हरिवंश पुराण - सर्ग 17: Difference between revisions
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत हरिवंश के स्वामी हुए । उन्होंने समस्त पृथिवी को वश कर लिया था, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य इन छह अंतरंग शत्रुओं को जीत लिया था तथा वे धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्ग के मार्ग-प्रवर्तक थे ॥1॥ उनके दक्ष नाम का अतिशय दक्ष-चतुर पुत्र था । वे उसे अपने पद पर नियुक्त कर अपने ही पिता के समीप दीक्षित हो गये और तपोबल से मोक्ष चले गये ॥2॥ राजा दक्ष ने इला नामक रानी से ऐलेय नाम का पुत्र उत्पन्न किया और उसके बाद जिस प्रकार समुद्र ने लक्ष्मी को उत्पन्न किया था उसी प्रकार मनोहरी नाम की पुत्री को उत्पन्न किया ॥3॥ जिस प्रकार चंद्रमा के साथ-साथ कलारूपी गुण से युक्त उसकी कांति बढ़ती जाती है उसी प्रकार कुमार ऐलेय के साथ-साथ कलारूपी गुण से युक्त नेत्रों को हरण करने वाली कुमारी मनोहरी दिनों-दिन बढ़ने लगी ॥4॥ जब वह यौवनवती हुई तब उसकी कमर पतली हो गयी और वह स्थूल स्तनों के भार तथा विस्तृत नितंब स्थल से अतिशय सुशोभित होने लगी ॥5॥ धीर-वीर मनुष्यों के मन को भेदन करने वाले उसके सौंदर्यरूपी अस्त्र के स्वाधीन रहते हुए कामदेव ने अपने पुष्पमयी बाणों का गर्व छोड़ दिया था ॥6॥ उसके सौंदर्यरूपी शस्त्र को छोड़कर कामदेव ने राजा दक्ष के भी मन को भेद दिया फिर अन्य पुरुषों की तो बात ही क्या कही जाये ? ॥7॥
तदनंतर कन्या के द्वारा जिसका चित्त हरा गया था ऐसे दक्ष प्रजापति ने एक दिन किसी छल से नम्रीभूत प्रजा को अपने घर बुलाकर उससे पूछा कि हे सज्जनो ! आप सब व्यवहार के ज्ञाता हैं । मैं आप लोगों से एक बात पूछता हूँ सो आप सब जगत् की स्थिति का पूर्वापर विरोध रहित विचारकर उत्तर दीजिए ॥8-9॥ बात यह है कि यदि हाथी, घोड़ा, स्त्री आदि कोई वस्तु संसार में अमूल्य हो और प्रजा के योग्य न हो तो राजा उसका स्वामी हो सकता है या नहीं ? ॥10॥ प्रजाजनों में कितने ही लोगों ने चिरकाल तक आत्मा में विचार कर कहा कि हे देव ! जो वस्तु प्रजा के लिए अयोग्य है वह राजा के लिए हितकारी है ॥11॥ जिस प्रकार समुद्र हजारों नदियों और उत्तम रत्नों की खान है उसी प्रकार राजा भी इस लोक में अनर्घ्य वस्तुओं की खान है ॥12 ॥ इसलिए समस्त पृथिवीतल और उत्तमोत्तम खानों में उत्पन्न हुआ जो भी रत्न आपके चित्त में है-जिसे आप प्राप्त करना चाहते हैं उसे हाथ में कीजिए ॥13॥ इस प्रकार विपरीत बुद्धि के धारक राजा दक्ष ने प्रजा के वचन सुन प्रकट किया कि जैसी आप लोगों की अनुमति है वैसा ही कार्य करूंगा, यह कहकर उसने प्रजा के लोगों को विदा किया ॥14॥
तदनंतर उसने पुत्री मनोहरी का कर ग्रहण स्वयं ही कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि कामरूपी पिशाच से गृहीत मनुष्य की मर्यादा क्या है ? और क्रम क्या है ? भावार्थ― कामी मनुष्य सब मर्यादाओं और क्रमों को छोड़ देता है ॥15॥ राजा दक्ष की रानी इला देवी, पति के इस कुकृत्य से बहुत ही रुष्ट हुई इसलिए उसने पुत्र को पिता से फोड़ लिया-अलग कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री आदि तभी तक है जब तक स्वामी मर्यादा में रहता है-मर्यादा का पालन करता है ॥16 ॥ बड़े-बड़े सामंतों से घिरी इला देवी अपने ऐलेय पुत्र को लेकर दुर्गम स्थान में चली गयी और वहीं उसने निवास करने का निश्चय किया |17॥ उसने स्वर्गपुरी के समान एक नगर बसाया जो बढ़ती हुई पृथिवी पर स्थित होने के कारण― इलावर्धन नाम से प्रसिद्ध था ॥18॥ ऐलेय को उसने उसका राजा बनाया सो प्रजा से सहित, वीर्य, धैर्य और नीति का आधार तथा हरिवंश का तिलक स्वरूप राजा ऐलेय वहाँ अत्यधिक सुशोभित होने लगा ॥19॥ राजा होने पर अंग देश में निवास करने वाले ऐलेय ने तामलिप्ति नाम से प्रसिद्ध एक सुंदर नगर बसाया ॥20॥ जब ऐलेय नाना देश को जीतने की इच्छा करता हुआ नर्मदा नदी के तट पर आया तो उसने पृथिवी पर प्रसिद्ध माहिष्मती नाम की नगरी बसायी ॥21॥ उस नगरी में रहकर राजा ऐलेय ने चिरकाल तक नम्रीभूत राजाओं से युक्त राज्य किया ।
तदनंतर वह कुणिम नामक पुत्र के लिए राज्य सौंपकर तप के लिए चला गया ॥ 22 ॥ विजय के अभिलाषी एवं शत्रुओं को संताप देने वाले कुणिम ने विदर्भ देश में वरदा नदी के किनारे कुंडिन नाम का सुंदर नगर बसाया ॥23 ॥ कुछ समय बाद कुणिम को जीवन क्षण भंगुर जान पड़ा इसलिए वह अपना वैभव पुलोम नामक पुत्र के लिए सौंपकर स्वयं तपोवन को चला गया ॥ 24 ॥ राजा पुलोम ने भी पुलोमपुर नाम का नगर बसाया । अंत में वह पौलोम और चरम नामक पुत्रों के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तप के लिए चला गया ॥25॥ पौलोम और चरम का प्रभाव समस्त जगत् में फैल रहा था तथा वे दोनों अखंडित मंडल-अखंड राष्ट्र के धारक थे इसलिए विजय की अभिलाषा रखते हुए वे दोनों निरंतर सूर्य और चंद्रमा को जीतते थे । सूर्य और चंद्रमा का प्रभाव भी समस्त जगत् में फैला रहता है और वे अखंड मंडल-अखंड बिंब के धारक होते हैं ॥26 ॥ उन दोनों ने मिलकर रेवा नदी के तट पर इंद्रपुर नाम का नगर बसाया और चरम ने जयंती तथा वनवास्य नाम की दो नगरियाँ बसायीं ॥27॥ पौलोम के महीदत्त और चरम के संजय नाम का नीतिवेत्ता पुत्र था । अंत में पौलोम और चरम दोनों ही तप करने लगे ॥28॥ महोदत्त ने कल्पपूर नाम का नगर बसाया और अरिष्टनेमि तथा मत्स्य नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥29॥ प्रतापी मत्स्य अपनी चतुरंग सेना से भद्रपुर और हस्तिनापुर को जीतकर बड़ी प्रसन्नता से हस्तिनापुर में रहने लगा ॥30॥ उसके क्रम-क्रम से अयोधन को आदि लेकर इंद्र के समान पराक्रम के धारक सौ पुत्र उत्पन्न हुए । अंत में वह ज्येष्ठ पुत्र के लिए राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया ॥31॥ राजा अयोधन के मूल, मूल के शाल और शाल के सूर्य नाम का पुत्र हुआ । सूर्य ने शुभ्रपुर नाम का नगर बसाया था ॥32॥ सूर्य के अमर नाम का पुत्र हुआ और उसने वज्र नाम का नगर बसाया । अमर के देवेंद्र के समान पराक्रमी देवदत्त नाम का पुत्र हुआ ॥33 ॥ देवदत्त मिथिला नाथ के हरिषेण, हरिषेण के नभसेन, नभसेन के शंख, शंख के भद्र और भद्र के शत्रुओं की कांति को तिरस्कृत करने वाला अभिचंद्र नाम का पुत्र हुआ ॥34-35॥ अभिचंद्र ने विंध्याचल के ऊपर चेदिराष्ट्र की स्थापना की तथा शुक्तिमती नदी के किनारे शुक्तिमती नाम की नगरी बसायी ॥36 ॥ अभिचंद्र को उग्रवंश में उत्पन्न वसुमती नाम की रानी से वसु नाम का पुत्र हुआ । वह वसु चंद्रकांत महामणि के समान आहृदय था ॥37॥ उसी नगरी में वेदार्थ का बेला एक क्षीरकदंब नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम स्वस्तिमती था और उन दोनों के पर्वत नाम का पुत्र था ॥38॥ बुद्धिमान् गुरु क्षीरकदंब ने वसु, पर्वत और नारद इन तीन शिष्यों को गूढार्थ सहित समस्त शास्त्र पढ़ाये ॥39॥ एक बार क्षीरकदंबक वन में उक्त तीनों पुत्रों को आरण्यक वेद पढ़ा रहा था कि उसने आकाश में किन्हीं चारण ऋद्धिधारी मुनि के निम्नांकित वचन सुने ॥40॥ वे कह रहे थे कि वेदाध्ययन में लगे हुए इन चार मनुष्यों के बीच में पाप के कारण दो तो अधोगति को जावेंगे और दो पुण्य के कारण ऊर्ध्वगति प्राप्त करेंगे ॥41॥ जो अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे, दयालु थे और संसार को सब स्थिति जानते थे ऐसे वे मुनिराज साथ के दूसरे मुनि से इस प्रकार कहकर कहीं चले गये ॥42॥ इधर मुनिराज के उक्त वचन सुनकर क्षीरकदंबक का हृदय शंकित हो उठा । जब दिन ढल गया तो उसने शिष्यों को तो घर भेज दिया पर स्वयं अन्यत्र चला गया ॥ 43 ॥ पति को शिष्यों के साथ न देख स्वस्तिमती ने शंकित हो पूछा कि अरे शिष्यो ! उपाध्याय कहां गये हैं ? बताओ ॥44॥ शिष्यों ने कहा कि उन्होंने हम लोगों को यह कहकर भेजा था कि मैं अभी आता हूँ । हे मां! वे मार्ग में पीछे आते ही होंगे, व्यग्र न होओ ॥45॥ शिष्यों के उक्त वचन सुन स्वस्तिमती दिन-भर तो चुप बैठी रही परंतु जब वह रात्रि को भी घर नहीं आया तो उसके शोक की सीमा नहीं रही । वह पति का अभिप्राय जानती थी इसलिए जान पड़ता है ब्राह्मण ने दीक्षा ले ली है, यह विचारकर वह चिरकाल तक रोती रही ॥46-47॥ प्रातःकाल होने पर पर्वत और नारद उसे खोजने के लिए गये । वे कितने ही दिन भटकते रहने से थक गये । अंत में उन्होंने देखा कि पिता क्षीरकदंबक वन के अंत में गुरु के पास निर्ग्रंथ मुद्रा में बैठकर पढ़ रहे हैं । पिता को उस प्रकार बैठा देखकर पर्वत का धैर्य छूट गया । उसने दूर से ही लौटकर माता के लिए सब समाचार सुनाया । पर्वत के मुख से पति की दीक्षा का समाचार जानकर ब्राह्मणी स्वस्तिमती बहुत दुःखी हुई । पर्वत ने भी माता के साथ दुःख मनाया । अंत में धीरे-धीरे शोक दूर कर दोनों पहले के समान सुख से रहने लगे ॥48-50॥
पर्वत तो दूर से चला आया था परंतु नारद विनयी था इसलिए उसने गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया, उनसे वार्तालाप कर अणुव्रत धारण किये और उसके बाद वह घर वापस आया ॥51॥ अतिशय निपुण नारद ने आकर शोक से संतप्त पर्वत की माता को आश्वासन दिया, नमस्कार किया और उसके बाद अपने घर की ओर प्रस्थान किया ॥52 ॥ तदनंतर वसु के पिता राजा अभिचंद्र भी संसार के सुख से उदासीन हो गये इसलिए अपना विस्तृत राज्य वसु के लिए सौंपकर तपोवन को चले गये ॥53॥ नवयौवन से मंडित, नीति का वेत्ता वसु इंद्र के समान जान पड़ता था । उसने समस्त पृथिवी को स्त्री के समान वशीभूत कर लिया था ॥54॥ राजा वसु सभा में आकाशस्फटिक के ऊपर स्थित सिंहासन पर बैठता था इसलिए अन्य राजा उसे आकाश में ही स्थित मानते थे॥55॥ राजा वसु सदा आकाशस्फटिक पर चलता था और सदा सत्य का ही पोषण करता था इसलिए पृथिवी पर उसका यही यश फैल रहा था कि वह धर्म की महिमा से आकाश में चलता है ॥56 ॥ उसकी एक स्त्री इक्ष्वाकुवंश की और दूसरी कुरुवंश की थी । उन दोनों से उसके क्रम से 1 बृहद्वसु, 2 चित्रवसु, 3 वासव, 4 अर्क, 5 महावसु, 6 विश्वावसु, 7 रवि, 8 सूर्य, 9 सुवसु और 10 बृहद̖ध्वज ये दश पुत्र हुए । ये सभी पुत्र वसु के ही समान अतिशय विजिगीषु, विजयाभिलाषी― पराक्रमी थे ॥ 57-59 ॥ इंद्रियों के विषयों के समान परस्पर की प्रीति से युक्त इन दश पुत्रों से सहित राजा वसु अत्यधिक सुख का अनुभव कर रहा था ॥60॥
अथानंतर एक दिन बहुत से छत्रधारी शिष्यों से घिरा नारद, गुरु पुत्र को गुरु के समान मानता हुआ पर्वत से मिलने के लिए आया ॥61 ॥ पर्वत ने नारद का अभिवादन किया और नारद ने पर्वत का प्रत्यभिवादन किया । तदनंतर गुरु पत्नी को नमस्कार कर नारद गुरुजी की चर्चा करता हुआ बैठ गया ॥62 ॥ उस समय पर्वत सब ओर से छात्रों से घिरा वेद वाक्य की व्याख्या कर रहा था सो नारद के सम्मुख भी उसी तरह गर्व से युक्त हो व्याख्या करने लगा ॥63॥ वह कह रहा था कि ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इस वेद वाक्य में जो अज शब्दं आया है वह निःसंदेह पशु अर्थ का ही वाचक माना गया है ॥64॥ इसलिए पद वाक्य और पुराण के अर्थ के वास्तविक जानने वाले एवं स्वर्ग के इच्छुक जो द्विज हैं उन्हें बकरा से ही यज्ञ करना चाहिए ॥65॥ युक्तिबल और आगमबलरूपी प्रकाश से जिसका अज्ञानरूपी अंधकार का पटल नष्ट हो गया था ऐसे नारद ने अज्ञानी पर्वत के उक्त अर्थ पर आपत्ति की ॥66॥ नारद ने पर्वत को संबोधते हुए कहा कि हे गुरु पुत्र ! तुम इस प्रकार की निंदनीय व्याख्या क्यों कर रहे हो ? हे मेरे सहाध्यायी ! यह संप्रदाय उन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है ? ॥67॥ जो निरंतर साथ-ही-साथ रहे हैं तथा जिन्होंने कभी गुरु को शुश्रूषा का त्याग नहीं किया ऐसे एक ही उपाध्याय के शिष्यों में संप्रदाय भेद कैसे हो सकता है ? ॥68 । यहाँ अज शब्द का जैसा अर्थ गुरुजी ने बताया था वह क्या तुम्हें स्मरण नहीं है ? गुरुजी ने तो कहा था जिसमें अंकुर उत्पन्न होने को शक्ति नहीं है ऐसा पुराना धान्य अज कहलाता है यही सनातन अर्थ है ॥69 ॥ दुःख से छूटने योग्य हठरूपी पिशाच से जिसकी बुद्धि ग्रस्त थी ऐसे पर्वत ने नारद के इस प्रकार कहने पर भी अपना हठ नहीं छोड़ा प्रत्युत नारद के वचनों का तिरस्कार कर उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि हे नारद ! अधिक कहने से क्या ? यदि इस विषय में पराजित हो जाऊँ तो अपनी जीभ कटा लू ॥70-71 ॥ पश्चात् नारद ने कहा कि हे पर्वत ! खोटा पक्ष लेकर, खोटे पंखों से युक्त पक्षी के समान दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाओं में स्वयं क्यों पड़ रहे हो? इसके उत्तर में पर्वत ने भी कहा कि जाओ बहुत कहने से क्या ? कल हम दोनों का राजा वसु की सभा में शास्त्रार्थ हो जावे ॥72-73॥ वितंडावाद बढ़ते देख नारद यह कहकर अपने घर चला गया कि पर्वत ! मैं तुम्हें देखने आया था सो देख लिया, तुम भ्रष्ट हो गये । नारद के चले जाने पर पर्वत ने भी दुःखी होकर यह वृत्तांत अपनी माता से कहा ॥74॥ पर्वत की बात सुनकर उसकी माता का हृदय बहुत दुःखी हुआ । हाय मैं मरी यह कहती हुई उसने पर्वत को निंदा की, उसके मुख से बार-बार यही निकल रहा था कि तेरा कहना झूठ है ॥ 75 ॥ हे पुत्र ! परमार्थ का प्ररूपक होने से नारद का कहना सत्य है और विपरीत अर्थ का आश्रय लेने से तेरा कहना मिथ्या है ॥76॥ समस्त शास्त्रों के पूर्वापर संदर्भ के ज्ञान से जिनकी बुद्धि अत्यंत निर्मल थी ऐसे तेरे पिता ने जो कहा था हे पुत्र ! वही नारद कह रहा है ॥77॥ इस प्रकार पर्वत से कहकर वह प्रातःकाल होते ही राजा वसु के घर गयी । राजा वसु ने उसे बड़े आदर से देखा और उससे आने का कारण पूछा ॥78॥ स्वस्तिमती ने वसु के लिए सब वृत्तांत सुनाकर पहले पढ़ते समय गुरु गृह में उसके हाथ में धरोहररूपी रखी हुई गुरुदक्षिणा का स्मरण दिलाते हुए याचना की कि हे पुत्र ! यद्यपि तू सब तत्त्व और अतत्त्व को जानता है तथापि तुझे पर्वत के ही वचन का समर्थन करना चाहिए और नारद के वचन को दूषित ठहराना चाहिए ॥79-80॥
स्वस्तिमती ने चूंकि वसु को गुरुदक्षिणा विषयक सत्य का स्मरण कराया था इसलिए उसने उसके वचन स्वीकृत कर लिये और वह भी कृतकृत्य के समान निश्चिंत हो घर वापस गयी ॥81॥
तदनंतर जब प्रातःकाल के समय सभा का अवसर आया तब राजा वसु सिंहासन पर आरूढ़ हुआ और जिस प्रकार देवों के समूह इंद्र की सेवा करते हैं उसी प्रकार क्षत्रियों के समूह उसकी सेवा करने लगे ॥82॥ उसी समय सर्व शास्त्रों के विशेषज्ञ प्रश्नकर्ताओं से घिरे हुए पर्वत और नारद ने राजसभा में प्रवेश किया ॥ 83 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और आश्रमवासी भी आये तथा अन्य साधारण मनुष्य भी विशेष आमंत्रण न होने पर भी सहज स्वभाववश प्रश्न करने के लिए सभा में आ बैठे ॥84 ॥ उस समय राजसभा में कितने ही ब्राह्मण मनुष्यों के कानों को सुख देने वाले सामवेद गा रहे थे और कितने ही वेदों का स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण कर रहे थे ॥85 ॥ कितने ही ओंकार ध्वनि के साथ यजुर्वेद का पाठ कर रहे थे और कितने ही पद तथा क्रम से युक्त अनेक मंत्रों की आवृत्ति कर रहे थे ॥86॥ कितने ही ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भेदों को लिये हुए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों के स्वरूप का उच्चारण कर रहे थे ॥87॥ जो ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद को प्रारंभ कर जोर-जोर से पाठ कर रहे थे तथा जिन्होंने दिशाओं के समूह को बहिरा कर दिया था ऐसे ब्राह्मणों से सभा का आँगन खचाखच भर गया ॥88॥ अंतरिक्ष सिंहासन पर स्थित राजा वसु को आशीर्वाद देकर नारद और पर्वत अपने-अपने सहायकों के साथ यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये ॥ 89 ॥ जो डाँडीरूपी अंकुरों से सहित थे तथा कमंडलरूपी बड़े-बड़े फल धारण कर रहे थे ऐसे वल्कल और जटाओं के भार से युक्त अनेक तापसरूपी वृक्ष वहाँ विद्यमान थे ॥ 90 ॥ उस समय जो पंडित सभा में यथास्थान बैठे थे उनमें कितने ही सभारूपी सागर में क्षोभ उत्पन्न होने पर उसे रोकने के लिए सेतु बंध के समान थे, कितने ही पक्षपात न हो सके इसके लिए तुलादंड के समान थे, कितने ही कुमार्ग में चलने वाले वादीरूपी हाथियों को वश करने के लिए उत्तम अंकुशों के समान थे और कितने ही श्रेष्ठ तत्त्व की खोज करने के लिए कसौटी पत्थर के समान थे । जब सब विद्वान् यथास्थान यथायोग्य आसनों पर बैठ गये तब जो ज्ञान और अवस्था में वृद्ध थे ऐसे कितने ही लोगों ने राजा वसु से इस प्रकार निवेदन किया ॥91-93॥
हे राजन् ! ये नारद और पर्वत विद्वान् किसी एक वस्तु में विसंवाद होने से आपके पास आये हैं क्योंकि आप न्यायमार्ग के वेत्ता हैं ॥94॥ यह वैदिक अर्थ का विचार इस समय पृथिवी तल पर आपके सिवाय अन्य लोगों का विषय नहीं है क्योंकि उन सबका संप्रदाय छिन्न-भिन्न हो चुका है ॥ 95॥ इसलिए आपकी अध्यक्षता में इन सब विद्वानों के आगे ये दोनों निश्चय कर न्यायपूर्ण जय और पराजय को प्राप्त करें ॥96॥ न्याय द्वारा इस वाद के समाप्त होने पर वेदानुसारी मनुष्यों की प्रवृत्ति संदेहरहित एवं सब लोगों का उपकार करने वाली हो जायेगी ॥ 97 ॥ इस प्रकार वृद्धजनों के कहने पर राजा वसु ने पर्वत के लिए पूर्व पक्ष दिलवाया अर्थात् पूर्वपक्ष रखने का उसे अवसर दिया और अपने साथी सदस्यों के कारण गर्व से भरे पर्वत ने पूर्व पक्ष ग्रहण किया ॥98 ॥ पूर्व पक्ष रखते हुए उसने कहा कि ‘स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों द्वारा यज्ञ की विधि करनी चाहिए’ यह एक श्रुति है इसमें जो अज शब्द है उसका अर्थ चार पावों वाले जंतु विशेष-बकरा है ॥99॥ अज शब्द न केवल वेद में ही पशुवाचक है किंतु लोक में भी स्त्रियों और बालकों से लेकर वृद्धों तक पशुवाचक ही प्रसिद्ध है ॥ 100॥ यह मनुष्य अज के बालक के समान गंध वाला है, और ‘यह अजा― बकरी का दूध है’ इत्यादि स्थलों में अज शब्द की जिस अर्थ में प्रसिद्धि है वह देवों के द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती ॥101॥ सिद्ध शब्द और उसके अर्थ का जो संबंध पहले से निश्चित चला आ रहा है यदि उसमें बाधा डाली जावेगी तो व्यवहार का हो लोप हो जावेगा क्योंकि यह जगत् अंध उलूकों से सहित है― निर्विचार मनुष्यों से भरा हुआ है ॥ 102॥ शब्द योग्य अर्थ में अवांछित रूप से प्रवृत्त होता है और ऐसा होने पर ही शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार चलता है ॥103॥ जिस प्रकार ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः’ स्वर्ग का इच्छुक मनुष्य अग्निहोत्र यज्ञ करे, इस श्रुति में अग्नि आदि शब्दों का प्रसिद्ध अर्थ ही लिया जाता है उसी प्रकार ‘अजैर्यष्टव्यं स्वर्गकामैः’ स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों से होम करना चाहिए इस श्रुति में भी अज का पशु अर्थ ही स्पष्ट है और यागादि शब्दों का अर्थ तो पशुघात निश्चित ही है ॥104-105॥ इसलिए ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इत्यादि वाक्यों द्वारा निःसंदेह, जिसमें अज के बालक का घात होता है ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए ॥106॥ यहाँ यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि घात करते समय पशु को दुःख होता होगा क्योंकि मंत्र के प्रभाव से उसकी सुख से मृत्यु होती है उसे दुःख तो नाम मात्र का भी नहीं होता ॥107॥ दीक्षा के अंत में मंत्रों का उच्चारण होते ही पशु को सुखमय स्थान साक्षात् दिखाई देने लगता है सो ठीक ही है क्योंकि मणि, मंत्र और औषधियों का प्रभाव अचिंत्य होता है ॥108॥ जब कि आत्मा अत्यंत सूक्ष्मता को प्राप्त है तब यहाँ घात किसका होता है ? यह आत्मा तो अग्नि, विष तथा अस्त्र आदि के द्वारा भी घात करने योग्य नहीं है फिर मंत्र पाठों के द्वारा तो इसका घात होगा ही किस तरह ? ॥109॥ याज्ञिक लोग यज्ञ में पशु का घात कर उसके चक्षु को सूर्य के पास, क्षेत्र को दिशाओं के पास, प्राणों को वायु के पास, खून को जल के पास और शरीर को पृथिवी के पास भेज देते हैं । इस तरह याज्ञिक उसे शांति ही पहुंचाते हैं न कि कष्ट । मंत्र द्वारा होम करने मात्र से ही पशु सीधा स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ यज्ञ कराने वाले आदि के समान वह कल्पकाल तक बहुत भारी सुख भोगता रहता है ॥110-111॥ अभिप्रायपूर्वक किया हुआ पुण्यबंध ही स्वर्ग प्राप्ति का कारण है और बलपूर्वक होमे गये पशु के वह संभव नहीं है इसलिए उसे स्वर्ग की प्राप्ति होना असंभव है, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध जबर्दस्ती दिये हुए घृतादिक से उसकी वृद्धि देखी जाती उसी प्रकार यज्ञ में जबर्दस्ती होमे जाने वाले पशु के भी स्वर्ग की प्राप्ति देखी जाती है ॥112॥ इस प्रकार वह पर्वत अपना पूर्व पक्ष स्थापित कर चुप हो रहा तदनंतर बुद्धिमान् नारद उसका निराकरण करने के लिए इस तरह बोला ॥113॥
उसने कहा कि हे सज्जनो ! सावधान होकर मेरे वचन सुनिए मैं अब पर्वत के सब वचनों के सौ टुकड़े करता हूँ ॥114॥ ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इत्यादि वाक्य में पर्वत ने जो कहा है वह झूठ है । क्योंकि अज का अर्थ पशु है यह इसकी स्वयं की कल्पना है ॥115॥ वेद में शब्दार्थ की व्यवस्था अपने अभिप्राय से नहीं होती किंतु वह वेदाध्ययन के समान आप्त से उपदेश की अपेक्षा रखती है ॥116 ॥ कहने का तात्पर्य यह है कि गुरुओं की पूर्व परंपरा से शब्दों के अर्थ का निश्चय करना चाहिए । यदि शब्दार्थ का निश्चय अन्यथा होता है तो अध्ययन भी अन्यथा हो जायगा ॥117॥ यदि यह कहा जाये कि अध्ययन दूसरा है और अर्थ ज्ञान उससे भिन्न हो सकता है तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि उभयत्र न्याय समान होने या एक के विषय में मनमानी कैसे हो सकती है ? भावार्थ-यदि अध्ययन गुरु-परंपरा को अपेक्षा रखता है तो अर्थ ज्ञान भी गुरु-परंपरा को अपेक्षा रखेगा यह न्याय सिद्ध बात है ॥118 ॥ यदि यह कहा जाये कि प्रज्ञाशाली मनुष्य शब्द का अर्थ तो स्वयं जान लेता है पर शब्द को नहीं जान पाता तो यह दुस्तर शाप यहाँ किसके लिए किससे प्राप्त हुआ था सो बताओ । भावार्थ-यदि बुद्धिमान् मनुष्य अपनी इच्छा से शब्द के अर्थ की कल्पनां कर लेता है तो उसे शब्द भी बना लेना चाहिए इसमें द्विविधा की क्या बात है ? ॥119 ॥ गुरु ने यह संप्रदाय एक पर्वत के लिए ही बनाया हो यह भी संभव नहीं है क्योंकि हम वसु, नारद और पर्वत ये तीन योग्य शिष्य थे । भावार्थ― तीन शिष्यों में से एक शिष्य को गुरु दूसरा अर्थ बतलावें और शेष को दूसरा अर्थ यह संभव नहीं दिखता ॥120॥ लोक में गो को आदि लेकर ऐसे बहुत शब्द हैं जिनका समान श्रवण होता है― समान उच्चारण होता है परंतु विषय-भेद से उनका प्रयोग पृथक्-पृथक् होता है । जैसे गो शब्द-पशु, किरण, मृग, इंद्रिय, दिशा, वच, घोड़ा, वचन और पृथिवी अर्थ में प्रसिद्ध है परंतु सब अर्थों में उसका पृथक्-पृथक ही प्रयोग होता है । ‘चित्रगु’ इस शब्द में गो का किरण अर्थ कोई नहीं करता और अशीतगु इस शब्द में गो शब्द का अर्थ सास्नादिमान् पशु कोई नहीं मानता किंतु प्रकरण के अनुसार चित्रगु शब्द में गो का अर्थ गाय और अशीतगु शब्द में किरण ही माना जाता है ॥ 121-123॥ शब्दों के अर्थ में जो प्रवृत्ति है वह या तो रूढि से होती है या क्रिया के अधीन होती है परंतु जिनके हृदय में गुरु का उपदेश चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता वे गुरु-प्रतिपादित अर्थ को भूल जाते हैं ॥124॥ इसलिए ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इस वेद-वाक्य में अज शब्द का अर्थ रूढ़िगत अर्थ से दूर ‘‘न जायंते इति अजाः’’ (जो उत्पन्न न हो सकें वे अज हैं) इस व्युत्पत्ति से क्रिया सम्मत ‘तीन वर्ष का धान्य’ लिया गया है ॥ 125 ॥ विद्वान् लोग, लोक और शास्त्र दोनों में रूढ़ि शब्द के ऐश्वर्य को जानते हैं अतः ‘अजगंधोऽयंपुरुषः’ इत्यादि स्थलों में अज शब्द का बकरा अर्थ में प्रयोग निषिद्ध नहीं है ॥126॥ पर्वत ने जो पहले यह दोष दिया था कि यदि शब्दों का स्वभाव सिद्ध अर्थ न किया जायेगा तो व्यवहार का ही लोप हो जायेगा उसका हमारे ऊपर प्रसंग ही नहीं आता क्योंकि शब्दों का अपने-अपने योग्य स्थलों पर व्यवहार की सिद्धि के लिए ही उपयोग किया जाता है ॥ 127 ॥ इसलिए पृथिवी आदि सामग्री के रहते हुए भी जिसमें अंकुरादिरूप पर्याय प्रकट न हो सके ऐसा तीन वर्ष का पुराना धान अज कहलाता है । यह तो अज शब्द का अर्थ है और ऐसे धान्य से यज्ञ करना चाहिए यह ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इस वाक्य का अर्थ है ॥128॥ यज धातु का अर्थ देव-पूजा है इसलिए द्विजों को पूर्वोक्त धान से ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि नैवेद्य आदि से की हुई पूजा ही स्वर्गरूप फल को देने वाली होती है ॥129॥ हिताभिलाषी मनुष्य जिन्होंने युग के आदि में असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मों की प्रवृत्ति चलायी थी, जो पुराण पुरुष हैं, उत्कृष्ट हैं, रक्षक हैं, इंद्ररूप हैं, इंद्र के द्वारा पूज्य हैं, वेद में स्वयंभू नाम से प्रसिद्ध हैं, मोक्ष मार्ग के उपदेशक हैं, संसार-सागर के शोषक हैं, अनंत ज्ञान-सुख आदि गुणों से युक्त ईश नाम से प्रसिद्ध हैं, महेश्वर हैं, ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, ईशान हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, अनामय-रोगरहित हैं और सूर्य के समान वर्ण वाले हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव की ही पूजा करते हैं ॥ 130-132 ॥ उसी पूजा से पुरुषों को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, उसी से मोक्ष का अविनाशी सुख मिलता है, उसी से कीर्ति, उसी से कांति, उसी से दीप्ति और उसी से धृति की प्राप्ति होती है ॥133 ॥ साक्षात् पशु की बात तो दूर रही पशुरूप से कल्पित चून के पिंड से भी पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि अशुभ संकल्प से पाप होता है और शुभ संकल्प से पुण्य होता है ॥ 134॥ जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप के भेद से चार प्रकार का पशु कहा गया है उसकी हिंसा का कभी मन से भी विचार नहीं करना चाहिए ॥135 ॥ यह जो कहा है कि मंत्र द्वारा होने वाली मृत्यु से दुःख नहीं होता है वह मिथ्या है क्योंकि यदि दुःख नहीं होता है तो जिस प्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी उसी प्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए ॥136 ॥ यदि पैर बांधे बिना और नाक मुंदे बिना अपने आप पशु मर जावे तब तो मंत्र से मरना सत्य कहा जाये । परंतु यह असंभव बात है ॥ 137॥ मंत्र के प्रभाव से मरने वाले पशु को सुखासिका प्राप्त होती है, यह भी एकांत नहीं है क्योंकि जो पशु मारा जाता है वह ग्रह से पीड़ित की तरह जोर-जोर से चिल्लाता है इसलिए उसका दुःख स्पष्ट दिखाई देता है ॥138॥ यह जो कहा है कि आत्मा अत्यंत सूक्ष्म होने से अवध्य है― मारने में नहीं आता है, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्थूल शरीर में स्थित होता है तब स्थूल भी तो होता है ॥ 139 ॥ यह आत्मा शरीररूपी आधार के अनुसार दीपक के प्रकाश के समान सूक्ष्म और स्थूलरूप होता हुआ संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है ॥ 140॥ यदि अनंत शरीरों का अनुभव करने वाला संसारी जीव इस प्रकार छोटा-बड़ा न माना जावे और एकांत से सूक्ष्म ही माना जावे तो वह सुख-दुःख को किस तरह प्राप्त कर सकेगा ? ॥141॥ इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध है कि जीव शरीर प्रमाण है और मंत्र-तंत्र तथा अस्त्र आदि से शरीर का घात होने पर इसे नियम से दुःख होता है ॥142 ॥ जब यह जीव तीव्र दुःख से मरने लगता है तब चक्षु आदि इंद्रियों से स्वयं ही वियुक्त हो जाता है इस लिए उनका वियोग कराने वाला और दूसरा कौन है ? भावार्थ-जब जीव स्वयं ही चक्षु आदि इंद्रियों से वियुक्त होता है तब यह कहना कि याजक लोग उनके चक्षु आदि को सूर्य आदि के पास भेज देते हैं, मिथ्या है ॥143 ॥ प्राणियों का घात करने वाले को स्वर्ग कैसे हो सकता है ? जिससे कि याजक आदि को याज्य (पशु आदि के) स्वर्ग जाने में दृष्टांत माना जा सके । भावार्थ― पर्वत ने कहा था कि मंत्र द्वारा होम करते ही पशु स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ वह याजकादि के समान कल्प काल तक अत्यधिक सुख भोगता रहता है सो प्राणियों का घात करने वाले याजक आदि को स्वर्ग कैसे मिल सकता है ? उन्हें तो इस पाप के कारण नरक मिलना चाहिए अतः जब याजक आदि स्वर्ग नहीं जाते तब उन्हें पशु के स्वर्ग जाने में दृष्टांत कैसे बनाया जा सकता है ? ॥144॥
धर्मसहित कार्य ही पशु को सुख प्राप्ति में सहायक हो सकता है अधर्मसहित कार्य नहीं क्योंकि बच्चे के लिए माता के द्वारा दिया हुआ अपथ्य पदार्थ सुख प्राप्ति का कारण नहीं होता । भावार्थ― पर्वत ने कहा था कि जिस प्रकार न चाहने पर भी बच्चे के लिए घी आदि दिया जाता है तो वह उसकी वृद्धि का कारण होता है, उसी प्रकार पशु के न चाहने पर भी उसे यज्ञ में होमा जाता है तो वह उसके लिए स्वर्ग प्राप्ति का कारण होता है । पर्वत का यह कहना ठीक नहीं क्योंकि धर्मयुक्त कार्य ही पशु के लिए सुख प्राप्ति में सहायक हो सकता है अधर्म युक्त नहीं । जिस प्रकार माता के द्वारा दिये हुए घृत, दुग्ध आदि हितकारी पदार्थ ही बच्चे के लिए सुख प्राप्ति में सहायक होते हैं विषादिक अपथ्य पदार्थ नहीं उसी प्रकार पशु को जबर्दस्ती होम देने मात्र से उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती किंतु उसके धर्मयुक्त कार्य से ही हो सकती है ॥ 145 ॥
इस प्रकार सभारूपी वर्षाकाल में अपने तीक्ष्ण वचनरूपी वज्र के अग्रभाग से पर्वत के मिथ्या पक्षरूपी पर्वत-पहाड़ के भद्दे किनारे को तोड़कर जब नारदरूपी मेघ चुप हो रहा तब सभा में बैठे हुए धर्म के परीक्षक लोगों ने एवं साधारण मनुष्यों ने सिर हिला-हिलाकर तथा अपनी-अपनी अंगुलियाँ चटका कर नारद के लिए बार-बार धन्यवाद दिया ॥146-147॥ तदनंतर अनेक शास्त्रों के ज्ञाता शिष्टजनों ने अंतरिक्षचारी राजा वसु से पूछा कि हे राजन् ! आपने गुरु के द्वारा कहा हुआ जो सत्य अर्थ सुना हो वह कहिए ॥148॥ यद्यपि राजा वसु दृढ़ बुद्धि था और गुरु के वचनों का उसे अच्छी तरह स्मरण था तथापि मोहवश सत्य के विषय में अविवेकी हो वह निम्न प्रकार वचन कहने लगा ॥149 ॥ कि हे सभाजनो ! यद्यपि नारद ने युक्ति युक्त कहा है तथापि पर्वत ने जो कहा है वह उपाध्याय के द्वारा कहा हुआ कहा है ॥ 150 ॥ इतना कहते ही वसु का स्फटिक मणिमय आसन पृथिवी में धंस गया और वह पाताल में जा गिरा, सो ठीक ही है क्योंकि पाप से पतन होता ही है ॥ 151॥ जिसका शरीर पाताल में स्थित था ऐसा वसु मरकर सातवीं पृथिवी गया और वहाँ महारौरव नामक नरक में नारकी हुआ ॥152 ॥ हिंसानंद और मृषानंद रौद्रध्यान से कलुषित हो वसु भयंकर नरक में गया सो ठीक ही है क्योंकि रौद्रध्यान दुःखदायक होता ही है ॥153 ॥ सब लोगों के समक्ष जब वसु पाताल में चला गया तब सब ओर आकुलता से भरा हाँ-हाँ धिक्-धिक् शब्द गूंजने लगा ॥154॥ जिसे तत्काल ही असत्य बोलने का फल मिल गया था ऐसे राजा वसु की सब लोगों ने निंदा की और दुष्ट पर्वत का तिरस्कार कर उसे नगर से बाहर निकाल दिया ॥155॥ तत्त्ववादी, गंभीर एवं वादियों को परास्त करने वाले नारद को लोगों ने ब्रह्मरथ पर सवार किया तथा उसका सम्मान कर सब यथास्थान चले गये ॥156 ॥ इधर तिरस्कार पाकर पर्वत भी अनेक देशों में परिभ्रमण करता रहा अंत में उसने द्वेष-पूर्ण दुष्ट महाकाल नामक असुर को देखा ॥157॥ पूर्वभव में जिसका तिरस्कार हुआ था ऐसे महाकाल असुर के लिए अपने परभव का समाचार सुनाकर पर्वत उसके साथ मिल गया और दुर्बुद्धि के कारण हिंसापूर्ण शास्त्र की रचनाकर, लोक में ठगिया बन हिंसापूर्ण यज्ञ का प्रदर्शन करता हुआ प्राणि हिंसा में तत्पर मूर्खजनों को प्रसन्न करने लगा ॥158-159 ॥ अंत में पापोपदेश के कारण पापरूपी शाप के वशीभूत होने से पर्वत मरा और मरकर वसु की सेवा करने के लिए ही मानो नरक गया ॥160 ॥ मंत्रियों ने वसु के आठ पुत्रों को क्रम से एक दूसरे के बाद उसकी गद्दी पर बैठाया परंतु वे भी थोड़े ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥161 ॥ तदनंतर जो दो पुत्र शेष बचे उनमें मृत्यु के भय से भयभीत हो सुवसु तो भागकर नागपुर में रहने लगा और बृहद̖ध्वज मथुरा में जा बसा ॥162 ॥
बड़े खेद की बात है कि एक ओर तो वसु सत्य जनित प्रसिद्धि को पाकर अंत में पाप के कारण नरक गया और अभिमान के वशीभूत हुआ पर्वत भी उसके पीछे पापपूर्ण नरक को प्राप्त हुआ तथा दूसरी ओर सम्यग्दृष्टि दिवाकर नामक विद्याधर मित्र को पाकर एवं पर्वत के मिथ्या मत का खंडन कर नारद कृत-कृत्य होता हुआ स्वर्ग गया ॥163 ॥ जीवों पर दया करना धर्म है, निरंतर हिंसा का त्याग करना दया है और अपने प्राण जाने पर भी उस ओर लगे हुए मन, वचन, काय के द्वारा वध से दूर रहना हिंसा त्याग है । जिनेंद्र भगवान् ने हिंसा त्याग को ही धर्म कहा है । आदर पूर्वक आचरण किया हुआ यह धर्म, स्वर्ग और मोक्ष को मोहरूपी अर्गला को भेदकर विद्वज्जनों को अतिशय विस्तृत सुख में पहुंचा देता है ॥ 164॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में राजा वसु के चरित में नारद और पर्वत के विवाद का वर्णन करने वाला सत्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ 17॥