सम्यक्त्वाचरणचारित्र: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
{{: | {{: स्वरूपाचरण चारित्र }} | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 11:17, 20 February 2024
असंयतादि गुणस्थानों में सम्यक्त्व के कारण परिणामों में जो निर्मलता या आंशिक साम्यता जागृत होती है, उसी को आगम में स्वरूपाचरण या सम्यक्त्व चारित्र कहते हैं। मोक्षमार्ग में इसका प्रधान स्थान है। व्रतादि रूप चारित्र में इसके साथ वर्तते हुए ही सार्थक है अन्यथा नहीं।
1. स्वरूपाचरण चारित्र निर्देश
चारित्तपाहुड़/ मूल/8 तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं। =नि:शंकित आदि गुणों से विशुद्ध अरहंत जिनदेव की श्राद्ध होकर, यथार्थ ज्ञान सहित आचरण करै सो प्रथम स्वरूपाचरण चारित्र है। सो यह मोक्षमार्ग में कारण है।8।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/764 कर्मादानक्रियारोध: स्वरूपाचरणं च यत् । धर्म: शुद्धोपयोग: स्यात्सैष चारित्रसंज्ञक:।764। =जो कर्मों की आस्रव रूप क्रिया का रोधक है वही स्वरूपाचरण है, वही चारित्र नामधारी है, शुद्धोपयोग है, वही धर्म है। ( लाटी संहिता/4/263 )।
2. चारित्र का उदय स्वरूपाचरण में बाधक नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/690-692 कार्यं चारित्रमोहस्य चारित्राच्चयुतिरात्मन:। नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत् ।690। यथा चक्षु: प्रसन्नं वै कस्यचिद्दैवयोगत:। इतरत्राक्षतापेऽपि दृष्टाध्यक्षन्न तत्क्षति:।691। कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि। नानुद्रेक: कषायाणां चारित्राच्चयुतिरात्मन:।692। =न्याय से तो चारित्र से आत्मा को च्युत करना ही चारित्र मोह का कार्य है किंतु इतर की दृष्टि के समान शुद्धात्मानुभव से च्युत करना चारित्र मोह का कार्य नहीं।690। जैसे प्रत्यक्ष में दैवयोग से किसी की आँख में पीड़ा होने पर भी किसी दूसरे की आँख प्रसन्न भी रह सकती है। वैसे ही चारित्रमोह से चारित्रगुण में विकार होने पर भी शुद्धात्मानुभव की क्षति नहीं।691। निश्चय से जितना कषायों का अभाव है उतना ही चारित्र है और जो कषायों का उदय है वही चारित्र से च्युत होता है।692।
* अन्य संबंधित विषय
- अल्प भूमिका में भी कथंचित् शुद्धोपयोग रूप स्वरूपाचरण चारित्र अवश्य होता है।-देखें अनुभव - 5।
- निंदन गर्हण ही अविरत सम्यग्दृष्टि के स्वरूपाचरण चारित्र का चिह्न है।-देखें सम्यग्दृष्टि - 5।
- स्वरूपाचरणचारित्र ही मोक्ष का प्रधान कारण है।-देखें चारित्र - 2.2।
- लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना रहती है।-देखें सम्यग्दृष्टि - 2।