स्वयंभू: Difference between revisions
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<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/12 </span><span class="SanskritText">तथा चोक्तम्-श्रीपूज्यपादस्वामिभिर्निश्चयध्येयव्याख्यानम् । आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सन् स्वयंभू: प्रवृत्त:।</span> =<span class="HindiText">श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी निश्चय ध्येय का व्याख्यान किया है कि-आत्मा आत्मा को आत्मा में आत्मा के द्वारा उस आत्मा को एक क्षण धारण करता हुआ स्वयंभू हो जाता है।</span></p> | |||
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<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/टीका/1 </span> <span class="SanskritText">स्वयं परोपदेशमंतरेण मोक्षमार्गमवबुद्धय अनुष्ठाय वा अनंतं भवतीति स्वयंभू:।</span> =<span class="HindiText">स्वयं ही बिना किसी दूसरे के उपदेश के मोक्षमार्ग को जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्मविकास को प्राप्त हुए थे, इसलिए स्वयंभू थे।</span></p> | |||
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<span class="HindiText"><strong>* जीव को स्वयंभू कहने की विवक्षा-</strong>देखें [[ जीव#1.3 | जीव - 1.3]]।</span></p> | |||
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Revision as of 15:55, 29 February 2024
सिद्धांतकोष से
स्वयंभू का लक्षण
(निक्षेप/5/8/6) आचार्यों की अपेक्षा न करके संयम से उत्पन्न हुए श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से स्वयंबुद्ध होते हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/152/220/12 तथा चोक्तम्-श्रीपूज्यपादस्वामिभिर्निश्चयध्येयव्याख्यानम् । आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सन् स्वयंभू: प्रवृत्त:। =श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी निश्चय ध्येय का व्याख्यान किया है कि-आत्मा आत्मा को आत्मा में आत्मा के द्वारा उस आत्मा को एक क्षण धारण करता हुआ स्वयंभू हो जाता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/16 स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमान:, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते। =स्वयं ही षट्कारक रूप होता है, इसलिए वह स्वयंभू कहलाता है। अथवा अनादि काल से अतिदृढ बँधे हुए द्रव्य तथा भाव घातिकर्मों को नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ है, अर्थात् किसी की सहायता के बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ इसलिए स्वयंभू कहलाता है।
स्याद्वादमंजरी/1/9/3 स्वयम्-आत्मनैव, परोपदेशनिरपेक्षतयावगततत्त्वो भवतितीति स्वयंभू:-स्वयंसंबुद्ध:। =जिसने दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही तत्त्वों को जान लिया है, वह स्वयंभू कहलाता है।
स्वयंभू स्तोत्र/टीका/1 स्वयं परोपदेशमंतरेण मोक्षमार्गमवबुद्धय अनुष्ठाय वा अनंतं भवतीति स्वयंभू:। =स्वयं ही बिना किसी दूसरे के उपदेश के मोक्षमार्ग को जानकर तथा उसका अनुष्ठान करके आत्मविकास को प्राप्त हुए थे, इसलिए स्वयंभू थे।
* जीव को स्वयंभू कहने की विवक्षा-देखें जीव - 1.3।
- (महापुराण/59/ श्लोक, सं.2)पूर्व भव में पश्चिम विदेह में मित्रनंदी राजा था (63) पूर्व भव में अनुत्तर विमान में अहमिंद्र था (70)। वर्तमान भव में तृतीय नारायण हुए हैं। विशेष परिचय-देखें शलाकापुरुष - 4।
- भाविकालीन उन्नीसवें तीर्थंकर हैं।-देखें तीर्थंकर - 5।
- योगदर्शन के आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भ का अपर नाम-देखें योगदर्शन ।
- अपभ्रंश के प्रथम कवि हैं। इनके पिता का नाम मारुत देव, और माता का नाम पद्मिनी था। आपका निवास स्थान कर्णाटक अथवा कन्नौज। सेठ धनंजय अथवा धवलइया द्वारा रक्षित। कृतियें-पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ, स्वयंभूछंद, स्वयंभू व्याकरण, पंचमि चरिउ, हरिवंश पुराण। समय-ई.738-840। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा/4/95)।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर कुंथुनाथ के प्रथम गणधर । महापुराण 64.44, हरिवंशपुराण - 60.348
(2) तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर । महापुराण 73.149 हरिवंशपुराण - 60.349
(3) आगामी उन्नीसवें तीर्थंकर । महापुराण 76. 480, हरिवंशपुराण - 60.561
(4) तीसरे वासुदेव (नारायण) । ये अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा चौथे काल में उत्पन्न हुए थे । विमलनाथ तीर्थंकर के समय में भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा भद्र इनके पिता और पृथिवी रानी इनकी माता थी । इनका धर्म नाम का भाई बलभद्र था । रत्नपुर नगर का राजा मधु प्रतिनारायण इनका बैरी था । मधु ने इन्हें मारने के लिए चक्र चलाया था किंतु चक्र प्रदक्षिणा देकर इनका दाहिनी भुजा पर आकर ठहर गया था । इन्होंने इसी चक्र से मधु को मारकर उसका राज्य प्राप्त किया था । जीवन के अंत में मधु और यह दोनों मरकर सातवें नरक गये । इन्होंने कंठ तक कोटिशिला उठाई थी । इनकी कुल आयु साठ लाख भव की थी । इसमें इन्होंने बारह हजार पाँच सौ वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मंडलीक अवस्था में, नब्बे वर्ष दिग्विजय में और उनसठ लाख चौहत्तर हजार नौ सौ दस वर्ष राज्य अवस्था में बिताये थे । ये दूसरे पूर्वभव में भारतवर्ष के कुणाल देश क श्रावस्ती नगरी के सुकेतु नामक राजा थे । जुआ में सब कुछ हार जाने से इस पर्याय में इन्होंने जिनदीक्षा ले ली थी और कठिन तपश्चरण किया था । अंत में समाधिमरणपूर्वक देह त्याग कर के प्रथम पूर्वभव में ये लांतव स्वर्ग में देव हुए । महापुराण 59.63-100, हरिवंशपुराण - 53.36, 60.288, 521-522 वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 112
(5) तीर्थंकर वासुपूज्य का मुख्यकर्त्ता । महापुराण 76.530
(6) रावण का एक सामंत । इसने राम के पक्षधर दुर्गति नामक योद्धा के साथ युद्ध किया था । पद्मपुराण - 57.45,पद्मपुराण - 57.62.35
(7) जंबूद्वीप ने पश्चिम विदेहक्षेत्र के एक तीर्थंकर मुनि । वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत और उनके दोनों पुत्र सजयंत और जयंत के ये दीक्षागुरु थे । हरिवंशपुराण - 27.5-7
(8) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.35, 25.66 100