देव: Difference between revisions
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<p class="HindiText">श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुतकेवली) के पश्चात् दसवें ११ अंग व १० पूर्व के धारी हुए। आपका अपर नाम गंगदेव था। समय–वी.नि./३१५-३२९ (ई.पू.२११-१९७)– देखें - [[ इतिहास#4.4 | इतिहास / ४ / ४ ]]।<br /> | <p class="HindiText">श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुतकेवली) के पश्चात् दसवें ११ अंग व १० पूर्व के धारी हुए। आपका अपर नाम गंगदेव था। समय–वी.नि./३१५-३२९ (ई.पू.२११-१९७)– देखें - [[ इतिहास#4.4 | इतिहास / ४ / ४ ]]।<br /> | ||
<strong>देव</strong>―देव शब्द का प्रयोग वीतरागी भगवान् अर्थात् अर्हंत सिद्ध के लिए तथा देव गति के संसारी जीवों के लिए होता है। अत: कथन के प्रसंग को देखकर देव शब्द का अर्थ करना चाहिए। इनके अतिरिक्त पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र तथा तीर्थक्षेत्र ये नौ देवता माने गये हैं। देवगति के देव चार प्रकार के होते हैं–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी व स्वर्गवासी। इन सभी के इन्द्र सामानिक आदि दश | <strong>देव</strong>―देव शब्द का प्रयोग वीतरागी भगवान् अर्थात् अर्हंत सिद्ध के लिए तथा देव गति के संसारी जीवों के लिए होता है। अत: कथन के प्रसंग को देखकर देव शब्द का अर्थ करना चाहिए। इनके अतिरिक्त पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र तथा तीर्थक्षेत्र ये नौ देवता माने गये हैं। देवगति के देव चार प्रकार के होते हैं–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी व स्वर्गवासी। इन सभी के इन्द्र सामानिक आदि दश श्रेणियाँ होती हैं। देवों के चारों भेदों का कथन तो उन उनके नाम के अन्तर्गत किया गया है, यहाँ तो देव सामान्य तथा उनके सामान्य भेदों का परिचय दिया जाता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवायु के बन्ध योग्य परिणाम– देखें - [[ आयु#3 | आयु / ३ ]]।<br /> | <li class="HindiText"> देवायु के बन्ध योग्य परिणाम– देखें - [[ आयु#3 | आयु / ३ ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवायु की बन्ध, उदय, सत्त्वादि | <li class="HindiText"> देवायु की बन्ध, उदय, सत्त्वादि प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> बद्धायुष्कों को देवायु बन्ध में ही व्रत होने सम्भव हैं– देखें - [[ आयु#6.7 | आयु / ६ / ७ ]]।<br /> | <li class="HindiText"> बद्धायुष्कों को देवायु बन्ध में ही व्रत होने सम्भव हैं– देखें - [[ आयु#6.7 | आयु / ६ / ७ ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवगति की बन्ध, उदय, सत्त्वादि | <li class="HindiText"> देवगति की बन्ध, उदय, सत्त्वादि प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवगति में उद्योत कर्म का अभाव– देखें - [[ उदय#5 | उदय / ५ ]]।<br /> | <li class="HindiText"> देवगति में उद्योत कर्म का अभाव– देखें - [[ उदय#5 | उदय / ५ ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवगति के गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी २० | <li class="HindiText"> देवगति के गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ–देखें - [[ सत् | सत् । ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवगति सम्बन्धी सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ | <li class="HindiText"> देवगति सम्बन्धी सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कौन देव मरकर | <li class="HindiText"> कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे– देखें - [[ जन्म#6 | जन्म / ६ ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.1" id="I.1.1"> देव का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.1.1" id="I.1.1"> देव का लक्षण</strong></span><br /> | ||
र.क.श्रा./मू.५ <span class="SanskritGatha">आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।५। </span>=<span class="HindiText">नियम से वीतराग, सर्वज्ञ और आगम का ईश ही आप्त होता है, निश्चय करके किसी अन्य प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता।५। (ज.प./१३/८४/९५)।</span><br /> | र.क.श्रा./मू.५ <span class="SanskritGatha">आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।५। </span>=<span class="HindiText">नियम से वीतराग, सर्वज्ञ और आगम का ईश ही आप्त होता है, निश्चय करके किसी अन्य प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता।५। (ज.प./१३/८४/९५)।</span><br /> | ||
बो.पा./मू./२४-२५<span class="PrakritText"> सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च। सो देह जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वज्ज।२४।...देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं।२५।</span>=<span class="HindiText">जो धन, धर्म, भोग और मोक्ष का कारण ज्ञान को देवे सो देव है। | बो.पा./मू./२४-२५<span class="PrakritText"> सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च। सो देह जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वज्ज।२४।...देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं।२५।</span>=<span class="HindiText">जो धन, धर्म, भोग और मोक्ष का कारण ज्ञान को देवे सो देव है। तहाँ ऐसा न्याय है जो जाकै वस्तु होय सो देवे अर जाकै जो वस्तु न होय सो कैसे दे, इस न्यायकरि अर्थ, धर्म, स्वर्ग के भोग अर मोक्ष का कारण जो प्रव्रज्या जाकै होय सो देव है।२४। बहुरि देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा है सो भव्य जीवनिकै उदय का करने वाला है।</span><br /> | ||
का.अ./मू./३०२<span class="PrakritGatha"> जो जाणदि पच्चक्खं तियाल-गुण-पच्चएहिं संजुत्तं। लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो।३०२। </span>=<span class="HindiText">जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ देव है।</span><br /> | का.अ./मू./३०२<span class="PrakritGatha"> जो जाणदि पच्चक्खं तियाल-गुण-पच्चएहिं संजुत्तं। लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो।३०२। </span>=<span class="HindiText">जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ देव है।</span><br /> | ||
का.अ./टी./१/१/१५ <span class="SanskritText">दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देव:, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति इति देव:, वा दीव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देव: अर्हन्, वा दीव्यति धर्मव्यवहारं विदधाति देव:, वा दीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति वचनात्, इति देव:, सिद्धपरमेष्ठी वा दीव्यति स्तौति स्वचिद्रूपमिति देव: सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् ।</span>=<span class="HindiText">देव शब्द ‘दिव’ धातु से बना है, और ‘दिव्’ धातु के ‘क्रीड़ा करना’ ‘जय की इच्छा करना’ आदि अनेक अर्थ होते हैं। अत: जो परमसुख में क्रीड़ा करता है सो देव है, या जो कर्मों को जीतने की इच्छा करता है वह देव है, अथवा जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेज से देदीप्यमान होता है वह देव है जैसे–अर्हन्त परमेष्ठी। अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, वह देव है। अथवा जो लोक अलोक को जानता है, वह देव है जैसे सिद्ध परमेष्ठी। अथवा जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है वह देव है जैसे–आचार्य, उपाध्याय, साधु।</span><br /> | का.अ./टी./१/१/१५ <span class="SanskritText">दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देव:, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति इति देव:, वा दीव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देव: अर्हन्, वा दीव्यति धर्मव्यवहारं विदधाति देव:, वा दीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति वचनात्, इति देव:, सिद्धपरमेष्ठी वा दीव्यति स्तौति स्वचिद्रूपमिति देव: सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् ।</span>=<span class="HindiText">देव शब्द ‘दिव’ धातु से बना है, और ‘दिव्’ धातु के ‘क्रीड़ा करना’ ‘जय की इच्छा करना’ आदि अनेक अर्थ होते हैं। अत: जो परमसुख में क्रीड़ा करता है सो देव है, या जो कर्मों को जीतने की इच्छा करता है वह देव है, अथवा जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेज से देदीप्यमान होता है वह देव है जैसे–अर्हन्त परमेष्ठी। अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, वह देव है। अथवा जो लोक अलोक को जानता है, वह देव है जैसे सिद्ध परमेष्ठी। अथवा जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है वह देव है जैसे–आचार्य, उपाध्याय, साधु।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्म भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वस्तु के ज्ञान सामान्य की अपेक्षा दोनों एक है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्म भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वस्तु के ज्ञान सामान्य की अपेक्षा दोनों एक है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> केवल एक ज्ञान के अवस्था भेद से भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञान में उपाधिकृत अवस्था भेद से भेद माना जावे तो निर्मल और मलिन दशा को प्राप्त दर्पण में भी भेद मानना पड़ेगा। </span></li> | <li><span class="HindiText"> केवल एक ज्ञान के अवस्था भेद से भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञान में उपाधिकृत अवस्था भेद से भेद माना जावे तो निर्मल और मलिन दशा को प्राप्त दर्पण में भी भेद मानना पड़ेगा। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में अवयव और अवयवीजन्य भेद भी नहीं है, क्योंकि अवयव अवयवी से सर्वथा अलग नहीं रहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>–पूर्णता को प्राप्त रत्नों को ही देव माना जा सकता है, रत्नों के एकदेश को देव नहीं माना जा सकता ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, रत्नों के एक देश में देवपना का अभाव मान लेने पर रत्नों की समग्रता (पूर्णता) में भी देवपना नहीं बन सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश हैं ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि का अग्निसमूह का कार्य एक कण से भी देखा जाता है, उसी प्रकार | <li><span class="HindiText"> इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में अवयव और अवयवीजन्य भेद भी नहीं है, क्योंकि अवयव अवयवी से सर्वथा अलग नहीं रहते हैं। <strong>प्रश्न</strong>–पूर्णता को प्राप्त रत्नों को ही देव माना जा सकता है, रत्नों के एकदेश को देव नहीं माना जा सकता ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, रत्नों के एक देश में देवपना का अभाव मान लेने पर रत्नों की समग्रता (पूर्णता) में भी देवपना नहीं बन सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश हैं ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि का अग्निसमूह का कार्य एक कण से भी देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी समझना चाहिए। इसलिए आचार्यादिक भी देव हैं, यह बात निश्चित हो जाती है। (ध.९/४,१,१/११/१)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.2" id="II.2.2"> कन्दर्प आदि देव नीच देव हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.2" id="II.2.2"> कन्दर्प आदि देव नीच देव हैं</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./६३<span class="PrakritGatha"> कंदप्पमाभिजोग्गं किव्विस संमोहमासुरंतं च। ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति।६३।</span> =<span class="HindiText">मृत्यु के समय सम्यक्त्व का विनाश होने से कंदर्प, आभियोग्य, कैल्विष, संमोह और आसुर–ये | मू.आ./६३<span class="PrakritGatha"> कंदप्पमाभिजोग्गं किव्विस संमोहमासुरंतं च। ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति।६३।</span> =<span class="HindiText">मृत्यु के समय सम्यक्त्व का विनाश होने से कंदर्प, आभियोग्य, कैल्विष, संमोह और आसुर–ये पाँच देव दुर्गतियाँ होती हैं।६३।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.3" id="II.2.3"> सर्व देव नियम से जिनेन्द्र पूजन करते हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.3" id="II.2.3"> सर्व देव नियम से जिनेन्द्र पूजन करते हैं</strong></span><br /> | ||
ति.प./३/२२८-२२९<span class="PrakritGatha"> णिस्सेसकम्मक्खवणेक्कहेदुं मण्णंतया तत्थ जिणिंदपूजं। सम्मत्तविरया कुव्वंति णिच्च देवा महाणंतविसोहिपुव्वं।२२८। कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण। मिच्छाजुदा ते य जिणिंदपूजं भत्तीए णिच्चं णियमा कुणंति।२२९। </span>=<span class="HindiText"> | ति.प./३/२२८-२२९<span class="PrakritGatha"> णिस्सेसकम्मक्खवणेक्कहेदुं मण्णंतया तत्थ जिणिंदपूजं। सम्मत्तविरया कुव्वंति णिच्च देवा महाणंतविसोहिपुव्वं।२२८। कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण। मिच्छाजुदा ते य जिणिंदपूजं भत्तीए णिच्चं णियमा कुणंति।२२९। </span>=<span class="HindiText">वहाँ पर अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजा को समस्त कर्मों के क्षय करने में अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणी विशुद्धि पूर्वक उसे करते हैं।२२८। पुराने देवों के उपदेश से मिथ्यादृष्टि देव भी जिन प्रतिमाओं को कुलाधिदेवता मानकर नित्य ही नियम से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रार्चन करते हैं।२२९। (ति.प./८/५८८-५८९); (त्रि.सा./५५२-५५३)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.4" id="II.2.4"> देवों के शरीर की दिव्यता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.4" id="II.2.4"> देवों के शरीर की दिव्यता</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.6" id="II.2.6"> देवों के रोग नहीं होता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.6" id="II.2.6"> देवों के रोग नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
ति.प./३/२०९ <span class="PrakritGatha">वण्णरसगंधफासे अइसयवेकुव्वदिव्वखंदा हि। णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण।२०९।</span> =<span class="HindiText"> | ति.प./३/२०९ <span class="PrakritGatha">वण्णरसगंधफासे अइसयवेकुव्वदिव्वखंदा हि। णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण।२०९।</span> =<span class="HindiText">चूँकि वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श के विषय में अतिशय को प्राप्त वैक्रियक दिव्य स्कन्ध होते हैं, इसलिए इन देवों के कर्म के प्रभाव से रोग आदि की उपस्थिति नहीं होती।२०९। (ति.प./८/५६९)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.7" id="II.2.7"> देवगति में सुख व दु:ख निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.7" id="II.2.7"> देवगति में सुख व दु:ख निर्देश</strong></span><br /> | ||
ति.प./३/१४१-२३८<span class="PrakritGatha"> चमरिंदो सोहम्मे ईसदि वइरोयणो य ईसाणे। भूदाणंदे वेणू धरणाणंदम्मि वेणुधारि त्ति।१४१। एदे अट्ठ सुरिंदा अण्णोण्णं बहुविहाओ भूदीओ। दट्ठूण मच्छरेणं ईसंति सहावदो केई।१४२। विविहरतिकरणभाविदविसुद्धबुद्धीहि दिव्वरूवेहिं। णाणविकुव्वणंबहुविलाससंपत्तिजुत्ताहिं।२३१। मायाचारविवज्जिदपकिदिपसण्णाहिं अच्छाराहिं समं। णियणियविभूदिजोग्गं संकप्पवसंगदं सोक्खं।२३२। पडुपडहप्पहुदींहि सत्तसराभरणमहुरगीदेहिं। वरललितणच्चणेहिं देवा भुंजंति उवभोग्गं।२३३। ओहिं पि विजाणंतो अण्णोण्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा। कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण याणंति।२३४। वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे। कालागुरुगंधड्ढे रागणिधाणे रमंति सुरा।२३५। सयणाणि आसणण्णिं मउवाणि विचित्तरूवरइदाणिं। तणुमणवयणाणंदगजणणाणिं होंति देवाणं।२३६। फासरसरूवसद्धुणिगंधेहिं वढ्ढियाणि सोक्खाणिं। उवभुंजंता देवा तित्तिं ण लहंति णिमिसंपि।२३। दीवेसु णदिंदेसुं भोगखिदीए वि णंदणवणेसुं। वरपोक्खरिणीं पुलिणत्थलेषु कीडंति राएण।२३८।</span> =<span class="HindiText">चमरेन्द्र सौधर्म से ईर्षा करता है, वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानन्द से और वेणुधारी धरणानन्द से। इस प्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से, व कितने ही स्वभाव से ईर्षा करते हैं।१४१-१४२।<br /> | ति.प./३/१४१-२३८<span class="PrakritGatha"> चमरिंदो सोहम्मे ईसदि वइरोयणो य ईसाणे। भूदाणंदे वेणू धरणाणंदम्मि वेणुधारि त्ति।१४१। एदे अट्ठ सुरिंदा अण्णोण्णं बहुविहाओ भूदीओ। दट्ठूण मच्छरेणं ईसंति सहावदो केई।१४२। विविहरतिकरणभाविदविसुद्धबुद्धीहि दिव्वरूवेहिं। णाणविकुव्वणंबहुविलाससंपत्तिजुत्ताहिं।२३१। मायाचारविवज्जिदपकिदिपसण्णाहिं अच्छाराहिं समं। णियणियविभूदिजोग्गं संकप्पवसंगदं सोक्खं।२३२। पडुपडहप्पहुदींहि सत्तसराभरणमहुरगीदेहिं। वरललितणच्चणेहिं देवा भुंजंति उवभोग्गं।२३३। ओहिं पि विजाणंतो अण्णोण्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा। कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण याणंति।२३४। वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे। कालागुरुगंधड्ढे रागणिधाणे रमंति सुरा।२३५। सयणाणि आसणण्णिं मउवाणि विचित्तरूवरइदाणिं। तणुमणवयणाणंदगजणणाणिं होंति देवाणं।२३६। फासरसरूवसद्धुणिगंधेहिं वढ्ढियाणि सोक्खाणिं। उवभुंजंता देवा तित्तिं ण लहंति णिमिसंपि।२३। दीवेसु णदिंदेसुं भोगखिदीए वि णंदणवणेसुं। वरपोक्खरिणीं पुलिणत्थलेषु कीडंति राएण।२३८।</span> =<span class="HindiText">चमरेन्द्र सौधर्म से ईर्षा करता है, वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानन्द से और वेणुधारी धरणानन्द से। इस प्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से, व कितने ही स्वभाव से ईर्षा करते हैं।१४१-१४२।<br /> | ||
(त्रि.सा./२१२); (भ.आ./मू./१५९८-१६०१) वे देव विविध रति के प्रकटीकरण में चतुर, दिव्यरूपों से युक्त, नाना प्रकार की विक्रिया व बहुत विलास सम्पत्ति से सहित...स्वभाव से प्रसन्न रहने वाली ऐसी अप्सराओं के साथ अपनी-अपनी विभूति के योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले उत्तम पटह आदि वादित्र...एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्य का उपभोग करते हैं।२३१-२३३।...कामांध होकर बीते हुए समय को भी नहीं जानते हैं।...सुगन्ध से व्याप्त राग स्थान भूत प्रासाद में रमण करते हैं।२३४-२३५। देवों के शयन और आसन मृदुल, विचित्र रूप से रचित, शरीर एवं मन को आनन्दोत्पादक होते हैं।२३६। ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंध से वृद्धि को प्राप्त हुए सुखों को अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते हैं।२३७। ये कुमारदेव राग से द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा नदियों के तटस्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं।२३८। </span><br /> | (त्रि.सा./२१२); (भ.आ./मू./१५९८-१६०१) वे देव विविध रति के प्रकटीकरण में चतुर, दिव्यरूपों से युक्त, नाना प्रकार की विक्रिया व बहुत विलास सम्पत्ति से सहित...स्वभाव से प्रसन्न रहने वाली ऐसी अप्सराओं के साथ अपनी-अपनी विभूति के योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले उत्तम पटह आदि वादित्र...एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्य का उपभोग करते हैं।२३१-२३३।...कामांध होकर बीते हुए समय को भी नहीं जानते हैं।...सुगन्ध से व्याप्त राग स्थान भूत प्रासाद में रमण करते हैं।२३४-२३५। देवों के शयन और आसन मृदुल, विचित्र रूप से रचित, शरीर एवं मन को आनन्दोत्पादक होते हैं।२३६। ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंध से वृद्धि को प्राप्त हुए सुखों को अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते हैं।२३७। ये कुमारदेव राग से द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा नदियों के तटस्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं।२३८। </span><br /> | ||
त्रि.सा./२१९ <span class="PrakritGatha">अट्ठगुणिढ्ढिविसिट्ठ णाणामणि भूसणेही दित्तंगा। भुंजंति भोगमिट्ठं सग्गपुव्वतवेण तत्थ सुरा।२१९।</span> (ति.प./८/५९०-५९४)। =<span class="HindiText"> | त्रि.सा./२१९ <span class="PrakritGatha">अट्ठगुणिढ्ढिविसिट्ठ णाणामणि भूसणेही दित्तंगा। भुंजंति भोगमिट्ठं सग्गपुव्वतवेण तत्थ सुरा।२१९।</span> (ति.प./८/५९०-५९४)। =<span class="HindiText">तहाँ जे देव हैं ते अणिमा, महिमादि आठ गुण ऋद्धि करि विशिष्ट हैं, अर नाना प्रकार मणिका आभूषणनि करि प्रकाशमान हैं अंग जिनका ऐसै हैं। ते अपना पूर्व कीया तप का फल करि इष्ट भोगों को भोगवैं हैं।२१९।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.2.8" id="II.2.8"> देवों के गमनागमन में उनके शरीर सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.2.8" id="II.2.8"> देवों के गमनागमन में उनके शरीर सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.1" id="II.3.1"> देवगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.1" id="II.3.1"> देवगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व</strong></span><br /> | ||
ष.खं.१/१,१/सू.१६६-१७१/४०५<span class="PrakritText"> देवा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।१६६। एवं जाव उवरिम-गेवेज्ज-विमाण-वासिय-देवा त्ति।१६७। देवा असंजदसम्माइट्ठिठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठि त्ति।१६८। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ च सोधम्मीसाण-कप्पवासीय-देवीओ च असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि अवसेसियाओ अत्थि।१६९। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम-गेवज्ज-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७०। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजिदसवट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७१। </span>=<span class="HindiText">देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६६। इस प्रकार उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम पटल तक जानना चाहिए।१६७। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६८। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी | ष.खं.१/१,१/सू.१६६-१७१/४०५<span class="PrakritText"> देवा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।१६६। एवं जाव उवरिम-गेवेज्ज-विमाण-वासिय-देवा त्ति।१६७। देवा असंजदसम्माइट्ठिठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठि त्ति।१६८। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ च सोधम्मीसाण-कप्पवासीय-देवीओ च असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि अवसेसियाओ अत्थि।१६९। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम-गेवज्ज-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७०। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजिदसवट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७१। </span>=<span class="HindiText">देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६६। इस प्रकार उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम पटल तक जानना चाहिए।१६७। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६८। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ और सौधर्म तथा ईशान कल्पवासी देवियाँ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं या नही होती हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं या होती हैं।१६९। सौधर्म और ऐशान कल्प से लेकर उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम भाग तक रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदग सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१७०। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त और जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तरों में रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१७१।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.2" id="II.3.2"> देवगति में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.2" id="II.3.2"> देवगति में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong></span><br /> | ||
ष.खं./१/१,१/सू./<span class="PrakritText">पृष्ठ देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति। (२८/२२५) देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९४। सम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा प्पज्जत्ता।९५। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ सोधम्मी-साण-कप्पवासिय-देवीओ च मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता, सिया पज्जत्तिओ सिया अपज्जत्तिओ।९६। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे णियमा पज्जत्त णियमा पज्जत्तियाओ।९७। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम गेवज्जं ति विमाणवासिय-देवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९८ सम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।९९। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजितसव्वट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।१००। (९४-१००/३३५)</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं।२८। देव मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।९४। देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।९५। भवनवासी वाणव्यंतर और ज्योतिषी देव और उनकी | ष.खं./१/१,१/सू./<span class="PrakritText">पृष्ठ देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति। (२८/२२५) देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९४। सम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा प्पज्जत्ता।९५। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ सोधम्मी-साण-कप्पवासिय-देवीओ च मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता, सिया पज्जत्तिओ सिया अपज्जत्तिओ।९६। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे णियमा पज्जत्त णियमा पज्जत्तियाओ।९७। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम गेवज्जं ति विमाणवासिय-देवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९८ सम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।९९। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजितसव्वट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।१००। (९४-१००/३३५)</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं।२८। देव मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।९४। देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।९५। भवनवासी वाणव्यंतर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ ये सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी।९६। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त देव नियम से पर्याप्तक होते हैं (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/९) और पूर्वोक्त देवियाँ नियम से पर्याप्त होती हैं।९७। सौधर्म और ईशान स्वर्ग से लेकर उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम भाग तक विमानवासी देवों सम्बन्धी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।९८। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियम से पर्याप्त होते हैं।९९। नव अनुदिश में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।१००। [इन विमानों में केवल असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, शेष नहीं। ध.३/१,२,७२/२८२/१], (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/८)।</span><br /> | ||
ध.४/१,५,२९३/४६३/९ <span class="PrakritText">अंतोमुहूत्तूणड्ढाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावादो। </span>=<span class="HindiText">अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टिदेव के मिथ्यात्व में जाने की सम्भावना का अभाव है।<br /> | ध.४/१,५,२९३/४६३/९ <span class="PrakritText">अंतोमुहूत्तूणड्ढाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावादो। </span>=<span class="HindiText">अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टिदेव के मिथ्यात्व में जाने की सम्भावना का अभाव है।<br /> | ||
गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/१ का भावार्थ–सासादन गुणस्थान में भवनत्रिकादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त के देव पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी होते हैं।<br /> | गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/१ का भावार्थ–सासादन गुणस्थान में भवनत्रिकादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त के देव पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी होते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.3" id="II.3.3"> अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.3" id="II.3.3"> अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है</strong></span><br /> | ||
ध.२/१,१/५५९/४ <span class="PrakritText">देवासंजदसम्माइट्ठीणं कधमपज्जत्तेकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। वुच्चदे―वेदगसम्मत्तमुवसामिय उवसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरियपमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उवसमसम्माइट्ठि-ट्ठाणेहिं मज्झिमतेउलेस्सं परिणमिय कालं काऊण सोधम्मीसाण-देवेसुप्पण्णाणं अपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। अध ते चेव... | ध.२/१,१/५५९/४ <span class="PrakritText">देवासंजदसम्माइट्ठीणं कधमपज्जत्तेकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। वुच्चदे―वेदगसम्मत्तमुवसामिय उवसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरियपमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उवसमसम्माइट्ठि-ट्ठाणेहिं मज्झिमतेउलेस्सं परिणमिय कालं काऊण सोधम्मीसाण-देवेसुप्पण्णाणं अपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। अध ते चेव...सणक्कुमारमाहिंदेखें - [[ बह्म | बह्म ]]-बह्मोत्तर-लांतव-काविट्ठ-सुक्क-महासुक्क...सदारसहस्सारदेवेसु उप्पज्जंति। अध उवसमसेढिं चढिय पुणो दिण्णा चेव मज्झिम-सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चुद-णवगेवज्जविमाणवासिय देवेसुप्पज्जति। पुणो ते चेव उक्कस्स-सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिसपंचाणुत्तरविमाणदेवेसुप्पज्जंति। तेण सोधम्मादि-उवरिमसव्वदेवासंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि त्ति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व कैसे पाया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–वेदक सम्यक्त्व को उपशमा करके और उपशम श्रेणी पर चढ़कर फिर वहाँ से उतरकर प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, असंयत, संयतासंयत, उपशम सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों के मध्यम तेजोलेश्या को परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के अपर्याप्त काल में औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव (यथायोग्य उत्तरोत्तर विशुद्ध लेश्या से मरण करें तो) सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणी पर चढ़ करके और पुन: उतर करके मध्य शुक्ल लेश्या से परिणत होते हुए यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या को परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो उपशम सम्यक्त्व के साथ नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण सौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊपर के सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। (स.सि./१/७/२३/७)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.4" id="II.3.4"> अनुदिशादि विमानों में पर्याप्तावस्था में भी उपशम सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br>ध.२/१,१/५६६/१<span class="PrakritText"> केण कारणेण (अनुदिशादिसु) उवसमसम्मत्तं णत्थि। वुच्चदे–तत्थ ट्ठिदा देवा ण ताव वउसमसम्मत्तं पडिवज्जंति तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो। भवदु णाम मिच्छाइट्ठीणमभावो उवसमसम्मत्तं पि तत्थ ट्ठिदा देवा पडिवज्जंति को तत्थ विरोधो। इदि ण ‘अणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं’ इदि अणेण पाहुडसुत्तेण सह विरोहादो। ण तत्थ ट्ठिद-वेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति मणुसगदि-वदिरित्तण्णगदीसु वेदगसम्माइट्ठिजीवाणं दंसणमोहुवसमणहेदु परिणामाभावादो। ण य वेदगसम्माइट्ठित्तं पडि मणुस्सेहिंतो विसेसाभावादो मणुस्साणं च दंसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहिं तत्थ णियमेण होदव्वं मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमा-रूहणजोगत्तणेहिं भेददंसणादो। उवसम-सेढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देसेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेंति तत्थ तणुवसमसम्मत्तकालोदो छ-पज्जत्तीणं समाणकालस्स बहुत्तुवलंभादो। तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमत्थि त्ति सिद्धं। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–नौ अनुदिश और | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.4" id="II.3.4"> अनुदिशादि विमानों में पर्याप्तावस्था में भी उपशम सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br>ध.२/१,१/५६६/१<span class="PrakritText"> केण कारणेण (अनुदिशादिसु) उवसमसम्मत्तं णत्थि। वुच्चदे–तत्थ ट्ठिदा देवा ण ताव वउसमसम्मत्तं पडिवज्जंति तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो। भवदु णाम मिच्छाइट्ठीणमभावो उवसमसम्मत्तं पि तत्थ ट्ठिदा देवा पडिवज्जंति को तत्थ विरोधो। इदि ण ‘अणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं’ इदि अणेण पाहुडसुत्तेण सह विरोहादो। ण तत्थ ट्ठिद-वेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति मणुसगदि-वदिरित्तण्णगदीसु वेदगसम्माइट्ठिजीवाणं दंसणमोहुवसमणहेदु परिणामाभावादो। ण य वेदगसम्माइट्ठित्तं पडि मणुस्सेहिंतो विसेसाभावादो मणुस्साणं च दंसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहिं तत्थ णियमेण होदव्वं मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमा-रूहणजोगत्तणेहिं भेददंसणादो। उवसम-सेढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देसेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेंति तत्थ तणुवसमसम्मत्तकालोदो छ-पज्जत्तीणं समाणकालस्स बहुत्तुवलंभादो। तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमत्थि त्ति सिद्धं। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों के पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व किस कारण से नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–वहाँ पर विद्यमान देव तो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>–भले ही वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहाँ रहने वाले देव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करें तो, इसमें क्या विरोध है? <strong>उत्तर</strong>–</span> | ||
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<li><span class="HindiText"> ‘अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के भाज्य है’ इस कषायप्राभृत के गाथासूत्र के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> ‘अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के भाज्य है’ इस कषायप्राभृत के गाथासूत्र के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि कहा जाये कि | <li><span class="HindiText"> यदि कहा जाये कि वहाँ रहने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनुष्यगति के सिवाय अन्य तीन गतियों में रहने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के दर्शनमोहनीय के उपशम करने के कारणभूत परिणामों का अभाव है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि कहा जाये कि वेदक सम्यग्दृष्टि के प्रति मनुष्यों से अनुदिशादि विमानवासी देवों के कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीय के उपशमन योग्य परिणाम मनुष्यों के पाये जाते हैं वे अनुदिशादि विमानवासी देवों के नियम से होना चाहिए, सो भी कहना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि संयम को धारण करने की तथा उपशमश्रेणी के समारोहण आदि की योग्यता मनुष्यों में होने के कारण दोनों में भेद देखा जाता है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> यदि कहा जाये कि वेदक सम्यग्दृष्टि के प्रति मनुष्यों से अनुदिशादि विमानवासी देवों के कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीय के उपशमन योग्य परिणाम मनुष्यों के पाये जाते हैं वे अनुदिशादि विमानवासी देवों के नियम से होना चाहिए, सो भी कहना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि संयम को धारण करने की तथा उपशमश्रेणी के समारोहण आदि की योग्यता मनुष्यों में होने के कारण दोनों में भेद देखा जाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> तथा उपशमश्रेणी में मरण करके औपशमिक सम्यक्त्व के साथ छह पर्याप्तियों को समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्था में होने वाले औपशमिक सम्यक्त्व के काल में छहों पर्याप्तियों के समाप्त होने का काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों के पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> तथा उपशमश्रेणी में मरण करके औपशमिक सम्यक्त्व के साथ छह पर्याप्तियों को समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्था में होने वाले औपशमिक सम्यक्त्व के काल में छहों पर्याप्तियों के समाप्त होने का काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों के पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.5" id="II.3.5"> फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्व का निर्देश क्यों</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.5" id="II.3.5"> फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्व का निर्देश क्यों</strong></span><br> | ||
ध.१/१,१,१७१/४०७/७ <span class="SanskritText">कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथं च तत्र तस्यासत्त्वं। तत्रोत्पन्नेभ्य: क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्ते:। नापि मिथ्यादृष्ट्य उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शना: सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात् । न, उपशमश्रेण्यारूढानामारुह्यतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अनुदिश और अनुत्तर विमानों में उपशम सम्यग्दर्शन का सद्भाव कैसे पाया जाता है ? <strong>प्रतिशंका</strong> | ध.१/१,१,१७१/४०७/७ <span class="SanskritText">कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथं च तत्र तस्यासत्त्वं। तत्रोत्पन्नेभ्य: क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्ते:। नापि मिथ्यादृष्ट्य उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शना: सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात् । न, उपशमश्रेण्यारूढानामारुह्यतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अनुदिश और अनुत्तर विमानों में उपशम सम्यग्दर्शन का सद्भाव कैसे पाया जाता है ? <strong>प्रतिशंका</strong>–वहाँ पर उसका सद्भाव कैसे नहीं पाया जा सकता ? <strong>उत्तर</strong>–वहाँ पर जो उत्पन्न होते हैं उनके क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पाया जाता है, इसलिए उनके उपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टियों का उपशम सम्यक्त्व के साथ मरण नहीं होता। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि उपशम श्रेणी चढ़ने वाले और चढ़कर उतरने वाले जीवों की अनुदिश और अनुत्तरों में उत्पत्ति होती है, इसलिए वहाँ पर उपशम सम्यक्त्व के सद्भाव रहने में कोई विरोध नहीं आता है। देखें - [[ मरण#3 | मरण / ३ ]] द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में मरण सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण नहीं होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.6" id="II.3.6"> भवनवासी देव देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.6" id="II.3.6"> भवनवासी देव देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते</strong></span><br> | ||
ध.१/१,१,९७/३३६/५ <span class="SanskritText">भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पतिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात् किन्त्वेतन्न घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिर्मरणवांस्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तेरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेषूत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीनां प्राग्बद्धायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धनं प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्वद्देवेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च भवनवास्यादिष्वप्यसंयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न, सम्यग्दर्शनस्य बद्धायुषां प्राणिनां तत्तद्गत्यायु: सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । तथा च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिक...उत्पत्त्या विरोधो असंयतसम्यग्दृष्टे: सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–स म्यग्मिथ्यादृष्टि जीव की उक्त देव देवियों में उत्पत्ति मत होओं, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं होता है। परन्तु यह बात नहीं घटती कि मरने वाला असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव-देवियों में उत्पन्न नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती। <strong>प्रश्न</strong>–जघन्य अवस्था को प्राप्त नारकियों में और तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त भवनवासी देव और देवियों में तथा कल्पवासिनी देवियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जो आयुकर्म का बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने अनन्तर सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया है, ऐसे जीवों की नरकादि गति में उत्पत्ति के रोकने का सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–सम्यग्दृष्टि जीवों की जिस प्रकार नरकगति आदि में उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवों में क्यों नहीं होती है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक है, क्योंकि यह बात इष्ट ही है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले आयु कर्म का बन्ध कर लिया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शन का उस गति सम्बन्धी आयु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस-उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया है। ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देवों में ...असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के साथ विरोध सिद्ध हो जाता है। </span></li> | ध.१/१,१,९७/३३६/५ <span class="SanskritText">भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पतिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात् किन्त्वेतन्न घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिर्मरणवांस्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तेरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेषूत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीनां प्राग्बद्धायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धनं प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्वद्देवेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च भवनवास्यादिष्वप्यसंयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न, सम्यग्दर्शनस्य बद्धायुषां प्राणिनां तत्तद्गत्यायु: सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । तथा च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिक...उत्पत्त्या विरोधो असंयतसम्यग्दृष्टे: सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–स म्यग्मिथ्यादृष्टि जीव की उक्त देव देवियों में उत्पत्ति मत होओं, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं होता है। परन्तु यह बात नहीं घटती कि मरने वाला असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव-देवियों में उत्पन्न नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती। <strong>प्रश्न</strong>–जघन्य अवस्था को प्राप्त नारकियों में और तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त भवनवासी देव और देवियों में तथा कल्पवासिनी देवियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जो आयुकर्म का बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने अनन्तर सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया है, ऐसे जीवों की नरकादि गति में उत्पत्ति के रोकने का सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–सम्यग्दृष्टि जीवों की जिस प्रकार नरकगति आदि में उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवों में क्यों नहीं होती है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक है, क्योंकि यह बात इष्ट ही है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले आयु कर्म का बन्ध कर लिया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शन का उस गति सम्बन्धी आयु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस-उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया है। ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देवों में ...असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के साथ विरोध सिद्ध हो जाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.7" id="II.3.7"> भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.7" id="II.3.7"> भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता</strong></span><br> | ||
ध.१/१,१,१६९/४०६/५<span class="SanskritText"> किमिति क्षायिकसम्यग्दृष्टयस्तत्र न सन्तीति चेन्न, देवेषु दर्शनमोहक्षपणाभावात्क्षपितदर्शनमोहकर्मणामपि प्राणिनां भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु सर्वदेवीषु चोत्पत्तेरभावाच्च।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक तो | ध.१/१,१,१६९/४०६/५<span class="SanskritText"> किमिति क्षायिकसम्यग्दृष्टयस्तत्र न सन्तीति चेन्न, देवेषु दर्शनमोहक्षपणाभावात्क्षपितदर्शनमोहकर्मणामपि प्राणिनां भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु सर्वदेवीषु चोत्पत्तेरभावाच्च।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक तो वहाँ पर दर्शनमोहनीय का क्षपण नहीं होता है। दूसरे जिन जीवों ने पूर्व पर्याय में दर्शनमोह का क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवों में और सभी देवियों में उत्पत्ति नहीं होती है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="II.3.8" id="II.3.8"> फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनत्रिक देव व सर्व देवियों में कैसे सम्भव है</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="II.3.8" id="II.3.8"> फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनत्रिक देव व सर्व देवियों में कैसे सम्भव है</strong></span><br> | ||
ध.१/१,१,१६९/४०६/७ <span class="SanskritText">शेषसम्यक्त्वद्वयस्य तत्र कथं सम्भव इति चेन्न, तत्रोत्पन्नजीवानां पश्चात्पर्यायपरिणते: सत्त्वात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–शेष के दो सम्यग्दर्शनों का उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) सद्भाव कैसे सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, | ध.१/१,१,१६९/४०६/७ <span class="SanskritText">शेषसम्यक्त्वद्वयस्य तत्र कथं सम्भव इति चेन्न, तत्रोत्पन्नजीवानां पश्चात्पर्यायपरिणते: सत्त्वात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–शेष के दो सम्यग्दर्शनों का उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) सद्भाव कैसे सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वहाँ पर उत्पन्न हुए जीवों के अनन्तर सम्यग्दर्शनरूप पर्याय हो जाती है, इसलिए शेष के दो सम्यग्दर्शनों का वहाँ सद्भाव पाया जाता है। देव ऋद्धि―आचारांग आदि आगम के संकलयिता प्रधान श्वेताम्बराचार्य।</span> <span class="PrakritText">वल्लहिपुरम्मिह नयरे देवट्ठिपमुहसयलसंधेहिं। आगमपुत्थे लिम्हिओ णवसय असीआओ वरिओ। </span><span class="HindiText">(कल्पसूत्र में उद्धत) इसके अनुसार आप सकल संघ सहित वल्लभीपुर में वी.नि.९८० (ई.४५३) में आये थे। ई.५९३ के विशेषावश्यक भाष्य में आपका नामोल्लेख है। समय–श्वेताम्बर संघ के संस्थापक जिनचन्द्र (ई.७९) और वि.आ.भा. (ई.५९३) के मध्य। (द.सा./प्र.११/प्रेमी जी)। </span></li> | ||
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Revision as of 22:20, 1 March 2015
श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुतकेवली) के पश्चात् दसवें ११ अंग व १० पूर्व के धारी हुए। आपका अपर नाम गंगदेव था। समय–वी.नि./३१५-३२९ (ई.पू.२११-१९७)– देखें - इतिहास / ४ / ४ ।
देव―देव शब्द का प्रयोग वीतरागी भगवान् अर्थात् अर्हंत सिद्ध के लिए तथा देव गति के संसारी जीवों के लिए होता है। अत: कथन के प्रसंग को देखकर देव शब्द का अर्थ करना चाहिए। इनके अतिरिक्त पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र तथा तीर्थक्षेत्र ये नौ देवता माने गये हैं। देवगति के देव चार प्रकार के होते हैं–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी व स्वर्गवासी। इन सभी के इन्द्र सामानिक आदि दश श्रेणियाँ होती हैं। देवों के चारों भेदों का कथन तो उन उनके नाम के अन्तर्गत किया गया है, यहाँ तो देव सामान्य तथा उनके सामान्य भेदों का परिचय दिया जाता है।
- देव (भगवान्)
- देव निर्देश
- देव का लक्षण।
- देव के भेदों का निर्देश।
- नव देवता निर्देश।
- आचार्य, उपाध्याय साधु में कथंचित् देवत्व।
- आचार्यादि में देवत्व सम्बन्धी शंका समाधान।
- देव का लक्षण।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- सिद्ध भगवान् –देखें - मोक्ष।
- अर्हन्त भगवान् –देखें - अर्हंत।
- देव बाहर नहीं मन में हैं – देखें - पूजा / ३ ।
- सुदेव के श्रद्धान का सम्यग्दर्शन में स्थान – देखें - सम्यग्दर्शन / II / १ ।
- प्रतिमा में भी कथंचित् देवत्व – देखें - पूजा / ३ ।
- सिद्ध भगवान् –देखें - मोक्ष।
- देव निर्देश
- देव (गति)
- भेद व लक्षण
- देव का लक्षण।
- देवों के भवनवासी आदि चार भेद।
- व्यन्तर आदि देव विशेष–दे०वह वह नाम।
- आकाशोपपन्न देवों के भेद।
- पर्याप्तापर्याप्त की अपेक्षा भेद।
- देव का लक्षण।
- देव निर्देश
- देवों में इन्द्रसामानिकादि १० विभाग।
- इन्द्र सामानिकादि विशेष भेद–दे०वह वह नाम।
- देवों के सर्व भेद नामकर्म कृत हैं–देखें - नामकर्म।
- कन्दर्पादि देव नीच देव हैं
- देवों का दिव्य जन्म (उपपाद शय्या पर होता है)– देखें - जन्म / २ ।
- सभी देव नियम से जिनेन्द्र पूजन करते हैं।
- देवों के शरीर की दिव्यता।
- देवों का दिव्य आहार।
- देवों के रोग नहीं होता।
- देव गति में सुख व दु:ख निर्देश।
- देवविशेष, उनके इन्द्र, वैभव व क्षेत्रादि–दे०वह वह नाम।
- देवों के गमनागमन में उनके शरीर सम्बन्धी नियम
- मारणान्तिक समुद्घातगत देवों के मूल शरीर में प्रवेश करके या बिना किये ही मरण सम्बन्धी दो मत– देखें - मरण / ५ / ५ ।
- मरण समय अशुभ तीन लेश्याओं में या केवल कापोत लेश्या में पतन सम्बन्धी दो मत– देखें - मरण / ३ ।
- भाव मार्गणा में आय के अनुसार व्यय होने का नियम–देखें - मार्गणा।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में प्रविचार भी हीन-हीन होता है, और उसमें उनका वीर्य क्षरण नहीं होता।
- देवों में इन्द्रसामानिकादि १० विभाग।
- देवायु व देवगति नामकर्म
- देवायु के बन्ध योग्य परिणाम– देखें - आयु / ३ ।
- देवायु की बन्ध, उदय, सत्त्वादि प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।
- बद्धायुष्कों को देवायु बन्ध में ही व्रत होने सम्भव हैं– देखें - आयु / ६ / ७ ।
- देवगति की बन्ध, उदय, सत्त्वादि प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।
- देवगति में उद्योत कर्म का अभाव– देखें - उदय / ५ ।
- देवायु के बन्ध योग्य परिणाम– देखें - आयु / ३ ।
- सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका समाधान
- देवगति के गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ–देखें - सत् ।
- देवगति सम्बन्धी सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–दे०वह वह नाम।
- कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे– देखें - जन्म / ६ ।
- देवगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- देवगति में वेद, पर्याप्ति, लेश्यादि–दे०वह वह नाम।
- देवगति में गुणस्थानों का स्वामित्व।
- जन्म-मरण काल में सम्भव गुणस्थानों का परस्पर सम्बन्ध– देखें - जन्म / ६ / ६ ।
- अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है।
- अनुदिशादि विमानों में पर्याप्तावस्था में उपशम सम्यक्त्व का निर्देश क्यों नहीं।
- फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्व का निर्देश क्यों।
- भवनवासी देव-देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते।
- भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता।
- फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनत्रिक देव व सर्व देवियों में कैसे सम्भव हैं।
- देवगति के गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान के स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ–देखें - सत् ।
- भेद व लक्षण
- देव ( भगवान् )
- देव निर्देश
- देव का लक्षण
र.क.श्रा./मू.५ आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।५। =नियम से वीतराग, सर्वज्ञ और आगम का ईश ही आप्त होता है, निश्चय करके किसी अन्य प्रकार आप्तपना नहीं हो सकता।५। (ज.प./१३/८४/९५)।
बो.पा./मू./२४-२५ सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च। सो देह जस्स अत्थि हु अत्थो धम्मो य पव्वज्ज।२४।...देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं।२५।=जो धन, धर्म, भोग और मोक्ष का कारण ज्ञान को देवे सो देव है। तहाँ ऐसा न्याय है जो जाकै वस्तु होय सो देवे अर जाकै जो वस्तु न होय सो कैसे दे, इस न्यायकरि अर्थ, धर्म, स्वर्ग के भोग अर मोक्ष का कारण जो प्रव्रज्या जाकै होय सो देव है।२४। बहुरि देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा है सो भव्य जीवनिकै उदय का करने वाला है।
का.अ./मू./३०२ जो जाणदि पच्चक्खं तियाल-गुण-पच्चएहिं संजुत्तं। लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो।३०२। =जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ देव है।
का.अ./टी./१/१/१५ दीव्यति क्रीडति परमानन्दे इति देव:, अथवा दीव्यति कर्माणि जेतुमिच्छति इति देव:, वा दीव्यति कोटिसूर्याधिकतेजसा द्योतत इति देव: अर्हन्, वा दीव्यति धर्मव्यवहारं विदधाति देव:, वा दीव्यति लोकालोकं गच्छति जानाति, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति वचनात्, इति देव:, सिद्धपरमेष्ठी वा दीव्यति स्तौति स्वचिद्रूपमिति देव: सूरिपाठकसाधुरूपस्तम् ।=देव शब्द ‘दिव’ धातु से बना है, और ‘दिव्’ धातु के ‘क्रीड़ा करना’ ‘जय की इच्छा करना’ आदि अनेक अर्थ होते हैं। अत: जो परमसुख में क्रीड़ा करता है सो देव है, या जो कर्मों को जीतने की इच्छा करता है वह देव है, अथवा जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेज से देदीप्यमान होता है वह देव है जैसे–अर्हन्त परमेष्ठी। अथवा जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, वह देव है। अथवा जो लोक अलोक को जानता है, वह देव है जैसे सिद्ध परमेष्ठी। अथवा जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है वह देव है जैसे–आचार्य, उपाध्याय, साधु।
पं.ध./उ./६०३-६०४ दोषो रागादिसद्भाव: स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति नि:शेषी यत्रासौ देव उच्यते।६०३। अस्त्यत्र केवलं ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं सुखम् । वीर्यं चेति सुविख्यातं स्यादनन्तचतुष्टयम् ।६०४। =रागादिक का सद्भाव रूप दोष प्रसिद्ध ज्ञानावरणादि कर्म, इन दोनों का जिनमें सर्वथा अभाव पाया जाता है वह देव कहलाता है।६०३। सच्चे देव में केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य, इस प्रकार अनन्त चतुष्टय प्रगट हो जाता है।६०४। (द.पा./२/१२/२०)।
- देव के भेदों का निर्देश
पं.का./ता.वृ./१/५/८ त्रिधा देवता कथ्यते। केन। इष्टाधिकृताभिमतभेदेन=तीन प्रकार के देवता कहे गये हैं।- जो मुझको इष्ट हों;
- जिसका प्रकरण हो;
- जो सबको मान्य हों।
पं.ध.उ./६०६ एको देवो स द्रव्यार्थात्सिद्ध: शुद्धोपलब्धित:। अर्हन्निति सिद्धश्च पर्यायार्थाद्द्विधा मत:।६०६। =वह देव शुद्धोपलब्धि रूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से एक प्रकार का प्रसिद्ध है, और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अर्हंत तथा सिद्ध दो प्रकार का माना गया है।
- नव देवता निर्देश
र.क.श्रा./११९/१६८ पर उद्धृत–अरहंतसिद्धसाहूतिदयं जिणधम्मवयण पडिमाहू। जिण णिलया इदिराए णवदेवता दिंतु मे बोहि। =पंच परमेष्ठी, जिनधर्म, वचन, प्रतिमा व मन्दिर, ये नव देवता मुझे रत्नत्रय की पूर्णता देवो।
- आचार्य उपाध्याय साधु में भी कथंचित् देवत्व
नि.सा./ता.वृ./१४६/क.२५३/२९६ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिन:। न कामपि भिदां क्कापि तां विद्मो हा जड़ा वयम् । =सर्वज्ञवीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है, तथापि अरेरे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं।२५३।
देखें - देव / ० / १ / १ /बो.पा. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा उनकी कारणभूत प्रव्रज्या को देने वाले ऐसे आचार्यादि देव हैं।
- आचार्यादि में देवत्व सम्बन्धी शंका समाधान
ध.१/१,१,१/५२/२ युक्त: प्राप्तात्मस्वरूपाणामर्हतां सिद्धानां च नमस्कार:, नाचार्यादीनामप्राप्तात्मस्वरूपत्ववतस्तेषां देवत्वाभावादिति न, देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेदभिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देव: अन्यथा शेषजीवानामपि देवत्वापत्ते:। तत आचार्यादयोऽपि देवा रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् । नाचार्यादिस्थितरत्नानां सिद्धस्थरत्नेभ्यो भेदो रत्नानामाचार्यादिस्थितानामभावापत्ते:। न कारणकार्यत्वाद्भेद: सत्स्वेवाचार्यादिस्थरत्नावयवेष्वन्यस्य तिरोहितस्य रत्नाभोगस्य स्वावरणविगमत आविर्भावोपलम्भात् । न परोक्षापरोक्षकृतो भेदो वस्तुपरिच्छित्तिं प्रत्येकत्वात् । नैकस्य ज्ञानस्यावस्थाभेदतो भेदो निर्मलानिर्मलावस्थावस्थितदर्पणस्यापि भेदापत्ते:। नावयवावयविकृतो भेद: अवयवस्यावयविनोऽव्यतिरेकात् । सम्पूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्ते:। न चाचार्यादिस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकतर्दृणि रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भात् । तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम् । =प्रश्न–जिन्होंने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, ऐेसे अरहन्त, सिद्ध, परमेष्ठी को नमस्कार करना योग्य है, किन्तु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियों ने आत्मस्वरूप को प्राप्त नहीं किया है, इसलिए उनमें देवपना नहीं आ सकता है, अतएव उन्हें नमस्कार करना योग्य नहीं है ? उत्तर–ऐसा नहीं है,- क्योंकि अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव है, अन्यथा सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायेगी, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं, क्योंकि अरहन्तादिक से आचार्यादिक में रत्नत्रय के सद्भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, इसलिए आंशिक रत्नत्रय की अपेक्षा इनमें भी देवपना बन जाता है।
- आचार्यादिक में स्थित तीन रत्नों का सिद्धपरमेष्ठी में स्थित रत्नों से भेद भी नहीं है, यदि दोनों के रत्नत्रय में सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो आचार्यादिक में स्थित रत्नों के अभाव का प्रसंग आ जावेगा।
- आचार्यादिक और सिद्धपरमेष्ठी के सम्यग्दर्शनादिक रत्नों में कारण कार्य के भेद से भी भेद नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, आचार्यादिक में स्थित रत्नों के अवयवों के रहने पर ही तिरोहित, दूसरे रत्नावयवों का अपने आवरण कर्म के अभाव हो जाने के कारण आविर्भाव पाया जाता है। इसलिए उनमें कार्य-कारणपना भी नहीं बन सकता है।
- इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्म भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वस्तु के ज्ञान सामान्य की अपेक्षा दोनों एक है।
- केवल एक ज्ञान के अवस्था भेद से भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञान में उपाधिकृत अवस्था भेद से भेद माना जावे तो निर्मल और मलिन दशा को प्राप्त दर्पण में भी भेद मानना पड़ेगा।
- इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में अवयव और अवयवीजन्य भेद भी नहीं है, क्योंकि अवयव अवयवी से सर्वथा अलग नहीं रहते हैं। प्रश्न–पूर्णता को प्राप्त रत्नों को ही देव माना जा सकता है, रत्नों के एकदेश को देव नहीं माना जा सकता ? उत्तर–ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, रत्नों के एक देश में देवपना का अभाव मान लेने पर रत्नों की समग्रता (पूर्णता) में भी देवपना नहीं बन सकता है। प्रश्न–आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश हैं ? उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि का अग्निसमूह का कार्य एक कण से भी देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी समझना चाहिए। इसलिए आचार्यादिक भी देव हैं, यह बात निश्चित हो जाती है। (ध.९/४,१,१/११/१)।
- देव का लक्षण
- देव निर्देश
- देव (गति)
- भेद व लक्षण
- देव का लक्षण
स.सि./४/१/२३६/५ देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्यविभूतिविशेषै: द्वीपसमुद्रादिप्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवा:। =अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्म के उदय होने पर नानाप्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं। (रा.वा.४/१/१/२०९/९)।
पं.सं./प्रा./१/६३ कीडंति जदो णिच्चं गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं। भासंतदिव्वकाया तम्हा ते वण्णिया देवा।६३। =जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं, और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहे गये हैं।६३। (ध.१/१,१,२४/१३१/२०३); (गो.जी./मू./१५१); (पं.सं./सं./१/१४०); (ध.१३/५,५,१४१/३९२/१)।
- देवों के भवनवासी आदि ४ भेद
त.सू./४/१ देवाश्चतुर्णिकाया:।१। के पुनस्ते। भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति। (स.सि./४/१/२३७/१)।= देव चार निकायवाले हैं।१। प्रश्न–इन चार निकायों के क्या नाम हैं? उत्तर–भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक। (पं.का./मू./११८); (रा.वा./४/१/३/२११/१५); (नि.सा/ता.वृ./१६-१७)।
रा.वा./४/२३/४/२४२/१३ षण्णिकाया: (अपि) संभवन्ति भवनपातालव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्नविमानाधिष्ठानात् ।...अथवा सप्त देवनिकाया:। त एवाकाशोपपन्नै: सह। =देवों के भवनवासी, पातालवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और विमानवासी के भेद से छह प्रकार हैं। इन छह में ही आकाशोपपन्न देवों को और मिला देने से सात प्रकार के देव बन जाते हैं।
- आकाशोपपन्न देवों के भेद
रा.वा./४/२३/४/२४२/१७ आकाशोपपन्नाश्च द्वादशविधा:। पांशुतापिलवणतापि-तपनतापि-भवनतापि-सोमकायिक-यमकायिक-वरुणकायिक-वैश्रवणकायिक-पितृकायिक-अनलकायिक-रिष्ट-अरिष्ट-संभवा इति। =आकाशोपपन्न देव बारह प्रकार के हैं–पांशुतापि, लवणतापि, तपनतापि, भवनतापि, सोमकायिक, यमकायिक, वरुणकायिक, वैश्रवणकायिक, पितृकायिक, अनलकायिक, रिष्टक, अरिष्टक और सम्भव।
- पर्याप्तापर्याप्त की अपेक्षा भेद
का.अ.मू./१३३...देवा वि ते दुविहा।१३३। पर्याप्ता: निर्वृत्यपर्याप्ताश्चेति।टी०। =देव और नारकी निर्वृत्यपर्याप्तक और पर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
- देव का लक्षण
- देव निर्देश
- देवों में इन्द्र सामानिकादि दश विभाग
त.सू./४/४ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकश:।४। =(चारों निकाय के देव क्रम से १०,८,५,१२ भेदवाले हैं–दे०वह वह नाम) इन उक्त दश आदि भेदों में प्रत्येक के इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिकरूप हैं।४। (ति.प./३/६२-६३)।
त्रि.सा./२२३ इंदपडिंददिगिंदा तेत्तीससुरा समाणतणुरक्खा। परिसत्तयआणीया पइण्णगभियोगकिव्भिसिया।२२३। =इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगीन्द्र कहिये लोकपाल, त्रायस्त्रिंशद्देव, सामानिक, तनुरक्षक, तीन प्रकार पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य, किल्विषिक ऐसैं भेद जाननैं।२२३।
- कन्दर्प आदि देव नीच देव हैं
मू.आ./६३ कंदप्पमाभिजोग्गं किव्विस संमोहमासुरंतं च। ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति।६३। =मृत्यु के समय सम्यक्त्व का विनाश होने से कंदर्प, आभियोग्य, कैल्विष, संमोह और आसुर–ये पाँच देव दुर्गतियाँ होती हैं।६३।
- सर्व देव नियम से जिनेन्द्र पूजन करते हैं
ति.प./३/२२८-२२९ णिस्सेसकम्मक्खवणेक्कहेदुं मण्णंतया तत्थ जिणिंदपूजं। सम्मत्तविरया कुव्वंति णिच्च देवा महाणंतविसोहिपुव्वं।२२८। कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण। मिच्छाजुदा ते य जिणिंदपूजं भत्तीए णिच्चं णियमा कुणंति।२२९। =वहाँ पर अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजा को समस्त कर्मों के क्षय करने में अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणी विशुद्धि पूर्वक उसे करते हैं।२२८। पुराने देवों के उपदेश से मिथ्यादृष्टि देव भी जिन प्रतिमाओं को कुलाधिदेवता मानकर नित्य ही नियम से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रार्चन करते हैं।२२९। (ति.प./८/५८८-५८९); (त्रि.सा./५५२-५५३)।
- देवों के शरीर की दिव्यता
ति.प./३/२०८ अट्ठिसिरारुहिरवसामुत्तपुरीसाणि केसलोमाइं। चम्मडमंसप्पहुडी ण होइ देवाण संघडणे।२०८। देवों के शरीर में हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा और मांसादिक नहीं होता। (ति.प./८/५६८)।
ध.१४/५,६,९१/८१/८ देव...पत्तेयसरीरा वुच्चंति एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो। =देव...प्रत्येक शरीर वाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नहीं होता।
ज.प./११/२५४ अट्ठगुणमहिढ्ढीओसुहबिउरुग्वणविसेससंजुत्तो। समचउरं ससुसंढिय संघदणेसु य असंघदणो।२५४। =अणिमा, महिमादि आठ गुणों व महा-ऋद्धि से सहित, शुभ विक्रिया विशेष से संयुक्त, समचतुरस्र शरीर संस्थान से युक्त, छह संहननों में संहनन से रहित, (सौधर्मेन्द्र का शरीर) होता है।
बो.पा./टी./३२/९८/१५ पर उद्धृत–देवा...आहारो अत्थि णत्थि नीहारो।१। निक्कुंचिया होंति।१। =देवों के आहार होता है, परन्तु निहार नहीं होता, तथा देव मूंछ-दाढी से रहित होते हैं। इनके शरीर निगोद से रहित होते हैं।
- देवों का दिव्य आहार
ति.प./८/५५१ उवहिउवमाणजीवीवरिससहस्सेण दिव्वअमयमयं। भुंजदि मणसाहारं निरूवमयं तुट्ठिपुट्ठिकरं।५५१। (तेसु कवलासणंणत्थि।। ति.प.६/८७)=देवों के दिव्य, अमृतमय, अनुपम और तुष्टि एवं पुष्टिकारक मानसिक आहार होता है।५५१। उनके कवलाहार नहीं होता। (ति.प.६/८७)।
- देवों के रोग नहीं होता
ति.प./३/२०९ वण्णरसगंधफासे अइसयवेकुव्वदिव्वखंदा हि। णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण।२०९। =चूँकि वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श के विषय में अतिशय को प्राप्त वैक्रियक दिव्य स्कन्ध होते हैं, इसलिए इन देवों के कर्म के प्रभाव से रोग आदि की उपस्थिति नहीं होती।२०९। (ति.प./८/५६९)।
- देवगति में सुख व दु:ख निर्देश
ति.प./३/१४१-२३८ चमरिंदो सोहम्मे ईसदि वइरोयणो य ईसाणे। भूदाणंदे वेणू धरणाणंदम्मि वेणुधारि त्ति।१४१। एदे अट्ठ सुरिंदा अण्णोण्णं बहुविहाओ भूदीओ। दट्ठूण मच्छरेणं ईसंति सहावदो केई।१४२। विविहरतिकरणभाविदविसुद्धबुद्धीहि दिव्वरूवेहिं। णाणविकुव्वणंबहुविलाससंपत्तिजुत्ताहिं।२३१। मायाचारविवज्जिदपकिदिपसण्णाहिं अच्छाराहिं समं। णियणियविभूदिजोग्गं संकप्पवसंगदं सोक्खं।२३२। पडुपडहप्पहुदींहि सत्तसराभरणमहुरगीदेहिं। वरललितणच्चणेहिं देवा भुंजंति उवभोग्गं।२३३। ओहिं पि विजाणंतो अण्णोण्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा। कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण याणंति।२३४। वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे। कालागुरुगंधड्ढे रागणिधाणे रमंति सुरा।२३५। सयणाणि आसणण्णिं मउवाणि विचित्तरूवरइदाणिं। तणुमणवयणाणंदगजणणाणिं होंति देवाणं।२३६। फासरसरूवसद्धुणिगंधेहिं वढ्ढियाणि सोक्खाणिं। उवभुंजंता देवा तित्तिं ण लहंति णिमिसंपि।२३। दीवेसु णदिंदेसुं भोगखिदीए वि णंदणवणेसुं। वरपोक्खरिणीं पुलिणत्थलेषु कीडंति राएण।२३८। =चमरेन्द्र सौधर्म से ईर्षा करता है, वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानन्द से और वेणुधारी धरणानन्द से। इस प्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से, व कितने ही स्वभाव से ईर्षा करते हैं।१४१-१४२।
(त्रि.सा./२१२); (भ.आ./मू./१५९८-१६०१) वे देव विविध रति के प्रकटीकरण में चतुर, दिव्यरूपों से युक्त, नाना प्रकार की विक्रिया व बहुत विलास सम्पत्ति से सहित...स्वभाव से प्रसन्न रहने वाली ऐसी अप्सराओं के साथ अपनी-अपनी विभूति के योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले उत्तम पटह आदि वादित्र...एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्य का उपभोग करते हैं।२३१-२३३।...कामांध होकर बीते हुए समय को भी नहीं जानते हैं।...सुगन्ध से व्याप्त राग स्थान भूत प्रासाद में रमण करते हैं।२३४-२३५। देवों के शयन और आसन मृदुल, विचित्र रूप से रचित, शरीर एवं मन को आनन्दोत्पादक होते हैं।२३६। ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंध से वृद्धि को प्राप्त हुए सुखों को अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते हैं।२३७। ये कुमारदेव राग से द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा नदियों के तटस्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं।२३८।
त्रि.सा./२१९ अट्ठगुणिढ्ढिविसिट्ठ णाणामणि भूसणेही दित्तंगा। भुंजंति भोगमिट्ठं सग्गपुव्वतवेण तत्थ सुरा।२१९। (ति.प./८/५९०-५९४)। =तहाँ जे देव हैं ते अणिमा, महिमादि आठ गुण ऋद्धि करि विशिष्ट हैं, अर नाना प्रकार मणिका आभूषणनि करि प्रकाशमान हैं अंग जिनका ऐसै हैं। ते अपना पूर्व कीया तप का फल करि इष्ट भोगों को भोगवैं हैं।२१९।
- देवों के गमनागमन में उनके शरीर सम्बन्धी नियम
ति.प./८/५९५-५९६ गब्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहासुराणगच्छंति। जम्मण ठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्ठंति।५९५। णवरि विसेसे एसो सोहम्मीसाणजाददेवाणं। वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि।५९६। =गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं, उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थान में रहते हैं।५९५। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में हुई देवियों के मूलशरीर अपने-अपने कल्प के देवों के पास में जाते हैं।५९६।
ध.४/१,३,१५/७९/९ अप्पणो ओहिखेत्तमेत्तं देवा विउव्वंति त्ति जं आइरियवयणं तण्ण घडदे।=देव अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र प्रमाण विक्रिया करते हैं, इस प्रकार जो अन्य आचार्यों का वचन है, वह घटित नहीं होता।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है
त.सू./४/२०-२१ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका:।२०। गतिशरीरपरिगहाभिमानतो हीना:।२१। =स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रिय विषय और अवधिविषय की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव अधिक हैं।२०। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव हीन हैं।२१।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में प्रविचार भी हीन-हीन होता है और उसमें उनका वीर्यक्षरण नहीं होता
त.सू./४/७-९ कायप्रविचारा आ ऐशानात् ।७। शेषा: स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा:।८। परेऽप्रवीचारा:।९। =(भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष और) ऐशान तक के देव काय प्रवीचार अर्थात् शरीर से विषयसुख भोगने वाले होते हैं।७। शेष देव, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से विषय सुख भोगने वाले होते हैं।८। बाकी के सब देव विषय सुख से रहित होते हैं।९। (मू.आ./११३९-११४४); (ध.१/१,१,९८/३३८/५), (ति.प./३३६-३३७)।
ति.प./३/१३०-१३१ असुरादिभवणसुरा सव्वे ते होंति कायपविचारा। वेदस्सुदीरणाए अनुभवणं माणुससमाणं।१३०। धाउविहीणत्तादो रेदविणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं। संकप्प सुहं जायदि वेदस्स उदीरणाविगमे।१३१। =वे सब असुरादि भवनवासी देव (अर्थात् कायप्रविचार वाले समस्त देव) कायप्रविचार से युक्त होते हैं तथा वेद नोकषाय की उदीरणा होने पर वे मनुष्यों के समान कामसुख का अनुभव करते हैं। परन्तु सप्त धातुओं से रहित होने के कारण निश्चय से उन देवों के वीर्य का क्षरण नहीं होता। केवल वेद नोकषाय की उदीरणा शान्त होने पर उन्हें संकल्प सुख होता है।
- देवों में इन्द्र सामानिकादि दश विभाग
- सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
- देवगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व
ष.खं.१/१,१/सू.१६६-१७१/४०५ देवा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।१६६। एवं जाव उवरिम-गेवेज्ज-विमाण-वासिय-देवा त्ति।१६७। देवा असंजदसम्माइट्ठिठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठि त्ति।१६८। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ च सोधम्मीसाण-कप्पवासीय-देवीओ च असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि अवसेसियाओ अत्थि।१६९। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम-गेवज्ज-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७०। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजिदसवट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।१७१। =देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६६। इस प्रकार उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम पटल तक जानना चाहिए।१६७। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१६८। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ और सौधर्म तथा ईशान कल्पवासी देवियाँ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं या नही होती हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं या होती हैं।१६९। सौधर्म और ऐशान कल्प से लेकर उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम भाग तक रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदग सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१७०। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त और जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तरों में रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।१७१।
- देवगति में गुणस्थानों का स्वामित्व
ष.खं./१/१,१/सू./पृष्ठ देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति। (२८/२२५) देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९४। सम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा प्पज्जत्ता।९५। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ सोधम्मी-साण-कप्पवासिय-देवीओ च मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता, सिया पज्जत्तिओ सिया अपज्जत्तिओ।९६। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे णियमा पज्जत्त णियमा पज्जत्तियाओ।९७। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम गेवज्जं ति विमाणवासिय-देवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।९८ सम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।९९। अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंत-जयंतावराजितसव्वट्ठसिद्धि-विमाण-वासिय-देवा असजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।१००। (९४-१००/३३५) =मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं।२८। देव मिथ्यादृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।९४। देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।९५। भवनवासी वाणव्यंतर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ ये सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी।९६। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त देव नियम से पर्याप्तक होते हैं (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/९) और पूर्वोक्त देवियाँ नियम से पर्याप्त होती हैं।९७। सौधर्म और ईशान स्वर्ग से लेकर उपरिम ग्रैवेयक के उपरिम भाग तक विमानवासी देवों सम्बन्धी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।९८। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियम से पर्याप्त होते हैं।९९। नव अनुदिश में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।१००। [इन विमानों में केवल असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, शेष नहीं। ध.३/१,२,७२/२८२/१], (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/८)।
ध.४/१,५,२९३/४६३/९ अंतोमुहूत्तूणड्ढाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावादो। =अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टिदेव के मिथ्यात्व में जाने की सम्भावना का अभाव है।
गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/१ का भावार्थ–सासादन गुणस्थान में भवनत्रिकादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त के देव पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी होते हैं।
- अपर्याप्त देवों में उपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है
ध.२/१,१/५५९/४ देवासंजदसम्माइट्ठीणं कधमपज्जत्तेकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। वुच्चदे―वेदगसम्मत्तमुवसामिय उवसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरियपमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उवसमसम्माइट्ठि-ट्ठाणेहिं मज्झिमतेउलेस्सं परिणमिय कालं काऊण सोधम्मीसाण-देवेसुप्पण्णाणं अपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि। अध ते चेव...सणक्कुमारमाहिंदेखें - बह्म -बह्मोत्तर-लांतव-काविट्ठ-सुक्क-महासुक्क...सदारसहस्सारदेवेसु उप्पज्जंति। अध उवसमसेढिं चढिय पुणो दिण्णा चेव मज्झिम-सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चुद-णवगेवज्जविमाणवासिय देवेसुप्पज्जति। पुणो ते चेव उक्कस्स-सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि कालं करेंति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिसपंचाणुत्तरविमाणदेवेसुप्पज्जंति। तेण सोधम्मादि-उवरिमसव्वदेवासंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्तं लब्भदि त्ति। =प्रश्न–असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व कैसे पाया जाता है ? उत्तर–वेदक सम्यक्त्व को उपशमा करके और उपशम श्रेणी पर चढ़कर फिर वहाँ से उतरकर प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, असंयत, संयतासंयत, उपशम सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों के मध्यम तेजोलेश्या को परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के अपर्याप्त काल में औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव (यथायोग्य उत्तरोत्तर विशुद्ध लेश्या से मरण करें तो) सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणी पर चढ़ करके और पुन: उतर करके मध्य शुक्ल लेश्या से परिणत होते हुए यदि मरण करते हैं तो उपशम सम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या को परिणत होकर यदि मरण करते हैं, तो उपशम सम्यक्त्व के साथ नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण सौधर्म स्वर्ग से लेकर ऊपर के सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। (स.सि./१/७/२३/७)।
- अनुदिशादि विमानों में पर्याप्तावस्था में भी उपशम सम्यक्त्व क्यों नहीं
ध.२/१,१/५६६/१ केण कारणेण (अनुदिशादिसु) उवसमसम्मत्तं णत्थि। वुच्चदे–तत्थ ट्ठिदा देवा ण ताव वउसमसम्मत्तं पडिवज्जंति तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो। भवदु णाम मिच्छाइट्ठीणमभावो उवसमसम्मत्तं पि तत्थ ट्ठिदा देवा पडिवज्जंति को तत्थ विरोधो। इदि ण ‘अणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं’ इदि अणेण पाहुडसुत्तेण सह विरोहादो। ण तत्थ ट्ठिद-वेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति मणुसगदि-वदिरित्तण्णगदीसु वेदगसम्माइट्ठिजीवाणं दंसणमोहुवसमणहेदु परिणामाभावादो। ण य वेदगसम्माइट्ठित्तं पडि मणुस्सेहिंतो विसेसाभावादो मणुस्साणं च दंसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहिं तत्थ णियमेण होदव्वं मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमा-रूहणजोगत्तणेहिं भेददंसणादो। उवसम-सेढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देसेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेंति तत्थ तणुवसमसम्मत्तकालोदो छ-पज्जत्तीणं समाणकालस्स बहुत्तुवलंभादो। तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमत्थि त्ति सिद्धं। =प्रश्न–नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों के पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व किस कारण से नहीं होता ? उत्तर–वहाँ पर विद्यमान देव तो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होते नहीं है, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव है। प्रश्न–भले ही वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवों का अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहाँ रहने वाले देव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करें तो, इसमें क्या विरोध है? उत्तर–- ‘अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के भाज्य है’ इस कषायप्राभृत के गाथासूत्र के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है।
- यदि कहा जाये कि वहाँ रहने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनुष्यगति के सिवाय अन्य तीन गतियों में रहने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के दर्शनमोहनीय के उपशम करने के कारणभूत परिणामों का अभाव है।
- यदि कहा जाये कि वेदक सम्यग्दृष्टि के प्रति मनुष्यों से अनुदिशादि विमानवासी देवों के कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीय के उपशमन योग्य परिणाम मनुष्यों के पाये जाते हैं वे अनुदिशादि विमानवासी देवों के नियम से होना चाहिए, सो भी कहना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि संयम को धारण करने की तथा उपशमश्रेणी के समारोहण आदि की योग्यता मनुष्यों में होने के कारण दोनों में भेद देखा जाता है।
- तथा उपशमश्रेणी में मरण करके औपशमिक सम्यक्त्व के साथ छह पर्याप्तियों को समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्था में होने वाले औपशमिक सम्यक्त्व के काल में छहों पर्याप्तियों के समाप्त होने का काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों के पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है।
- फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्व का निर्देश क्यों
ध.१/१,१,१७१/४०७/७ कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथं च तत्र तस्यासत्त्वं। तत्रोत्पन्नेभ्य: क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्ते:। नापि मिथ्यादृष्ट्य उपात्तौपशमिकसम्यग्दर्शना: सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात् । न, उपशमश्रेण्यारूढानामारुह्यतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । =प्रश्न–अनुदिश और अनुत्तर विमानों में उपशम सम्यग्दर्शन का सद्भाव कैसे पाया जाता है ? प्रतिशंका–वहाँ पर उसका सद्भाव कैसे नहीं पाया जा सकता ? उत्तर–वहाँ पर जो उत्पन्न होते हैं उनके क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पाया जाता है, इसलिए उनके उपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टियों का उपशम सम्यक्त्व के साथ मरण नहीं होता। उत्तर–नहीं, क्योंकि उपशम श्रेणी चढ़ने वाले और चढ़कर उतरने वाले जीवों की अनुदिश और अनुत्तरों में उत्पत्ति होती है, इसलिए वहाँ पर उपशम सम्यक्त्व के सद्भाव रहने में कोई विरोध नहीं आता है। देखें - मरण / ३ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में मरण सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मरण नहीं होता है। - भवनवासी देव देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते
ध.१/१,१,९७/३३६/५ भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पतिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात् किन्त्वेतन्न घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिर्मरणवांस्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तेरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेषूत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीनां प्राग्बद्धायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धनं प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्वद्देवेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च भवनवास्यादिष्वप्यसंयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न, सम्यग्दर्शनस्य बद्धायुषां प्राणिनां तत्तद्गत्यायु: सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । तथा च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिक...उत्पत्त्या विरोधो असंयतसम्यग्दृष्टे: सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते। =प्रश्न–स म्यग्मिथ्यादृष्टि जीव की उक्त देव देवियों में उत्पत्ति मत होओं, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं होता है। परन्तु यह बात नहीं घटती कि मरने वाला असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव-देवियों में उत्पन्न नहीं होता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न–जघन्य अवस्था को प्राप्त नारकियों में और तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त भवनवासी देव और देवियों में तथा कल्पवासिनी देवियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जो आयुकर्म का बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होंने अनन्तर सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया है, ऐसे जीवों की नरकादि गति में उत्पत्ति के रोकने का सामर्थ्य सम्यग्दर्शन में नहीं है। प्रश्न–सम्यग्दृष्टि जीवों की जिस प्रकार नरकगति आदि में उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवों में क्यों नहीं होती है ? उत्तर–यह कहना ठीक है, क्योंकि यह बात इष्ट ही है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले आयु कर्म का बन्ध कर लिया है ऐसे जीवों के सम्यग्दर्शन का उस गति सम्बन्धी आयु सामान्य के साथ विरोध न होते हुए भी उस-उस गति सम्बन्धी विशेष में उत्पत्ति के साथ विरोध पाया है। ऐसी अवस्था में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देवों में ...असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्पत्ति के साथ विरोध सिद्ध हो जाता है। - भवनत्रिक देव-देवी व कल्पवासी देवी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता
ध.१/१,१,१६९/४०६/५ किमिति क्षायिकसम्यग्दृष्टयस्तत्र न सन्तीति चेन्न, देवेषु दर्शनमोहक्षपणाभावात्क्षपितदर्शनमोहकर्मणामपि प्राणिनां भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु सर्वदेवीषु चोत्पत्तेरभावाच्च।=प्रश्न–क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं? उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक तो वहाँ पर दर्शनमोहनीय का क्षपण नहीं होता है। दूसरे जिन जीवों ने पूर्व पर्याय में दर्शनमोह का क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवों में और सभी देवियों में उत्पत्ति नहीं होती है। - फिर उपशमादि सम्यक्त्व भवनत्रिक देव व सर्व देवियों में कैसे सम्भव है
ध.१/१,१,१६९/४०६/७ शेषसम्यक्त्वद्वयस्य तत्र कथं सम्भव इति चेन्न, तत्रोत्पन्नजीवानां पश्चात्पर्यायपरिणते: सत्त्वात् । =प्रश्न–शेष के दो सम्यग्दर्शनों का उक्त स्थानों में (भवनत्रिक देव तथा सर्व देवियों में) सद्भाव कैसे सम्भव है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वहाँ पर उत्पन्न हुए जीवों के अनन्तर सम्यग्दर्शनरूप पर्याय हो जाती है, इसलिए शेष के दो सम्यग्दर्शनों का वहाँ सद्भाव पाया जाता है। देव ऋद्धि―आचारांग आदि आगम के संकलयिता प्रधान श्वेताम्बराचार्य। वल्लहिपुरम्मिह नयरे देवट्ठिपमुहसयलसंधेहिं। आगमपुत्थे लिम्हिओ णवसय असीआओ वरिओ। (कल्पसूत्र में उद्धत) इसके अनुसार आप सकल संघ सहित वल्लभीपुर में वी.नि.९८० (ई.४५३) में आये थे। ई.५९३ के विशेषावश्यक भाष्य में आपका नामोल्लेख है। समय–श्वेताम्बर संघ के संस्थापक जिनचन्द्र (ई.७९) और वि.आ.भा. (ई.५९३) के मध्य। (द.सा./प्र.११/प्रेमी जी)।
- देवगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व
- भेद व लक्षण