स्वप्न: Difference between revisions
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<li id="1"><strong class="HindiText">भेद व लक्षण</strong> | <li id="1"><strong class="HindiText">भेद व लक्षण</strong> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/41/59-61 </span><span class="SanskritText">ते च स्वप्ना द्विधाम्नाता: स्वस्थास्वस्थात्मगोचरा:। समैस्तु धातुभि: स्वस्था विषमैरितरे मता:।59। तथ्या: स्यु: स्वस्य संदृष्टा मिथ्या स्वप्ना विपर्ययात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ।60। स्वप्नानां द्वैतमस्त्यन्यद्दोषदैवसमुद्भवम् । दोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्या: स्युर्दैवसंभवा:।61।</span> | |||
< | <span class="HindiText">स्वप्न दो प्रकार के हैं-स्वस्थ अवस्थावाले, अस्वस्थ अवस्थावाले। जो धातुओं की समानता रहते दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्थावाले हैं, और जो धातुओं की असमानता से दीखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थावाले हैं।59। स्वस्थ अवस्था में दीखने वाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दीखने वाले स्वप्न असत्य होते हैं।60। स्वप्नों के और भी दो भेद हैं-एक दैव से उत्पन्न होने वाले, दूसरे दोष से उत्पन्न होने वाले। दैव से उत्पन्न होने वाले स्वप्न सत्य तथा दोष से उत्पन्न होने वाले असत्य हुआ करते हैं।61। देखें [[ निमित्त#2.3 | निमित्त - 2.3]]। (वात, पित्तादि के प्रकोप से रहित व्यक्ति सूर्य चंद्रमा आदि को देखता है वह शुभस्वप्न तथा गर्दभ, ऊँट आदि पर चढ़ना, व प्रदेश गमनादि देखता है वह अशुभ स्वप्न है। इसके फलरूप सुख-दु:खादि को बताना स्वनिमित्त है। स्वप्न में हाथी आदि का दर्शन मात्र चिह्न स्वप्न हैं। और पूर्वापर संबंध रखने वाले को माला स्वप्न कहते हैं।</span> | ||
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<li id="2"><strong class="HindiText">स्वप्न के निमित्त</strong> | <li id="2"><strong class="HindiText">स्वप्न के निमित्त</strong> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/16/215-216/30 </span><span class="PrakritText">स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविषयत्वान्न निरालंबनं । तथा च महाभाष्यकार:-अणुहूयदिट्ठचिंतिय सुयपयइवियारदेवयाणूवा। सुमिणस्स निमित्ताइं पुण्णं पावं च णाभावो।</span> | |||
< | <span class="HindiText">स्वप्न में भी जाग्रत दशा में अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिए स्वप्न ज्ञान भी सर्वथा निर्विषय नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है-''अनुभव किये हुए, देखे हुए, विचारे हुए, सुने हुए, पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृति के विकार, दैविक और जल प्रधान प्रदेश स्वप्न के कारण होते हैं। सुख निद्रा आने से पुण्य रूप और सुख निद्रा न आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं। वास्तव में स्वप्न सर्वथा अवस्तु नहीं हैं।</span> | ||
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<li id="3"><strong class="HindiText">तीर्थंकर की माता के 16 स्वप्न</strong> | <li id="3"><strong class="HindiText">तीर्थंकर की माता के 16 स्वप्न</strong> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/12/155-161 </span><span class="SanskritText">शृणु देवि महान् पुत्रो भविता ते गजेक्षणात् । समस्तभुवनज्येष्ठो महावृषभदर्शनात् ।155। सिंहेनानंतवीर्योऽसौ दाम्ना सद्धर्मतीर्थकृत् । लक्ष्म्याभिषेकमाप्तासौ मेरोर्मूर्ध्नि सुरोत्तमै:।156। पूर्णेंदुना जनाह्लादी भास्वता भास्वरद्युति:। कुंभाभ्यां निधिभागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात् ।157। सरसा लक्षणोद्भासी सोऽब्धिना केवली भवेत् । सिंहासनेन साम्राज्यम् अवाप्स्यति जगद्गुरु:।158। स्वर्विमानावलोकेन स्वर्गादवतरिष्यति। फणींद्रभवनालोकात् सोऽवधिज्ञानलोचन:।159। गुणानामाकर: प्रोद्यद्रत्नराशिनिशामनात् । कर्मेंधनधगप्येष निर्धूमज्वलनेक्षणात् ।160। वृषभाकारमादाय भवत्यास्यप्रवेशनात् । त्वद्गर्भे वृषभो देव: स्वमाधास्यति निर्मले।161।</span> | |||
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<span>[[File:1 ऐरावत हाथी.jpg|300px|माता को 16 उत्तम स्वप्न]]</span> | <span>[[File:1 ऐरावत हाथी.jpg|300px|माता को 16 उत्तम स्वप्न]]</span> | ||
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<li id="5"><strong class="HindiText">नारायण की माता के सात स्वप्न</strong> | <li id="5"><strong class="HindiText">नारायण की माता के सात स्वप्न</strong> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/35/13-15 </span><span class="SanskritText">ज्वलद्बृहज्ज्वालहुताशमुच्चै: सुरध्वजं रत्नमरीचिचक्रम् । मृगाधिपं चानतमाविशंतं निशाम्य सौम्या बुबुधे सकंपा।13। अपूर्वसुस्वप्नविलोकनात्सा सविस्मया हृष्टतनूरुहा तान् । जगौ प्रभाते कृतमंगलांगा समेत्य पत्येऽभिदधे स विद्वान् ।14। प्रतापविध्वस्तरिपु: सुतस्ते प्रियोऽतिसौभाग्ययुतोऽभिषेकी। दिवोऽवतीर्यातिरुचि: स्थिरोऽभीर्भविष्यति क्षिप्रमिनो जगत्या:।15।</span> | |||
< | <span class="HindiText">(वसुदेव अपनी रानी देवकी से कृष्ण के गर्भ से पूर्व देखे गये स्वप्नों का फल कहते हैं)-हे प्रिये ! जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा ऐसा तेरे पुत्र होगा।</span> | ||
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<li id="">सूर्य देखने से शत्रु-विध्वंसक प्रताप से युक्त होगा</li> | <li id="">सूर्य देखने से शत्रु-विध्वंसक प्रताप से युक्त होगा</li> | ||
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<li id="7"><strong class="HindiText">राजा श्रेयांस के सात स्वप्न</strong> | <li id="7"><strong class="HindiText">राजा श्रेयांस के सात स्वप्न</strong> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/20/34-40 </span><span class="SanskritText">सुमेरुमैक्षतोत्तुंगं हिरण्यमहातनुम् । कल्पद्रुमं च शाखाग्रलंबि भूषणभूषितम् ।34। सिंहं संहारसंध्याभकेसरोद्धुरकंधरम् । शृंगाग्रलग्नमृत्स्नं च वृषभं कूलमुद्रुजम् ।35। सूर्येंदू भुवनस्येव नयने प्रस्फुरद्द्युती। सरस्वंतमपि प्रोच्चैर्वीचिं रत्नाचितार्णसम् ।36। अष्टमंगलधारीणि भूतरूपाणि चाग्रत:। सोऽपश्यद् भगवत्पाददर्शनैकफलानिमान् ।37। सप्रश्रयमथासाद्य प्रभाते प्रीतमानस:। सोमप्रभाय तान् स्वप्नान् यथादृष्टं न्यवेदयत् ।38। तत: पुरोधा: कल्याणं फलं तेषामभाषत। प्रसरद्दशनज्योत्स्नाप्रधौतककुबंतर:।39। मेरुसंदर्शनाद्देवो यो मेरुरिव सून्नत:। मेरौ प्राप्ताभिषेक: स गृहमेष्यति न: स्फुटम् ।40।</span> | |||
< | <span class="HindiText">राजा श्रेयांस ने भगवान् को आहारदान से पूर्व प्रथम स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा। फिर क्रम से आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष, किनारा उखाड़ता हुआ बैल, सूर्य-चंद्रमा, लहरों और रत्नों से सुशोभित समुद्र, और सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य लिये हुए व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखी।34-37। मेरु के देखने से यह फल प्रकट होता है कि जिसका सुमेरु पर अभिषेक हुआ है, ऐसा देव (ऋषभ भगवान्) अवश्य आज हमारे घर में आवेगा।40। और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं।41।</span> | ||
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<p>6. रत्नकिरणयुक्त देव-ध्वजा पुत्र का स्थिर-स्वभावी होना ।</p> | <p>6. रत्नकिरणयुक्त देव-ध्वजा पुत्र का स्थिर-स्वभावी होना ।</p> | ||
<p>7. मुख में प्रवेश करता सिंह पुत्र का निर्भय होना ।</p> | <p>7. मुख में प्रवेश करता सिंह पुत्र का निर्भय होना ।</p> | ||
<p><span class="GRef"> महापुराण 12.155-161, 15.123-126, 20. 33-37, 41.59-79 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#115|हरिवंश पुराण - 10.115-117]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_35#13| | <p><span class="GRef"> महापुराण 12.155-161, 15.123-126, 20. 33-37, 41.59-79 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_10#115|हरिवंश पुराण - 10.115-117]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_35#13|35.13-15]] </span></p> | ||
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Revision as of 15:29, 28 November 2023
सिद्धांतकोष से
- भेद व लक्षण महापुराण/41/59-61 ते च स्वप्ना द्विधाम्नाता: स्वस्थास्वस्थात्मगोचरा:। समैस्तु धातुभि: स्वस्था विषमैरितरे मता:।59। तथ्या: स्यु: स्वस्य संदृष्टा मिथ्या स्वप्ना विपर्ययात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ।60। स्वप्नानां द्वैतमस्त्यन्यद्दोषदैवसमुद्भवम् । दोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्या: स्युर्दैवसंभवा:।61। स्वप्न दो प्रकार के हैं-स्वस्थ अवस्थावाले, अस्वस्थ अवस्थावाले। जो धातुओं की समानता रहते दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्थावाले हैं, और जो धातुओं की असमानता से दीखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थावाले हैं।59। स्वस्थ अवस्था में दीखने वाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दीखने वाले स्वप्न असत्य होते हैं।60। स्वप्नों के और भी दो भेद हैं-एक दैव से उत्पन्न होने वाले, दूसरे दोष से उत्पन्न होने वाले। दैव से उत्पन्न होने वाले स्वप्न सत्य तथा दोष से उत्पन्न होने वाले असत्य हुआ करते हैं।61। देखें निमित्त - 2.3। (वात, पित्तादि के प्रकोप से रहित व्यक्ति सूर्य चंद्रमा आदि को देखता है वह शुभस्वप्न तथा गर्दभ, ऊँट आदि पर चढ़ना, व प्रदेश गमनादि देखता है वह अशुभ स्वप्न है। इसके फलरूप सुख-दु:खादि को बताना स्वनिमित्त है। स्वप्न में हाथी आदि का दर्शन मात्र चिह्न स्वप्न हैं। और पूर्वापर संबंध रखने वाले को माला स्वप्न कहते हैं।
- स्वप्न के निमित्त स्याद्वादमंजरी/16/215-216/30 स्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविषयत्वान्न निरालंबनं । तथा च महाभाष्यकार:-अणुहूयदिट्ठचिंतिय सुयपयइवियारदेवयाणूवा। सुमिणस्स निमित्ताइं पुण्णं पावं च णाभावो। स्वप्न में भी जाग्रत दशा में अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिए स्वप्न ज्ञान भी सर्वथा निर्विषय नहीं है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है-अनुभव किये हुए, देखे हुए, विचारे हुए, सुने हुए, पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृति के विकार, दैविक और जल प्रधान प्रदेश स्वप्न के कारण होते हैं। सुख निद्रा आने से पुण्य रूप और सुख निद्रा न आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं। वास्तव में स्वप्न सर्वथा अवस्तु नहीं हैं।
- तीर्थंकर की माता के 16 स्वप्न
महापुराण/12/155-161 शृणु देवि महान् पुत्रो भविता ते गजेक्षणात् । समस्तभुवनज्येष्ठो महावृषभदर्शनात् ।155। सिंहेनानंतवीर्योऽसौ दाम्ना सद्धर्मतीर्थकृत् । लक्ष्म्याभिषेकमाप्तासौ मेरोर्मूर्ध्नि सुरोत्तमै:।156। पूर्णेंदुना जनाह्लादी भास्वता भास्वरद्युति:। कुंभाभ्यां निधिभागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात् ।157। सरसा लक्षणोद्भासी सोऽब्धिना केवली भवेत् । सिंहासनेन साम्राज्यम् अवाप्स्यति जगद्गुरु:।158। स्वर्विमानावलोकेन स्वर्गादवतरिष्यति। फणींद्रभवनालोकात् सोऽवधिज्ञानलोचन:।159। गुणानामाकर: प्रोद्यद्रत्नराशिनिशामनात् । कर्मेंधनधगप्येष निर्धूमज्वलनेक्षणात् ।160। वृषभाकारमादाय भवत्यास्यप्रवेशनात् । त्वद्गर्भे वृषभो देव: स्वमाधास्यति निर्मले।161।
(नाभिराय मरुदेवी से कहते हैं) हे देवी ! सुन,
- उत्तम बैल के देखने से समस्त लोक में ज्येष्ठ
- सिंह के देखने से अनंत बल से युक्त
- मालाओं के देखने से समीचीन धर्म का प्रवर्तक
- लक्ष्मी के देखने से सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त
- पूर्ण चंद्रमा को देखने से लोगों को आनंद देने वाला
- सूर्य को देखने से दैदीप्यमान प्रभा का धारक
- दो कलश युगल देखने से अनेक निधि को प्राप्त, और
- मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा।155-157।
- सरोवर को देखने से अनेक लक्षणों से शोभित
- समुद्र को देखने से केवली और
- सिंहासन देखने से जगद्गुरु होकर साम्राज्य प्राप्त करेगा।158।
- देवों का विमान देखने से स्वर्ग से अवतीर्ण
- नागेंद्र का भवन देखने से अवधिज्ञान से युक्त
- चमकते रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान
- निर्धूम अग्नि देखने से कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला होगा।159-160।
तुम्हारे मुख में वृषभ ने प्रवेश किया है इसलिए तुम्हारे गर्भ में वृषभदेव प्रवेश करेंगे।161।
- चक्रवर्ती की माता के 6 स्वप्नों का फल
महापुराण/15/123-126 त्वं देवि पुत्रमाप्तासि गिरींद्रात् चक्रवर्तिनम् । तस्य प्रतापितामर्क: शास्तींदु: कांतिसंपदम् ।123। सरोजाक्षि सरोदृष्टे: असौ पंकजवासिनीम् । वोढा व्यूढोरसा पुण्यलक्षणांकितविग्रह:।124। महीग्रसनत: कृत्स्नां मही सागरवाससम् । प्रतिपालयिता देवि विश्वराट् तव पुत्रक:।125। सागराच्चरमांगोऽसौ तरिता जन्मसागरम् । ज्यायान्पुत्रशतस्यायम् इक्ष्वाकुकुलनंदन:।126।
(भगवान् ऋषभ देव यशस्वती के स्वप्नों का फल कहते हैं) हे देवी ! सुमेरु पर्वत देखने से तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा। सूर्य उसके प्रताप को और चंद्रमा उसकी कांति को सूचित कर रहा है।123। सरोवर के देखने से पवित्र लक्षणों से युक्त शरीर वाला होकर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर लक्ष्मी को धारण करेगा।124। पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से चक्रवर्ती होकर समस्त पृथ्वी का पालन करेगा।125। और समुद्र देखने से चरमशरीरी होकर संसार समुद्र को पार करेगा। इसके अतिरिक्त इक्ष्वाकुवंश को आनंद देने वाला वह पुत्र तेरे 100 पुत्रों में ज्येष्ठ होगा।126।
- नारायण की माता के सात स्वप्न
हरिवंशपुराण/35/13-15 ज्वलद्बृहज्ज्वालहुताशमुच्चै: सुरध्वजं रत्नमरीचिचक्रम् । मृगाधिपं चानतमाविशंतं निशाम्य सौम्या बुबुधे सकंपा।13। अपूर्वसुस्वप्नविलोकनात्सा सविस्मया हृष्टतनूरुहा तान् । जगौ प्रभाते कृतमंगलांगा समेत्य पत्येऽभिदधे स विद्वान् ।14। प्रतापविध्वस्तरिपु: सुतस्ते प्रियोऽतिसौभाग्ययुतोऽभिषेकी। दिवोऽवतीर्यातिरुचि: स्थिरोऽभीर्भविष्यति क्षिप्रमिनो जगत्या:।15।
(वसुदेव अपनी रानी देवकी से कृष्ण के गर्भ से पूर्व देखे गये स्वप्नों का फल कहते हैं)-हे प्रिये ! जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा ऐसा तेरे पुत्र होगा।
- सूर्य देखने से शत्रु-विध्वंसक प्रताप से युक्त होगा
- चंद्रमा को देखने से सबका प्रिय होगा
- दिग्गजों द्वारा लक्ष्मी का अभिषेक देखने से सौभाग्यशाली एवं राज्याभिषेक से युक्त होगा
- आकाश से नीचे आता विमान देखने से स्वर्ग से अवतीर्ण होगा
- दैदीप्यमान अग्नि देखने से अत्यंत कांति से युक्त होगा
- रत्नराशि की किरण से युक्त देवध्वजा देखने से स्थिर प्रकृति का होगा
- मुख में प्रवेश करता सिंह देखने से निर्भय होगा।13-15।
- भरत चक्रवर्ती के 16 स्वप्न-- महापुराण/41/63-79 ।
सं.
प्रमाण श्लो.सं.
स्वप्न
फल
1
63
पर्वत पर 23 सिंह
वीर के अतिरिक्त 23 तीर्थंकरों के समय दुष्ट नयों की उत्पत्ति का अभाव
2
65
सिंह के साथ हिरणों का समूह
वीर के तीर्थ में अनेकों कुलिंगियों की उत्पत्ति
3
66
बड़े बोझ से झुकी पीठवाला घोड़ा
पंचम काल में तपश्चरण के समस्त गुणों से रहित साधु होंगे
4
68
शुष्क पत्ते खाने वाले बकरों का समूह
आगामी काल में दुराचारी मनुष्यों की उत्पत्ति
5
69
हाथी के ऊपर बैठे वानर
क्षत्रिय वंश नष्ट हो जायेंगे
6
70
अन्य पक्षियों द्वारा त्रास किया हुआ उलूक
धर्म की इच्छा से मनुष्य अन्य मत के साधुओं के पास जायेंगे
7
71
आनंद करते भूत
व्यंतर देवों की पूजा होगी
8
72
मध्य भाग में सूखा हुआ तालाब
आर्य खंड में धर्म का अभाव
9
73
मलिन रत्नराशि
ऋद्धिधारी मुनियों का अभाव
10
74
कुत्ते का नैवेद्य आदि से सत्कार करना
गुणी पात्रों के समान अव्रती ब्राह्मणों का सत्कार होगा
11
75
जवान बैल
तरुण अवस्था में ही मुनिपद होगा
12
76
मंडल से युक्त चंद्रमा
अवधि व मन:पर्यय ज्ञान का अभाव होगा
13
77
शोभा नष्ट दो बैल
एकाकी विहार का अभाव होगा
14
78
मेघों से आवृत सूर्य
केवलज्ञान का अभाव होगा
15
79
छाया रहित सूखा वृक्ष
स्त्री-पुरुषों का चारित्र भ्रष्ट होगा
16
79
जीर्ण पत्तों का समूह
महौषधियों का रस नष्ट होगा
- राजा श्रेयांस के सात स्वप्न महापुराण/20/34-40 सुमेरुमैक्षतोत्तुंगं हिरण्यमहातनुम् । कल्पद्रुमं च शाखाग्रलंबि भूषणभूषितम् ।34। सिंहं संहारसंध्याभकेसरोद्धुरकंधरम् । शृंगाग्रलग्नमृत्स्नं च वृषभं कूलमुद्रुजम् ।35। सूर्येंदू भुवनस्येव नयने प्रस्फुरद्द्युती। सरस्वंतमपि प्रोच्चैर्वीचिं रत्नाचितार्णसम् ।36। अष्टमंगलधारीणि भूतरूपाणि चाग्रत:। सोऽपश्यद् भगवत्पाददर्शनैकफलानिमान् ।37। सप्रश्रयमथासाद्य प्रभाते प्रीतमानस:। सोमप्रभाय तान् स्वप्नान् यथादृष्टं न्यवेदयत् ।38। तत: पुरोधा: कल्याणं फलं तेषामभाषत। प्रसरद्दशनज्योत्स्नाप्रधौतककुबंतर:।39। मेरुसंदर्शनाद्देवो यो मेरुरिव सून्नत:। मेरौ प्राप्ताभिषेक: स गृहमेष्यति न: स्फुटम् ।40। राजा श्रेयांस ने भगवान् को आहारदान से पूर्व प्रथम स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखा। फिर क्रम से आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष, किनारा उखाड़ता हुआ बैल, सूर्य-चंद्रमा, लहरों और रत्नों से सुशोभित समुद्र, और सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य लिये हुए व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखी।34-37। मेरु के देखने से यह फल प्रकट होता है कि जिसका सुमेरु पर अभिषेक हुआ है, ऐसा देव (ऋषभ भगवान्) अवश्य आज हमारे घर में आवेगा।40। और ये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं।41।
पुराणकोष से
कल्याणवाद पूर्व में वर्णित निमित्तज्ञान के आठ अंगों में प्रथम अंग । स्वप्न दो प्रकार के माने गये हैं― स्वस्थ स्वप्न और अस्वस्थ स्वप्न । उत्पत्ति के भेद से भी स्वप्न दो प्रकार के होते हैं― 1. दोषों के प्रकोप से उत्पन्न स्वप्न 2. दैव से उत्पन्न स्वप्न । सोते समय रात्रि के पिछले पहर में तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर उनकी माताएँ सोलह स्वप्न देखती हैं । ये स्वप्न और उनके फल निम्न प्रकार बताये गये हैं―
क्र0 स्वप्न नाम स्वप्न फल
1. ऐरावत हाथी उत्तम पुत्र की उत्पत्ति ।
2. दुंदुभि के समान शब्द करता बैल पुत्र का लोक में ज्येष्ठ होना ।
3. सिंह पुत्र का अनंतबल से युक्त होना ।
4. युगल माला पुत्र का समीचीन धर्म का प्रवर्तक होना ।
5. गजाभिषिक्त लक्ष्मी पुत्र का सुमेरु पर्वत पर देवों द्वारा अभिषेक किया जाना ।
6. पूर्णचंद्र पुत्र का जन-जन को आनंद देने वाला होना ।
7. सूर्य पुत्र का दैदीप्यमान प्रभा का धारक देना ।
8. युगल कलश पुत्र को निधियों की प्राप्ति का होना ।
9. युगल मीन पुत्र का सुखी होना ।
10. सरोवर पुत्र का शुभ लक्षणों से युक्त होना ।
11. समुद्र पुत्र का केवली होना ।
12. सिंहासन जगद्गुरु होकर पुत्र का साम्राज्य प्राप्त करना ।
13. देव-विमान पुत्र का अवतरण स्वर्ग से होना ।
14. नागेंद्र-भवन पुत्र का अवधिज्ञानी होना ।
15. रत्नराशि पुत्र का गुणागार होना ।
16. निर्धूम अग्नि पुत्र का कर्मनाशक होना ।
चक्रवर्ती की माता छ: स्वप्न देखती हैं । वे स्वप्न और उनके फल निम्न प्रकार हैं―
क्र0 स्वप्न नाम स्वप्न फल
1. सुमेरु पर्वत चक्रवर्ती पुत्र होना ।
2. सूर्य पुत्र का प्रतापयान होना ।
3. चंद्र पुत्र का कांतिमान होना ।
4. सरोवर पुत्र का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त होना ।
5. पृथिवी का ग्रसा जाना पुत्र का पृथिवी-शासक होना ।
6. समुद्र पुत्र का चरमशरीरी होना ।
नारायण की माता सात स्वप्न देखती है स्वप्नों के नाम एवं फल इस प्रकार हैं―
क्र0 स्वप्न नाम स्वप्न फल
1. उदीयमान सूर्य निज प्रताप से शत्रु-नाशक पुत्र का जन्म होना ।
2. चंद्र पुत्र का सर्वप्रिय होना ।
3. गनाभिषिक्तलक्ष्मी पुत्र का राज्याभिषेक से सहित होना ।
4. नीचे उतरता देव-विमान पुत्र का स्वर्ग से अवतरण होना ।
5. अग्नि पुत्र का कांतिमान होना ।
6. रत्नकिरणयुक्त देव-ध्वजा पुत्र का स्थिर-स्वभावी होना ।
7. मुख में प्रवेश करता सिंह पुत्र का निर्भय होना ।
महापुराण 12.155-161, 15.123-126, 20. 33-37, 41.59-79 हरिवंश पुराण - 10.115-117, 35.13-15