ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 35
From जैनकोष
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार अतिमुक्तक मुनिराज से भगवान् अरिष्टनेमि का चरित सुनकर वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए और भावपूर्वक मुनिराज को नमस्कार कर स्त्री सहित अपने घर चले गये ॥1॥ जिन्हें भोग अत्यंत इष्ट थे ऐसे दोनों दंपति इच्छानुसार क्रीड़ा में आसक्त होते हुए मथुरापुरी में पहले के समान रहने लगे और मृत्यु को शंका से शंकित कंस इनकी निरंतर सेवा-शुश्रूषा करने लगा ॥2॥ तदनंतर देवकी ने कंस के भय का कारण युगल संतानरूप गर्भ धारण किया सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओं में परस्पर के मिल जाने से जो सहाय भाव उत्पन्न होता है, वह शत्रु के लिए महाभय की प्राप्ति का कारण हो जाता है ॥ 3 ॥ तत्पश्चात् प्रसूति काल के आने पर जब देवकी के युगल पुत्र उत्पन्न हुए तब इंद्र की आज्ञा से सुनैगम नाम का देव उन उत्तम युगल पुत्रों को उठाकर सुभद्रिल नगर के सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका (पूर्वभव की रेवती धाय का जीव) के यहाँ पहुंचा आया । उसी समय अलका के भी युगलिया पुत्र हुए थे परंतु भाग्यवश वे उत्पन्न होते ही मर गये थे । नैगम देव उन दोनों मृत पुत्रों को उठाकर देवकी के प्रसूति गृह में रख आया और उसके बाद अपने स्वर्ग लोक को चला गया ॥4-5 ॥ शंका से युक्त कंस ने बहन के प्रसूति का गृह में प्रवेश कर उन दोनों मृतक पुत्रों को देखा और भील के समान रौद्र परिणामी हो पैर पकड़कर उन्हें शिलातल पर पछाड़ दिया ॥ 6 ॥ तदनंतर देवकी ने क्रम-क्रम से दो युगल और उत्पन्न किये सो देव ने उन्हें भी पुत्रों की इच्छा रखने वाली अलका सेठानी के पास भेज दिया । इधर पापी कंस ने भी उन निष्प्राण पुत्रों को पहल के समान ही शिला पर पछाड़ दिया ॥ 7 ॥ तदनंतर अपना पुण्य हो जिनकी रक्षा कर रहा था, जो अलका सेठानी के लिए अत्यंत प्रिय थे, जिनके नृपदत्त, देवपाल, अनीकदत्त, अनीकपाल, शत्रुघ्न और जितशत्रु ये नाम पहले कहे जा चुके थे, जिनका सुखपूर्वक लालन-पालन हो रहा था, तथा जो अत्यंत रूपवान् थे ऐसे वसुदेव के छहों पुत्र धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥8॥ तदनंतर उन पुत्रों के वृद्धिंगत होने पर सुदृष्टि सेठ को नाना प्रकार की अपूर्व-अपूर्व वस्तुओं का लाभ होने लगा और उसके वैभव को वृद्धि ने उस समय अन्य राजाओं के वैभव को भी अतिक्रांत कर दिया ॥ 9॥ इधर पति के कहने से जिसने संतान-वियोग जन्य दुःख को दूर कर दिया था ऐसी देवकी भी धीरे-धीरे प्रतिपद की चंद्रकला के समान दिनों दिन पहले की ही कांति को प्राप्त हो गयी ॥ 10 ॥
तदनंतर एक दिन देवकी, चंद्रमा के समान सफेद भवन में प्रातःकाल के समान सुंदर शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने रात्रि के अंतिम प्रहर में अभ्युदय को सूचित करने वाले निम्नलिखित सात पदार्थ स्वप्न में देखे ॥11॥ पहले स्वप्न में उसने अंधकार को नष्ट करने वाला उगता हुआ सूर्य देखा । दूसरे स्वप्न में उसी के साथ अत्यंत सुंदर पूर्ण चंद्रमा देखा । तीसरे स्वप्न में दिग्गज जिसका अभिषेक कर रहे थे ऐसी लक्ष्मी देखी । चौथे स्वप्न में आकाश तल से नीचे उतरता हुआ विमान देखा । पांचवें स्वप्न में बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से युक्त अग्नि देखी । छठे स्वप्न में ऊँचे आकाश में रत्नों की किरणों से युक्त देवों की ध्वजा देखी और सातवें स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक सिंह देखा । इन स्वप्नों को देखकर सौम्यवदना देवकी भय से कांपती हुई जाग उठी ॥12-13॥ अपूर्व एवं उत्तम स्वप्न देखने से जिसे विस्मय उत्पन्न हो रहा था, जिसके शरीर में रोमांच निकल आये थे और जिसने प्रातःकाल के समय शरीर पर मंगलमय अलंकार धारण कर रखे थे ऐसी देवकी ने जाकर पति से सब स्वप्न कहे और विद्वान पति― राजा वसुदेव ने इस प्रकार उनका फल कहा ॥14॥
‘‘हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही एक ऐसा पुत्र होगा जो समस्त पृथिवी का स्वामी होगा । तुमने पहले स्वप्न में सूर्य को देखा है इससे सूचित होता है कि वह अपने प्रताप से शत्रुओं को नष्ट करने वाला होगा । दूसरे स्वप्न में पूर्ण चंद्रमा देखा है उसके फलस्वरूप वह सबको प्रिय होगा । तीसरे स्वप्न में दिग्गजों द्वारा लक्ष्मी का महाभिषेक देखा है इससे जान पड़ता है कि वह अत्यंत सौभाग्य शाली एवं राज्याभिषेक से युक्त होगा । चौथे स्वप्न में आकाश से नीचे आता हुआ विमान देखा है उससे प्रकट होता है कि वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा । पाँचवें स्वप्न में देदीप्यमान अग्नि देखी है इसके फलस्वरूप वह अत्यंत कांति से युक्त होगा । छठे स्वप्न में रत्नों की किरणों से युक्त देवों की ध्वजा देखी है इसके फलस्वरूप वह स्थिर प्रकृति का होगा और सातवें स्वप्न में मुख में प्रवेश करता हुआ सिंह देखा है इससे जान पड़ता है कि वह निर्भय होगा ॥15॥
इस प्रकार पति के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर ‘तथास्तु’― ऐसा ही होगा― कहती हुई वह अत्यधिक प्रीति को प्राप्त हुई । तदनंतर जिस प्रकार आकाश, संताप की शांति के लिए जगत् हितकारी मेघ को धारण करता है उसी प्रकार उसने शीघ्र ही जगत् का हित करने वाला गर्भ धारण किया ॥16॥ जिसके शारीरिक और मानसिक सुख की वृद्धि हो रही थी ऐसी देवकी का वह गर्भ ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों पृथिवी पर समस्त मनुष्यों का सौमनस्य बढ़ता जाता था ॥17॥ परंतु कंस का क्षोभ, उत्तरोत्तर बढ़ता जाता था । फलस्वरूप जिसकी आत्मा अत्यंत नीच थी, जो गर्भस्थ बालक के गुणों की अपेक्षा नहीं रखता था और जो अलक्ष्यरूप से गर्भ के महीनों तथा दिनों की गिनती लगाता रहता था ऐसा कंस, प्रसव की प्रतीक्षा करता हुआ बहन के गर्भ की रक्षा कर रहा था अर्थात् उस पर पूर्ण देख-रेख रखता था ॥18॥ सब बालक नौ मास में ही उत्पन्न होते हैं परंतु कृष्ण श्रवण नक्षत्र में भाद्रमास के शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को पवित्र करते हुए सातवें ही मास में अलक्षित रूप से उत्पन्न हो गये ॥19॥ जिनका शरीर शंख-चक्र आदि उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त था, जिनके शरीर से देदीप्यमान महानीलमणि के समान प्रकाश प्रकट हो रहा था और जो प्रकृष्ट कांति से सहित थे ऐसे कृष्ण ने अपनी कांति से देवकी के प्रसूतिका गृह को प्रकाशमान कर दिया था ॥20॥ उस समय उस पुरुषोत्तम के प्रभाव से स्नेही बंधुजनों के घरों में अपने आप अच्छे-अच्छे निमित्त प्रकट हुए और शत्रुओं के घरों में भय उत्पन्न करने वाले निमित्त प्रकट हुए ॥21॥ उन दिनों सात दिन से बराबर घनघोर वर्षा हो रही थी फिर भी उत्पन्न होते ही बालक कृष्ण को बलदेव ने उठा लिया और पिता वसुदेव ने उनपर छत्ता तान दिया एवं रात्रि के समय ही दोनों
शीघ्र ही घर से बाहर निकल पड़े ॥ 22 ॥ उस समय समस्त नगरवासी सो रहे थे तथा कंस के सुभट भी गहरी नींद में निमग्न थे इसलिए कोई भी उन्हें देख नहीं सका । गोपुर द्वार पर आये तो किवाड़ बंद थे परंतु श्रीकृष्ण के चरणयुगल का स्पर्श होते ही उनमें निकलने योग्य संधि हो गयो जिससे सब बाहर निकल आये ॥23॥
उस समय पानी की एक बूंद बालक की नाक में घुस गयी जिससे उसे छींक आ गयी । उस छींक का शब्द बिजली और वायु के शब्द के समान अत्यंत गंभीर था । उसी समय ऊपर से आवाज आयी कि तू निर्विघ्न रूप से चिरकाल तक जीवित रह । गोपुर द्वार के ऊपर कंस के पिता राजा उग्रसेन रहते थे । उक्त आशीर्वाद उन्हीं ने दिया था । उनके इस प्रिय आशीर्वाद को सुनकर बलदेव तथा वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए और उग्रसेन से कहने लगे कि हे पूज्य ! रहस्य की रक्षा की जाये । इस देवकी के पुत्र से तुम्हारा छुटकारा होगा ॥24-25॥ इसके उत्तर में उग्रसेन ने स्वीकृत किया कि यह हमारे भाई की पुत्री का पुत्र शत्रु से अज्ञात रहकर वृद्धि को प्राप्त हो । उस समय उग्रसेन के उक्त वचन की प्रशंसा कर दोनों शीघ्र ही नगरी से बाहर निकल गये ॥26॥ उस समय, जिसके सींग देदीप्यमान थे ऐसा एक बैल आगे-आगे मार्ग दिखाता हुआ बड़े वेग से जा रहा था । यमुना का अखंड प्रवाह बह रहा था परंतु श्रीकृष्ण के प्रभाव से उसका महा प्रवाह शीघ्र ही खंडित हो गया ॥27॥ तदनंतर नदी को पार कर वे वृंदावन की ओर गये । वहाँ गाँव के बाहर खरिका में अपनी यशोदा स्त्री के साथ सुनंद नाम का गोप रहता था । वह वंश-परंपरा से चला आया इनका बड़ा विश्वासपात्र व्यक्ति था । बलदेव और वसुदेव ने रात्रि में ही उसे देखा और दोनों को पुत्र सौंपकर कहा कि देखो भाई ! यह पुत्र विशाल नेत्रों का धारक है तथा नेत्रों के लिए कांतिरूपी महा अमृत को बरसाने वाला है । इसे अपना पुत्र समझकर बढ़ाओ और यह रहस्य किसी को प्रकट न हो सके इस बात का ध्यान रखो ॥28-29॥ तदनंतर उसी समय उत्पन्न हुई यशोदा की पुत्री को लेकर दोनों शीघ्र ही वापस आ गये और शत्रु को विश्वास दिलाने के लिए उसे रानी देवकी के लिए देकर गुप्त रूप से स्थित हो गये ॥30॥
तदनंतर बहन की प्रसूति का समाचार पाकर निर्दय कंस प्रसूतिका-गृह में घुस गया । वहाँ निर्दोष कन्या को देखकर यद्यपि इसका क्रोध दूर हो गया था तथापि दीर्घदर्शी होने के कारण उसने विचार किया कि कदाचित् इसका पति मेरा शत्रु हो सकता है । इस शंका से आकुलित होकर उसने उस कन्या को स्वयं उठा लिया और हाथ से मसलकर उसकी नाक चपटी कर दी ॥31-32 ॥ इस प्रकार देवकी के मन को संताप करने वाले कंस ने जब देखा कि अब इसके पुत्र होना बंद हो गया है तब वह संतुष्ट हो हृदय की क्रूरता को छिपाता हुआ कुछ दिनों तक सुख से निवास करता रहा ॥ 33 ॥ तदनंतर जिसका जातसंस्कार कर कृष्ण नाम रखा गया था ऐसा ब्रज वासी बालक नंद और यशोदा की अभूतपूर्व प्रीति को बढ़ाता हुआ सुख से बढ़ने लगा ॥ 34 ॥ जब वह बालक चित्त पड़ा हुआ गदा, खड्ग, चक्र, अंकुश, शंख तथा पद्म आदि चिह्नों की प्रशस्त रेखाओं से चिह्नित लाल-लाल हाथ-पैर चलाता था तब गोप और गोपियों के मन को बरबस खींच लेता था ॥ 35 ॥ नील कमल-जैसी सुंदर शोभा को धारण करने वाले उस मनोहर बालक को, पूर्ण स्तनों को धारण करने वाली गोपिकाएँ स्तन देने के बहाने अतृप्त नेत्रों से टकटकी लगाकर देखती रहती थीं ॥36॥
इधर किसी दिन कंस के हितैषी वरुण नामक निमित्तज्ञानी ने उससे कहा कि राजन् ! यहाँ कहीं नगर अथवा वन में तुम्हारा शत्रु बढ़ रहा है उसकी खोज करनी चाहिए ॥ 67॥ तदनंतर शत्रु के नाश की भावना से कंस ने तीन दिन का उपवास किया सो पूर्व भव में इसने जिन देवियों को यह कहकर वापस कर दिया था कि अभी कुछ काम नहीं है अगले भव में आवश्यकता पड़े तो सहायता करना, वे देवियाँ पूर्व स्वीकृत कार्य को सिद्ध करने के लिए आकर कंस से कहने लगी कि ये हम सब तुम्हारे पूर्व भव के तप से सिद्ध हुई देवियां हैं । आपका जो कार्य हो वह कहिए, बलभद्र और नारायण को छोड़कर कंस का कौन-सा शत्रु क्षण-भर में नष्ट करने योग्य है सो बताओ॥38-39॥ कंस ने कहा कि हमारा कोई वैरी कहीं गुप्त रूप से बढ़ रहा है सो तुम लोग दया से निरपेक्ष हो शीघ्र ही पता लगाकर उसे मृत्यु के मुख में करो―उसे मार डालो ॥40॥ इस प्रकार कंस के द्वारा कथित बात को स्वीकृत कर वे देवियाँ चली गयीं । उनमें से एक देवी शीघ्र ही उग्र-―भयंकर पक्षी का रूप दिखाकर आयो और चोंच द्वारा प्रहार कर बालक कृष्ण को मारने का प्रयत्न करने लगी परंतु कृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर इतनी जोर से दबायी कि वह भयभीत हो प्रचंड शब्द करती हुई भाग गई ॥41॥ दूसरी देवी पूतन भूत का रूप रखकर कुपूतना बन गयी और अपने विष सहित स्तन उन्हें पिलाने लगी परंतु देवताओं से अधिष्ठित होने के कारण श्रीकृष्ण का मुख अत्यंत कठोर हो गया था इसलिए उन्होंने स्तन का अग्रभाग इतने जोर से चूसा कि वह बेचारी चिल्लाने लगी ॥42॥ बालक कृष्ण कभी तो सोता था, कभी बैठता था, कभी छाती के बल सरकता था, कभी लड़खड़ाते पैर उठाता हआ चलता था, कभी दौड़ा-दौड़ा फिरता था कभी मधुर आलाप करता था और कभी मक्खन खाता हुआ दिन-रात व्यतीत करता था ॥43 ॥ तीसरी पिशाची शकट का रूप रखकर उनके सामने आयो परंतु कृष्ण बालक होने पर भी अत्यंत निर्भय थे, अंजनगिरि के समान शोभायमान थे और अत्यधिक अभ्युदय को धारण करने वाले कोई अनिर्वचनीय पुरुष थे इसलिए उन्होंने जोर को लात मारकर ही उसे नष्ट कर दिया ॥44॥ किसी दिन उपद्रव की अधिकता के कारण यशोदा ने कृष्ण का पैर रस्सी से कसकर कखली में बांध दिया था उसी दिन शत्रु की दो देवियाँ जमल और अर्जुन वृक्ष का रूप रखकर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगी परंतु कृष्ण ने उस दशा में भी दोनों देवियों को गिरा दिया― मार भगाया ॥ 45 ॥ शुभ बाल्यकाल के प्रारंभ में ही सुनंद गोप और यशोदा ने जिसकी अद्भुत शक्ति देखी थी तथा आश्चर्य से चकित हो जिसकी प्रशंसा की थी ऐसा वह दर्शनीय― मनोहर बालक वन के मध्य में बढ़ने लगा ॥46॥ एक दिन छठी देवी बैल का रूप बनाकर आयी । वह बैल बड़ा अहंकारी था, गोपालों की समस्त बस्ती में जहाँ-तहां दिखाई देता था, जोरदार शब्द करता था और सबको डुबोते हुए महासागर के समान जान पड़ता था परंतु सुंदर कंठ के धारक कृष्ण ने उसकी गरदन मोड़कर उसे नष्ट कर दिया-दूर भगा दिया ॥47॥ सातवीं देवी ने पाषाणमयी तीव्र वर्षा से कृष्ण को मारना चाहा परंतु वे उस वर्षा से रंचमात्र भी व्याकुल नहीं हुए प्रत्युत उन्होंने घबड़ाये हुए गोकुल की रक्षा करने के लिए पृथिवी का भार धारण करने से विशाल अपनी दोनों भुजाओं से गोवर्धन पर्वत को बहुत ऊँचा उठा लिया और उसके नीचे सबकी रक्षा की ॥48॥
जब कृष्ण की इस लोकोत्तर चेष्टा का पता कानों-कान बलदेव को चला तब उन्होंने माता देवकी के सामने इसका वर्णन किया । उसे सुन वह किये हुए उपवास के बहाने पुत्र को देखने के लिए व्रज-गोकुल की ओर गयी ॥49॥ वहाँ पर्वत की शाखा पर स्थित, सुंदर कंठ के धारक गोपालकों के मुख गीत से झंकृत एवं घंटाओं के जोरदार शब्दों से सहित गोधन से युक्त वन खंड में बैठकर यह परम संतोष को प्राप्त हुई ॥50॥ कहीं तो वह वन, कृष्ण के रंग के समान स्निग्ध एवं उत्तम कृष्ण वर्ण वाली गायों के समूह से व्याप्त था और कहीं बलभद्र के समान सफेद वर्ण वाली गायों के समूह से युक्त था । उसे देख माता देवकी बहुत ही प्रसन्न हुई सो ठीक ही है क्योंकि पुत्र की समानता प्राप्त करने वाली वस्तु भी हर्ष के लिए होती है ॥51॥ जो घास और पानी से संतुष्ट थीं, जिनके थनों से बछड़े लगे हुए थे, गोपाल लोग जिन्हें दुह रहे थे तथा घड़ों के समान जिनके बड़े-बड़े स्तन थे ऐसी गोशालाओं में खड़ी एक से बढ़कर एक सुंदर गायों को देखकर माता देवकी के रोमांच निकल आये और वह सुख से सुशोभित होने लगी ॥52॥ उस समय वहाँ बछड़ों के साथ गायों के रंभाने की ध्वनि फैल रही थी तथा गोपियों द्वारा दही मथे जाने का जोरदार शब्द प्रसरित हो रहा था । उन सबसे देवकी का मन अत्यधिक हरा गया सो ठीक ही है क्योंकि गंभीर शब्द क्या नहीं हरते हैं? ॥ 53 ॥ तदनंतर जो मन ही मन अत्यधिक हर्षित हो रहा था, ऐसे नंद गोप ने यशोदा के साथ आकर, यश से विशुद्ध, अनेक लोगों के समूह से सहित, गौरवशालिनी स्वामिनी देवकी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥54॥ तत्पश्चात् जो पीले रंग के दो वस्त्र पहने हुए था, वन के मध्य में मयूर-पिच्छ की कलंगी लगाये हुए था, अखंड नील कमल की माला जिसके सिर पर पड़ी हुई थी, जिसका शंख के समान सुंदर कंठ उत्तम कंठी से विभूषित था, सुवर्ण के कर्णाभरणों से जिसकी आभा अत्यंत उज्ज्वल हो रही थी, जिसके ललाट पर दोपहरिया के फूल लटक रहे थे, जिसके सिर पर ऊंचा मुकुट बंधा हुआ था, जिसकी कलाइयों में सुवर्ण के देदीप्यमान कड़े सुशोभित थे, जिसके साथ अनेक सुंदर गोपाल बालक थे एवं जो यश और दया से सहित था ऐसे पुत्र को लाकर यशोदा ने देवकी के चरणों में प्रणाम कराया । उत्तम गोप के वेष को धारण करने वाला वह पुत्र प्रणाम कर पास में ही बैठ गया । माता देवकी उसका स्पर्श करती हुई चिरकाल तक उसे देखती रही ॥55-57॥ देवकी ने यशोदा से कहा कि हे यशस्विनि यशोदे ! तू ऐसे पुत्र का निरंतर दर्शन करती है अतः तेरा वन में भी रहना प्रशंसनीय है । यदि पृथिवी का राज्य भी मिल जाये पर संतान न हो तो वह राज्य अच्छा नहीं लगता ॥58॥ इसके उत्तर में गोपी यशोदा ने कहा कि हे स्वामिनि! आपने जैसा कहा है यह वैसा ही सत्य है । मेरे मन के संतोष को अत्यधिक रूप से पुष्ट करने वाला यह सदा का दास आपके प्रिय आशीर्वाद से चिरंजीव रहे यही प्रार्थना है ॥59॥
इसी बीच में पुत्र को देखने से देवकी रानी के दोनों स्तन अत्यधिक दूध से परिपूर्ण हो गये । वह उन झरते हुए स्तनों को रोकने में समर्थ नहीं हो सकी सो ठीक ही है क्योंकि चित्त में भेद पड़ जाने पर किसी बात का छिपाना नहीं हो सकता ॥60॥ उस समय स्तनों से झरते हुए दूध के बहाने रानी, हे पुत्र ! शत्रु के भय से मैंने तुझे वियुक्त किया है दुष्ट बुद्धि से नहीं, अपने अंतरंग की इस विशुद्धि को दिखाती हुई के समान सुशोभित हो रही थी ॥61॥ कहीं रहस्य न खुल जाये इससे भयभीत हो बुद्धिमान बलदेव ने उसी समय स्वयं ही दूध के घड़े से प्रेमपूर्ण माता का अभिषेक कर दिया-उसके ऊपर दूध से भरा घड़ा उड़ेल दिया सो ठीक ही है क्योंकि कुशल मनुष्य अवसर के अनुसार कार्य करने में कभी नहीं चूकते ॥62 ॥ तदनंतर कृष्ण के देखने से जिसे सुख प्राप्त हुआ था और जिसके दुग्धाभिषेक का कार्य समाप्त हो चुका था ऐसी साध्वी माता देवकी को लाकर बलदेव ने मथुरापुरी में प्रविष्ट कराया और इसके बाद उन्होंने यह समाचार अपने पिता वसुदेव के लिए भी सुनाया ॥63॥
कृष्ण अत्यंत चतुर थे अतः बलदेव ने प्रतिदिन जा-जाकर उन्हें शीघ्र ही कलाओं और गुणों की शिक्षा दी थी सो ठोक ही है क्योंकि स्थिर रूप से उपदेश ग्रहण करने वाले विनयी शिष्य के मिलने पर गुरुओं के उपदेश व्यर्थ ही समय नहीं नष्ट करते अर्थात् शीघ्र ही उसे निपुण बना देते हैं ॥64॥ कुमार के समान अत्यंत निर्विकार अथवा अत्यंत कोमल हृदय को धारण करने वाले वह कुमार कृष्ण, क्रीड़ाओं के समय अतिशय यौवन के उन्माद से भरी एवं प्रस्फुटित स्तनों वाली गोपकन्याओं को उत्तम रासों द्वारा क्रीड़ा कराते थे ॥65॥ वे रासक्रीड़ाओं के समय गोपबालाओं के लिए अपने हाथ की अंगुलियों के स्पर्श से होने वाला सुख उत्पन्न कराते थे परंतु स्वयं अत्यंत निर्विकार रहते थे । जिस प्रकार उत्तम अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणि स्त्री के हाथ की अंगुलि का स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है उसी प्रकार महानुभाव कृष्ण भी गोपबालाओं की हस्तांगुलि का स्पर्श करते हुए भी निर्विकार रहते थे ॥66॥ क्रीड़ा के समय कुमार कृष्ण से मिलने पर वृद्धि को सूचित करने वाला मनुष्यों का अत्यधिक अनुराग जिस प्रकार हृदय में वृद्धि को प्राप्त होता था उसी प्रकार उनके विरहकाल में विरह से पीड़ित मनुष्यों का विरहानुराग भी वृद्धि को प्राप्त होता था । भावार्थ―खेल के समय कृष्ण को पाकर जिस प्रकार लोगों को प्रसन्नता होतो थी उसी प्रकार उनके अभाव में लोगों को विरह जन्य संताप भी होता था ॥ 67॥
कृष्ण की लोकोत्तर चेष्टाएँ सुन एक दिन कंस को इनके प्रति संदेह हो गया और वह वैरी जान इन्हें खोजने के लिए गोकुल आया । कृष्ण अपने सखाओं के साथ उसके समीप आ रहे थे परंतु माता ने कोई उपाय रच उन्हें आत्मीय जनों के द्वारा नगर के बाहर ब्रज को भेज दिया ॥68॥ ब्रज में एक ताडवी नाम की पिशाची आयी जो जोर-जोर से अट्टहास कर रही थी, जिसके नेत्र और मुख दोनों ही अत्यंत रूक्ष थे, जिसका शरीर अत्यंत बढ़ा हुआ था और जिसकी शरीर यष्टि अत्यंत विकृत थी कृष्ण ने उसे देखते ही मार भगाया ॥69॥ ब्रज में एक शाल्मली वृक्ष की लकड़ी का मंडप तैयार हो रहा था वहाँ उसके ऐसे बड़े-बड़े खंभों का समूह पडा था जिसे दूसरे लोग उठा नहीं सकते थे परंतु कृष्ण ने उन्हें अकेले ही उठाकर ऊपर चढ़ा दिया । यह जान माता ने निःशंक हो उन्हें ब्रज से वापस लौटा लिया ॥70॥ दुष्ट एवं सुखार्थी कंस को जब कृष्ण गोकुल में नहीं मिले तब वह मथुरा लौट आया । उसी समय उसके यहाँ सिंहवाहिनी नाग शय्या, अजितंजय नाम का धनुष और पाँचजन्य नाम का शंख ये तीन अद्भुत पदार्थ प्रकट हुए । कंस के ज्योतिषी ने बताया कि जो कोई नागशय्या पर चढ़कर धनुष पर डोरी चढ़ा दे और पाँचजन्य शंख को फूंक दे वही तुम्हारा शत्रु है, अतः ज्योतिषी के कहे अनुसार कार्य करने वाले कंस ने अपने शत्रु की तलाश करने के लिए आत्मीयजनों के द्वारा नगर में यह घोषणा करा दी कि जो कोई यहाँ आकर सिंहवाहिनी नागशय्या पर चढ़ेगा, अजितंजय धनुष को डोरी से सहित करेगा और पांचजन्य शंख को मुख से पूर्ण करेगा― फूकेगा वह पुरुषों में उत्तम तथा सबके पराक्रम को पराजित करने वाला समझा जावेगा । पुरुषों के अंतर को जानने वाला कंस उस पर बहुत प्रसन्न होगा, अपने आपको उसका मित्र समझेगा तथा उसके लिए अलभ्य इष्ट वस्तु देगा॥ 71-73 ॥
कंस की यह घोषणा सुन अनेक राजा मथुरा आये और नागशय्या पर चढ़ने आदि की क्रियाओं में प्रवृत्ति करने लगे परंतु सब भयभीत हो लज्जित होते हुए चले गये ॥ 74 ॥ एक दिन कंस की स्त्री जीवद्यशा का भाई भानु, किसी कार्यवश गोकुल गया । वहाँ कृष्ण का अद्भुत पराक्रम देख वह बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें अपने साथ मथुरापुरी ले आया ॥7॥
यहाँ जिसके समीप का प्रदेश अत्यंत सुसज्जित था, जिसका पृष्ठ भाग चंद्रमा के समान उज्ज्वल था एवं जिसके ऊपर भयंकर सर्पों के फण लहलहा रहे थे ऐसी महानाग शय्या पर कृष्ण स्वाभाविक शय्या के समान शीघ्र चढ़ गये ॥76॥ तदनंतर उन्होंने साँपों के द्वारा उगले हुए धूम को बिखेरने वाले धनुष को प्रत्यंचा से युक्त किया और शब्दों से समस्तं दिशाओं को भरने वाले शंख को खेद रहित-अनायास ही पूर्ण कर दिया ॥77॥ उस समय कृष्ण के प्रकट होते हुए लोकोत्तर माहात्म्य को देखकर समस्त लोगों ने घोषणा की कि अहो, क्षुभित समुद्र के समान शब्द करने वाला यह कोई महान् पुरुष है ॥ 78 ꠰꠰ कृष्ण का यह पराक्रम देख बड़े भाई बलदेव को दुष्ट कंस से आशंका हो गयी इसलिए उन्होंने महान् आज्ञाकारी कृष्ण को, साथ-साथ जाने वाले गणों के तीव्र अनुरागी आत्मीय जनों के साथ व्रज को भेजा । भावार्थ-बलदेव ने कंस से शंकित हो कृष्ण को अकेला नहीं जाने दिया किंतु यह बहुत गुणी है, इसलिए सब लोग इसे भेजने जाओ यह कहकर अपने पक्ष के बहुत से लोगों को उनके साथ कर दिया ॥79॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो पूर्व जन्म में प्राप्त हुए जैन धर्म से उत्कृष्टता को प्राप्त हुआ है उस मनुष्य का मदोन्मत्त शत्रु क्या कर सकता है ? भले ही वह गर्भाधान से पूर्व और जन्म के पहले ही हृदय में वैरभाव बाँधकर बैठा हो ॥8॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में कृष्ण की बालक्रीड़ाओं का वर्णन करने वाला पैंतीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥35॥