अजितनाथ: Difference between revisions
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<p id="3" class="HindiText">(3) वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में दूसरे तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में साकेत नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे । ये ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन सोलह स्वप्नपूर्वक माता के गर्भ में आये और माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी | <p id="3" class="HindiText">(3) वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में दूसरे तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में साकेत नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे । ये ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन सोलह स्वप्नपूर्वक माता के गर्भ में आये और माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी ( हरिवंशपुराण के अनुसार नवमी) प्रजेशयोग में आदिनाथ के मोक्ष जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद अवसर्पिणी काल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्मे थे । <span class="GRef"> महापुराण 2.128, 48.19-26, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>1.4, 60.169, <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-105 </span>जन्मते ही इनके पिता समस्त शत्रुओं के विजेता हुए थे अत: उन्होंने इन्हें इस नाम से संबोधित किया था । सुनयना और नंदा इनकी दो रानियाँ थी । दुर्वादियों से ये अजेय रहे । इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व थी । शारीरिक अवगाहना चार सौ पचास धनुष तथा वर्ण-तपाये हुए स्वर्ण के समान रक्त-पीत था । आयु का चतुर्थांश वीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । ये एक पूर्वांग तक राज्य करते रहे । इसके पश्चात् एक कमलवन को विकसित और म्लान होते हुए देखकर सभी वस्तुओं को अनित्य जानकर ये वैराग्य को प्राप्त हुए थे । इन्होंने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर माघ मास के शुक्लपक्ष की नवमी को अपराह्न में रोहिणी नक्षत्र में निष्क्रमण किया था । ये सुप्रभा नामक पालकी में मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा सहेतुक वन ले जाये गये थे । वहाँ ये एक हजार (पद्मपुराण के अनुसार दस हजार) आज्ञाकारी क्षत्रिय राजाओं के साथ षष्टोपवाम सहित सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षित हुए थे । दीक्षित होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ था । दीक्षोपरांत प्रथम पारणा में साकेत के राजा ब्रह्मदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । बारह वर्ष (पद्मपुराण के अनुसार चौदह वर्ष) छद्मस्थ रहने के बाद पौष अचल एकादशी के दिन सांय वेला तथा रोहिणी नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । ऋषभदेव के समान इनके भी चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे, पादमूल में रहने वाले इनके सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे । समवसरण-सभा में एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ और देव-देवियाँ थीं । इन्होंने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रात:काल प्रतिमायोग से सम्मेदाचल पर मुक्ति प्राप्त की थी । तीर्थंकरत्व की साधना इन्होंने दूसरे पूर्वभव में आरंभ कर दी थी । इस समय ये पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा के विमलवाहन नामक नृप थे । इस पर्याय में इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया था । पूर्वभव में ये विजय नामक अनुत्तर विमान में देव थे और वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 48.3-56, [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#60|पद्मपुराण - 5.60-73]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#212|पद्मपुराण - 5.212]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#246|पद्मपुराण - 5.246]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#18|पद्मपुराण - 20.18-38]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#61|पद्मपुराण -20.61]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#66|पद्मपुराण -20.66-68]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#83|पद्मपुराण -20.83]], [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#113|पद्मपुराण -20.113]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#118|पद्मपुराण -20.118]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#156|हरिवंशपुराण - 60.156-183]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#341|341]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#349|349]], वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक | 2 |
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चिह्न | गज |
पिता | जितशत्रु |
माता | विजयसेना |
वंश | इक्ष्वाकु |
उत्सेध (ऊँचाई) | 450 धनुष |
वर्ण | स्वर्ण |
आयु | 72 लाख पूर्व |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव | विमलवाहन |
---|---|
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे | मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता | महातेज |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर | ” ” सुसीमा |
पूर्व भव की देव पर्याय | विजय |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि | ज्येष्ठ कृष्ण 15 |
---|---|
गर्भ-नक्षत्र | रोहिणी |
गर्भ-काल | ब्रह्ममुहूर्त |
जन्म तिथि | माघ शुक्ल 10 |
जन्म नगरी | अयोध्या |
जन्म नक्षत्र | रोहिणी |
योग | प्रजेशयोग |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण | उल्कापात |
---|---|
दीक्षा तिथि | माघ शुक्ल 9 |
दीक्षा नक्षत्र | रोहिणी |
दीक्षा काल | अपराह्न |
दीक्षोपवास | अष्ट भक्त |
दीक्षा वन | सहेतुक |
दीक्षा वृक्ष | सप्तवर्ण |
सह दीक्षित | 1000 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि | पौष शुक्ल 14 |
---|---|
केवलज्ञान नक्षत्र | रोहिणी |
केवलोत्पत्ति काल | अपराह्न |
केवल स्थान | अयोध्या |
केवल वन | सहेतुक |
केवल वृक्ष | सप्तपर्ण |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल | 1 मास पूर्व |
---|---|
निर्वाण तिथि | चैत्र शुक्ल 5 |
निर्वाण नक्षत्र | भरणी |
निर्वाण काल | पूर्वाह्न |
निर्वाण क्षेत्र | सम्मेद |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार | 11 1/2 योजन |
---|---|
सह मुक्त | 1000 |
पूर्वधारी | 3750 |
शिक्षक | 21600 |
अवधिज्ञानी | 9400 |
केवली | 20000 |
विक्रियाधारी | 20400 |
मन:पर्ययज्ञानी | 12450 |
वादी | 12400 |
सर्व ऋषि संख्या | 100000 |
गणधर संख्या | 90 |
मुख्य गणधर | केसरिसेन |
आर्यिका संख्या | 320000 |
मुख्य आर्यिका | प्रकुब्जा |
श्रावक संख्या | 300000 |
मुख्य श्रोता | सगर |
श्राविका संख्या | 500000 |
यक्ष | महायक्ष |
यक्षिणी | रोहिणी |
आयु विभाग
आयु | 72 लाख पूर्व |
---|---|
कुमारकाल | 18 लाख पूर्व |
विशेषता | मण्डलीक |
राज्यकाल | 53 लाख पूर्व+1 पूर्वांग |
छद्मस्थ काल | 12 वर्ष |
केवलिकाल | 1 लाख पू.–(1 पूर्वांग 12 वर्ष) |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल | 50 लाख करोड़ सागर +12 लाख पू. |
---|---|
केवलोत्पत्ति अन्तराल | 30 लाख करोड़ सागर +3 पूर्वांग 2 वर्ष |
निर्वाण अन्तराल | 30 लाख करोड़ सागर |
तीर्थकाल | 30 लाख करोड़ सागर +3 पूर्वांग |
तीर्थ व्युच्छित्ति | ❌ |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष | |
चक्रवर्ती | सगर |
बलदेव | ❌ |
नारायण | ❌ |
प्रतिनारायण | ❌ |
रुद्र | जितशत्रु |
( महापुराण सर्ग संख्या 48/श्लोक) पूर्वभव नं. 3 में विदेह क्षेत्र के सुसीमा नगर का विमलवाहन नामक राजा था (2-4); पूर्वभव नं. 2 में अनुत्तर विमान में देव हुआ (13); वर्तमान भव - देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
(3) वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में दूसरे तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में साकेत नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे । ये ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन सोलह स्वप्नपूर्वक माता के गर्भ में आये और माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी ( हरिवंशपुराण के अनुसार नवमी) प्रजेशयोग में आदिनाथ के मोक्ष जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद अवसर्पिणी काल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्मे थे । महापुराण 2.128, 48.19-26, हरिवंशपुराण 1.4, 60.169, वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-105 जन्मते ही इनके पिता समस्त शत्रुओं के विजेता हुए थे अत: उन्होंने इन्हें इस नाम से संबोधित किया था । सुनयना और नंदा इनकी दो रानियाँ थी । दुर्वादियों से ये अजेय रहे । इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व थी । शारीरिक अवगाहना चार सौ पचास धनुष तथा वर्ण-तपाये हुए स्वर्ण के समान रक्त-पीत था । आयु का चतुर्थांश वीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । ये एक पूर्वांग तक राज्य करते रहे । इसके पश्चात् एक कमलवन को विकसित और म्लान होते हुए देखकर सभी वस्तुओं को अनित्य जानकर ये वैराग्य को प्राप्त हुए थे । इन्होंने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर माघ मास के शुक्लपक्ष की नवमी को अपराह्न में रोहिणी नक्षत्र में निष्क्रमण किया था । ये सुप्रभा नामक पालकी में मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा सहेतुक वन ले जाये गये थे । वहाँ ये एक हजार (पद्मपुराण के अनुसार दस हजार) आज्ञाकारी क्षत्रिय राजाओं के साथ षष्टोपवाम सहित सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षित हुए थे । दीक्षित होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ था । दीक्षोपरांत प्रथम पारणा में साकेत के राजा ब्रह्मदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । बारह वर्ष (पद्मपुराण के अनुसार चौदह वर्ष) छद्मस्थ रहने के बाद पौष अचल एकादशी के दिन सांय वेला तथा रोहिणी नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । ऋषभदेव के समान इनके भी चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे, पादमूल में रहने वाले इनके सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे । समवसरण-सभा में एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ और देव-देवियाँ थीं । इन्होंने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रात:काल प्रतिमायोग से सम्मेदाचल पर मुक्ति प्राप्त की थी । तीर्थंकरत्व की साधना इन्होंने दूसरे पूर्वभव में आरंभ कर दी थी । इस समय ये पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा के विमलवाहन नामक नृप थे । इस पर्याय में इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया था । पूर्वभव में ये विजय नामक अनुत्तर विमान में देव थे और वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर हुए थे । महापुराण 48.3-56, पद्मपुराण - 5.60-73, पद्मपुराण - 5.212, पद्मपुराण - 5.246, पद्मपुराण - 20.18-38, पद्मपुराण -20.61,पद्मपुराण -20.66-68, पद्मपुराण -20.83, पद्मपुराण -20.113,पद्मपुराण -20.118, हरिवंशपुराण - 60.156-183, 341, 349, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105