वृत्ति परिसंख्यान: Difference between revisions
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<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/445 </span><span class="PrakritText"> एगादि-गिहपमाणं किच्चा संकप्प-कप्पियं विरसं । भोज्जं पसुव्व भुंजदि वित्तिपमाणं तवो तस्स ।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि आहार के लिए जाने से पहिले अपने मन में ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज एक घर या दो घर तक जाऊँगा अथवा नीरस आहार मिलेगा तो आहार ग्रहण करूँगा और वैसा आहार मिलने पर पशु की तरह उसे चर लेता है, उस मुनि के वृत्तिपरिसंख्यान तप होता है । <br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/445 </span><span class="PrakritText"> एगादि-गिहपमाणं किच्चा संकप्प-कप्पियं विरसं । भोज्जं पसुव्व भुंजदि वित्तिपमाणं तवो तस्स ।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि आहार के लिए जाने से पहिले अपने मन में ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज एक घर या दो घर तक जाऊँगा अथवा नीरस आहार मिलेगा तो आहार ग्रहण करूँगा और वैसा आहार मिलने पर पशु की तरह उसे चर लेता है, उस मुनि के वृत्तिपरिसंख्यान तप होता है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> वृत्ति परिसंख्यान तप का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/8 </span><span class="SanskritText"> वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगंतव्यम् ।</span> = <span class="HindiText">वृत्तिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के अर्थ किया जाता है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/19/4/618/25 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/135/2 )</span> । </span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/8 </span><span class="SanskritText"> वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगंतव्यम् ।</span> = <span class="HindiText">वृत्तिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के अर्थ किया जाता है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/19/4/618/25 )</span>; <span class="GRef">( चारित्रसार/135/2 )</span> । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 26/57/6 </span><span class="PrakritText">एसा केसिं कायव्वा । सगतवोविसेसेण भव्वजणमुवसमेदूण सगरस-रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहणचित्तेहि वा । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यह किसको करना चाहिए? <strong>उत्तर–</strong>जो अपने तप विशेष के द्वारा भव्यजनों को शांत करके अपने रस, रुधिर और मास के शोषण द्वारा इंद्रिय संयम की इच्छा करते हैं, उन साधुओं को करना चाहिए, अथवा जो भाजन और भोजनादि विषय रागादि को दूर करना चाहते हैं, उन्हें करना चाहिए <span class="GRef">( चारित्रसार/135/1 )</span> </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 13/5, 4, 26/57/6 </span><span class="PrakritText">एसा केसिं कायव्वा । सगतवोविसेसेण भव्वजणमुवसमेदूण सगरस-रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहणचित्तेहि वा । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यह किसको करना चाहिए? <strong>उत्तर–</strong>जो अपने तप विशेष के द्वारा भव्यजनों को शांत करके अपने रस, रुधिर और मास के शोषण द्वारा इंद्रिय संयम की इच्छा करते हैं, उन साधुओं को करना चाहिए, अथवा जो भाजन और भोजनादि विषय रागादि को दूर करना चाहते हैं, उन्हें करना चाहिए <span class="GRef">( चारित्रसार/135/1 )</span> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/18 </span><span class="PrakritText">आहारसंज्ञाया जयो वृत्तिपरिसंख्यानं ।</span> = <span class="HindiText">आहार संज्ञा का जय करना वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है । <br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/18 </span><span class="PrakritText">आहारसंज्ञाया जयो वृत्तिपरिसंख्यानं ।</span> = <span class="HindiText">आहार संज्ञा का जय करना वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> वृत्तिपरिसंख्यान नित्य करने का नियम नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना </span>मू./वि.147/469 <span class="PrakritText">अणुपुव्वेणाहारं संवट्ठंतो य सल्लिहइ देहं । दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ ।247। दिवसुग्गहिगेण तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिंदिनेऽनशनं, एकस्मिंदिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । </span>= <span class="HindiText">क्रम से आहार कमी करते-करते क्षपक अपना देह कृश करता है । प्रतिदिन जिसका नियम किया है ऐसे तपश्चरण से अर्थात् एक दिन अनशन, दूसरे दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस क्रम से क्षपक सल्लेखना करता है, अपना देह कृश करता है । <br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना </span>मू./वि.147/469 <span class="PrakritText">अणुपुव्वेणाहारं संवट्ठंतो य सल्लिहइ देहं । दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ ।247। दिवसुग्गहिगेण तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिंदिनेऽनशनं, एकस्मिंदिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । </span>= <span class="HindiText">क्रम से आहार कमी करते-करते क्षपक अपना देह कृश करता है । प्रतिदिन जिसका नियम किया है ऐसे तपश्चरण से अर्थात् एक दिन अनशन, दूसरे दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस क्रम से क्षपक सल्लेखना करता है, अपना देह कृश करता है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/8 </span><span class="SanskritText">वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः । गृहसप्तकमेव प्रविशामि, एकमेव पाटकं दरिद्रगृहमेकं । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः । गृहसप्तकादिकादधिकप्रवेशः, पाटांतरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । </span>= <span class="HindiText">‘‘मैं सात घरों में ही प्रवेश करूँगा, अथवा एक दरवाजे में प्रवेश करूँगा, किंवा दरिद्री के घर में ही आज प्रवेश करूँगा, इस प्रकार के दाता से अथवा इस प्रकार की स्त्री से यदि दान मिलेगा तो लेंगे’’-ऐसा संकल्प कर सात घरों से अधिक घरों में प्रवेश करना, दूसरों को मैं भोजन कराऊँगा इस हेतु से भिन्न फाटक में प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसंख्यान के अतिचार हैं । </span></li> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/8 </span><span class="SanskritText">वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः । गृहसप्तकमेव प्रविशामि, एकमेव पाटकं दरिद्रगृहमेकं । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः । गृहसप्तकादिकादधिकप्रवेशः, पाटांतरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । </span>= <span class="HindiText">‘‘मैं सात घरों में ही प्रवेश करूँगा, अथवा एक दरवाजे में प्रवेश करूँगा, किंवा दरिद्री के घर में ही आज प्रवेश करूँगा, इस प्रकार के दाता से अथवा इस प्रकार की स्त्री से यदि दान मिलेगा तो लेंगे’’-ऐसा संकल्प कर सात घरों से अधिक घरों में प्रवेश करना, दूसरों को मैं भोजन कराऊँगा इस हेतु से भिन्न फाटक में प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसंख्यान के अतिचार हैं । </span></li> | ||
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Latest revision as of 15:25, 27 November 2023
- वृत्ति परिसंख्यान
भगवती आराधना/218-221/433 गत्तापच्चागदं उज्जुवीहि गोमुत्तियं च पेलवियं। संबूकावट्टंपि य पदंगवीधी य गोपरिया।218। पडियणियंसणभिक्खा परिमाणं दत्तिघासपरिमाणं। पिंडेहणा य पाणेसणा य जागूय पुग्गलया।219। संसिट्ठ फलिह परिक्खा पुप्फोवहिदं व सुद्धगोवहिदं।220। पत्तस्स दायग्गस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए। इच्चेवमादिविधिणा णादव्वा वुत्तिपरिसंखा।221। = जिस मार्ग से आहारार्थ गमन किया है, उसी मार्ग से लौटते समय, अथवा सरल रास्ते से जाते समय, अथवा गोमूत्रवत् मोड़ों सहित भ्रमण करते हुए, अथवा संदूक या पेटी के समान चतुष्कोण रूप से भ्रमण करते हुए, अथवा शंख के समान आवर्तों सहित भ्रमण करते हुए, अथवा पक्षियों की पंक्ति की भाँति भ्रमण करते हुए, अथवा जिस श्रावक के घर में आहार ग्रहण करने का संकल्प किया है उसी में, इत्यादि प्रकार से आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं।218। एक-दो आदि फाटकों तक प्राप्त ही अथवा विवक्षित फाटक में प्राप्त ही, अथवा विवक्षित घर के आँगन में प्राप्त ही, अथवा विवक्षित घरके आँगन में ग्राप्त ही, अथवा विवक्षित फाटक की भूमि में प्राप्त ही, (घर में प्रवेश न करके फाटक की भूमि में ही यदि प्राप्त होगा तो), अथवा एक या दो बार परोसा ही, अथवा एक या दो आदि दाताओं द्वारा दिया गया ही, अथवा एक या दो आदि ग्रास ही, अथवा पिंडरूप ही द्रवरूप नहीं, अथवा द्रवरूप ही पिंडरूप नहीं, अथवा विवक्षित धान्यादिरूप आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं ।219। कुलत्थादि धान्यों से मिश्रित ही, अन्यथा थाली के मध्य भात रखकर उसके चारों ओर शाक पुरसा होगा तो, अथवा मध्य में अन्न रखकर चारों तरफ व्यंजन रखे होंगे तो, अथवा व्यंजनों के बीच में पुष्पों के समान अन्न रखा होगा तो, अथवा मोठ आदि धान्य से अमिश्रित तथा चटनी वगैरह व्यंजनों से मिश्रित ही, अथवा लेवड (हाथ को चिकना करने वाला आहार) ही, अथवा अलेवड ही, अथवा भात के सिक्थों सहित या रहित ही भोजन मिलेगा तो लूँगा अन्यथा नहीं ।220 । सुवर्ण या मिट्टी आदि के पात्र में पुरसा ही, अथवा बालिका या तरुणी आदि विवक्षित दातार के हाथ से ही, अथवा भूषण-रहित या ब्राह्मणी आदि विवक्षित स्त्री के हाथ से ही आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं । इत्यादि नाना प्रकार के नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान नाम का ताप है ।221।
मू.आ./355 गोयरपमाणदायगभायणणाणविधाण जं गण्णं । तह एसणस्स गहणं विविधस्स वृत्तिपरिसंखा ।355। = गृहों का प्रमाण, भोजनदाता का विशेष, काँसे आदि पात्रका विशेष, मौठ, सत्तू आदि भोजन का विशेष इनमें अनेक तरह के विकल्प कर भोजन ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान हैं ।355। ( अनगारधर्मामृत/7/26/675 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/7 भिक्षार्थिनो मुनेरेकागारादिविषयः संकल्पः चिंतावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानम् । = भिक्षा के इच्छुक मुनिका एक घर आदि विषयक संकल्प अर्थात् चिंता का अवरोध करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।
राजवार्तिक/9/19/4/618/24 एकागारसप्तवेश्मैरथ्यार्द्ध ग्रामादिविषयः संकल्पो वृत्तिपरिसंख्यानम् । = एक अथवा सात घर, एक-दो आदि गली, आधे ग्राम आदि के विषय में संकल्प करना कि एक या दो घर से ही भोजन लूँगा अधिक से नहीं, सो वृत्तिपरिसंख्यान तप है । ( चारित्रसार/135/1 ) ।
धवला 13/5, 4, 26/57/4 भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा वुत्ती णाम । तिस्से वुत्तीए परिसंखाणं गहणं वुत्तिपरिसंखाणं णाम । एदम्मि वुत्तिपरिसंखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो वुत्तिपरिसंखाणं णाम तवो त्ति भणिदं होदि । = भोजन, भाजन, घर, बार (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है । उस वृत्ति का परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इस वृत्तिपरिसंख्यान में प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण नियंत्रण होता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
तत्त्वसार/7/12 एकवस्तुदशागारपानमुद्गादिगोचरः । संकल्पः क्रियते यत्र वृत्तिसंख्या हि तत्तपः ।12। = ‘मैं आज एक वस्तुका ही भोजन करूँगा, अथवा दश घर से अधिक न फिरूँगा, अथवा अमुक पान मात्र ही करूँगा या मूँग ही खाऊँगा इत्यादि अनेक प्रकार के संकल्प को वृत्तिपरिसंख्या तप कहते हैं ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/445 एगादि-गिहपमाणं किच्चा संकप्प-कप्पियं विरसं । भोज्जं पसुव्व भुंजदि वित्तिपमाणं तवो तस्स । = जो मुनि आहार के लिए जाने से पहिले अपने मन में ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज एक घर या दो घर तक जाऊँगा अथवा नीरस आहार मिलेगा तो आहार ग्रहण करूँगा और वैसा आहार मिलने पर पशु की तरह उसे चर लेता है, उस मुनि के वृत्तिपरिसंख्यान तप होता है ।
- वृत्ति परिसंख्यान तप का प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/8 वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगंतव्यम् । = वृत्तिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के अर्थ किया जाता है । ( राजवार्तिक/9/19/4/618/25 ); ( चारित्रसार/135/2 ) ।
धवला 13/5, 4, 26/57/6 एसा केसिं कायव्वा । सगतवोविसेसेण भव्वजणमुवसमेदूण सगरस-रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहणचित्तेहि वा । = प्रश्न–यह किसको करना चाहिए? उत्तर–जो अपने तप विशेष के द्वारा भव्यजनों को शांत करके अपने रस, रुधिर और मास के शोषण द्वारा इंद्रिय संयम की इच्छा करते हैं, उन साधुओं को करना चाहिए, अथवा जो भाजन और भोजनादि विषय रागादि को दूर करना चाहते हैं, उन्हें करना चाहिए ( चारित्रसार/135/1 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/18 आहारसंज्ञाया जयो वृत्तिपरिसंख्यानं । = आहार संज्ञा का जय करना वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है ।
- वृत्तिपरिसंख्यान नित्य करने का नियम नहीं
भगवती आराधना मू./वि.147/469 अणुपुव्वेणाहारं संवट्ठंतो य सल्लिहइ देहं । दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ ।247। दिवसुग्गहिगेण तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिंदिनेऽनशनं, एकस्मिंदिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । = क्रम से आहार कमी करते-करते क्षपक अपना देह कृश करता है । प्रतिदिन जिसका नियम किया है ऐसे तपश्चरण से अर्थात् एक दिन अनशन, दूसरे दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस क्रम से क्षपक सल्लेखना करता है, अपना देह कृश करता है ।
- वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/487/707/8 वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः । गृहसप्तकमेव प्रविशामि, एकमेव पाटकं दरिद्रगृहमेकं । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्पः । गृहसप्तकादिकादधिकप्रवेशः, पाटांतरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । = ‘‘मैं सात घरों में ही प्रवेश करूँगा, अथवा एक दरवाजे में प्रवेश करूँगा, किंवा दरिद्री के घर में ही आज प्रवेश करूँगा, इस प्रकार के दाता से अथवा इस प्रकार की स्त्री से यदि दान मिलेगा तो लेंगे’’-ऐसा संकल्प कर सात घरों से अधिक घरों में प्रवेश करना, दूसरों को मैं भोजन कराऊँगा इस हेतु से भिन्न फाटक में प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसंख्यान के अतिचार हैं ।