ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 53
From जैनकोष
अथानंतर दूसरे दिन, शत्रुओं के द्वारा अलंघ्य महातेज के द्वारा दिशाओं के मुख को अलंकृत करने वाले कृष्ण के समान जब सूर्य उदय को प्राप्त हुआ तब इधर यादवों की सेना में सुभटों के घाव अच्छे किये गये और उधर जरासंध आदि राजाओं के अंतिम संस्कार संपन्न किये गये ॥1-2॥ एक दिन समुद्रविजय आदि राजा, सभामंडप में कृष्ण के साथ यथास्थान बैठे हुए वसुदेव के आग मन की प्रतीक्षा कर रहे थे ॥3॥ वे परस्पर में चर्चा कर रहे थे कि पुत्र और नातियों के साथ विजयार्ध पर्वतपर गये हुए वसुदेव को बहुत समय हो गया पर आज तक उनकी कुशलता का समाचार क्यों नहीं आया ? ॥4॥ इस प्रकार जो परस्पर वार्तालाप कर रहे थे, जिनके हृदय गाय और बछड़े के समान स्नेह से सराबोर थे एवं जो बालक और वृद्धजनों से युक्त थे ऐसे सब राजा यथास्थान बैठे ही थे कि उसी समय आकाश में चमकती हुई बिजली के समान, अपने उद्योत से दिशाओं को प्रकाशित करने वाली अनेक विद्याधरियां वेगवती नागकुमारी के साथ वहाँ आ पहुंची और आशीर्वाद देती हुई कहने लगी कि आप लोगों को गुरुजनों ने जो आशीर्वाद दिये थे वे आज सब सफल हो गये । इधर पुत्र ने जरासंध को नष्ट किया है तो उधर पिता ने विद्याधरों को नष्ट कर दिया है ॥5-7॥ पुत्र और नातियों से सहित तथा आप लोगों के स्नेह से युक्त वसु देव अच्छी तरह हैं और अपने से ज्येष्ठ जनों के चरणों में प्रणाम और पुत्रों के प्रति आलिंगन का संदेश कह रहे हैं ॥8॥ विद्याधरियों के मुख से यह समाचार सुनकर हर्ष की अधिकता से जिनके रोमांच निकल आये थे ऐसे सब राजाओं ने उनसे पूछा कि वसुदेव ने विद्याधरों को किस प्रकार जीता था ? ॥9॥ यह सुन वसुदेव के हित करने में उद्यत रहने वाली नागकुमारी देवी ने कहा कि वसुदेव ने रण में जो सामर्थ्य दिखायी उसे ध्यान से सुनिए ॥10॥ युद्ध में निपुण वसुदेव ने विजयार्ध पर्वत पर जाकर अपने श्वसुर और साले आदि विद्याधरों से मिलकर यहाँ आने वाले विद्याधरों को रो का ॥11॥ तदनंतर समग्र सेना से युक्त उन विद्याधरों का जब वसुदेव ने रण में सामना किया तो वे जरासंध की सहायता छोड़कर स्वयं युद्ध में संलग्न हो गये ॥ 12 ॥ तत्पश्चात् वहाँ जब दोनों सेनाओं में घोर युद्ध होने लगा तब लोगों को प्रलय की आशंका होने लगी और उनके चित्त भय से व्याकुल हो उठे ॥13॥ हाथी, घोड़े, रथ और प्यादों का द्वंद्व युद्ध होनेपर दोनों सेनाएं परस्पर न्यायपूर्वक एक-दूसरे का वध करने लगी ॥ 14॥ वसुदेव, उनके पुत्र, अभिमानी प्रद्युम्न, शंब तथा पक्ष के अनेक विद्याधर ये सब शस्त्ररूपी ज्वालाओं को धारण कर शत्रुरूपी राजाओं के समूह को भस्म कर रहे थे एवं बड़ी चपलता के साथ सामने आये थे इसलिए दावानल के समान जान पड़ते थे ॥15-16 ॥ इसी अवसर पर संतुष्ट हुए देवों ने आकाश में यह घोषणा की कि वसुदेव का पुत्र कृष्ण नौवाँ नारायण हुआ है और उसने चक्रधारी होकर अपने गुणों में द्वेष रखने वाले प्रतिशत्रु जरासंध को उसी के चक्र से युद्ध में मार डाला है । यह कहकर देवों ने आकाश से चांदनी के समान नाना रत्नमयी वृष्टि वसुदेव के रथ पर करनी प्रारंभ कर दी ॥17-19 ॥ तदनंतर शत्रु विद्याधर देवों की उक्त वाणी सुनकर भयभीत हो गये और जहाँ तहां से एकत्रित हो वसुदेव की शरण में आने लगे ॥ 20 ।꠰ उन्होंने वसुदेव के पास आकर उनके पुत्रों को एवं प्रद्युम्न कुमार और शंब कुमार को अपनी अनेक कन्याएं प्रदान की ॥ 21 ॥ हम लोग वसुदेव की प्रेरणा पाकर यह कुशल समाचार सुनाने के लिए आपके पास आयी हैं ॥ 22 ॥ नारायण की भक्ति से प्रेरित हुए अनेक विद्याधर राजा, नाना प्रकार के उपहार हाथ में लिये वसुदेव के साथ आ रहे हैं ॥ 23 ॥ इस प्रकार वनवती (नागकुमारी) देवी जब तक उन्हें यह इष्ट समाचार सुनाती है तब तक विद्याधरों के विमानों के समूह से आकाश व्याप्त हो गया ॥24॥ वसुदेव के अनुयायी विद्याधरों ने विमानों से उतरकर बलदेव और कृष्ण को नमस्कार किया तथा नाना प्रकार के उपहार समर्पित किये ॥25 ॥ तदनंतर भक्ति से भरे बलदेव और नारायण ने पिता को नमस्कार किया और पिता ने भी दोनों का आलिंगन कर उनकी बहुत प्रशंसा की ॥26॥ वसुदेव ने समुद्रविजय आदि समस्त गुरुजनों को प्रणाम किया एवं प्रद्युम्न आदि ने भी गुरुजनों एवं भाई-बांधवों को यथायोग्य नमस्कार किया ॥27॥ नारायण और बलभद्र ने यथायोग्य जिनका सत्कार किया था ऐसे समस्त विद्याधरों ने अपना-अपना जन्म सफल माना ॥28॥
तदनंतर जिनके सर्व मनोरथ पूर्ण हो गये थे तथा जो हर्ष से परिपूर्ण थे ऐसे बलदेव और नारायण ने समस्त सेना को साथ ले पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान किया ॥29॥ जरासंध के मारे जाने पर यादवों ने जिस स्थान पर आनंद-नृत्य किया था वह स्थान आनंदपुर के नाम से प्रसिद्ध और जैन-मंदिरों से व्याप्त हो गया ॥30॥ तदनंतर सब रत्नों से सहित नारायण ने, चक्ररत्न की पूजा कर देव, असुर और मनुष्यों से सहित दक्षिण भरतक्षेत्र को जीता ॥31॥ लगातार आठ वर्षों तक प्रतिदिन मनोवांछित पदार्थों ने जिनकी सेवा की थी और जीतने योग्य समस्त राजाओं को जिन्होंने जीत लिया था ऐसे श्रीकृष्ण अब कोटिक शिला की ओर गये ॥32॥ चूंकि उस उत्कृष्ट शिला पर अनेक करोड़ मुनिराज सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिए वह पृथ्वी में कोटिक शिला के नाम से प्रसिद्ध है ॥33॥ श्रीकृष्ण ने सर्व-प्रथम उस पवित्र शिला पर पूजा की और उसके बाद अपनो दोनों भुजाओं से उसे चार अंगुल ऊपर उठाया ॥34॥ वह शिला एक योजन ऊंची, एक योजन लंबी और एक योजन चौड़ी है तथा अर्ध भरतक्षेत्र में स्थित समस्त देवों के द्वारा सुरक्षित है ॥35॥ पहले त्रिपृष्ठ नारायण ने इस शिला को जहां तक भुजाएँ ऊपर पहुंचती हैं वहां तक उठाया था । दूसरे द्विपृष्ठ ने मस्तक तक, तीसरे स्वयंभू ने कंठ तक, चौथे पुरुषोत्तम ने वक्षःस्थल तक, पांचवें नृसिंह ने हृदय तक, छठे पुंडरीक ने कमर तक, सातवें दत्तक ने जाँघों तक, आठवें लक्ष्मण ने घुटनों तक और नवें कृष्ण नारायण ने उसे चार अंगुल तक ऊपर उठाया था ॥36-38॥ क्योंकि युग-युग में कालभेद होने से प्रधान पुरुष को आदि लेकर सभी शक्तिशाली मनुष्यों की शक्ति भिन्न रूप होती आयी है॥39॥ शिला उठाने के बल से समस्त सेना ने जान लिया कि श्रीकृष्ण महान् शारीरिक बल से सहित हैं । तदनंतर चक्ररत्न को धारण करने वाले श्रीकृष्ण बांधवजनों के साथ द्वारिका की ओर वापस आये ॥40॥ वहाँ वृद्धजनों ने नाना प्रकार के आशीर्वादों से जिनका अभिनंदन किया था ऐसे श्रीकृष्ण नारायण ने मनोहर गोपुरों से सुंदर एवं स्वर्ग के समान सजी हुई द्वारिकापुरी में प्रवेश किया ॥41॥ जो भूमिगोचरी और विद्याधर राजा उनके साथ लौटकर आये थे उन्हें यथायोग्य भोग्य सामग्री दी गयी और वे द्वारिकापुरी के महलों में विधिपूर्वक निश्चिंतता से ठहराये गये थे ॥42॥
तदनंतर समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं ने अतिशय प्रसिद्ध बलदेव और श्रीकृष्ण को अर्ध भरतक्षेत्र के स्वामित्व पर अभिषिक्त किया अर्थात् राज्याभिषेक कर उन्हें अर्ध भरतक्षेत्र का स्वामी घोषित किया ॥43॥ तत्पश्चात् चक्ररत्न के धारक श्रीकृष्ण ने जरासंध के द्वितीय पुत्र सहदेव को राजगृह का राजा बनाया और उसे निरहंकार होकर मगध देश का एक चौथाई भाग प्रदान किया ॥44॥ उग्रसेन के पुत्र द्वार के लिए मथुरापुरी दी, महानेमि के लिए शोभपुर दिया ॥45॥
पांडवों के लिए प्रीतिपूर्वक उनका प्रिय हस्तिनापुर दिया और राजा रुधिर के नाती रुक्मनाभ के लिए कोशल देश दिया ॥46॥ इस प्रकार चक्रपाणि-श्रीकृष्ण ने आये हुए समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं की यथायोग्य स्थानों पर स्थापना की-यथायोग्य स्थानों का उन्हें राजा बनाया ॥47॥ तदनंतर श्रीकृष्ण से विदा लेकर पांडव आदि यथास्थान चले गये और यादव देवों के समान द्वारिका में क्रीड़ा करने लगे ॥48॥
शत्रुओं का मुख नहीं देखने वाला सुदर्शन चक्र, अपने शब्द से शत्रुपक्ष को कंपित करने वाला शांग धनुष, सोनंदक खड्ग, कौमुदी गदा, शत्रुओं पर कभी व्यर्थ नहीं जाने वाली अमोघमूला शक्ति, पांचजन्य शंख और विशाल प्रताप को प्रकट करने वाला कौस्तुभ मणि; शंख के चिह्न से चिह्नित श्रीकृष्ण के ये सात रत्न थे । ये सातों रत्न देवों के द्वारा पूजित, अतिशय हितकारी और दिव्य आकार से युक्त होते हुए अत्यंत सुशोभित थे ॥49-50॥ शत्रु-समूह के विभ्रम को अनायास ही नष्ट करने वाले बलदेव के, अपराजित नामक दिव्य हल, दिव्य गदा, दिव्य मुसल, दिव्य शक्ति और दिव्य माला ये पांच रत्न थे । बलभद्र के भी ये पांचों रत्न देवों के द्वारा पूजित थे ॥51॥ गुणों को जानने वाले, गणनीय एवं नतमस्तक सोलह हजार प्रमुख राजा और आठ हजार आज्ञाकारी, भक्त, गणबद्ध देव जिनकी निरंतर सेवा करते थे ऐसे श्रीकृष्ण सुख का उपभोग करते थे ॥52॥ रतिकाल में देवांगनाओं के समान सुंदर हाव-भावों से मन को हरने वाली सोलह हजार स्त्रियाँ श्रीकृष्ण के शरीर की सेवा करती थीं और उनसे आधी अर्थात् आठ हजार उत्तम स्त्रियां बलदेव के शरीर की सेवा करती थीं । श्रीकृष्ण और बलदेव अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥53॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो जिन-धर्म को धारण करने वाले थे, जिनके रति और राग में कभी व्यवधान नहीं पड़ता था, प्रिय युवतियाँ ही जिनकी सहायक थीं और जो समस्त भूमि के अधिपति थे ऐसे यादव लोग, द्वारिकापुरी में हेमंत, शिसिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद् ऋतु के योग्य स्थानों में मनचाहे भोग भोगते हुए क्रीड़ा करते थे ॥54॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में कृष्णविजय का वर्णन करने वाला तिरेपनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥53॥