ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 30
From जैनकोष
अथानंतर कार्तिक की पूर्णिमा के दिन चिरकाल तक क्रीड़ा करने से अतिशय खिन्न कुमार वसुदेव प्रियंगुसुंदरी में प्रगाढ़ भुज बंधन से बंधे सुख की नींद सो रहे थे कि किसी कारण जाग पड़े । जागते ही उन्होंने सामने खड़ी द्वितीय लक्ष्मी के समान अतिशय रूपवती एक कन्या देखी ॥1-2॥ कुमार ने उससे पूछा कि हे कमललोचने ! यहाँ तुम कौन हो ? उत्तर में कन्या ने कहा कि हे कुमार ! थोडी देर बाद मेरा सब वृत्तांत जान लोगे । अभी मेरे साथ आइए― इस प्रकार कुमार को बुलाकर वह कन्या बाहर चली गयी ॥3॥ कुमार भी प्रिया का आलिंगन दूर कर उसके पीछे-पीछे चल दिये । बाहर जाकर वह सुंदर महल के फर्श पर बैठ गयी और अपने आने का कारण इस प्रकार कहने लगी ॥4॥
हे आर्यपुत्र ! हे श्रीमन् ! अपना मन स्थिर कर अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति में कारणभूत मेरे वचन सुनिए ॥ 5 ॥ इस विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के गांधार देश में एक गंध समृद्ध नाम का नगर है उसका स्वामी राजा गंधार है ॥6॥ उसकी पृथिवी नाम की स्त्री है जो उसे पृथिवी के ही समान प्यारी है । मैं उन दोनों की साक्षात लक्ष्मी के समान कांतिमती प्रभावती नाम की पुत्री हूँ ॥7॥ मैं एक दिन मानसवेग के स्वर्णनाभ नामक उत्तम नगर को गयी थी । वहाँ मैंने मानसवेग की माता अंगारवती को जानकर उससे उसकी पुत्री वेगवती का वृत्तांत पूछा ॥8॥ वेगवती की सखियों ने मुझे उसका समाचार बताया और साथ ही यह भी बताया कि जिस प्रकार चंद्रमा के साथ चित्रा नक्षत्र का संगम होता है उसी तरह आपके साथ उसका संगम हुआ है ॥9॥ उसी नगर में शुद्ध शील ही जिसका आभूषण है तथा आपका नाम ग्रहण करना ही जिसका आहार है, ऐसी सोमश्री भी रहती है ॥10॥ जिसकी अलकावली के छोर आपके वियोग जन्य महादुःख से सफेद-सफेद दिखने वाले गालों पर लटक रहे हैं ऐसी आपकी उस सोमश्री प्रिया ने मुझे संदेश लेकर आपके पास भेजा है ॥ 11 ॥ उसने कहलाया है कि हे आर्यपुत्र ! यद्यपि मैं शत्रु को अनुनय विनय के द्वारा अलंघनीय शीलरूपी प्राकार के अंदर सुरक्षित हूँ तथापि इस तरह मुझे यहाँ कितनी देर तक रहना होगा ? ॥12॥ पुत्र को डांटने वाली शत्रु की माता ही मेरी रक्षा कर रही है इसीलिए अब तक जीवित हूँ । हे प्राणनाथ ! इस शत्रु से आप मुझे शीघ्र छुड़ाइए ॥13॥ निरंतर वियोग सहते-सहते कदाचित् मेरी यहीं पर मृत्यु न हो जावे इसलिए हे वीर ! कठोर बुद्धि होकर मेरी उपेक्षा न कीजिए ॥14॥ इस तरह जिसके नेत्र सदा आँसुओं से युक्त रहते हैं ऐसी सोमश्री द्वारा भेजा हुआ संदेश सुनाकर मैं कृत-कृत्य हुई हूँ । अब जो कुछ करना हो वह आप पर निर्भर है आप उसके पति हैं ॥ 15॥ आप यह नहीं सोचिए कि वह पर्वत का स्थान मेरे लिए अगम्य है क्योंकि आपकी इच्छा होते ही मैं निमेष मात्र में आपको वहाँ ले चलूंगी ॥16॥ बुद्धिमान् वसुदेव ने अनेक परिचायक चिह्नों के साथ श्रवण करने योग्य बात को सुनकर उससे कहा कि हे सौम्यवदने ! तुम मुझे शीघ्र ही सोमश्री के घर पहुंचा दो ॥17॥ कुमार को अनुमति पाते ही विद्या के प्रभाव से संपन्न प्रभावती उन्हें लेकर आकाश में उस तरह जा उड़ी जिस तरह मानो बिजली ही कौंध उठी हो ॥18॥ परस्पर के अंग-स्पर्श से जिन्हें रोमांच निकल आये थे ऐसे वे दोनों, आकाश को उल्लंघकर शीघ्र ही स्वर्णनाभपुर नामक उत्तम नगर में जा पहुंचे ॥19॥ तदनंतर जिसका कटिसूत्र और वस्त्र कुछ-कुछ नीचे की ओर खिसक गया था ऐसी प्रभावती ने गुप्त रीति से वसुदेव को सोमश्री के घर जा उतारा । वहाँ पहुंचते ही कुमार ने सोमश्री को देखा ॥20॥ उस समय विरह के कारण सोमश्री की बुरी हालत थी । चारों ओर लटकते हुए बालों से उसके विरहपांडु मुख की शोभा मलिन हो गयी थी इसलिए समीप में भ्रमण करते हुए भौरों से मलिन-कमल से युक्त कमलिनी के समान जान पड़ती थी ॥21॥ वह पति का दर्शन होने की अवधि तक बाँधे हुए वेणी बंधन से युक्त थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो पतले पुल से युक्त नदी ही हो । उसका अधरोष्ठ तांबूल की लालिमा से रहित होने के कारण कुछ-कुछ मटमैला हो गया था इसलिए वह कुछ कुम्हलाये हुए पल्लव को धारण करने वाली स्लानलता के समान जान पड़ती थी ॥ 22-23॥ पति को आया देख जो उठकर खड़ी हो गयी थी तथा जो स्थूल एवं पांडुवर्ण पयोधरों― स्तनों को धारण करने के कारण स्थूल धवल पयोधरों― मेघों को धारण करने वाली शरद् ऋतु की शोभा के समान जान पड़ती थी ऐसी सोमश्री को देखकर कुमार वसुदेव बहुत ही संतुष्ट हुए ॥24॥ जिनके शरीर रोमांचों से कर्कश हो रहे थे ऐसे दोनों ने परस्पर गाढ़ आलिंगन किया, उस समय आलिंगन को प्राप्त हुए दोनों ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनः विरह न हो जाये इस भय से एकरूपता को ही प्राप्त हो गये थे ॥25॥ अच्छी तरह कार्य सिद्ध करने वाली प्राणतुल्य प्रभावती सखी का आलिंगन कर सोमश्री ने मनोहर वचनों द्वारा उसका अभिनंदन किया― मीठे-मीठे वचन कहकर उसे प्रसन्न किया ॥26॥ वसुदेव के आने का रहस्य प्रकट न हो जाये इस विचार से प्रभावती वसुदेव को अपना रूप तथा अपना नाम देकर दोनों दंपती से पूछकर एवं उनसे विदा लेकर अपने स्थान पर चली गयी । भावार्थ― प्रभावती ने अपनी विद्या के प्रभाव से वसुदेव को प्रभावती बना दिया ॥27॥ इस प्रकार परिवर्तित रूप को धारण करने वाले कुमार वसुदेव ने मानसवेग के घर सोमश्री के साथ कितने ही दिन निवास किया ॥28॥
एक दिन सोमश्री पहले जाग गयी और पति― वसुदेव को अपने स्वाभाविक वेष में देख शत्रु के भय से किसी विपत्ति की आशंका करती हुई रोने लगी ॥29॥ इतने में कुमार भी जाग गये और उसे रोती देख पूछने लगे कि हे प्रिये ! किसलिए रोती हो ? सोमश्री ने उत्तर दिया कि आपका रूप परिवर्तित नहीं देख रही हूँ यही मेरे रोने का कारण है ॥30॥ कुमार ने कहा कि डरो मत, विद्याओं का यह स्वभाव है कि वे सोते हुए मनुष्यों के शरीर को छोड़कर पृथक् हो जाती हैं और जागने पर पुनः आ जाती हैं ॥31॥ इस प्रकार कहकर तथा पहले के ही समान रूप बदलकर कुमार वसुदेव प्रिया सोमश्री के साथ वहाँ रहने लगे ॥32॥
तदनंतर एक दिन मानसवेग ने किसी तरह कुमार वसुदेव को देख लिया जिससे कुमार वसुदेव हमारी स्त्री सोमश्री के साथ रूप बदलकर रहता है-यह शिकायत लेकर वह पत्नी के साथ वैजयंती नगरी के राजा बलसिंह के पास गया ॥33॥ राजा बलसिंह न्याय परायण पुरुष था इसलिए जब उसने इस शिकायत की छानबीन की तो मानसवेग हार गया । हार जाने से मानसवेग बहुत ही लज्जित हुआ और वसुदेव के साथ युद्ध करने के लिए उठ खड़ा हुआ ॥34॥ यह देख कितने ही विद्याधर वसुदेव का पक्ष लेकर खड़े हो गये । तदनंतर वसुदेव और मानसवेग का युद्ध हुआ ॥35॥ वेगवती की माता ने जमाई वसुदेव के लिए एक दिव्य धनुष तथा दिव्य बाणों से भरे हुए दो तरकस दे दिये और प्रभावती ने युद्ध का समाचार जानकर शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नाम की विद्या दे दी । उसके प्रभाव से कुमार ने मानसवेग को युद्ध में शीघ्र ही बांध लिया ॥36-37॥ तदनंतर मानसवेग की माता ने कुमार से पुत्रभिक्षा मांगी जिससे दया युक्त हो कुमार ने उसे सोमश्री के पास ले जाकर छोड़ दिया ॥38 ॥ इस घटना से मानसवेग कुमार का गहरा बंधु हो गया और विमान द्वारा सोमश्री सहित वसुदेव को उनके अभीष्ट स्थान महापुर नगर तक पहुंचाने गया ॥39॥ वहाँ पहुंचने पर वसुदेव का सोमश्री के बंधुओं के साथ समागम हो गया और मानसवेग भी उनका आज्ञाकारी हो अपने स्थान पर वापस चला गया ॥40॥ तदनंतर सुनी एवं अनुभवी बातों के प्रश्नोत्तर करना ही जिनका काम शेष था और जिनके चित्त कामरस के अधीन थे ऐसे उन दोनों दंपतियों का समय सुख से व्यतीत होने लगा ॥41 ॥
अथानंतर एक समय कुमार का शत्रु राजा त्रिशिखर का पुत्र सूर्पक अश्व का रूप रखकर कुमार को हर ले गया और आकाश से उसने नीचे गिरा दिया जिससे वे गंगानदी में जा गिरे ॥ 42 ॥ गंगानदी को पधारकर कुमार वसुदेव तापसों के एक आश्रम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने मनुष्यों की हड्डियों का सेहरा धारण करने वाली एक पागल स्त्री को देखकर किसी तापस से पूछा कि यह सुंदरी युवती किसकी स्त्री है जो मदोन्माद के वश हो पागल हस्तिनी के समान इधर-उधर घूम रही है ॥43-44॥ तापस ने कहा कि यह राजा जरासंध की पुत्री केतुमती है और राजा जितशत्रु को विवाही गयी है ॥ 45 ॥ इस बेचारी को एक मंत्रवादी परिव्राजक ने अपने वश कर लिया था वह मर गया इसलिए उसकी हड्डियों के समूह की माला बनाकर यह पृथिवी पर घूमती रहती है ॥ 46 ॥ यह सुनकर वसुदेव को दया उमड़ पड़ी और उन्होंने महामंत्रों के प्रभाव से शीघ्र ही केतुमती के पिशाच का निग्रह कर दिया ॥ 47॥ वहाँ वसुदेव की खोज में जरासंध के आदमी पहले से ही नियुक्त थे इसलिए यद्यपि कुमार उपकारी थे तथापि वे उन्हें घेरकर राजगृह नगर ले गये ॥48॥ उनको ले जाने वाले लोगों से वसुदेव ने पूछा कि हे राजपुरुषो ! बताओ तो सही मैंने राजा का कौन-सा अपराध किया है जिससे मैं इस तरह क्रोध पूर्वक ले जाया जा रहा हूं ॥49॥ इस प्रकार कहने पर राजपुरुष बोले कि जो राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा वह राजा को घात करने वाले शत्रु का पिता होगा ॥ 50॥ इस प्रकार कहकर नीच मनुष्यों से घिरे वसुदेव वधस्थान पर ले जाये गये परंतु वध होने के पहले ही कोई विद्याधर उन्हें झपट कर आकाश में ले गया ॥51॥ उस विद्याधर ने कुमार को संबोधते हुए कहा कि हे वीर ! तुम मुझे प्रभावती का पितामह जानो, भगीरथ मेरा नाम है और तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने वाला हूँ ॥52॥ हे नीतिज्ञ ! मैं तुम्हें प्रभावती के पास लिये जाता हूँ― इस प्रकार मधुर वचन कहता हुआ वह विद्याधर उन्हें विजयार्ध पर्वत पर ले गया ॥53॥ वहाँ पर्वत के मस्तक पर एक गंधसमृद्ध नामक नगर था । उसमें अनेक विद्याधरों से घिरे हुए वसुदेव का उसने बड़े वैभव के साथ प्रवेश कराया ॥54॥ तदनंतर प्रशस्त तिथि और नक्षत्र के योग में प्रभावती के पिता तथा बंधुजनों ने हर्ष से युक्त वसुदेव और प्रभावती का विवाहोत्सव किया ॥55॥ वसुदेव और प्रभावती के हृदय काम के आवेश से पहले ही एक दूसरे के वशीभूत थे । अतः अब वर-वधू बनकर दोनों भोगरूपी सागर में निमग्न हो गये ॥56॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि पापी मनुष्य प्रियजनों के साथ संयोग से प्राप्त हुए अन्य मनुष्य को सदा प्रियजनों से वियुक्त करता है तथापि पूर्वभव में जिनधर्म को धारण करने वाला मनुष्य पूर्व को अपेक्षा सैकड़ों बार अतिशय प्रियजनों के साथ संयोग को प्राप्त होता है ॥57॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में प्रभावती के लाभ का वर्णन करने वाला तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥30॥