मनुष्य: Difference between revisions
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<span class="HindiText">मनु की संतान होने के कारण अथवा विवेक धारण करने के कारण यह मनुष्य कहा जाता है। मोक्ष का द्वार होने के कारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है। मध्य लोक के बीच में 45,00,000 योजन प्रमाण ढाई द्वीप ही मनुष्य क्षेत्र है, क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत के परभाग में जाने को यह समर्थ नहीं है। ऊपर की ओर सुमेरु पर्वत के शिखर पर्यंत इसके क्षेत्र की सीमा है।</span> | <span class="HindiText">मनु की संतान होने के कारण अथवा विवेक धारण करने के कारण यह मनुष्य कहा जाता है। मोक्ष का द्वार होने के कारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है। मध्य लोक के बीच में 45,00,000 योजन प्रमाण ढाई द्वीप ही मनुष्य क्षेत्र है, क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत के परभाग में जाने को यह समर्थ नहीं है। ऊपर की ओर सुमेरु पर्वत के शिखर पर्यंत इसके क्षेत्र की सीमा है।</span> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ #1 | भेद व लक्षण ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[ #3 | मनुष्य गति में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> भेद व लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> ऊर्ध्वमुख अधो शाखारूप से पुरुष का स्वरूप</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> ऊर्ध्वमुख अधो शाखारूप से पुरुष का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/102/404 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वमूलमध: शाखामृषय: पुरुषं विदु:।102।</span> <span class="HindiText">ऋषियों ने पुरुष का स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा माना है। जिसमें कंठ व जिह्वा मूल है, हस्तादिक अवयव शाखाएँ हैं। जिह्वा आदि से किया गया आहार उन अवयवों को पुष्ट करता है।</span></li> | <span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/102/404 </span><span class="SanskritText">ऊर्ध्वमूलमध: शाखामृषय: पुरुषं विदु:।102।</span> <span class="HindiText">ऋषियों ने पुरुष का स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा माना है। जिसमें कंठ व जिह्वा मूल है, हस्तादिक अवयव शाखाएँ हैं। जिह्वा आदि से किया गया आहार उन अवयवों को पुष्ट करता है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मनुष्यगति को उत्तम कहने का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> आत्मानुशासन/115 </span><span class="SanskritText">तपोवल्लयां देह: समुपचितपुण्योऽर्जितफल:, शलाट्यग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलित:। व्यपशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपथ; स धन्य: संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम्।115। </span>= <span class="HindiText">जिसका शरीर तप रूप बेलि के ऊपर पुण्य रूप महान् फल को उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कि कच्चे फल के अग्रभाग से फूल नष्ट हो जाता है, तथा जिसकी आयु संन्यासरूप अग्नि में दूध की रक्षा करने वाले जल के समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधि की रक्षा करते हुए सूख जाती है, वह धन्य है।</span><br /> | <span class="GRef"> आत्मानुशासन/115 </span><span class="SanskritText">तपोवल्लयां देह: समुपचितपुण्योऽर्जितफल:, शलाट्यग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलित:। व्यपशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपथ; स धन्य: संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम्।115। </span>= <span class="HindiText">जिसका शरीर तप रूप बेलि के ऊपर पुण्य रूप महान् फल को उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कि कच्चे फल के अग्रभाग से फूल नष्ट हो जाता है, तथा जिसकी आयु संन्यासरूप अग्नि में दूध की रक्षा करने वाले जल के समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधि की रक्षा करते हुए सूख जाती है, वह धन्य है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/299 </span><span class="PrakritText">मणुवगईए वि तओ मणवुगईए महव्वदं सयलं। मणुवगदीए झाणं मणुव गदीए वि णिव्वाणं। </span>= <span class="HindiText">मनुष्य गति में ही तप होता है, मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्य गति में ही ध्यान होता है और मनुष्य गति में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।</span></li> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/299 </span><span class="PrakritText">मणुवगईए वि तओ मणवुगईए महव्वदं सयलं। मणुवगदीए झाणं मणुव गदीए वि णिव्वाणं। </span>= <span class="HindiText">मनुष्य गति में ही तप होता है, मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्य गति में ही ध्यान होता है और मनुष्य गति में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।</span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> मनुष्य गति में सम्यक्त्व व गुणस्थान का निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> सम्यक्त्व का स्वामित्व </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सू.162-165/403-405 <span class="PrakritText">मणुस्सा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा संजदा त्ति।162। एवमड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।163। मणुसा असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।164। एवं मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु।165।</span> = <span class="HindiText">मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं।162। इसी प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्रों में जानना चाहिए।163। मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।164। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए।165। </span></li> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सू.162-165/403-405 <span class="PrakritText">मणुस्सा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा संजदा त्ति।162। एवमड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।163। मणुसा असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।164। एवं मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु।165।</span> = <span class="HindiText">मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं।162। इसी प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्रों में जानना चाहिए।163। मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।164। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए।165। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> गुणस्थान का स्वामित्व</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सूत्र/27/210 <span class="PrakritText">मणुस्सा चोद्दस्सु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी ... अजोगिकेवलित्ति।27।</span><br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सूत्र/27/210 <span class="PrakritText">मणुस्सा चोद्दस्सु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी ... अजोगिकेवलित्ति।27।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सूत्र/89-93/329-332 <span class="PrakritText">मणुस्सा मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।89। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदसंजद-ट्ठाणेणियमापज्जत्ता।90। एवं मणुस्स-पज्जता।91। मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।92। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणेणियमा पज्जतियाओ।93। </span>= <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर अयोगि केवली पर्यंत 14 गुणस्थानो में मनुष्य पाये जाते हैं।27। मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।89। मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत, और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।90। (उपरोक्त कथन मनुष्य सामान्य की अपेक्षा है) मनुष्य सामान्य के समान पर्याप्त मनुष्य होते हैं।91। मनुष्यनियाँ मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होती हैं और अपर्याप्त भी होती हैं।92। मनुष्यनियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।93।–(विशेष देखें [[ सत् ]])।<br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/ </span>सूत्र/89-93/329-332 <span class="PrakritText">मणुस्सा मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।89। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदसंजद-ट्ठाणेणियमापज्जत्ता।90। एवं मणुस्स-पज्जता।91। मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।92। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणेणियमा पज्जतियाओ।93। </span>= <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर अयोगि केवली पर्यंत 14 गुणस्थानो में मनुष्य पाये जाते हैं।27। मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।89। मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत, और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।90। (उपरोक्त कथन मनुष्य सामान्य की अपेक्षा है) मनुष्य सामान्य के समान पर्याप्त मनुष्य होते हैं।91। मनुष्यनियाँ मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होती हैं और अपर्याप्त भी होती हैं।92। मनुष्यनियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।93।–(विशेष देखें [[ सत् ]])।<br /> | ||
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देखें [[ आर्यखंड#2 | आर्यखंड - 2 ]](आर्यखंडों में जघन्य 1 मिथ्यात्व, उत्कृष्ट 14; विदेह के आर्यखंडों में जघन्य 6, उत्कृष्ट 14; विद्याधरों में जघन्य 3 और उत्कृष्ट 5 तथा विद्याएँ छोड़ देने पर 14 भी गुणस्थान होते हैं।)।<br /> | देखें [[ आर्यखंड#2 | आर्यखंड - 2 ]](आर्यखंडों में जघन्य 1 मिथ्यात्व, उत्कृष्ट 14; विदेह के आर्यखंडों में जघन्य 6, उत्कृष्ट 14; विद्याधरों में जघन्य 3 और उत्कृष्ट 5 तथा विद्याएँ छोड़ देने पर 14 भी गुणस्थान होते हैं।)।<br /> | ||
देखें [[ म्लेच्छ#4 | म्लेच्छ- 4 ]](यहाँ केवल मिथ्यात्व ही होता है, परंतु कदाचित् आर्यखंड में आने पर इनको व इनकी कन्याओं से उत्पन्न संतान को संयत गुणस्थान भी संभव है।)।</span></li> | देखें [[ म्लेच्छ#4 | म्लेच्छ- 4 ]](यहाँ केवल मिथ्यात्व ही होता है, परंतु कदाचित् आर्यखंड में आने पर इनको व इनकी कन्याओं से उत्पन्न संतान को संयत गुणस्थान भी संभव है।)।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> समुद्रों में मनुष्यों को दर्शनमोह की क्षपणा कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,11/245/9 </span><span class="PrakritText">मणुस्सेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,11/245/9 </span><span class="PrakritText">मणुस्सेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।</span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> मनुष्य लोक</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> मनुष्य लोक का सामान्य स्वरूप व विस्तार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/ </span>पा.<span class="PrakritText"> तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उवरिमे भागे। अइवट्टो मणुवजगो जोयणपणदाल लक्खविक्खंभो।6। जगमज्झादो उवरिं तब्बहलं जोयणाणि इगिलक्खं। णवचदुदुगखत्तियदुगचउक्केक्कंकह्मि तप्परिही।7। सुण्णभगयणपणदुगएक्कखतियसुण्णणवहासुण्णं। छक्केक्कजोयणा चिय अंककमे मणुवलोयखेत्तफलं।8। अट्ठत्थाणं सुण्णं पंचदुरिगिगयणतिणहणवसुण्णा। अंबरछक्केक्केहिं अंककमे तस्स विंदफलं।10। माणुसजगबहुमज्झे विक्खादो होदि जंबुदीओ त्ति। एक्कजोयणलक्खव्विक्खंभजुदो सरिसवट्टो।11। अत्थि लवणंबुरासी जंबुदीवस्स खाइयायारो। समवट्टो सो जोयणबेलक्खपमाणवित्थारो।2398। धादइसंडो दीओ परिवेढदि लवणजलणिहिं सयलं। चउलक्खजोयणाइं वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2527। परिवेढेदि समुद्दो कालोदो णाम धादईसंडं। अढलक्खजोयणाणि वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2718। पोक्खंरवरोत्ति दीवो परिवेढदि कालजलणिहि सयलं। जोयणलक्खा सोलस रुंदजुदो चक्कावालेणं।2744। कालोदयजगदीदो समंतदो अट्ठलक्खजोयणया। गंतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुसुत्तरो सेलो।2748। चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। मणुआ माणुसखेत्ते बेअड्ढाइज्जउवहिदीवेसुं।2923।</span> = <span class="HindiText"><br> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/ </span>पा.<span class="PrakritText"> तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उवरिमे भागे। अइवट्टो मणुवजगो जोयणपणदाल लक्खविक्खंभो।6। जगमज्झादो उवरिं तब्बहलं जोयणाणि इगिलक्खं। णवचदुदुगखत्तियदुगचउक्केक्कंकह्मि तप्परिही।7। सुण्णभगयणपणदुगएक्कखतियसुण्णणवहासुण्णं। छक्केक्कजोयणा चिय अंककमे मणुवलोयखेत्तफलं।8। अट्ठत्थाणं सुण्णं पंचदुरिगिगयणतिणहणवसुण्णा। अंबरछक्केक्केहिं अंककमे तस्स विंदफलं।10। माणुसजगबहुमज्झे विक्खादो होदि जंबुदीओ त्ति। एक्कजोयणलक्खव्विक्खंभजुदो सरिसवट्टो।11। अत्थि लवणंबुरासी जंबुदीवस्स खाइयायारो। समवट्टो सो जोयणबेलक्खपमाणवित्थारो।2398। धादइसंडो दीओ परिवेढदि लवणजलणिहिं सयलं। चउलक्खजोयणाइं वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2527। परिवेढेदि समुद्दो कालोदो णाम धादईसंडं। अढलक्खजोयणाणि वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2718। पोक्खंरवरोत्ति दीवो परिवेढदि कालजलणिहि सयलं। जोयणलक्खा सोलस रुंदजुदो चक्कावालेणं।2744। कालोदयजगदीदो समंतदो अट्ठलक्खजोयणया। गंतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुसुत्तरो सेलो।2748। चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। मणुआ माणुसखेत्ते बेअड्ढाइज्जउवहिदीवेसुं।2923।</span> = <span class="HindiText"><br> | ||
त्रसनाली के बहु मध्यभाग में चित्रा पृथिवी के उपरिम भाग में 45,00,000 योजन प्रमाण विस्तार वाला अतिगोल मनुष्यलोक है।6। <br> | त्रसनाली के बहु मध्यभाग में चित्रा पृथिवी के उपरिम भाग में 45,00,000 योजन प्रमाण विस्तार वाला अतिगोल मनुष्यलोक है।6। <br> | ||
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इस प्रकार दो समुद्र और अढ़ाई द्वीपों के भीतर मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत मनुष्यक्षेत्र है। इसमें ही मनुष्य रहते हैं।2923।–(विशेष देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]])</span><br /> | इस प्रकार दो समुद्र और अढ़ाई द्वीपों के भीतर मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत मनुष्यक्षेत्र है। इसमें ही मनुष्य रहते हैं।2923।–(विशेष देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]])</span><br /> | ||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/562 </span><span class="PrakritGatha"> मंदरकुलवक्खारिसुमणुसुत्तररुप्पजंबुसामलिसु। सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं।562।</span> = <span class="HindiText">मेरु 5, कुलाचल 30, गजदंतसहित सर्व वक्षार गिरि 100, इष्वाकार 4, मानुषोत्तर 4, विजयार्ध पर्वत 170, जंबूवृक्ष 5, शाल्मली वृक्ष 5, इन विषै क्रम से 80, 30, 100, 4, 4, 170, 5, 5 जिनमंदिर हैं।–(विशेष देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]])।</span></li> | <span class="GRef"> त्रिलोकसार/562 </span><span class="PrakritGatha"> मंदरकुलवक्खारिसुमणुसुत्तररुप्पजंबुसामलिसु। सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं।562।</span> = <span class="HindiText">मेरु 5, कुलाचल 30, गजदंतसहित सर्व वक्षार गिरि 100, इष्वाकार 4, मानुषोत्तर 4, विजयार्ध पर्वत 170, जंबूवृक्ष 5, शाल्मली वृक्ष 5, इन विषै क्रम से 80, 30, 100, 4, 4, 170, 5, 5 जिनमंदिर हैं।–(विशेष देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]])।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> मनुष्य अढ़ाई द्वीप का उल्लंघन नहीं कर सकता </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2923 </span><span class="PrakritText">चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। </span>= <span class="HindiText">मानुषोत्तर पर्यंत ही मनुष्य रहते हैं, इसका उल्लंघन नहीं कर सकते। <span class="GRef">( त्रिलोकसार/323 )</span>।</span><br> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2923 </span><span class="PrakritText">चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। </span>= <span class="HindiText">मानुषोत्तर पर्यंत ही मनुष्य रहते हैं, इसका उल्लंघन नहीं कर सकते। <span class="GRef">( त्रिलोकसार/323 )</span>।</span><br> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/35/229/1 </span><span class="SanskritText">नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता। अपि मनुष्या गच्छंति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम्। ततोऽस्यान्वर्थ संज्ञा। </span>= <span class="HindiText">समुद्घात और उपपाद के सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वत के आगे नहीं जा सकते। अत: इसकी संज्ञा अन्वर्थक है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/35/ .../198/2 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/5/612 )</span>।</span><br> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/35/229/1 </span><span class="SanskritText">नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता। अपि मनुष्या गच्छंति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम्। ततोऽस्यान्वर्थ संज्ञा। </span>= <span class="HindiText">समुद्घात और उपपाद के सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वत के आगे नहीं जा सकते। अत: इसकी संज्ञा अन्वर्थक है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/35/ .../198/2 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/5/612 )</span>।</span><br> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,163/403/11 </span><span class="SanskritText">वैरसंबंधेन क्षिप्तानां संयतानां संयतासंयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वैर के संबंध से डाले गये संयत और संयतासयंत आदि मनुष्यों का संपूर्ण द्वीप और समुद्रों में सद्भाव रहा आवे, ऐसा मान लेने में क्या हानि है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता है।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,163/403/11 </span><span class="SanskritText">वैरसंबंधेन क्षिप्तानां संयतानां संयतासंयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वैर के संबंध से डाले गये संयत और संयतासयंत आदि मनुष्यों का संपूर्ण द्वीप और समुद्रों में सद्भाव रहा आवे, ऐसा मान लेने में क्या हानि है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता है।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> अढ़ाई द्वीप का अर्थ अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/,1,163/404/1 </span><span class="SanskritText">अथ स्यादर्धतृतीयशब्देन किमु द्वीपो विशिष्यते उत समुद्र उत द्वावपीति। नांत्योपांत्यविकल्पौ मानुषौत्तरात्परतोऽपि मनुष्याणामस्तित्वप्रसंगात्।... नादिविकल्पोऽपि समुद्राणां संख्यानियमाभावत: सर्वसमुद्रेषु तत्सत्त्वप्रसंगादिति। अत्र प्रतिविधीयते। नानंतपांत्यविकल्पोक्तदोषा: समाढौकंते, तयोरनभ्युपगमात्। न प्रथमविकल्पोक्तदोषोऽपि द्वीपेष्वर्धतृतीयसंख्येषु मनुष्याणामस्तित्वनियमे सति शेषद्वीपेषु मनुष्याभावसिद्धिवन्मानुषोत्तरत्वं प्रत्यविशेषत: शेषसमुद्रेषु तदभावसिद्धे:। .... तत: सामर्थ्याद् द्वयो: समुद्रयो: संतीत्यनुक्तमप्यवगम्यते।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–‘अर्धतृतीय’ यह शब्द द्वीप का विशेषण है या समुद्र का अथवा दोनों का। इनमें से अंत के दो विकल्पों के मान लेने पर मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ भी मनुष्यों के अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। और पहला विकल्प मान लेने से द्वीपों की संख्या का नियम होने पर भी समुद्रों की संख्या का कोई नियम नहीं बनता है, इसलिए समस्त समुद्रों में मनुष्यों के सद्भाव का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–दूसरे और तीसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते हैं, क्योंकि, परमागम में वैसा माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार प्रथम विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अढ़ाई द्वीप में मनुष्यों के अस्तित्व का नियम हो जाने पर शेष के द्वीपों में जिस प्रकार मनुष्यों के अभाव की सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार शेष समुद्रों में भी मनुष्यों का अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, शेष द्वीपों की तरह दो समुद्रों के अतिरिक्त शेष समुद्र भी मानुषोत्तर से परे हैं। इसलिए सामर्थ्य से ही दो समुद्रों में मनुष्य पाये जाते हैं, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है।</span></li> | <span class="GRef"> धवला 1/,1,163/404/1 </span><span class="SanskritText">अथ स्यादर्धतृतीयशब्देन किमु द्वीपो विशिष्यते उत समुद्र उत द्वावपीति। नांत्योपांत्यविकल्पौ मानुषौत्तरात्परतोऽपि मनुष्याणामस्तित्वप्रसंगात्।... नादिविकल्पोऽपि समुद्राणां संख्यानियमाभावत: सर्वसमुद्रेषु तत्सत्त्वप्रसंगादिति। अत्र प्रतिविधीयते। नानंतपांत्यविकल्पोक्तदोषा: समाढौकंते, तयोरनभ्युपगमात्। न प्रथमविकल्पोक्तदोषोऽपि द्वीपेष्वर्धतृतीयसंख्येषु मनुष्याणामस्तित्वनियमे सति शेषद्वीपेषु मनुष्याभावसिद्धिवन्मानुषोत्तरत्वं प्रत्यविशेषत: शेषसमुद्रेषु तदभावसिद्धे:। .... तत: सामर्थ्याद् द्वयो: समुद्रयो: संतीत्यनुक्तमप्यवगम्यते।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–‘अर्धतृतीय’ यह शब्द द्वीप का विशेषण है या समुद्र का अथवा दोनों का। इनमें से अंत के दो विकल्पों के मान लेने पर मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ भी मनुष्यों के अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। और पहला विकल्प मान लेने से द्वीपों की संख्या का नियम होने पर भी समुद्रों की संख्या का कोई नियम नहीं बनता है, इसलिए समस्त समुद्रों में मनुष्यों के सद्भाव का प्रसंग प्राप्त होता है। <strong>उत्तर</strong>–दूसरे और तीसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते हैं, क्योंकि, परमागम में वैसा माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार प्रथम विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अढ़ाई द्वीप में मनुष्यों के अस्तित्व का नियम हो जाने पर शेष के द्वीपों में जिस प्रकार मनुष्यों के अभाव की सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार शेष समुद्रों में भी मनुष्यों का अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, शेष द्वीपों की तरह दो समुद्रों के अतिरिक्त शेष समुद्र भी मानुषोत्तर से परे हैं। इसलिए सामर्थ्य से ही दो समुद्रों में मनुष्य पाये जाते हैं, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> भरत क्षेत्र के कुछ देशों का निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> भरत क्षेत्र के कुछ देशों का निर्देश</strong> <br /> |
Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
मनु की संतान होने के कारण अथवा विवेक धारण करने के कारण यह मनुष्य कहा जाता है। मोक्ष का द्वार होने के कारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है। मध्य लोक के बीच में 45,00,000 योजन प्रमाण ढाई द्वीप ही मनुष्य क्षेत्र है, क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत के परभाग में जाने को यह समर्थ नहीं है। ऊपर की ओर सुमेरु पर्वत के शिखर पर्यंत इसके क्षेत्र की सीमा है।
- भेद व लक्षण
- संमूर्च्छन मनुष्य–देखें आर्य, म्लेच्छ , विद्याधर ।
- पर्याप्त व अपर्याप्त मनुष्य–देखें अपर्याप्त ।
- कुमानुष–देखें अंतर्द्वीपज
- कर्मभूमिज व भोगभूमिज मनुष्य–देखें भूमि।
- कर्मभूमिज शब्द से केवल मनुष्यों का ग्रहण–देखें तिर्यंच - 2.12।
- मनुष्यणी व योनिमति मनुष्य का अर्थ–देखें वेद - 3।
- नपुसंकवेदी मनुष्य को मनुष्य व्यपदेश–देखें वेद - 3.5।
- स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी मनुष्य–देखें वेद ।
- संमूर्च्छन मनुष्य–देखें आर्य, म्लेच्छ , विद्याधर ।
- मनुष्य गति निर्देश
- मनुष्यों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ–देखें सत् ।
- मनुष्यों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा उसमें आय के अनुसार व्यय होने का नियम–देखें मार्गणा ।
- मनुष्यायु के बंध-योग्य परिणाम–देखें आयु - 3।
- मनुष्यगति नाम प्रकृति का बंध उदय सत्त्व–देखें वह वह नाम ।
- मनुष्यगति में कर्मों का बंध उदय सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- क्षेत्र व काल की अपेक्षा मनुष्यों की अवगाहना।–देखें अवगाहना - 2।
- मनुष्य गति के दु:ख।–दे. भगवती आराधना/1589-1597 ।
- कौन मनुष्य मरकर कहाँ उत्पन्न हो।–देखें जन्म - 6।
- मनुष्यों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ–देखें सत् ।
- मनुष्य गति में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश
- मनुष्य लोक
- मानचित्र–देखें लोक - 4.2।
- समुद्रों में मनुष्य कैसे पाये जा सकते हैं।–देखें मनुष्य - 3.3।
- अढ़ाई द्वीप में इतने मनुष्य कैसे समावें।–देखें आकाश - 3।
- मनुष्य लोक में सुषमा दुषमा आदि काल विभाग–देखें काल - 4।
- भरत क्षेत्र के कुछ देशों का निर्देश।
- भरत क्षेत्र के कुछ पर्वतों का निर्देश।
- भारत क्षेत्र की कुछ नदियों का निर्देश।
- भारत क्षेत्र के कुछ नगरों का निर्देश।
- विद्याधर लोक–देखें विद्याधर ।
- भेद व लक्षण
- मनुष्य का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/62 मण्णंति जदो णिच्चं पणेण णिउणा जदो दु जे जीवा मणउक्कडा य जम्हा ते माणुसा भणिया।62। = यत: जो मन के द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व और धर्म-अधर्म का विचार करते हैं, कार्य करने में निपुण हैं, मन से उत्कृष्ट हैं अर्थात् उत्कृष्ट मन के धारक हैं, अतएव वे मनुष्य कहलाते हैं। ( धवला 1/1,1/24/ गा.130/203); ( गोम्मटसार जीवकांड/149/372 )।
धवला 13/5,5,141/1 मनसा उत्कटा: मानुषा:। = जो मन से उत्कट होते हैं वे मानुष कहलाते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/16 मनोरपत्यानि मनुष्या:। = मनु की संतान मनुष्य हैं। (और भी–देखें जीव - 1.3.5) देखें मनुज (मैथुन करने वाले मनुष्य कहलाते हैं)। - मनुष्य के भेद
नियमसार/16 मानुषा द्विविकल्पा: कर्ममहीभोगभूमिसंजाता:। = मनुष्यो के दो भेद हैं, कर्मभूमिज और भोगभूमिज। ( पंचास्तिकाय/118 )।
तत्त्वार्थसूत्र/3/36 आर्या म्लेच्छाश्च।36। = मनुष्य दो प्रकार के हैं–आर्य और म्लेच्छ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/6 पर उद्धृत–मनुजा हि चतु:प्रकारा:। = कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अंतरद्वीपजाश्चैव तथा संमूर्च्छिता इति। = मनुष्य चार प्रकार के हैं–कर्मभूमिज और भोगभूमिज, तथा अंतर्द्वीपज व सम्मूर्छन।
गोम्मटसार जीवकांड/150/373 सामण्णा पंचिंदी पज्जत्ता जोणिणी अपज्जत्ता। तिरिया णरा तहावि य पंचिंदियभंगदो हीणा।150। = तिर्यंच पाँच प्रकार के हैं–सामान्य तिर्यंच, पंचेंद्रिय, पर्याप्त, योनिमति, और अपर्याप्त। पंचेंद्रिय वाले भंग से हीन होते हुए मनुष्य भी इसी प्रकार है। अर्थात् मनुष्य चार प्रकार हैं–सामान्य, पर्याप्त, मनुष्यणी और अपर्याप्त।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/132-133 अज्जव म्लेच्छखंडे भोगमहीसु वि कुभोगभूमीसु। मणुसया हवंति दुविहा णिव्वत्ता–अपुण्णगा पुण्णा।132। संमुच्छिमा मणुस्सा अज्जवखंडेसु होंति णियमेण। ते पुण लद्धि अपुण्णा –।133। = आर्यखंड में, म्लेच्छखंड में, भोग भूमि में और कुभोग भूमि में मनुष्य होते है। ये चार ही प्रकार के मनुष्य पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं।231। सम्मूर्छन मनुष्य नियम से आर्यखंड में ही होते हैं, और वे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं।
- मनुष्य का लक्षण
- मनुष्यगति निर्देश
- ऊर्ध्वमुख अधो शाखारूप से पुरुष का स्वरूप
अनगारधर्मामृत/4/102/404 ऊर्ध्वमूलमध: शाखामृषय: पुरुषं विदु:।102। ऋषियों ने पुरुष का स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा माना है। जिसमें कंठ व जिह्वा मूल है, हस्तादिक अवयव शाखाएँ हैं। जिह्वा आदि से किया गया आहार उन अवयवों को पुष्ट करता है। - मनुष्यगति को उत्तम कहने का कारण व प्रयोजन
आत्मानुशासन/115 तपोवल्लयां देह: समुपचितपुण्योऽर्जितफल:, शलाट्यग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलित:। व्यपशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपथ; स धन्य: संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम्।115। = जिसका शरीर तप रूप बेलि के ऊपर पुण्य रूप महान् फल को उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कि कच्चे फल के अग्रभाग से फूल नष्ट हो जाता है, तथा जिसकी आयु संन्यासरूप अग्नि में दूध की रक्षा करने वाले जल के समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधि की रक्षा करते हुए सूख जाती है, वह धन्य है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/299 मणुवगईए वि तओ मणवुगईए महव्वदं सयलं। मणुवगदीए झाणं मणुव गदीए वि णिव्वाणं। = मनुष्य गति में ही तप होता है, मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्य गति में ही ध्यान होता है और मनुष्य गति में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- ऊर्ध्वमुख अधो शाखारूप से पुरुष का स्वरूप
- मनुष्य गति में सम्यक्त्व व गुणस्थान का निर्देश
- सम्यक्त्व का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.162-165/403-405 मणुस्सा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा संजदा त्ति।162। एवमड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु।163। मणुसा असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।164। एवं मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु।165। = मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं।162। इसी प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्रों में जानना चाहिए।163। मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।164। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए।165। - गुणस्थान का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र/27/210 मणुस्सा चोद्दस्सु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी ... अजोगिकेवलित्ति।27।
षट्खंडागम 1/1,1/ सूत्र/89-93/329-332 मणुस्सा मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।89। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदसंजद-ट्ठाणेणियमापज्जत्ता।90। एवं मणुस्स-पज्जता।91। मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।92। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदसंजदट्ठाणेणियमा पज्जतियाओ।93। = मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर अयोगि केवली पर्यंत 14 गुणस्थानो में मनुष्य पाये जाते हैं।27। मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।89। मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत, और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।90। (उपरोक्त कथन मनुष्य सामान्य की अपेक्षा है) मनुष्य सामान्य के समान पर्याप्त मनुष्य होते हैं।91। मनुष्यनियाँ मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होती हैं और अपर्याप्त भी होती हैं।92। मनुष्यनियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।93।–(विशेष देखें सत् )।
देखें भूमि - 7, भूमि - 8 (भोगभूमिज मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि हो सकने पर भी संयतासंयत व संयत नहीं)।
देखें जन्म - 5, जन्म - 6 (सूक्ष्म निगोदिया जीव मरकर मनुष्य हो सकता है, संयमासंयम उत्पन्न कर सकता है, और संयम, अथवा मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है)।
देखें आर्यखंड - 2 (आर्यखंडों में जघन्य 1 मिथ्यात्व, उत्कृष्ट 14; विदेह के आर्यखंडों में जघन्य 6, उत्कृष्ट 14; विद्याधरों में जघन्य 3 और उत्कृष्ट 5 तथा विद्याएँ छोड़ देने पर 14 भी गुणस्थान होते हैं।)।
देखें म्लेच्छ- 4 (यहाँ केवल मिथ्यात्व ही होता है, परंतु कदाचित् आर्यखंड में आने पर इनको व इनकी कन्याओं से उत्पन्न संतान को संयत गुणस्थान भी संभव है।)। - समुद्रों में मनुष्यों को दर्शनमोह की क्षपणा कैसे ?
धवला 6/1,9-8,11/245/9 मणुस्सेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। = प्रश्न–मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं। उत्तर–नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।
- सम्यक्त्व का स्वामित्व
- मनुष्य लोक
- मनुष्य लोक का सामान्य स्वरूप व विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/4/ पा. तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उवरिमे भागे। अइवट्टो मणुवजगो जोयणपणदाल लक्खविक्खंभो।6। जगमज्झादो उवरिं तब्बहलं जोयणाणि इगिलक्खं। णवचदुदुगखत्तियदुगचउक्केक्कंकह्मि तप्परिही।7। सुण्णभगयणपणदुगएक्कखतियसुण्णणवहासुण्णं। छक्केक्कजोयणा चिय अंककमे मणुवलोयखेत्तफलं।8। अट्ठत्थाणं सुण्णं पंचदुरिगिगयणतिणहणवसुण्णा। अंबरछक्केक्केहिं अंककमे तस्स विंदफलं।10। माणुसजगबहुमज्झे विक्खादो होदि जंबुदीओ त्ति। एक्कजोयणलक्खव्विक्खंभजुदो सरिसवट्टो।11। अत्थि लवणंबुरासी जंबुदीवस्स खाइयायारो। समवट्टो सो जोयणबेलक्खपमाणवित्थारो।2398। धादइसंडो दीओ परिवेढदि लवणजलणिहिं सयलं। चउलक्खजोयणाइं वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2527। परिवेढेदि समुद्दो कालोदो णाम धादईसंडं। अढलक्खजोयणाणि वित्थिण्णो चक्कवालेणं।2718। पोक्खंरवरोत्ति दीवो परिवेढदि कालजलणिहि सयलं। जोयणलक्खा सोलस रुंदजुदो चक्कावालेणं।2744। कालोदयजगदीदो समंतदो अट्ठलक्खजोयणया। गंतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुसुत्तरो सेलो।2748। चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। मणुआ माणुसखेत्ते बेअड्ढाइज्जउवहिदीवेसुं।2923। =
त्रसनाली के बहु मध्यभाग में चित्रा पृथिवी के उपरिम भाग में 45,00,000 योजन प्रमाण विस्तार वाला अतिगोल मनुष्यलोक है।6।
लोक के मध्यभाग से ऊपर उस मनुष्यलोक का बाहुल्य (ऊँचाई) 1,00,000 योजन और परिधि 1,42,30,249 योजनप्रमाण है।7। ( धवला 4/1,3,3/42/3 );
16009030125000 योजनप्रमाण उसका क्षेत्रफल है।8। और 1600903012500000000 योजन प्रमाण उसका घनफल है।10।
उस मनुष्य क्षेत्र के बहुमध्यभाग में 1,00,000 योजन विस्तार से युक्त सदृश गोल और जंबूद्वीप इस नाम से प्रसिद्ध पहला द्वीप है।11।
लवण समुद्र रूप जंबूद्वीप की खाई का आकार गोल है। इसका विस्तार 2,00,000 योजनप्रमाण है।2398।
4,00,000 योजन विस्तारयुक्त मंडलाकार से स्थित धातकीखंड द्वीप इस संपूर्ण लवणसमुद्र को वेष्टित करता है।2527।
इस धातकीखंड को भी 8,00,000 योजनप्रमाण विस्तारवाला कालोद नामक समुद्र मंडलाकार से वेष्टित किये हुए है। 2718।
इस संपूर्ण कालोदसमुद्र को 16,00,000 योजनप्रमाण विस्तार से संयुक्त पुष्करवरद्वीप मंडलाकार से वेष्टित किये हुए है।2744।
कालोदसमुद्र की जगती से चारों ओर 800,000 योजन जाकर मानुषोत्तर नामक पर्वत उस द्वीप को सब तरफ से वेष्टित किये हुए है।2748।
इस प्रकार दो समुद्र और अढ़ाई द्वीपों के भीतर मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत मनुष्यक्षेत्र है। इसमें ही मनुष्य रहते हैं।2923।–(विशेष देखें लोक - 7)
त्रिलोकसार/562 मंदरकुलवक्खारिसुमणुसुत्तररुप्पजंबुसामलिसु। सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं।562। = मेरु 5, कुलाचल 30, गजदंतसहित सर्व वक्षार गिरि 100, इष्वाकार 4, मानुषोत्तर 4, विजयार्ध पर्वत 170, जंबूवृक्ष 5, शाल्मली वृक्ष 5, इन विषै क्रम से 80, 30, 100, 4, 4, 170, 5, 5 जिनमंदिर हैं।–(विशेष देखें लोक - 7)। - मनुष्य अढ़ाई द्वीप का उल्लंघन नहीं कर सकता
तिलोयपण्णत्ति/4/2923 चेट्ठंति माणुस्सुत्तरपरियंतं तस्स लंघणविहीणा। = मानुषोत्तर पर्यंत ही मनुष्य रहते हैं, इसका उल्लंघन नहीं कर सकते। ( त्रिलोकसार/323 )।
सर्वार्थसिद्धि/3/35/229/1 नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता। अपि मनुष्या गच्छंति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम्। ततोऽस्यान्वर्थ संज्ञा। = समुद्घात और उपपाद के सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वत के आगे नहीं जा सकते। अत: इसकी संज्ञा अन्वर्थक है। ( राजवार्तिक/3/35/ .../198/2 ); ( हरिवंशपुराण/5/612 )।
धवला 1/1,1,163/403/11 वैरसंबंधेन क्षिप्तानां संयतानां संयतासंयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात्। = प्रश्न–वैर के संबंध से डाले गये संयत और संयतासयंत आदि मनुष्यों का संपूर्ण द्वीप और समुद्रों में सद्भाव रहा आवे, ऐसा मान लेने में क्या हानि है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता है। - अढ़ाई द्वीप का अर्थ अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र
धवला 1/,1,163/404/1 अथ स्यादर्धतृतीयशब्देन किमु द्वीपो विशिष्यते उत समुद्र उत द्वावपीति। नांत्योपांत्यविकल्पौ मानुषौत्तरात्परतोऽपि मनुष्याणामस्तित्वप्रसंगात्।... नादिविकल्पोऽपि समुद्राणां संख्यानियमाभावत: सर्वसमुद्रेषु तत्सत्त्वप्रसंगादिति। अत्र प्रतिविधीयते। नानंतपांत्यविकल्पोक्तदोषा: समाढौकंते, तयोरनभ्युपगमात्। न प्रथमविकल्पोक्तदोषोऽपि द्वीपेष्वर्धतृतीयसंख्येषु मनुष्याणामस्तित्वनियमे सति शेषद्वीपेषु मनुष्याभावसिद्धिवन्मानुषोत्तरत्वं प्रत्यविशेषत: शेषसमुद्रेषु तदभावसिद्धे:। .... तत: सामर्थ्याद् द्वयो: समुद्रयो: संतीत्यनुक्तमप्यवगम्यते। = प्रश्न–‘अर्धतृतीय’ यह शब्द द्वीप का विशेषण है या समुद्र का अथवा दोनों का। इनमें से अंत के दो विकल्पों के मान लेने पर मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ भी मनुष्यों के अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। और पहला विकल्प मान लेने से द्वीपों की संख्या का नियम होने पर भी समुद्रों की संख्या का कोई नियम नहीं बनता है, इसलिए समस्त समुद्रों में मनुष्यों के सद्भाव का प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर–दूसरे और तीसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते हैं, क्योंकि, परमागम में वैसा माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार प्रथम विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अढ़ाई द्वीप में मनुष्यों के अस्तित्व का नियम हो जाने पर शेष के द्वीपों में जिस प्रकार मनुष्यों के अभाव की सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार शेष समुद्रों में भी मनुष्यों का अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, शेष द्वीपों की तरह दो समुद्रों के अतिरिक्त शेष समुद्र भी मानुषोत्तर से परे हैं। इसलिए सामर्थ्य से ही दो समुद्रों में मनुष्य पाये जाते हैं, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है। - भरत क्षेत्र के कुछ देशों का निर्देश
हरिवंशपुराण/11/64-75 का केवल भाषानुवाद―कुरुजांगल, पांचाल, सूरसेन, पटच्चर, तुलिंग, काशि, कौशल, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, त्रिगर्त, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयान् कोशल और मोक ये मध्यदेश थे।64-65। वाह्लीक, आत्रेय, कांबोज, यवन, आभीर, मद्रक, क्वाथतोय, शूर, वाटवान, कैकय, गांधार, सिंधु, सौवीर, भारद्वाज, दशेरुक, प्रास्थाल और तीर्णकर्ण ये देश उत्तर की ओर स्थित थे।66-67। खंग, अंगारक, पौंड्र, मल्ल, मस्तक, प्राग्जीतिष, वंग, मगध, मानवर्तिक, मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे। बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दांडीक, कलिंग, आंसिक, कुंतल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन ये दक्षिण दिशा के देश थे। माल्य कल्लीवनोपांत, दुर्ग, सूर्पार, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगर्त, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नरमद ये सब देश पश्चिम दिशा में स्थित थे। दशार्णक, किष्कंध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नैपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अंतप, कौशल, पत्तन और विनिहात्र ये देश विंध्याचल के ऊपर स्थित थे।68-74। भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वज्रखंडिक, ये देश मध्यदेश के आश्रित थे।75।
हरिवंशपुराण/ सर्ग./श्लोक–टंकण द्वीप।(21/102); कुंभकटक द्वीप।(21/123); शकटद्वीप(27/19); कौशलदेश (27/61); दुर्ग देश (17/19); कुशद्यदे (18/9)।
महापुराण/29/ श्लोक नं. भरत चक्रवर्ती के सेनापति ने निम्न देशों को जीता― पूर्वी आर्यखंड की विजय में–कुरु, अवंती, पांचाल, काशी, कोशल, वैदर्भ, मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, सुह्म, पुंड्र, औंड्र, गौड़, दशार्ण, कामरूप, काशमीर, उशीनर, मध्यदेश, कलिंग, अंगार, बंग, अंग, पुंड्र, मगध, मालव, कालकूट, मल्ल, चेदि, कसेरु और वत्स।40-48। मध्य आर्यखंड की विजय में त्रिकलिंग, औद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर, पुन्नाग, कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पांडय, अंतरपांडय।79-80। आंध्र, कलिंग, ओंड्र, चोल, केरल, पांडय।91-96।
महापुराण/30/ श्लोक नं. पश्चिमी आर्यखंड की विजय में–सोरठ (101), कांबोज, बाह्लीक, तैतिल, आरट्ट, सैंधव, वानायुज, गांधार, वाण।107-108।–उत्तर म्लेक्षखंडज में चिलात व आवर्त।(32/46)। - भरतक्षेत्र के कुछ पर्वतों का निर्देश
हरिवंशपुराण/सर्ग/श्लोक-गिरिकूट (21/102); कर्कोटक (21/123); राजग्रह में ह्रीमंत (26/45); वरुण (27/12) विंध्याचल (17/36)।
महापुराण/29/ श्लोक–ऋष्यमूक, कोलाहल, माल्य, नागप्रिय।55-57। तैरश्चिक, वैडूर्य, कूटाचल, परियात्रा, पुष्पगिरि, स्मितगिरि, गदा, ऋक्षवान्, वातपृष्ठ, कंबल, वासवंत, असुरधूपन, भदेभ, अंगिरेयक।67-70। विंध्याचल के समीप में नाग, मलय, गोशीर्ष, दुर्दर, पांडय, कवाटक, शीतगुह, श्रीकटन, श्रीपर्वत, किष्किंध।88-90।
महापुराण/30/ श्लोक–त्रिकूट, मलयगिरि, पांडयवाटक।26। सह्य।38। तुंगवरक, कृष्णगिरि, सुमंदर, मुकुंद,।49-50। विंध्याचल।65। गिरनार।94।
महापुराण/33/ श्लोक कैलाश पर्वत विजयार्ध के दक्षिण, लवण समुद्र से उत्तर व गंगा नदी के पश्चिम भाग में अयोध्या में निकट बताया है। - भरत क्षेत्र की कुछ नदियों का निर्देश
हरिवंशपुराण/सर्ग/श्लोक-हरिद्वती, चंडवेगा, गजवती, कुसुमवती, सुवर्णवती ये पाँच नदियाँ वरुण पर्वत पर हैं। (27/13) ऐरावती।(21/102)।
महापुराण/ सर्ग/श्लोक–सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती, रवेस्या–ये नदियाँ पूर्वी मध्य देश में हैं; गंभीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा, निधुरा, उदुंबरी, पनसा, तमसा, प्रमृशा, शुक्तिमती, यमुना–ये नदियाँ पूर्व में हैं। शोन पूर्वी उत्तर में, बीजा दोनों के बीच में और नर्मदा पूर्वी दक्षिण में है। (29/49-54)। क्षत्रवती, चित्रवती, माल्यवती, वेणुमती, दशार्णा, नालिका, सिंधु, विशाला, पारा, मिकुंदरी, बहुव्रजा, रम्या, सिकतिनी, कुहा, समतोया, कंजा, कपीवती, निर्विंध्या, जंबूमती, वसुमती, शर्करावती, शिप्रा, कृतमाला, परिंजा, पनसा, अवंतिकामा, हस्तिपानी, कांगधुनी, व्याघ्री, चर्मण्वती, शतभागा, नंदा, करभवेगिनी, चुल्लितापी, रेवा, सप्तपारा, कौशिकी।(29/28-66)। तैला, इक्षुमती, नक्ररवा, वंगा, श्वसना, वैतरणी, माषवती, महेंद्रका, शुष्क, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससरोवर, सुप्रयोगा, कृष्णावर्णा, सन्नीरा, प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सूकरिका, अंबर्णा।(29/83-87)। भीमरथी, दारुवेणी, नीरा, मूला, बाणा, केतवा, करीरी, प्रहरा, मुररा, पारा, मदना, गोदावरी, तापी, लांगल खातिका।(30/55-63)। कुसुमवती, हरणवती, गजवती, चंडवेगा। (59/119)। - भरतक्षेत्र के कुछ नगरों का निर्देश
हरिवंशपुराण/17/ श्लोक दुर्गदेश में इलावर्धन।19। नर्मदा नदी पर माहिष्मती।21। वरदा नदी पर कुंडिनपुर।23। पौलोमपुर।25। रेवा नदी पर इंद्रपुर।27। जयंती व वनवास्या।27। कल्पपुर।29। शुभ्रपुर।32। वज्रपुर।33। विंध्याचल पर चेदि।36। शुक्तीमती नदी पर शुक्तिमती।36। भद्रपुर, हस्तनापुर, विदेह।34। मथुरा, नागपुर।164।
हरिवंशपुराण 18/ श्लोक―कुशद्यदेश में शौरपुर।9। भद्रलपुर।111।
हरिवंशपुराण/24/ श्लोक―कलिंगदेश में कांचनपुर।10। अचलग्राम।25। शालगुहा।29। जयपुर।30। इलावर्धन।34। महापुर।37।
हरिवंशपुराण/25/ श्लोक―गजपुर।6।
हरिवंशपुराण/27/ श्लोक सिंहपुर।19। पोदन।55। वर्धकि।61। साकेतपुर (अयोध्या)।63। धरणीतिलक।77। चक्रपुर।89। चित्रकारपुर।97।
- मनुष्य लोक का सामान्य स्वरूप व विस्तार