जो सुख देवेंद्र चक्रवर्ती वगैरह को प्राप्त होता है, जो कि इस लोक में श्रेष्ठ माना जाता है, वह सुख सिद्धों के सुख का अनंतवाँ हिस्सा है, सिद्धों का सुख बाधा रहित है, वह उनको लोकाग्र में प्राप्त होता है।2148-2149। अप्सराओं के साथ जिस सुख का देवगण अनुभव करते हैं, सिद्धों का सुख उससे अनंत गुणित है, और बाधा रहित है।2150। तीन काल में मनुष्य, तिर्यंच और देवों को जो सुख मिलता है वे सब मिलकर भी सिद्ध के एक क्षण के सुख की भी बराबरी नहीं करते।2151। (ज्ञानार्णव/42/64-68)मूलाचार/1146 जं च कामसुहं लोए जं च दिव्यमहासुहं। वीतरागसुहस्सेदे णंतभागंपि णग्घंदि ।1146। =लोक में विषयों से जो उत्पन्न सुख है, और जो स्वर्ग में महा सुख है, वे सब वीतराग सुख के अनंतवें भाग की भी समानता नहीं कर सकते हैं।1144। (धवला 13/5,4,24/ गाॉथा/5/51)
परमात्म प्रकाश/मूल/1/117 जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय अप्पा झायंतु। तं सुह इंद वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु।117। =अपनी आत्मा को ध्यावता परम मुनि जो अनंतसुख पाता है, उस सुख को इंद्र भी करोड़ देवियों के साथ रहता हुआ नहीं पाता।117।
ज्ञानार्णव/21/3 यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम् । न तस्यानंतभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।3। =जो सुख वीतराग मुनि के प्रशमरूप विशुद्धता पूर्वक है उसका अनंतवाँ भाग भी इंद्र को प्राप्त नहीं होता है।3।
त्रिलोकसार/560 चक्किकुरुफणिसुंरिंददेवहमिंदे जं सुहं तिकालभवं। तत्तो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि।560। =चक्रवर्ती, भोगभूमिज, धरणेंद्र, देवेंद्र और अहमिंद्र के, इनके क्रमश: अनंतगुणा अनंतगुण सुख है। इन सबका त्रिकाल में होने वाला अनंत सुख एकत्रित करने पर भी सिद्धों के एक क्षण में होने वाला सुख अनंत गुणा है।560। (बोधपाहुड़/ टीका/12/82 पर उद्धृत)
- छद्मस्थ अवस्था में भी अलौकिक सुख का वेदन होता है
देखें अनुभव - 4.3 आत्मरत होने पर तेरे अवश्यमेव वचन के अगोचर अनंत सुख होगा।
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/118 अप्पा दंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु। तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु।118। =शुद्धात्मा के दर्शन में जो अनंत सुख जिनेश्वर देवों के होता है, वह सुख वीतराग भावना से परिणत हुआ मुनिराज निजशुद्धात्म स्वभाव को तथा रागादि रहित शांत भाव को जानता हुआ पाता है।118।
नयचक्र बृहद्/403 सोक्खं च परागसोक्खं जीवे चारित्तेसंजुदे दिट्ठं। वट्ठइ तं जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे।403। =चारित्र से संयुक्त तथा भावना लीन यतिवर्ग में निरंतर परम सुख देखा जाता है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/23/3 एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तयाप्यानंद: परमात्मसंनिधिगत: किंचित्समुन्मीलति। किंचित्कालमवाप्य सैव सकलै: शीलैर्गुणैराश्रितां। तामानंदकलां विशालविलसद्बोधां करिष्यत्यसौ।3। =एकत्व की स्थिति के लिए जो मेरी निरंतर बुद्धि होती है, उसके निमित्त से परमात्मा की समीपता को प्राप्त हुआ आनंद कुछ थोड़ा सा प्रकट होता है। वही बुद्धि कुछ काल प्राप्त होकर समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रकट हुए उस विपुल ज्ञान से संपन्न आनंद कला को उत्पन्न करेगी।3।
स्याद्वादमंजरी/8/87/25 इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव। =संसार अवस्था में भी विषयों की निवृत्ति से उत्पन्न होने वाला सुख अनुभव से सिद्ध है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/118 दीक्षाकाले...स्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतौ जीवस्तत्सुखं लभत इति। =दीक्षा के समय तीर्थंकर देव निज शुद्ध आत्मा को अनुभवते हुए जो निर्विकल्प सुख को पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प समाधि में लीन विरक्त मुनि पाते हैं। (और भी देखें सुख - 2.10)
- सिद्धों के अनंत सुख का सद्भाव है
राजवार्तिक/10/4/10/643/18 यस्य हि मूर्तिरस्ति तस्य तत्पूर्वक: प्रीतिपरितापसंबंध: स्यात्, न चामूर्तानां मुक्तानां जंममरणद्वंद्वोपनिपातव्याबाधास्ति, अतो निर्व्याबाधात्वात् परमसुखिनस्ते। = मूर्त अवस्था में ही प्रीति और परिताप की संभावना थी। परंतु अमूर्त ऐसे मुक्त जीवों के जन्म, मरण आदि द्वंद्वों की बाधा नहीं है। पर सिद्ध अवस्था होने से वे परम सुखी हैं।धवला 1/1,1,1/ गाथा 46/58 अदिसयमाद-समुत्थं विसयादीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवजोगो य सिद्धाणं।46। =अतिशय रूप आत्मा से उत्पन्न हुआ, विषयों से रहित, अनुपम, अनंत और विच्छेद रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धों के होता है।46।
धवला 1/1,1,33/ गाथा 140/248 णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।140। =सिद्ध जीवों के इंद्रिय सुख भी नहीं है, क्योंकि उनका अनंत ज्ञान और अनंत सुख अनिंद्रिय है। ( गोम्मटसार जीवकांड/174 )
तत्त्वसार/8/45 संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभि:।45। =सिद्धों का सुख संसार के विषयों से अतीत, स्वाधीन, तथा अव्यय होता है। उस अविनाशी सुख को अव्याबाध कहते हैं।45।
स्याद्वादमंजरी/8/86/3 पर उद्धृत श्लोक-सुखमात्यंतिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभि:। =जिस अवस्था में इंद्रियों से बाह्य केवल बुद्धि से ग्रहण करने योग्य आत्यंतिक सुख विद्यमान है वही मोक्ष है।
स्याद्वादमंजरी/8/89/4 मोक्षे निरतिशयक्षयमनपेक्षमनंतं च सुखं तद् बाढं विद्यते। =निरतिशय, अक्षय और अनंत सुख मोक्ष में विद्यमान है।
- सिद्धों का सुख दु:खाभाव मात्र नहीं है
धवला 13/5,5,19/208/8 किमेत्थ सुहमिदि घेप्पदे। दुक्खुवसमो सुहं णाम। दुक्खक्खओ सुहमिदि किण्ण घेप्पदे। ण, तस्स कम्मक्खएणुप्पज्जमाणस्स जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। =प्रश्न-प्रकृत में (वेदनीयकर्म जन्य सुख प्रकरण में) सुख शब्द का क्या अर्थ लिया गया है ? उत्तर-प्रकृत में दु:ख के उपशम रूप सुख लिया गया है। प्रश्न-दु:ख का क्षय सुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वह कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। तथा वह जीव का स्वभाव है, अत: उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है।स्याद्वादमंजरी/8/86/5 न चायं सुखशब्दो दु:खाभावमात्रे वर्तते। मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावात् । अयं रोगाद् विप्रमुक्त: सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसंगाच्च। दु:खाभावमात्रस्य रोगाद् विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् । न च भवदुदीरितो मोक्ष: पुंसामुपादेयतया संमत:। को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत् । दु:खसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदु:खयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यंभावात् । अत एव त्वदुपहास: श्रूयतेवरं वृंदावने रम्ये क्रोष्ट्टत्वमभिवांछितम् । न तु वैशेषिकीं मुक्तिं गौतमो गंतुमिच्छति। =यहाँ पर (मोक्ष में) सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही नहीं है। यदि सुख का अर्थ केवल दु:ख का अभाव ही किया जाये, तो 'यह रोगी रोग रहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्यों में पुनरुक्ति दोष आना चाहिए। क्योंकि उक्त संपूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोग रहित हुआ है', इतना कहने से ही काम चल जाता है। तथा शिला के समान संपूर्ण सुखों के संवेदन से रहित वैशेषिकों की मुक्ति को प्राप्त करने का कौन प्रयत्न करेगा। क्योंकि वैशेषिकों के अनुसार पाषाण की तरह मुक्त जीव भी सुख के अनुभव से रहित होते हैं। अतएव सुख का इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकों की मुक्ति की इच्छा न करेगा। तथा यदि मोक्ष में सुख का अभाव हो, तो मोक्ष दु:खरूप होना चाहिए। क्योंकि सुख और दु:ख में एक का अभाव होने पर दूसरे का सद्भाव अवश्य रहता है। कुछ लोगों ने वैशेषिकों की मुक्ति का उपहास करते हुए कहा है, गौतम ऋषि वैशेषिकों की मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा वृंदावन में शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।
राजवार्तिक/10/9/14/उद्धृत श्लोक 24-29/650 स्यादेतदशरीरस्य जंतोर्नष्टाष्टकर्मण:। कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु।24। लोके चतुर्ष्विहार्थेषु सुखशब्द: प्रयुज्यते। विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।25। सुखो वह्नि: सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते। दु:खाभावे च पुरुष: सुखितोऽस्मीति भाषते।26। पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेंद्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ।27। सुषुप्तावस्थया तुल्यां केचिदिच्छंति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्त्वात् सुखानुशयतस्तथा।28। श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । महोत्पत्तिर्विपाकच्च दर्शनघ्नस्य कर्मण:। = प्रश्न-अशरीरी नष्ट अष्टकर्मा मुक्त जीव के कैसे क्या सुख होता होगा ? उत्तर-लोक में सुख शब्द का प्रयोग विषय वेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल और मोक्ष इन चार अर्थों में देखा जाता है। 'अग्नि सुखकर है, वायु सुखकारी है।' इत्यादि में सुख शब्द विषयार्थक है। रोग आदि दु:खों के अभाव में भी पुरुष 'मैं सुखी हूँ' यह समझता है। पुण्य कर्म के विपाक से इष्ट इंद्रिय विषयों से सुखानुभूति होती है और क्लेश के विमोक्ष से मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है।23-27। कोई इस सुख को सुषुप्त अवस्था के समान मानते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सुखानुभव रूप क्रिया होती है और सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणी कर्म के उदय से श्रम, क्लम, मद, व्याधि, काम आदि निमित्तों से उत्पन्न होती है और मोह विकार रूप है।28-29।
- सिद्धों में सुख के अस्तित्व की सिद्धि
आत्मानुशासन/267 स्वाधीन्याद्दु:खमप्यासीत्सुखं यदि तपस्विनाम् । स्वाधीनसुखसंपन्ना न सिद्धा: सुखिन: कथम् =तपस्वी जो स्वाधीनता पूर्वक कायक्लेश आदि के कष्ट को सहते हैं वह भी जब उनको सुखकर प्रतीत होता है, तब फिर जो सिद्ध स्वाधीन सुख से संपन्न हैं वे सुखी कैसे न होंगे अर्थात् अवश्य होंगे।देखें सुख - 2.3 - इंद्रिय व्यापार से रहित समाधि में स्थित योगियों को वर्तमान में सुख अनुभव होता है और सिद्धों को सुख अनुमान और आगम से जाना जाता है।
पंचाध्यायी x`/30/348 अस्ति शुद्धं सुखं ज्ञानं सर्वत: कस्यचिद्यथा। देशतोऽप्यस्मदादीनां स्वादुमात्रं बत द्वयो:।348। =जैसे किसी जीव के सर्वथा सुख और ज्ञान होने चाहिए क्योंकि खेद है कि हम लोगों के भी उन शुद्ध सुख तथा ज्ञान का एकदेश रूप से अनुभव मात्र पाया जाता है। (अर्थात् जब हम लोगों में शुद्ध सुख का स्वादमात्र पाया जाता है। तो अनुमान है किसी में इनकी पूर्णता अवश्य होनी चाहिए)।348।
- कर्मों के अभाव में सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता
धवला 6/35-36/4 सुह दुक्खाइं कम्मेहिंतो होंति, तो कम्मेसु विणट्ठेसु सुह-दुक्खवज्जएण जीवेण होदव्वं। ...जं किं पि दुक्खं णाम तं असादावेदणीयादो होदि, तस्स जीवसरूवत्ताभावा।...सुहं पुण ण कम्मादो उप्पज्जदि, ...ण सादावेदणीयाभावो वि, दुक्खुवसमहेउसुदव्वसंपादणे तस्स वावारादो। =प्रश्न-यदि सुख और दु:ख कर्मों से होते हैं तो कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जीव को सुख और दु:ख से रहित हो जाना चाहिए ? उत्तर-दु:ख नाम की जो कोई भी वस्तु है वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होती है, क्योंकि वह जीव का स्वरूप नहीं है। ...किंतु सुख कर्म से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि वह जीव का स्वभाव है। ...सुख को स्वभाव मानने पर साता वेदनीय कर्म का अभाव भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दु:ख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्यों के संपादन में साता वेदनीय कर्म का व्यापार होता है।12. इंद्रियों के बिना सुख कैसे संभव है
द्रव्यसंग्रह टीका/37/155/4 इंद्रियसुखमेव सुखं, मुक्तात्मनामिंद्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतींद्रियसुखं कथं घटत इति। सांसारिकसुखं तावत् स्त्रीसेवनादि पंचेंद्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुन: पंचेंद्रियविषयव्यापाररहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदतींद्रियसुखमत्रैव दृश्यते।...निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातींद्रियम् । =प्रश्न-जो इंद्रियों से उत्पन्न होता है वही सुख है, सिद्ध जीवों के इंद्रियों तथा शरीर का अभाव है, इसलिए पूर्वोक्त अतींद्रिय सुख सिद्धों के कैसे हो सकता है ? उत्तर-संसारी सुख तो स्त्रीसेवनादि पाँचों इंद्रियों से ही उत्पन्न होता है, किंतु पाँचों इंद्रियों के व्यापार से रहित तथा निर्व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को जो उत्तम सुख है वह अतींद्रिय है। वह इस लोक में भी देखा जाता है।...निर्विकल्प ध्यान में स्थित परम योगियों के रागादिक के अभाव से जो स्वसंवेद्य आत्मिक सुख है, वह विशेष रूप से अतींद्रिय है।
प्रवचनसार/65 पप्पा इट्ठे विसये फासेहि समस्सिदे सहावेण। परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो।65। =स्पर्शादिक इंद्रियाँ जिसका आश्रय लेती हैं, ऐसे इष्ट विषयों को पाकर (अपने अशुद्ध) स्वभाव से परिणमन करता हुआ आत्मा स्वयं ही सुख रूप होता है। देह सुख रूप नहीं होती। ( तत्त्वसार/8/42-45 )
देखें प्रत्यक्ष - 2.4 में प्रवचनसार यह आत्मा स्वयमेव अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है। यह आत्मा का स्वभाव ही है।
तत्त्वानुशासन/241-246 ननु चाक्षैस्तदर्थानामनु भोक्तु: सुखं भवेत् । अतींद्रियेषु मुक्तेषु मोक्षे तत्कीदृशं सुखम् ।240। इति चेन्मन्यसे मोहात्तन्न श्रेयो मतं यत:। नाद्यापि वत्स ! त्वं वेत्सि स्वरूपं सुखदु:खयो:।241। आत्मायत्तं निराबाधमतींद्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदु:।242। तन्मोहस्यैव माहात्म्यं विषयेभ्योऽपि यत्सुखम् । यत्पटोलमपि स्वादु श्लोष्मणस्तद्विजृंभितं ।275। यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।246। =प्रश्न-सुख तो इंद्रियों के द्वारा उनके विषय भोगने वाले के होता है, इंद्रियों से रहित मुक्त जीवों के वह सुख कैसे ? उत्तर-हे वत्स ! तू जो मोह से ऐसा मानता है वह तेरी मान्यता ठीक अथवा कल्याणकारी नहीं है क्योंकि तूने अभी तक (वास्तव में) सुख-दु:ख के स्वरूप को ही नहीं समझा है।(240-241) जो घातिया कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ है, स्वात्माधीन है, निराबाध है, अतींद्रिय है, और अनश्वर है, उसको मोक्ष सुख कहते हैं।242। इंद्रिय विषयों से जो सुख माना जाता है वह मोह का ही माहात्म्य है। पटोल (कटु वस्तु) भी जिसे मधुर मालूम होती है तो वह उसके श्लेष्मा (कफ) का माहात्म्य है। ऐसा समझना चाहिए।243। जो सुख यहाँ चक्री को प्राप्त है और जो सुख देवों को प्राप्त है वह परमात्माओं के सुख की एक कला के (बहुत छोटे अंश के) बराबर भी नहीं है।244।
त्रिलोकसार/559 एयं सत्थं सव्वं वा सम्ममेत्थं जाणंता। तिव्वं तुस्संति णरा किण्ण समत्थत्थतच्चण्हू।559। =एक शास्त्र को सम्यक् प्रकार जानते हुए इस लोक में मनुष्य तीव्र संतोष को प्राप्त करते हैं, तो समस्त तत्त्व स्वरूप के ज्ञायक सिद्ध भगवंत कैसे संतोष नहीं पावेंगे ? अर्थात् पाते ही हैं।559। ( बोधपाहुड़/ टीका/12/82 पर उद्धृत)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लोक नं. ननु देहेंद्रियाभाव: प्रसिद्धपरमात्मनि। तदभावे सुखं ज्ञानं सिद्धिमुन्नीयते कथम् ।346। ज्ञानानंदौ चितो धर्मौ नित्यौ द्रव्योपजीविनौ। देहेंद्रियाद्यभावेऽपि नाभावस्तद्द्वयोरिति।349। तत: सिद्धं शरीरस्य पंचाक्षाणां तदर्थसात् । अस्त्यकिंचित्करत्वं तच्चित्तो ज्ञानं सुखं प्रति।356। =प्रश्न-यदि परमात्मा में देह और इंद्रियों का अभाव प्रसिद्ध है तो फिर परमात्मा के शरीर तथा इंद्रियों के अभाव में सुख और ज्ञान कैसे कहे जा सकते हैं।346। उत्तर-आत्मा के ज्ञान और सुख नित्य तथा द्रव्य के अनुजीवी गुण हैं, इसलिए परमात्मा के देह और इंद्रिय के अभाव में भी दोनों (ज्ञान और सुख) का अभाव नहीं कहा जा सकता है।349। इसलिए सिद्ध होता है कि आत्मा के इंद्रियजंय ज्ञान और सुख के प्रति शरीर को पाँचों ही इंद्रियों को तथा इंद्रियविषयों को अकिंचित्करत्व है।356।
13. अलौकिक सुख की श्रेष्ठता
भगवती आराधना/1269-1270/1225 अप्पायत्ता अज्झपरदी भांगरमणं परायत्तं। भोगरदीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण।1269। भोगरदीए णासो णियदो विग्घा य होंति अदिबहुगा। अज्झप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा।1270। =स्वात्मानुभव में रति करने के लिए अन्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है, भोग रति में अन्य पदार्थों का आश्रय लेना पड़ता है। अत: इन दोनों रतियों में साम्य नहीं है। भोगरति से आत्मा च्युत होने पर भी अध्यात्म रति से भ्रष्ट नहीं होता, अत: इस हेतु से भी अध्यात्म रति भोग रति से श्रेष्ठ है।1269। भोगरति का सेवन करने से नियम से आत्मा का नाश होता है, तथा इस रति में अनेक विघ्न भी आते हैं। परंतु अध्यात्म रति का उत्कृष्ट अभ्यास करने पर आत्मा नाश भी नहीं होता और विघ्न भी नहीं आते। अथवा भोगरति नश्वर तथा विघ्नों से युक्त है, पर अध्यात्म रति अविनश्वर और निर्विघ्न है।
14. अलौकिक सुख प्राप्ति का उपाय
समाधिशतक/ मूल/41 आत्मविभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। = शरीरादि में आत्मबुद्धि से उत्पन्न दु:ख आत्मस्वरूप के अनुभव करने से शांत हो जाता है।
आत्मानुशासन/186-187 हाने: शोकस्ततो दु:खं लाभाद्रागस्तत: सुखम् । तेन हानावशोक: सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधी:।186। सुखी सुखमिहान्यत्र दु:खी समश्नुते। सुखं सकलसंन्यासो दु:खं तस्य विपर्यय:।187। = इष्ट वस्तु की हानि से शोक और फिर उससे दु:ख होता है तथा उसके लाभ से राग और फिर उससे सुख होता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को इष्ट की हानि में शोक से रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए।186। जो प्राणी इस लोक में सुखी है, वह परलोक में सुख को प्राप्त होता है, जो इस लोक में दु:खी है वह परलोक में दु:ख को प्राप्त होता है। कारण कि समस्त इंद्रिय विषयों से विरक्त हो जाने का नाम सुख और उनमें आसक्त होने का नाम ही दु:ख है।187।
देखें सुख - 2.3 वीतराग भाव में स्थिति पाने से साम्यरस रूप अतींद्रिय सुख का वेदन होता है।
पुराणकोष से
(1) मन की निराकुल वृत्ति । यह कर्मों के क्षय अथवा उपशम से उत्पन्न होती है । महापुराण 11. 164, 186, 42.119
(2) परमेष्ठियों का एक गुण । पारिव्राज्य क्रिया संबंधी सत्ताईस सूत्रपदों में सत्ताईस का सूत्रपद । इसके अनुसार मुनि तपस्या द्वारा परमानंद रूप सुख पाता है । महापुराण 39.163-166, 196
(3) राम का पक्षधर एक योद्धा । पद्मपुराण 58.14
- अलौकिक सुख का लक्षण