हरिवंश पुराण - सर्ग 29: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर सेठ कामदत्त ने जहाँ लोगों का आना<strong>-</strong>जाना अधिक था ऐसे स्थान पर नगर में जिनमंदिर के आगे मृगध्वज केवली की प्रतिमा और महिष की मति स्थापित की | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर सेठ कामदत्त ने जहाँ लोगों का आना<strong>-</strong>जाना अधिक था ऐसे स्थान पर नगर में जिनमंदिर के आगे मृगध्वज केवली की प्रतिमा और महिष की मति स्थापित की ॥1॥<span id="2" />मंदिर में समस्त प्रजा के कौतुक के लिए कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी ॥2॥<span id="5" /> कामदेव और रति को देखने के कौतूहल से जगत् के लोग जिन<strong>-</strong>मंदिर में आते हैं और वहाँ स्थापित दोनों प्रतिमाओं को देखकर मृगध्वज केवली और महिष का वृत्तांत सुनते हैं जिससे अनेकों पुरुष प्रतिदिन जिनधर्म को प्राप्त होते हैं ॥3<strong>-</strong>4॥ यह जिनमंदिर कामदेव के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध और कौतुकवश आये हुए लोगों को जिनधर्म की प्राप्ति का कारण है ॥5॥<span id="6" /> उसी कामदत्त सेठ के वंश में अनेक लोगों के उत्पन्न हो चुकने के बाद इस समय एक कामदेव नाम का सेठ उत्पन्न हुआ है ॥ 6 ॥<span id="8" /> उसकी रूप और यौवन से पूर्ण<strong>, </strong>पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली तथा बंधुजनों को आनंदित करने वाली बंधुमती नाम की एक कन्या है ꠰꠰7॥ पिता के पूछने पर निमित्तज्ञानी ने बताया था कि जो मनुष्य कामदेव के मंदिर का दरवाजा खोलकर कामदेव की पूजा करेगा वही इसका पति होगा ॥8॥<span id="9" /><strong>_</strong>ब्राह्मण के इस प्रकार के वचन सुन वसुदेव कामदेव के मंदिर के द्वार पर पहुँचे और बत्तीस अर्गलाओं से दुर्गम उस द्वार को खोलकर शीघ्र ही भीतर जा पहुँचे ॥9॥<span id="10" /> भीतर जाकर वसुदेव ने प्रथम तो जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमाओं की पूजा की और उसके बाद रति सहित कामदेव की पूजा की । उसी समय कामदेव सेठ प्रतिमाओं की पूजा के लिए मंदिर में आया था सो उसने वसुदेव को देखा ॥10॥<span id="11" /> तदनंतर निमित्तज्ञानी के आदेश की सचाई से जिसकी आत्मा प्रसन्न हो रही थी ऐसे कामदेव सेठ ने सुंदर ओठों से सुशोभित अपनी बंधुमती कन्या वसुदेव के लिए प्रदान कर दी ॥11॥<span id="12" /><span id="13" /> उसी समय नगरी में चारों ओर यह समाचार फैल गया कि वर के अभिलाषी सेठ कामदेव के लिए कामदेव ने<strong>, </strong>मनोरथों को पूर्ण करने वाला एवं कामदेव के समान आभा वाला कोई अद्भुत जामाता दिया है । इस समाचार से प्रेरित होकर राजा ने<strong>,</strong> उसके अंतःपुर की स्त्रियों ने<strong>, </strong>तथा नगरवासी लोगों ने इच्छानुसार वसुदेव को देखा ॥12-13 ॥<span id="14" /> राजपुत्री प्रियंगुसुंदरी ने भी उन्हें किसी तरह देख लिया और देखकर वह उनपर इतनी अनुरक्त हो गयी कि पानी से विरक्त हो गयी अर्थात् भोजन पानी से भी उसे अरुचि हो गयी ॥14॥<span id="15" /> प्रियंगुसुंदरी ने अपनी सखी बंधुमती को एकांत में बुलाकर उससे पूछा कि हे सखी ! तुम पति को बहुत प्यारी हो<strong>, </strong>कहो इनकी चतुराई कैसी है ? ॥15॥<span id="16" /> भोलीभाली बंधुमती ने चतुर वसुदेव की चेष्टाओं का प्रियंगुसुंदरी के लिए इस ढंग से वर्णन किया कि वह एकदम स्वसंवेद्य सुख से युक्त मोह को प्राप्त हो गयी॥16॥<span id="17" /> निदान प्रियंगुसुंदरी ने अभिमान छोड़कर द्वारपाल को यह संदेश देकर वसुदेव के पास भेजा कि या तो हमारे साथ समागम करो या शीघ्र ही हत्या स्वीकृत करो ॥17॥<span id="18" /> यह दोनों ही काम अनुचित है यह विचारकर वसुदेव चिंता में पड़ गये । अंत में वे चतुर तो थे ही इसलिए किसी बहाने उन्होंने कुछ समय तक ठहरने का समाचार कहला भेजा ॥18॥<span id="19" /> वसुदेव में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसी प्रियंगुसुंदरी को उनकी प्राप्ति की आशा हो गयी और इसी आशा से वह रात्रि के समय शय्या पर अपने मनोरथ को पूर्ण हुआ ही मानने लगी ॥ 19 ॥<span id="20" /> </p> | ||
<p>एक दिन रात्रि के समय कुमार वसुदेव बंधुमती का गाढ़ आलिंगन कर सो रहे थे कि एक ज्वलनप्रभा नाम की दिव्य नागकन्या ने आकर उन्हें जगा दिया ॥20॥ कुमार जाग गये और शरीर तथा आभूषणों की कांति से जिसने समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर दिया था तथा जिसके सिर पर नाग का चिह्न था ऐसी उस स्त्री को देखकर वे विचार करने लगे कि यह कौन स्त्री यहाँ आयी है? ॥21॥ उसी समय प्रिय वार्तालाप करने में निपुण नागकन्या ने धीर<strong>, </strong>वीर कुमार को बुलाया और बड़ी विनय के साथ नीतिपूर्वक अशोकवाटिका में ले जाकर कहा कि हे धीर ! निश्चिंत होकर मेरे आने का कारण सुनिए । वह कारण कि जिससे तुम्हारे कान अमृत रस के समान तृप्त हो जावेंगे | <p>एक दिन रात्रि के समय कुमार वसुदेव बंधुमती का गाढ़ आलिंगन कर सो रहे थे कि एक ज्वलनप्रभा नाम की दिव्य नागकन्या ने आकर उन्हें जगा दिया ॥20॥<span id="21" /> कुमार जाग गये और शरीर तथा आभूषणों की कांति से जिसने समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर दिया था तथा जिसके सिर पर नाग का चिह्न था ऐसी उस स्त्री को देखकर वे विचार करने लगे कि यह कौन स्त्री यहाँ आयी है? ॥21॥<span id="22" /><span id="23" /> उसी समय प्रिय वार्तालाप करने में निपुण नागकन्या ने धीर<strong>, </strong>वीर कुमार को बुलाया और बड़ी विनय के साथ नीतिपूर्वक अशोकवाटिका में ले जाकर कहा कि हे धीर ! निश्चिंत होकर मेरे आने का कारण सुनिए । वह कारण कि जिससे तुम्हारे कान अमृत रस के समान तृप्त हो जावेंगे ॥ 22-23॥<span id="24" /><strong> </strong></p> | ||
<p>हे धीर वीर कुमार ! चंदनवन नामक नगर में<strong>, </strong>अमोघ शक्ति का धारक एवं शत्रुमंडल को वश करने वाला अमोघदर्शन नाम का राजा था॥24॥ उसकी चारुमति नाम की स्त्री थी और दोनों के नीति तथा पुरुषार्थ से युक्त नवयौवन से सुशोभित चारुचंद्र नाम का पुत्र था ॥25॥ उसी नगर में कला और गुणों के समूह से सहित एक रंगसेना नाम की वेश्या थी और उसकी कामपताका नाम की पुत्री थी जो सचमुच ही काम की पताका के समान जान पड़ती थी ॥26॥ एक बार धर्म अधर्म के विवेक से रहित राजा अमोघदर्शन ने यज्ञ दीक्षा के लिए प्रवेश किया । उसी समय जटाओं को धारण करने वाले कौशिक आदि ऋषि भी आये ॥27॥ उस यज्ञोत्सव में राजा की आज्ञा से कामपताका ने नृत्य किया । ऐसा नृत्य<strong>, </strong>कि मनुष्यों के हृदय को हरण करती हुई उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं यथार्थ में काम की पता का ही हूँ ॥28॥ उस नृत्य को देखकर शास्त्रों की निपुणता से युक्त तथा वृक्षों के मूल पत्र और फलों को खाने वाला कौशिक ऋषि भी क्षोभ को प्राप्त हो गया तब अन्य की तो कथा ही क्या थी ? ॥29॥ यज्ञ कार्य समाप्त होने पर राजपुत्र चारुचंद्र ने उस कन्या कामपताका को स्वीकृत कर लिया । उसी समय कौशिक ऋषि के शिष्य कुछ तापस राजा को भक्त जान कन्या की याचना करने के लिए वहाँ आये ॥30॥ जब उन्होंने कौशिक ऋषि के लिए काम पता का की याचना की तब राजा ने कहा कि वह कन्या तो राजकुमार ने विवाह ली है । आप लोग जावें । राजा के इस प्रकार कहने पर वे तापस चले गये ॥31॥ कन्या के न मिलने से कौशिक की आत्मा में बड़ा संक्लेश उत्पन्न हुआ । वह राजा के पास गया और हे राजन् ! तूने मुझे कन्या नहीं दी है इसलिए मैं सर्प बनकर भी तुझे मारूंगा इस प्रकार आक्रोश पूर्ण वचन कहकर चला आया ॥32॥ राजा<strong>, </strong>कौशिक के आक्रोश पूर्ण वचन सुनकर डर गया इसलिए पुत्र का राज्याभिषेक कर अव्यक्त गर्भ वाली रानी चारुमति के साथ तापस हो गया ॥33 | <p>हे धीर वीर कुमार ! चंदनवन नामक नगर में<strong>, </strong>अमोघ शक्ति का धारक एवं शत्रुमंडल को वश करने वाला अमोघदर्शन नाम का राजा था॥24॥<span id="25" /> उसकी चारुमति नाम की स्त्री थी और दोनों के नीति तथा पुरुषार्थ से युक्त नवयौवन से सुशोभित चारुचंद्र नाम का पुत्र था ॥25॥<span id="26" /> उसी नगर में कला और गुणों के समूह से सहित एक रंगसेना नाम की वेश्या थी और उसकी कामपताका नाम की पुत्री थी जो सचमुच ही काम की पताका के समान जान पड़ती थी ॥26॥<span id="27" /> एक बार धर्म अधर्म के विवेक से रहित राजा अमोघदर्शन ने यज्ञ दीक्षा के लिए प्रवेश किया । उसी समय जटाओं को धारण करने वाले कौशिक आदि ऋषि भी आये ॥27॥<span id="28" /> उस यज्ञोत्सव में राजा की आज्ञा से कामपताका ने नृत्य किया । ऐसा नृत्य<strong>, </strong>कि मनुष्यों के हृदय को हरण करती हुई उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं यथार्थ में काम की पता का ही हूँ ॥28॥<span id="29" /> उस नृत्य को देखकर शास्त्रों की निपुणता से युक्त तथा वृक्षों के मूल पत्र और फलों को खाने वाला कौशिक ऋषि भी क्षोभ को प्राप्त हो गया तब अन्य की तो कथा ही क्या थी ? ॥29॥<span id="30" /> यज्ञ कार्य समाप्त होने पर राजपुत्र चारुचंद्र ने उस कन्या कामपताका को स्वीकृत कर लिया । उसी समय कौशिक ऋषि के शिष्य कुछ तापस राजा को भक्त जान कन्या की याचना करने के लिए वहाँ आये ॥30॥<span id="31" /> जब उन्होंने कौशिक ऋषि के लिए काम पता का की याचना की तब राजा ने कहा कि वह कन्या तो राजकुमार ने विवाह ली है । आप लोग जावें । राजा के इस प्रकार कहने पर वे तापस चले गये ॥31॥<span id="32" /> कन्या के न मिलने से कौशिक की आत्मा में बड़ा संक्लेश उत्पन्न हुआ । वह राजा के पास गया और हे राजन् ! तूने मुझे कन्या नहीं दी है इसलिए मैं सर्प बनकर भी तुझे मारूंगा इस प्रकार आक्रोश पूर्ण वचन कहकर चला आया ॥32॥<span id="33" /> राजा<strong>, </strong>कौशिक के आक्रोश पूर्ण वचन सुनकर डर गया इसलिए पुत्र का राज्याभिषेक कर अव्यक्त गर्भ वाली रानी चारुमति के साथ तापस हो गया ॥33 ॥<span id="34" /> कुछ समय बाद तापसी चारुमति ने तपस्वियों के आश्रम को सुशोभित करने वाली एवं अनुपम शोभा से सुशोभित ऋषिदत्ता नाम की कन्या को जन्म दिया ॥34॥<span id="35" /> कन्या ऋषिदत्ता ने एक बार चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के समीप अणुव्रत धारण किये । धीरे-धीरे उस कन्या ने तरुण पुरुषों के मन और नेत्रों को बाँधने वाला नवयौवन प्राप्त किया ॥35॥<span id="36" /> एक समय शांतायुध का पुत्र<strong>, </strong>लक्ष्मी से सुशोभित एवं शीलायुध नाम से प्रसिद्ध श्रावस्ती का राजा तपस्वियों के उस आश्रम में पहुंचा ॥36॥<span id="37" /> उसे देख अकेली ऋषिदत्ता कन्या ने रुचिवर्धक उत्तम आहार देकर उसका अतिथि सत्कार किया । कन्या ऋषिदत्ता सुंदरी तो थी ही उस पर वल्कलों के कारण उसके स्तनों की शोभा और भी अधिक मनोहारिणी हो गयी थी ॥37॥<span id="38" /> फल यह हुआ कि अनुपम रूप को धारण करने वाले उन दोनों के प्रेम ने विश्वास की अधिकता में चिरकाल से पाली हुई अपनी-अपनी मर्यादा तोड़ दी ॥38॥<span id="39" /> कामपाश से बंधा युवा शीलायुध निःशंक</p> | ||
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<p>होकर एकांत में ऋषिदत्ता के पास चला गया और शंकारहित एवं वशीभूत ऋषिदत्ता के साथ उसने इच्छानुसार क्रीड़ा की | <p>होकर एकांत में ऋषिदत्ता के पास चला गया और शंकारहित एवं वशीभूत ऋषिदत्ता के साथ उसने इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥39॥<span id="40" /><span id="41" /><span id="42" /> तदनंतर भय से युक्त हो तापसी ऋषिदत्ता ने राजा से कहा कि हे आर्यपुत्र ! मैं ऋतुमती हूं यदि गर्भवती हो गयी तो मुझे क्या करना होगा सो बताओ । इस प्रकार व्याकुल चित्त से युक्त ऋषिदत्ता के पूछने पर शीलायुध ने कहा कि हे प्रिये ! व्याकुल मत होओ । सुनो<strong>, </strong>मैं शत्रुओं को नष्ट करने वाला<strong>, </strong>इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुआ श्रावस्ती का राजा शीलायुध हूँ । पुत्र के साथ-साथ तुम मुझे अवश्य ही दर्शन देना अर्थात् पुत्र प्रसव के बाद श्रावस्ती आ जाना ॥40-42 ॥<span id="43" /> इस प्रकार आश्वासन देकर तथा एकांत में आलिंगन कर विरह से उत्कंठित होता हुआ वह जाने के लिए उद्यत ही था कि इतने में उसकी सेना तपस्वियों के आश्रम में आ पहुंची ॥43॥<span id="44" /><span id="45" /> सेना को देख राजा बहुत संतुष्ट हुआ और उसके साथ नगरी को लौट आया । तदनंतर राजा के चले जाने पर लोकव्यवहार को जानने वाली ऋषिदत्ता ने लज्जा छोड़कर माता पिता के लिए यह वृत्तांत सुना दिया और कह दिया कि मैं निर्लज्ज राजा शीलायुध की एकांत में पत्नी बन चुकी हूँ और गर्भवती हो गयी हूँ ॥44-45 ॥<span id="46" /><span id="47" /> तदनंतर नव मास व्यतीत होने पर ऋषिदत्ता ने सुंदर पुत्र उत्पन्न किया जो बिल्कुल पिता के अनुरूप था और ऐसा जान पड़ता था मानो पिता के द्वारा ही प्रकट किया गया हो । प्रसूति के समय ऋषिदत्ता को क्लेश अधिक हुआ था इसलिए वह प्रसूति के बाद ही मर गयी और सम्यग्दर्शन के प्रभाव से ज्वलनप्रभवल्लभा नाम की नागकुमारी उत्पन्न हुई । वही मैं हूँ<strong>, </strong>मुझे देव पर्याय के कारण भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी प्रकट हुआ है ॥ 46-47॥<span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /><span id="51" /> इसलिए उससे पूर्वभव की सब बात जानकर दया और स्नेह के वशीभूत हो मैं पिता और पुत्र के तपोवन में गयी । वहाँ शोकसंतप्त माता-पिता को आश्वासन देकर मैंने अपने उस पुत्र को मृगी का रूप रख दूध पिला-पिलाकर बड़ा किया । तदनंतर कौशिक ऋषि का जीव निदान के कारण सर्प हुआ था सो उसने पूर्व वैर के कारण हमारे पिता को डस लिया परंतु मैंने अमोघ मंत्र से उन्हें जीवन प्राप्त करा दिया― अच्छा कर दिया । मेरे पिता यद्यपि जो छूट न सके ऐसे क्रोध से दूषित थे तथापि धर्मोपदेश देकर मैंने उन्हें धर्म ग्रहण करा दिया जिससे वे मरकर उत्तम गति को प्राप्त हुए । तत्पश्चात् तापसी का वेष धारणकर और उस पुत्र को लेकर मैं राजा शीलायुध के पास गयी ॥48-51॥<span id="52" /> राजा शीलायुध बड़ी विभूति से युक्त तथा परम नीतिज्ञ था उसे देखकर मैंने कहा कि हे राजेंद्र ! यह राजाओं के लक्षणों से युक्त आपका पुत्र है ॥52॥<span id="53" /> यह आपकी मृत स्त्री द्वारा छोड़ा गया है और एणीपुत्र इसका नाम है । इसे आप ग्रहण कीजिए । मेरे इस प्रकार कहने पर राजा शीलायुध ने कहा कि मैं तो पुत्रहीन हूँ । मेरे पुत्र कहाँ से आया ? ॥53 ॥<span id="54" /> हे तापसि ! ठीक-ठीक बता यह पुत्र तुझे कैसे प्राप्त हुआ है ? राजा के इस प्रकार पूछने पर मैंने अभिज्ञान-परिचायक घटनाओं के साथ-साथ वह सब वृत्तांत कह दिया ॥54॥<span id="55" /><span id="56" /><span id="57" /><span id="58" /><span id="59" /><span id="60" /> और यह भी कह दिया कि मैं मरकर देवी हुई हूं । मेरे इस कथन पर विश्वास कर राजा शीलायुध ने वह पुत्र ले लिया । पुत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगा और मैं मोहयुक्त पुत्र स्नेह के कारण उसकी निरंतर रक्षा करने लगी । राजा शीलायुध की जो इच्छा होती थी उसकी मैं तत्काल पूर्ति कर देती थी । कदाचित् परम विवेकी राजा शीलायुध<strong>, </strong>उस एणीपुत्र को अपने राज्य पर पदारूढ़ कर दीक्षा ले मुनि हो गया और मरकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ । पश्चात् राजा एणीपुत्र के प्रियंगु पुष्प के समान श्यामवर्ण<strong>, </strong>अतिशय रूपवती<strong>, </strong>प्रियंगुसुंदरी नाम की पुत्री हुई । राजा एणीपुत्र ने उसका स्वयंवर किया परंतु कामभोग से विरक्त उस धैर्यशालिनी ने पृथिवीतल के समस्त राज कुमारों का निराकरण कर दिया अर्थात् किसी के साथ विवाह करना स्वीकृत नहीं किया । तदनंतर जिस दिन से उसने राजमहल में बंधुमती के साथ आपको देखा है उसी दिन से वह काम के बाणों से अत्यंत सशल्य शरीर को धारण कर रही है इसलिए हे वीर ! मेरे कहने से तू उसके साथ समागम कर ॥55-60॥<span id="61" /> वह कन्या अदत्ता है किसी के द्वारा दी नहीं गयी है― ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैंने तेरे लिए वह कन्या दी है । इस राजकुल के करने योग्य कार्यों में मैं प्रमाण भूत हूँ अर्थात् समस्त कार्य मेरी ही सम्मति से होते हैं ॥61 ॥<span id="62" /><span id="63" /><span id="64" /><span id="65" /> इसलिए मैंने तुझे यह कन्या दी मानो इसके पिता और भाइयों ने ही दी है । अतः कामदेव के मंदिर में तुम दोनों का समागम हो और इसके लिए कल की रात का संकेत निश्चित किया गया है । हे देव ! देवताओं का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता इसलिए आप मुझ से वर माँगकर इस संसार में जो कुछ भी आपको इष्ट हो वह प्राप्त करो । नागकुमारी के इस प्रकार कहने पर वसुदेव ने विनयपूर्ण वचनों द्वारा उससे कहा कि हे अमोघ मुस्कान को धारण करने वाली देवि ! मैं यही वर चाहता हूँ कि जब मैं आपका स्मरण करूं तब आप मेरा ध्यान रखें । वसुदेव के इस प्रकार कहने पर उसने ‘एवमस्तु’ कहा ॥ 62-65 ॥<span id="68" /> उक्त वरदान देकर देवी अंतर्हित हो गयी और वसुदेव अपने निवास स्थान पर आ गये । तदनंतर देवी से कहे अनुसार कुमार वसुदेव एकांत पाकर कामदेव के मंदिर में प्रियंगुसुंदरी के पास गये । कुमार को देख प्रियंगुसुंदरी का मुख<strong>-</strong>कमल खिल उठा और गंधर्व विवाह से उन्होंने उसे स्वीकृत किया ॥66<strong>-</strong>67॥ उस समय वसुदेव रूपी सूर्य के द्वारा रमण को प्राप्त हुई प्रियंगुसुंदरी कमलिनी के समान सुशोभित हो रही थी । इस प्रकार प्रियंगुसुंदरी के घर में वसुदेव के बहुत दिन निकल गये ॥68॥<span id="72" /> तदनंतर परस्पर के प्रेम से बँधे हुए इस दंपति का यह समागम रहस्यपूर्ण रीति से देवी ने कराया है<strong>-</strong>यह जानकर राजा बहुत संतुष्ट हुआ और उसने लोक में प्रकट करने के लिए उस अनुरूप दंपती का विवाह करा दिया । विवाह के पश्चात् सुंदर वसुदेव सब लोगों की जानकारी में रूप और यौवन के द्वारा मन को हरण करने वाली सुंदरी प्रियंगुसुंदरी के साथ<strong>, </strong>इंद्राणी के साथ इंद्र के समान रमण करने लगे ॥69<strong>-</strong>71॥ इस प्रकार जिनकी गुणरूपी संपदाएँ प्रसिद्ध थीं तथा जो गुण और कलाओं के समूह से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी बंधुमती तथा राजपुत्री प्रियंगुसुंदरी एकांतपूर्ण रति गृह में क्रम से जिनकी सेवा करती थीं तथा जो नगरवासियों के द्वारा अत्यंत सम्मान को प्राप्त थे ऐसे कुमार वसुदेव ने जिन<strong>-</strong>मंदिरों से सुशोभित इस श्रावस्ती नगरी में चिरकाल तक निवास किया ॥72॥<span id="29" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य</strong> <strong>रचित हरिवंशपुराण में बंधुमती और</strong> <strong>प्रियंगुसुंदरी के लाभ का वर्णन करने वाला</strong> <strong>उनतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य</strong> <strong>रचित हरिवंशपुराण में बंधुमती और</strong> <strong>प्रियंगुसुंदरी के लाभ का वर्णन करने वाला</strong> <strong>उनतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥29॥<span id="30" />।</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर सेठ कामदत्त ने जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक था ऐसे स्थान पर नगर में जिनमंदिर के आगे मृगध्वज केवली की प्रतिमा और महिष की मति स्थापित की ॥1॥मंदिर में समस्त प्रजा के कौतुक के लिए कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी ॥2॥ कामदेव और रति को देखने के कौतूहल से जगत् के लोग जिन-मंदिर में आते हैं और वहाँ स्थापित दोनों प्रतिमाओं को देखकर मृगध्वज केवली और महिष का वृत्तांत सुनते हैं जिससे अनेकों पुरुष प्रतिदिन जिनधर्म को प्राप्त होते हैं ॥3-4॥ यह जिनमंदिर कामदेव के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध और कौतुकवश आये हुए लोगों को जिनधर्म की प्राप्ति का कारण है ॥5॥ उसी कामदत्त सेठ के वंश में अनेक लोगों के उत्पन्न हो चुकने के बाद इस समय एक कामदेव नाम का सेठ उत्पन्न हुआ है ॥ 6 ॥ उसकी रूप और यौवन से पूर्ण, पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली तथा बंधुजनों को आनंदित करने वाली बंधुमती नाम की एक कन्या है ꠰꠰7॥ पिता के पूछने पर निमित्तज्ञानी ने बताया था कि जो मनुष्य कामदेव के मंदिर का दरवाजा खोलकर कामदेव की पूजा करेगा वही इसका पति होगा ॥8॥_ब्राह्मण के इस प्रकार के वचन सुन वसुदेव कामदेव के मंदिर के द्वार पर पहुँचे और बत्तीस अर्गलाओं से दुर्गम उस द्वार को खोलकर शीघ्र ही भीतर जा पहुँचे ॥9॥ भीतर जाकर वसुदेव ने प्रथम तो जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमाओं की पूजा की और उसके बाद रति सहित कामदेव की पूजा की । उसी समय कामदेव सेठ प्रतिमाओं की पूजा के लिए मंदिर में आया था सो उसने वसुदेव को देखा ॥10॥ तदनंतर निमित्तज्ञानी के आदेश की सचाई से जिसकी आत्मा प्रसन्न हो रही थी ऐसे कामदेव सेठ ने सुंदर ओठों से सुशोभित अपनी बंधुमती कन्या वसुदेव के लिए प्रदान कर दी ॥11॥ उसी समय नगरी में चारों ओर यह समाचार फैल गया कि वर के अभिलाषी सेठ कामदेव के लिए कामदेव ने, मनोरथों को पूर्ण करने वाला एवं कामदेव के समान आभा वाला कोई अद्भुत जामाता दिया है । इस समाचार से प्रेरित होकर राजा ने, उसके अंतःपुर की स्त्रियों ने, तथा नगरवासी लोगों ने इच्छानुसार वसुदेव को देखा ॥12-13 ॥ राजपुत्री प्रियंगुसुंदरी ने भी उन्हें किसी तरह देख लिया और देखकर वह उनपर इतनी अनुरक्त हो गयी कि पानी से विरक्त हो गयी अर्थात् भोजन पानी से भी उसे अरुचि हो गयी ॥14॥ प्रियंगुसुंदरी ने अपनी सखी बंधुमती को एकांत में बुलाकर उससे पूछा कि हे सखी ! तुम पति को बहुत प्यारी हो, कहो इनकी चतुराई कैसी है ? ॥15॥ भोलीभाली बंधुमती ने चतुर वसुदेव की चेष्टाओं का प्रियंगुसुंदरी के लिए इस ढंग से वर्णन किया कि वह एकदम स्वसंवेद्य सुख से युक्त मोह को प्राप्त हो गयी॥16॥ निदान प्रियंगुसुंदरी ने अभिमान छोड़कर द्वारपाल को यह संदेश देकर वसुदेव के पास भेजा कि या तो हमारे साथ समागम करो या शीघ्र ही हत्या स्वीकृत करो ॥17॥ यह दोनों ही काम अनुचित है यह विचारकर वसुदेव चिंता में पड़ गये । अंत में वे चतुर तो थे ही इसलिए किसी बहाने उन्होंने कुछ समय तक ठहरने का समाचार कहला भेजा ॥18॥ वसुदेव में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसी प्रियंगुसुंदरी को उनकी प्राप्ति की आशा हो गयी और इसी आशा से वह रात्रि के समय शय्या पर अपने मनोरथ को पूर्ण हुआ ही मानने लगी ॥ 19 ॥
एक दिन रात्रि के समय कुमार वसुदेव बंधुमती का गाढ़ आलिंगन कर सो रहे थे कि एक ज्वलनप्रभा नाम की दिव्य नागकन्या ने आकर उन्हें जगा दिया ॥20॥ कुमार जाग गये और शरीर तथा आभूषणों की कांति से जिसने समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर दिया था तथा जिसके सिर पर नाग का चिह्न था ऐसी उस स्त्री को देखकर वे विचार करने लगे कि यह कौन स्त्री यहाँ आयी है? ॥21॥ उसी समय प्रिय वार्तालाप करने में निपुण नागकन्या ने धीर, वीर कुमार को बुलाया और बड़ी विनय के साथ नीतिपूर्वक अशोकवाटिका में ले जाकर कहा कि हे धीर ! निश्चिंत होकर मेरे आने का कारण सुनिए । वह कारण कि जिससे तुम्हारे कान अमृत रस के समान तृप्त हो जावेंगे ॥ 22-23॥
हे धीर वीर कुमार ! चंदनवन नामक नगर में, अमोघ शक्ति का धारक एवं शत्रुमंडल को वश करने वाला अमोघदर्शन नाम का राजा था॥24॥ उसकी चारुमति नाम की स्त्री थी और दोनों के नीति तथा पुरुषार्थ से युक्त नवयौवन से सुशोभित चारुचंद्र नाम का पुत्र था ॥25॥ उसी नगर में कला और गुणों के समूह से सहित एक रंगसेना नाम की वेश्या थी और उसकी कामपताका नाम की पुत्री थी जो सचमुच ही काम की पताका के समान जान पड़ती थी ॥26॥ एक बार धर्म अधर्म के विवेक से रहित राजा अमोघदर्शन ने यज्ञ दीक्षा के लिए प्रवेश किया । उसी समय जटाओं को धारण करने वाले कौशिक आदि ऋषि भी आये ॥27॥ उस यज्ञोत्सव में राजा की आज्ञा से कामपताका ने नृत्य किया । ऐसा नृत्य, कि मनुष्यों के हृदय को हरण करती हुई उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं यथार्थ में काम की पता का ही हूँ ॥28॥ उस नृत्य को देखकर शास्त्रों की निपुणता से युक्त तथा वृक्षों के मूल पत्र और फलों को खाने वाला कौशिक ऋषि भी क्षोभ को प्राप्त हो गया तब अन्य की तो कथा ही क्या थी ? ॥29॥ यज्ञ कार्य समाप्त होने पर राजपुत्र चारुचंद्र ने उस कन्या कामपताका को स्वीकृत कर लिया । उसी समय कौशिक ऋषि के शिष्य कुछ तापस राजा को भक्त जान कन्या की याचना करने के लिए वहाँ आये ॥30॥ जब उन्होंने कौशिक ऋषि के लिए काम पता का की याचना की तब राजा ने कहा कि वह कन्या तो राजकुमार ने विवाह ली है । आप लोग जावें । राजा के इस प्रकार कहने पर वे तापस चले गये ॥31॥ कन्या के न मिलने से कौशिक की आत्मा में बड़ा संक्लेश उत्पन्न हुआ । वह राजा के पास गया और हे राजन् ! तूने मुझे कन्या नहीं दी है इसलिए मैं सर्प बनकर भी तुझे मारूंगा इस प्रकार आक्रोश पूर्ण वचन कहकर चला आया ॥32॥ राजा, कौशिक के आक्रोश पूर्ण वचन सुनकर डर गया इसलिए पुत्र का राज्याभिषेक कर अव्यक्त गर्भ वाली रानी चारुमति के साथ तापस हो गया ॥33 ॥ कुछ समय बाद तापसी चारुमति ने तपस्वियों के आश्रम को सुशोभित करने वाली एवं अनुपम शोभा से सुशोभित ऋषिदत्ता नाम की कन्या को जन्म दिया ॥34॥ कन्या ऋषिदत्ता ने एक बार चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के समीप अणुव्रत धारण किये । धीरे-धीरे उस कन्या ने तरुण पुरुषों के मन और नेत्रों को बाँधने वाला नवयौवन प्राप्त किया ॥35॥ एक समय शांतायुध का पुत्र, लक्ष्मी से सुशोभित एवं शीलायुध नाम से प्रसिद्ध श्रावस्ती का राजा तपस्वियों के उस आश्रम में पहुंचा ॥36॥ उसे देख अकेली ऋषिदत्ता कन्या ने रुचिवर्धक उत्तम आहार देकर उसका अतिथि सत्कार किया । कन्या ऋषिदत्ता सुंदरी तो थी ही उस पर वल्कलों के कारण उसके स्तनों की शोभा और भी अधिक मनोहारिणी हो गयी थी ॥37॥ फल यह हुआ कि अनुपम रूप को धारण करने वाले उन दोनों के प्रेम ने विश्वास की अधिकता में चिरकाल से पाली हुई अपनी-अपनी मर्यादा तोड़ दी ॥38॥ कामपाश से बंधा युवा शीलायुध निःशंक
होकर एकांत में ऋषिदत्ता के पास चला गया और शंकारहित एवं वशीभूत ऋषिदत्ता के साथ उसने इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥39॥ तदनंतर भय से युक्त हो तापसी ऋषिदत्ता ने राजा से कहा कि हे आर्यपुत्र ! मैं ऋतुमती हूं यदि गर्भवती हो गयी तो मुझे क्या करना होगा सो बताओ । इस प्रकार व्याकुल चित्त से युक्त ऋषिदत्ता के पूछने पर शीलायुध ने कहा कि हे प्रिये ! व्याकुल मत होओ । सुनो, मैं शत्रुओं को नष्ट करने वाला, इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न हुआ श्रावस्ती का राजा शीलायुध हूँ । पुत्र के साथ-साथ तुम मुझे अवश्य ही दर्शन देना अर्थात् पुत्र प्रसव के बाद श्रावस्ती आ जाना ॥40-42 ॥ इस प्रकार आश्वासन देकर तथा एकांत में आलिंगन कर विरह से उत्कंठित होता हुआ वह जाने के लिए उद्यत ही था कि इतने में उसकी सेना तपस्वियों के आश्रम में आ पहुंची ॥43॥ सेना को देख राजा बहुत संतुष्ट हुआ और उसके साथ नगरी को लौट आया । तदनंतर राजा के चले जाने पर लोकव्यवहार को जानने वाली ऋषिदत्ता ने लज्जा छोड़कर माता पिता के लिए यह वृत्तांत सुना दिया और कह दिया कि मैं निर्लज्ज राजा शीलायुध की एकांत में पत्नी बन चुकी हूँ और गर्भवती हो गयी हूँ ॥44-45 ॥ तदनंतर नव मास व्यतीत होने पर ऋषिदत्ता ने सुंदर पुत्र उत्पन्न किया जो बिल्कुल पिता के अनुरूप था और ऐसा जान पड़ता था मानो पिता के द्वारा ही प्रकट किया गया हो । प्रसूति के समय ऋषिदत्ता को क्लेश अधिक हुआ था इसलिए वह प्रसूति के बाद ही मर गयी और सम्यग्दर्शन के प्रभाव से ज्वलनप्रभवल्लभा नाम की नागकुमारी उत्पन्न हुई । वही मैं हूँ, मुझे देव पर्याय के कारण भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी प्रकट हुआ है ॥ 46-47॥ इसलिए उससे पूर्वभव की सब बात जानकर दया और स्नेह के वशीभूत हो मैं पिता और पुत्र के तपोवन में गयी । वहाँ शोकसंतप्त माता-पिता को आश्वासन देकर मैंने अपने उस पुत्र को मृगी का रूप रख दूध पिला-पिलाकर बड़ा किया । तदनंतर कौशिक ऋषि का जीव निदान के कारण सर्प हुआ था सो उसने पूर्व वैर के कारण हमारे पिता को डस लिया परंतु मैंने अमोघ मंत्र से उन्हें जीवन प्राप्त करा दिया― अच्छा कर दिया । मेरे पिता यद्यपि जो छूट न सके ऐसे क्रोध से दूषित थे तथापि धर्मोपदेश देकर मैंने उन्हें धर्म ग्रहण करा दिया जिससे वे मरकर उत्तम गति को प्राप्त हुए । तत्पश्चात् तापसी का वेष धारणकर और उस पुत्र को लेकर मैं राजा शीलायुध के पास गयी ॥48-51॥ राजा शीलायुध बड़ी विभूति से युक्त तथा परम नीतिज्ञ था उसे देखकर मैंने कहा कि हे राजेंद्र ! यह राजाओं के लक्षणों से युक्त आपका पुत्र है ॥52॥ यह आपकी मृत स्त्री द्वारा छोड़ा गया है और एणीपुत्र इसका नाम है । इसे आप ग्रहण कीजिए । मेरे इस प्रकार कहने पर राजा शीलायुध ने कहा कि मैं तो पुत्रहीन हूँ । मेरे पुत्र कहाँ से आया ? ॥53 ॥ हे तापसि ! ठीक-ठीक बता यह पुत्र तुझे कैसे प्राप्त हुआ है ? राजा के इस प्रकार पूछने पर मैंने अभिज्ञान-परिचायक घटनाओं के साथ-साथ वह सब वृत्तांत कह दिया ॥54॥ और यह भी कह दिया कि मैं मरकर देवी हुई हूं । मेरे इस कथन पर विश्वास कर राजा शीलायुध ने वह पुत्र ले लिया । पुत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगा और मैं मोहयुक्त पुत्र स्नेह के कारण उसकी निरंतर रक्षा करने लगी । राजा शीलायुध की जो इच्छा होती थी उसकी मैं तत्काल पूर्ति कर देती थी । कदाचित् परम विवेकी राजा शीलायुध, उस एणीपुत्र को अपने राज्य पर पदारूढ़ कर दीक्षा ले मुनि हो गया और मरकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ । पश्चात् राजा एणीपुत्र के प्रियंगु पुष्प के समान श्यामवर्ण, अतिशय रूपवती, प्रियंगुसुंदरी नाम की पुत्री हुई । राजा एणीपुत्र ने उसका स्वयंवर किया परंतु कामभोग से विरक्त उस धैर्यशालिनी ने पृथिवीतल के समस्त राज कुमारों का निराकरण कर दिया अर्थात् किसी के साथ विवाह करना स्वीकृत नहीं किया । तदनंतर जिस दिन से उसने राजमहल में बंधुमती के साथ आपको देखा है उसी दिन से वह काम के बाणों से अत्यंत सशल्य शरीर को धारण कर रही है इसलिए हे वीर ! मेरे कहने से तू उसके साथ समागम कर ॥55-60॥ वह कन्या अदत्ता है किसी के द्वारा दी नहीं गयी है― ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैंने तेरे लिए वह कन्या दी है । इस राजकुल के करने योग्य कार्यों में मैं प्रमाण भूत हूँ अर्थात् समस्त कार्य मेरी ही सम्मति से होते हैं ॥61 ॥ इसलिए मैंने तुझे यह कन्या दी मानो इसके पिता और भाइयों ने ही दी है । अतः कामदेव के मंदिर में तुम दोनों का समागम हो और इसके लिए कल की रात का संकेत निश्चित किया गया है । हे देव ! देवताओं का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता इसलिए आप मुझ से वर माँगकर इस संसार में जो कुछ भी आपको इष्ट हो वह प्राप्त करो । नागकुमारी के इस प्रकार कहने पर वसुदेव ने विनयपूर्ण वचनों द्वारा उससे कहा कि हे अमोघ मुस्कान को धारण करने वाली देवि ! मैं यही वर चाहता हूँ कि जब मैं आपका स्मरण करूं तब आप मेरा ध्यान रखें । वसुदेव के इस प्रकार कहने पर उसने ‘एवमस्तु’ कहा ॥ 62-65 ॥ उक्त वरदान देकर देवी अंतर्हित हो गयी और वसुदेव अपने निवास स्थान पर आ गये । तदनंतर देवी से कहे अनुसार कुमार वसुदेव एकांत पाकर कामदेव के मंदिर में प्रियंगुसुंदरी के पास गये । कुमार को देख प्रियंगुसुंदरी का मुख-कमल खिल उठा और गंधर्व विवाह से उन्होंने उसे स्वीकृत किया ॥66-67॥ उस समय वसुदेव रूपी सूर्य के द्वारा रमण को प्राप्त हुई प्रियंगुसुंदरी कमलिनी के समान सुशोभित हो रही थी । इस प्रकार प्रियंगुसुंदरी के घर में वसुदेव के बहुत दिन निकल गये ॥68॥ तदनंतर परस्पर के प्रेम से बँधे हुए इस दंपति का यह समागम रहस्यपूर्ण रीति से देवी ने कराया है-यह जानकर राजा बहुत संतुष्ट हुआ और उसने लोक में प्रकट करने के लिए उस अनुरूप दंपती का विवाह करा दिया । विवाह के पश्चात् सुंदर वसुदेव सब लोगों की जानकारी में रूप और यौवन के द्वारा मन को हरण करने वाली सुंदरी प्रियंगुसुंदरी के साथ, इंद्राणी के साथ इंद्र के समान रमण करने लगे ॥69-71॥ इस प्रकार जिनकी गुणरूपी संपदाएँ प्रसिद्ध थीं तथा जो गुण और कलाओं के समूह से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी बंधुमती तथा राजपुत्री प्रियंगुसुंदरी एकांतपूर्ण रति गृह में क्रम से जिनकी सेवा करती थीं तथा जो नगरवासियों के द्वारा अत्यंत सम्मान को प्राप्त थे ऐसे कुमार वसुदेव ने जिन-मंदिरों से सुशोभित इस श्रावस्ती नगरी में चिरकाल तक निवास किया ॥72॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में बंधुमती और प्रियंगुसुंदरी के लाभ का वर्णन करने वाला उनतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥29॥।