वंदना: Difference between revisions
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<p class="HindiText">द्वादशांग के १४ पूर्वों में से तीसरा | <p class="HindiText">द्वादशांग के १४ पूर्वों में से तीसरा पूर्व।− देखें - [[ श्रुतज्ञान#III.1 | श्रुतज्ञान / III / १ ]]। <br /> | ||
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रा. वा./६/२४/११/५३०/१३ <span class="SanskritText">वन्दना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। </span>= <span class="HindiText">मन, वचन कायकी शुद्धिपूर्वक खङ्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है।−(विशेष | रा. वा./६/२४/११/५३०/१३ <span class="SanskritText">वन्दना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। </span>= <span class="HindiText">मन, वचन कायकी शुद्धिपूर्वक खङ्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है।−(विशेष देखें - [[ कृतिकर्म | कृतिकर्म ]])। </span><br /> | ||
भ. आ./वि./५०९/७२८/१३<span class="SanskritText"> वन्दनीयगुणानुस्मरणं मनोवन्दना। वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशन-परवचनोच्चारणम्। कायेन वन्दना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च। </span>= <span class="HindiText">वन्दना करने योग्य गुरुओं आदि के गुणों का स्मरण करना मनोवन्दना है, वचनों के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रगट करना यह वचन वन्दना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवन्दना है।− (और भी | भ. आ./वि./५०९/७२८/१३<span class="SanskritText"> वन्दनीयगुणानुस्मरणं मनोवन्दना। वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशन-परवचनोच्चारणम्। कायेन वन्दना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च। </span>= <span class="HindiText">वन्दना करने योग्य गुरुओं आदि के गुणों का स्मरण करना मनोवन्दना है, वचनों के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रगट करना यह वचन वन्दना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवन्दना है।− (और भी देखें - [[ नमस्कार#1 | नमस्कार / १ ]])। </span><br /> | ||
क. पा. १/१ - १/८६/१११/५<span class="PrakritText"> एयरस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम। </span>= <span class="HindiText">एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है। (भा. पा./टी./७७/२२१/१४)। </span><br /> | क. पा. १/१ - १/८६/१११/५<span class="PrakritText"> एयरस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम। </span>= <span class="HindiText">एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है। (भा. पा./टी./७७/२२१/१४)। </span><br /> | ||
ध. ८/३, ४१/८४/३ <span class="PrakritText">उसहाजिय....वङ्ढमाणादितित्थयराणं भरहादिकेवलीणं आइरिय - चइत्तालयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदणा णाम। </span><br /> | ध. ८/३, ४१/८४/३ <span class="PrakritText">उसहाजिय....वङ्ढमाणादितित्थयराणं भरहादिकेवलीणं आइरिय - चइत्तालयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदणा णाम। </span><br /> | ||
ध. ८/३, ४२/९२/५ <span class="PrakritText">तुहुं णिट्ठवियट्ठकम्मो केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिट्ठगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणोसिट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसावंदणा णाम। </span>= <span class="HindiText">ऋषभ, अजित....वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेद को करके अथवा गुणगण भेद के आश्रित, शब्द कलाप सें व्याप्त गुणानुस्मरण रूप नमस्कार करने को वन्दना कहते हैं।८८। ‘आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्टों की गोष्ठी में अभयदान देने वाले, शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देव हैं’ ऐसी प्रशंसा करने का नाम वन्दना है। </span><br /> | ध. ८/३, ४२/९२/५ <span class="PrakritText">तुहुं णिट्ठवियट्ठकम्मो केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिट्ठगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणोसिट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसावंदणा णाम। </span>= <span class="HindiText">ऋषभ, अजित....वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेद को करके अथवा गुणगण भेद के आश्रित, शब्द कलाप सें व्याप्त गुणानुस्मरण रूप नमस्कार करने को वन्दना कहते हैं।८८। ‘आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्टों की गोष्ठी में अभयदान देने वाले, शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देव हैं’ ऐसी प्रशंसा करने का नाम वन्दना है। </span><br /> | ||
भ. आ./वि./११६/२७५/१ <span class="SanskritText">वन्दना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरः - सरेण....विनये प्रवृत्तिः ।</span> =<span class="HindiText"> रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणों को जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयों में प्रवृत्ति करना, यह वन्दना है।− ( | भ. आ./वि./११६/२७५/१ <span class="SanskritText">वन्दना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरः - सरेण....विनये प्रवृत्तिः ।</span> =<span class="HindiText"> रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणों को जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयों में प्रवृत्ति करना, यह वन्दना है।− ( देखें - [[ नमस्कार#1 | नमस्कार / १ ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निश्चय वन्दना का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निश्चय वन्दना का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
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चा. सा./१५९/२ <span class="SanskritText">अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि वन्दना कार्या।....गुरुणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रिया-विधानम्। </span>= <span class="HindiText">जिन बिम्ब की तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालय की वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओं की तथा पुण्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानों की वन्दना विधि कहते हैं। <br /> | चा. सा./१५९/२ <span class="SanskritText">अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि वन्दना कार्या।....गुरुणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रिया-विधानम्। </span>= <span class="HindiText">जिन बिम्ब की तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालय की वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओं की तथा पुण्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानों की वन्दना विधि कहते हैं। <br /> | ||
देखें - [[ वंदना#1 | वंदना / १ ]](चौबीस तीर्थंकरों की, भरत आदि केवलियों की, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु चैत्य चैत्यालय की वन्दना करनी चाहिए)−(और भी दे./कृतिकर्म/२/४)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">वन्दना की तीन वेलाएँ व काल परिमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">वन्दना की तीन वेलाएँ व काल परिमाण</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> वन्दना का फल गुणश्रेणी | <li><span class="HindiText"> वन्दना का फल गुणश्रेणी निर्जरा।− देखें - [[ पूजा#2 | पूजा / २ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> वन्दना के | <li><span class="HindiText"> वन्दना के अतिचार।− देखें - [[ व्युत्सर्ग#1 | व्युत्सर्ग / १ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> वन्दना के योग्य आसन मुद्रा | <li><span class="HindiText"> वन्दना के योग्य आसन मुद्रा आदि।− देखें - [[ कृतिकर्म#3 | कृतिकर्म / ३ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती | <li><span class="HindiText"> एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।− देखें - [[ पूजा#3 | पूजा / ३ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> साधुसंघ में परस्पर वन्दना | <li><span class="HindiText"> साधुसंघ में परस्पर वन्दना व्यवहार।− देखें - [[ विनय#3 | विनय / ३ ]], ४। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> चैत्यवन्दना या देववन्दना विधि। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> चैत्यवन्दना या देववन्दना विधि। </span><br /> | ||
चा. सा./१५९/५ <span class="SanskritText">आत्माधीनः सच्चैत्यादीन् प्रतिवन्दनार्थं गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्गं कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्रचन्द्रदर्शन- मात्रन्निजनयनचन्द्रकान्तोपलविगलदानन्दाश्रुजलधारापूरपरिप्लावि-तप-क्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवद-र्हत्परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिम्बद-र्शनजनितहर्षोत्कर्षपुलकिततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकुशेशयकुङ्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रिःपरीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पंचपरमेष्ठिनः स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीयः। .....प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतुःशिरो भवति।...एवं देवतास्तवनक्रियायां चैत्यभक्तिं पंचगुरुभक्तिं च कुलर्यात्।</span> = <span class="HindiText">आत्माधीन होकर जिनबिम्ब आदिकों की वन्दना के लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनन्तर मैं ‘चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ’ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्र के दर्शन करे। जिससे कि आँखों में हर्षाश्रु भर जायें, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्ति से नम्रीभूत मस्तक पर दोनों हाथों को जोड़कर रख ले। अब सामायिक दण्डक व थोस्सामिदण्डक इन दोनों पाठों को आदि व अन्त में तीन-तीन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढ़े। दोनों के मध्य में एक नमस्कार करे ( | चा. सा./१५९/५ <span class="SanskritText">आत्माधीनः सच्चैत्यादीन् प्रतिवन्दनार्थं गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्गं कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्रचन्द्रदर्शन- मात्रन्निजनयनचन्द्रकान्तोपलविगलदानन्दाश्रुजलधारापूरपरिप्लावि-तप-क्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवद-र्हत्परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिम्बद-र्शनजनितहर्षोत्कर्षपुलकिततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकुशेशयकुङ्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रिःपरीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पंचपरमेष्ठिनः स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीयः। .....प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतुःशिरो भवति।...एवं देवतास्तवनक्रियायां चैत्यभक्तिं पंचगुरुभक्तिं च कुलर्यात्।</span> = <span class="HindiText">आत्माधीन होकर जिनबिम्ब आदिकों की वन्दना के लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनन्तर मैं ‘चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ’ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्र के दर्शन करे। जिससे कि आँखों में हर्षाश्रु भर जायें, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्ति से नम्रीभूत मस्तक पर दोनों हाथों को जोड़कर रख ले। अब सामायिक दण्डक व थोस्सामिदण्डक इन दोनों पाठों को आदि व अन्त में तीन-तीन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढ़े। दोनों के मध्य में एक नमस्कार करे ( देखें - [[ कृतिकर्म#4 | कृतिकर्म / ४ ]]) तदनन्तर चैत्यभक्ति का पाठ पढ़े तथा बैठकर तत्सम्बन्धी आलोचना करे। इसी प्रकार पुनः दोनों दण्डकों व कृतिकर्म सहित पंचगुरुभक्ति व तत्सम्बन्धी आलोचना करे। प्रदक्षिणा करते समय भी प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार चैत्य वन्दना या देव वन्दना में चैत्यभक्ति व पंचगुरु भक्ति की जाती है। (भ. आ./वि./११६/२७५/११ पर उद्धृत); (अन. ध./९/ १३-२१)। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="8" id="8">वन्दना प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="8" id="8">वन्दना प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल</strong> <br /> | ||
देखें - [[ कायोत्सर्ग#1 | कायोत्सर्ग / १ ]](वन्दना क्रिया में सर्वत्र २७ उच्छ्वासप्रमाण कायोत्सर्ग का काल होता है।) </li> | |||
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Revision as of 15:25, 6 October 2014
द्वादशांग के १४ पूर्वों में से तीसरा पूर्व।− देखें - श्रुतज्ञान / III / १ ।
- कृतिकर्म के अर्थ में।
रा. वा./६/२४/११/५३०/१३ वन्दना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। = मन, वचन कायकी शुद्धिपूर्वक खङ्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है।−(विशेष देखें - कृतिकर्म )।
भ. आ./वि./५०९/७२८/१३ वन्दनीयगुणानुस्मरणं मनोवन्दना। वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशन-परवचनोच्चारणम्। कायेन वन्दना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च। = वन्दना करने योग्य गुरुओं आदि के गुणों का स्मरण करना मनोवन्दना है, वचनों के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रगट करना यह वचन वन्दना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवन्दना है।− (और भी देखें - नमस्कार / १ )।
क. पा. १/१ - १/८६/१११/५ एयरस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम। = एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है। (भा. पा./टी./७७/२२१/१४)।
ध. ८/३, ४१/८४/३ उसहाजिय....वङ्ढमाणादितित्थयराणं भरहादिकेवलीणं आइरिय - चइत्तालयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदणा णाम।
ध. ८/३, ४२/९२/५ तुहुं णिट्ठवियट्ठकम्मो केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिट्ठगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणोसिट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसावंदणा णाम। = ऋषभ, अजित....वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेद को करके अथवा गुणगण भेद के आश्रित, शब्द कलाप सें व्याप्त गुणानुस्मरण रूप नमस्कार करने को वन्दना कहते हैं।८८। ‘आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्टों की गोष्ठी में अभयदान देने वाले, शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देव हैं’ ऐसी प्रशंसा करने का नाम वन्दना है।
भ. आ./वि./११६/२७५/१ वन्दना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरः - सरेण....विनये प्रवृत्तिः । = रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणों को जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयों में प्रवृत्ति करना, यह वन्दना है।− ( देखें - नमस्कार / १ )।
- निश्चय वन्दना का लक्षण
यो. सा./अ./५/४९ पवित्रदर्शनज्ञानचारित्रमयमुत्तमं। आत्मानं वन्द्यमानस्य वन्दनाकथि कोविदैः।४९। = जो पुरुष पवित्र दर्शन ज्ञान और चारित्र स्वरूप उत्तम आत्मा की वन्दना करता है, विद्वानों ने उसी वन्दना को उत्तम वन्दना कहा है।
- वन्दना के भेद व स्वरूप निर्देश
भ. आ./वि./११६/२७५/२ वंदना....अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्तिः प्रत्येकं तयोरनेकभेदता। = अभ्युत्थान और प्रयोग के भेद से दो प्रकार विनय में प्रवृत्ति करना वन्दना है। इन दोनों में से प्रत्येक के अनेक भेद हैं। (तिनमें अभ्युत्थान विनय तो आचार्य साधु आदि के अनेक भेद हैं। (तिनमें अभ्युत्थान विनय तो आचार्य साधु आदि के समक्ष खड़े होना, हाथ जोड़ना, पीछे-पीछे चलना आदि रूप हैं। इसका विशेष कथन ‘विनय’ प्रकरण में दिया गया है और प्रयोग विनय कृतिकर्म रूप है। इसका विशेष कथन निम्न प्रकार है।)
- मन वचन काय वन्दना−देखें - नमस्कार।
- वन्दना में आवश्यक अधिकार
भ. आ./वि./११६/२७५/२ कर्त्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कति वारानिति। अभ्युत्थानं केनोपदिष्टं किंवा फलमुद्दिश्य कर्त्तव्यं।....उपदिष्टः सर्वैर्जिनैः कर्मभूमिषु। = यह वन्दना कार्य किसको करना चाहिए, किसके द्वारा करना चाहिए, कब करना चाहिए, किसके प्रति कितने बार करना चाहिए। अभ्युत्थान कर्त्तव्य है, वह किसने बताया है तथा किस फल की अपेक्षा करके यह करना चाहिए। सो इस कर्त्तव्य का कर्मभूमि वालों के लिए सर्व जिनेश्वरों ने उपदेश दिया है। (इसका क्या फल व महत्त्व है यह बात ‘विनय’ प्रकरण में बतायी गयी है। शेष बातें आगे क्रम पूर्वक निर्दिष्ट हैं।)
- वन्दना किनकी करनी चाहिए
चा. सा./१५९/२ अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि वन्दना कार्या।....गुरुणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रिया-विधानम्। = जिन बिम्ब की तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालय की वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओं की तथा पुण्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानों की वन्दना विधि कहते हैं।
देखें - वंदना / १ (चौबीस तीर्थंकरों की, भरत आदि केवलियों की, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु चैत्य चैत्यालय की वन्दना करनी चाहिए)−(और भी दे./कृतिकर्म/२/४)।
- वन्दना की तीन वेलाएँ व काल परिमाण
ध. १३/५, ४, २८/८९/१ पदाहिणाणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम। अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरुरि-सिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जंति त्ति तिक्खुत्तं णाम। तिसंज्झासु चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण करिदे। ण अण्णत्थ वि तप्पडिसेह-णियमाभावादो। तिसज्झासु वंदणणियमपरूवणट्ठं तिक्खुत्तमिदि भणिदं। = प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओं का तीन बार करना त्रिःकृत्वा है। अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु, ऋषियों की वन्दना तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रिःकृत्वा है। प्रश्न−तीनों ही सन्ध्याकालों में वन्दना की जाती है, अन्य समय में क्यों नहीं की जाती ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अन्य समय में भी वन्दना के प्रतिषेध का कोई नियम नहीं है। तीनों सन्ध्याकालों में वन्दना के नियम का कथन करने के लिए ‘त्रिःकृत्वा’ ऐसा कहा है।
अन. ध./८/७९/८०७ तिस्रोऽह्नोन्त्या निशश्चाद्या नाडय्यो व्यत्यासिताश्च ताः । मध्याह्नस्य च षट्कालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने।७९। - उक्तं च मुहूर्त्तत्रितयं कालः संध्यानां त्रितये बुधैः। कृतिकर्मविधेर्नित्यः परो नैमित्तिको मतः। = तीन सन्ध्याकालों में अर्थात् पूर्वाह्ण अपराह्ण, व मध्याह्ण में वन्दना का काल छह-छह घड़ी होता है। वह इस प्रकार है कि सूर्योदय से तीन घड़ी पूर्व से लेकर सूर्योदय के तीन घड़ी पश्चात् तक पूर्वाह्ण वन्दना, मध्याह्ण में तीन घड़ी पूर्व से लेकर मध्याह्ण के तीन घड़ी पश्चात् तक मध्याह्ण वन्दना और इसी प्रकार सूर्यास्त में तीन घड़ी पूर्व से सूर्यास्त के तीन घड़ी पश्चात् तक अपराह्णिक वन्दना। यह तीनों सन्ध्याओं का उत्कृष्ट काल है जैसे कि कहा भी है −कृतिकर्म की नित्यकी विधि के काल का परिमाण तीनों सन्ध्याओं में तीन - तीन मुहूर्त्त है। (अन. ध./९/१३)।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- वन्दना का फल गुणश्रेणी निर्जरा।− देखें - पूजा / २ ।
- वन्दना के अतिचार।− देखें - व्युत्सर्ग / १ ।
- वन्दना के योग्य आसन मुद्रा आदि।− देखें - कृतिकर्म / ३ ।
- एक जिन या जिनालय की वन्दना से सबकी वन्दना हो जाती है।− देखें - पूजा / ३ ।
- साधुसंघ में परस्पर वन्दना व्यवहार।− देखें - विनय / ३ , ४।
- चैत्यवन्दना या देववन्दना विधि।
चा. सा./१५९/५ आत्माधीनः सच्चैत्यादीन् प्रतिवन्दनार्थं गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्गं कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्रचन्द्रदर्शन- मात्रन्निजनयनचन्द्रकान्तोपलविगलदानन्दाश्रुजलधारापूरपरिप्लावि-तप-क्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवद-र्हत्परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिम्बद-र्शनजनितहर्षोत्कर्षपुलकिततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकुशेशयकुङ्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रिःपरीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पंचपरमेष्ठिनः स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीयः। .....प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतुःशिरो भवति।...एवं देवतास्तवनक्रियायां चैत्यभक्तिं पंचगुरुभक्तिं च कुलर्यात्। = आत्माधीन होकर जिनबिम्ब आदिकों की वन्दना के लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनन्तर मैं ‘चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ’ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्र के दर्शन करे। जिससे कि आँखों में हर्षाश्रु भर जायें, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्ति से नम्रीभूत मस्तक पर दोनों हाथों को जोड़कर रख ले। अब सामायिक दण्डक व थोस्सामिदण्डक इन दोनों पाठों को आदि व अन्त में तीन-तीन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढ़े। दोनों के मध्य में एक नमस्कार करे ( देखें - कृतिकर्म / ४ ) तदनन्तर चैत्यभक्ति का पाठ पढ़े तथा बैठकर तत्सम्बन्धी आलोचना करे। इसी प्रकार पुनः दोनों दण्डकों व कृतिकर्म सहित पंचगुरुभक्ति व तत्सम्बन्धी आलोचना करे। प्रदक्षिणा करते समय भी प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार चैत्य वन्दना या देव वन्दना में चैत्यभक्ति व पंचगुरु भक्ति की जाती है। (भ. आ./वि./११६/२७५/११ पर उद्धृत); (अन. ध./९/ १३-२१)।
- वन्दना का फल गुणश्रेणी निर्जरा।− देखें - पूजा / २ ।
- गुरु वन्दना विधि
अन. ध./९/३१ लघ्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात्। सैद्धान्तोऽन्तःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नुतिं विना।३१। - उक्तं च - सिद्धभक्त्या बृहत्साधुर्वन्द्यते लघुसाधुना। लघ्व्या सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्तः प्रणम्यते। सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गणी। सिद्धश्रुतगणिस्तुत्या लघ्व्या सिद्धान्तविद्गणी। = साधुओं को आचार्य की वन्दना गवासन से बैठकर लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धान्तवेत्ता हैं, तो लघु सिद्धभक्ति, लघुश्रुतभक्ति व लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। जैसा कि कहा भी है−छोटे साधुओं को बड़े साधुओं की वन्दना लघु सिद्धभक्ति पूर्वक तथा सिद्धान्तवेत्ता साधुओं की वन्दना लघुसिद्धभक्ति और लघुश्रुतभक्ति के द्वारा करनी चाहिए। आचार्य की वन्दना लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा तथा सिद्धान्तवेत्ता आचार्य की वन्दना लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए।
- वन्दना प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल
देखें - कायोत्सर्ग / १ (वन्दना क्रिया में सर्वत्र २७ उच्छ्वासप्रमाण कायोत्सर्ग का काल होता है।)