वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश</strong> <br> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश</strong> <br> | ||
देखें - [[ वेद#5 | वेद / ५ ]]/नं. [नरक गति में नपुंसक वेदी १-४ गुणस्थान वाले होते हैं ।१। तिर्यंच तीनों वेदों वाले १-५ गुणस्थान वाले होते हैं ।४। मनुष्य तीनों वेदों में १-९ गुणस्थान वाले होते हैं । और इससे आगे वेद रहित होते हैं ।४। देव स्त्री व पुरुष वेद में १-४ गुणस्थान वाले होते हैं ।२ ।] <br> | |||
देखें - [[ नरक#4 | नरक / ४ ]]/नं. [नरक की प्रथम पृथिवी में क्षायिक औपशमिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं, परन्तु शेष छः पृथिवियों में क्षायिक रहित दो ही सम्भव हैं ।२ । प्रथम पृथिवी सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों अवस्थाओं में होते हैं पर शेष छः पृथिवियों में पर्याप्तक ही होते हैं ।३ ।] <br /> | |||
देखें - [[ तिर्यंच#2 | तिर्यंच / २ ]]/नं. [तिर्यंच व योनिमति तिर्यंच १-५ गुणस्थान वाले होते हैं । तिर्यंच को चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु पाँचवें गुणस्थान में नहीं । योनिमती तिर्यंच को चौथे व पाँचवें दोनों ही गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दर्शन सम्भव नहीं ।१। तिर्यंच तो चौथे गुणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों सम्भव हैं, परन्तु योनिमति तिर्यंच केवल पर्याप्त ही सम्भव है । पाँचवें गुणस्थान में दोनों ही पर्याप्त होते हैं अपर्याप्त नहीं ।२ ।] <br /> | |||
देखें - [[ मनुष्य#3 | मनुष्य / ३ ]]/नं. [मनुष्य व मनुष्यणी दोनों ही संयत व क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने सम्भव हैं ।१ । मनुष्य तो सम्यग्दृष्टि पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं, परन्तु मनुष्यणी सम्यग्दृष्टि केवल पर्याप्त ही होते हैं । शेष ५-१४ गुणस्थानों में दोनों पर्याप्त ही होते हैं ।२।] <br /> | |||
देखें - [[ देव | देव ]]. /३/नं. [कल्पवासी देवों में क्षायिक औपशमिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं, परन्तु भवनत्रिक देवों व सर्व देवियों में क्षायिक रहित दो ही सम्यक्त्व सम्भव हैं ।१ । कल्पवासी देव तो असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं, पर भवनत्रिकदेव व सर्व देवियाँ नियम से पर्याप्त ही होते हैं ।२।] </span><br /> | |||
क.पा.३/३-२२/#४२६/२४१/१३ <span class="PrakritText">जहा अप्पसत्थ वेदोदएण मणपज्जवणाणादीणं ण संभवो तहा दंसणमोहणीयक्ख-वणाए तत्थ किं संभवो अत्थि णत्थि त्ति संदेहेण घुलंतहियस्स सिस्ससंदेहविणासणट्ठं मणुसस्स मणुसिणीए वा त्ति भणिदं । </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञानादिक का होना सम्भव नहीं है–( | क.पा.३/३-२२/#४२६/२४१/१३ <span class="PrakritText">जहा अप्पसत्थ वेदोदएण मणपज्जवणाणादीणं ण संभवो तहा दंसणमोहणीयक्ख-वणाए तत्थ किं संभवो अत्थि णत्थि त्ति संदेहेण घुलंतहियस्स सिस्ससंदेहविणासणट्ठं मणुसस्स मणुसिणीए वा त्ति भणिदं । </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञानादिक का होना सम्भव नहीं है–(देखें - [[ शीर्षक नं | शीर्षक नं ]].३) इसी प्रकार अप्रशस्त वेद के उदय में दर्शनमोहनीय की क्षपणा क्या सम्भव है या नहीं है, इस प्रकार सन्देह से जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए सूत्र में ‘मणुसस्स मणुस्सणीए वा’ यह पद कहा है । मनुष्य का अर्थ पुरुष व नपुंसक वेदी मनुष्य है और मनुष्यणी का अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य है ।– देखें - [[ वेद#3.5 | वेद / ३ / ५ ]]। अतः तीनों वेदों में दर्शनमोह की क्षपणा सम्भव है ।] </span><br /> | ||
गो.जी./जी./प्र./७१४/११५३/११ <span class="SanskritText">असंयततैरश्च्यां प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असंयतमानुष्यां प्रथमोपशमवेद-कक्षायिकसम्यक्त्वत्रयं च संभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव । योनिमतीनां पञ्चमगुणस्थानादुपरि गमनासंभवात् द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नास्ति । </span>= <span class="HindiText">असंयत तिर्यंचों में प्रथमोपशम व वेदक ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं और मनुष्यणी के प्रशमोपशम, वेदक व क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं । तथापि तहाँ एक भुज्यमान पर्याप्त आलाप ही होता है । योनिमती मनुष्य या तिर्यंच का तो पञ्चमगुणस्थान से ऊपर जाना असम्भव होने से यहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता । <br /> | गो.जी./जी./प्र./७१४/११५३/११ <span class="SanskritText">असंयततैरश्च्यां प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असंयतमानुष्यां प्रथमोपशमवेद-कक्षायिकसम्यक्त्वत्रयं च संभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव । योनिमतीनां पञ्चमगुणस्थानादुपरि गमनासंभवात् द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नास्ति । </span>= <span class="HindiText">असंयत तिर्यंचों में प्रथमोपशम व वेदक ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं और मनुष्यणी के प्रशमोपशम, वेदक व क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं । तथापि तहाँ एक भुज्यमान पर्याप्त आलाप ही होता है । योनिमती मनुष्य या तिर्यंच का तो पञ्चमगुणस्थान से ऊपर जाना असम्भव होने से यहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> अप्रशस्त वेद के साथ आहारक आदि ॠद्धियों का निषेध</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> अप्रशस्त वेद के साथ आहारक आदि ॠद्धियों का निषेध</strong> <br /> | ||
दे./वेद/६/१- में.क.पा.–(अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञान आदि का होना सम्भव नहीं ।) <br /> | दे./वेद/६/१- में.क.पा.–(अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञान आदि का होना सम्भव नहीं ।) <br /> | ||
देखें - [[ आहार#4.3 | आहार / ४ / ३ ]]- (भाव पुरुष द्रव्य स्त्री को यद्यपि संयम होता है, परन्तु उनको आहारक ॠद्धि नहीं होती । द्रव्य स्त्री को तो संयम ही नहीं होता, तहाँ आहार ॠद्धि का प्रश्न ही क्या ।) </span><br /> | |||
गो.जी./मू.व जी.प्र./७१५/११५४/५, ९ <span class="PrakritText">मणुसिणि पमत्तविरदे आहारदुगं तु णत्थि णियमेण ।.... ।७१५। </span><span class="SanskritText">नुशब्दात् अशुभवेदोदये मनःपर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । </span>= <span class="HindiText">मनुष्यणी की प्रमत्तविरत गुणस्थान में नियम से आहार व आहारक मिश्र योग नहीं होते । ‘तु’ शब्द से अशुभ वेद के उदय में मनःपर्ययज्ञान व परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए । </span><br /> | गो.जी./मू.व जी.प्र./७१५/११५४/५, ९ <span class="PrakritText">मणुसिणि पमत्तविरदे आहारदुगं तु णत्थि णियमेण ।.... ।७१५। </span><span class="SanskritText">नुशब्दात् अशुभवेदोदये मनःपर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । </span>= <span class="HindiText">मनुष्यणी की प्रमत्तविरत गुणस्थान में नियम से आहार व आहारक मिश्र योग नहीं होते । ‘तु’ शब्द से अशुभ वेद के उदय में मनःपर्ययज्ञान व परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए । </span><br /> | ||
गो.जी./मू.व जी.प्र./७२४/११६०/२, ५ <span class="PrakritText">णवरि य संढिच्छीणं णत्थि हु आहारगाण दुगं ।७२४।</span>–<span class="SanskritText">भावषण्डद्रव्यपुरुषे भावस्त्रीद्रव्यपुरुष च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिश्रालापौ न । </span>= <span class="HindiText">इतनी विशेषता है कि नपुंसक व स्त्री वेदी को आहारकद्विक नहीं होते हैं । तात्पर्य यह कि भावनपुंसक द्रव्यपुरुष में अथवा भावस्त्री द्रव्यपुरुष में प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहार व आहारकमिश्र ये आलाप नहीं होते हैं । </span></li> | गो.जी./मू.व जी.प्र./७२४/११६०/२, ५ <span class="PrakritText">णवरि य संढिच्छीणं णत्थि हु आहारगाण दुगं ।७२४।</span>–<span class="SanskritText">भावषण्डद्रव्यपुरुषे भावस्त्रीद्रव्यपुरुष च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिश्रालापौ न । </span>= <span class="HindiText">इतनी विशेषता है कि नपुंसक व स्त्री वेदी को आहारकद्विक नहीं होते हैं । तात्पर्य यह कि भावनपुंसक द्रव्यपुरुष में अथवा भावस्त्री द्रव्यपुरुष में प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहार व आहारकमिश्र ये आलाप नहीं होते हैं । </span></li> |
Revision as of 16:25, 6 October 2014
- वेदमार्गणा में सम्यक्त्व व गुणस्थान
- सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश
देखें - वेद / ५ /नं. [नरक गति में नपुंसक वेदी १-४ गुणस्थान वाले होते हैं ।१। तिर्यंच तीनों वेदों वाले १-५ गुणस्थान वाले होते हैं ।४। मनुष्य तीनों वेदों में १-९ गुणस्थान वाले होते हैं । और इससे आगे वेद रहित होते हैं ।४। देव स्त्री व पुरुष वेद में १-४ गुणस्थान वाले होते हैं ।२ ।]
देखें - नरक / ४ /नं. [नरक की प्रथम पृथिवी में क्षायिक औपशमिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं, परन्तु शेष छः पृथिवियों में क्षायिक रहित दो ही सम्भव हैं ।२ । प्रथम पृथिवी सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों अवस्थाओं में होते हैं पर शेष छः पृथिवियों में पर्याप्तक ही होते हैं ।३ ।]
देखें - तिर्यंच / २ /नं. [तिर्यंच व योनिमति तिर्यंच १-५ गुणस्थान वाले होते हैं । तिर्यंच को चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु पाँचवें गुणस्थान में नहीं । योनिमती तिर्यंच को चौथे व पाँचवें दोनों ही गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दर्शन सम्भव नहीं ।१। तिर्यंच तो चौथे गुणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों सम्भव हैं, परन्तु योनिमति तिर्यंच केवल पर्याप्त ही सम्भव है । पाँचवें गुणस्थान में दोनों ही पर्याप्त होते हैं अपर्याप्त नहीं ।२ ।]
देखें - मनुष्य / ३ /नं. [मनुष्य व मनुष्यणी दोनों ही संयत व क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने सम्भव हैं ।१ । मनुष्य तो सम्यग्दृष्टि पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं, परन्तु मनुष्यणी सम्यग्दृष्टि केवल पर्याप्त ही होते हैं । शेष ५-१४ गुणस्थानों में दोनों पर्याप्त ही होते हैं ।२।]
देखें - देव . /३/नं. [कल्पवासी देवों में क्षायिक औपशमिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं, परन्तु भवनत्रिक देवों व सर्व देवियों में क्षायिक रहित दो ही सम्यक्त्व सम्भव हैं ।१ । कल्पवासी देव तो असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं, पर भवनत्रिकदेव व सर्व देवियाँ नियम से पर्याप्त ही होते हैं ।२।]
क.पा.३/३-२२/#४२६/२४१/१३ जहा अप्पसत्थ वेदोदएण मणपज्जवणाणादीणं ण संभवो तहा दंसणमोहणीयक्ख-वणाए तत्थ किं संभवो अत्थि णत्थि त्ति संदेहेण घुलंतहियस्स सिस्ससंदेहविणासणट्ठं मणुसस्स मणुसिणीए वा त्ति भणिदं । = जिस प्रकार अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञानादिक का होना सम्भव नहीं है–(देखें - शीर्षक नं .३) इसी प्रकार अप्रशस्त वेद के उदय में दर्शनमोहनीय की क्षपणा क्या सम्भव है या नहीं है, इस प्रकार सन्देह से जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए सूत्र में ‘मणुसस्स मणुस्सणीए वा’ यह पद कहा है । मनुष्य का अर्थ पुरुष व नपुंसक वेदी मनुष्य है और मनुष्यणी का अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य है ।– देखें - वेद / ३ / ५ । अतः तीनों वेदों में दर्शनमोह की क्षपणा सम्भव है ।]
गो.जी./जी./प्र./७१४/११५३/११ असंयततैरश्च्यां प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असंयतमानुष्यां प्रथमोपशमवेद-कक्षायिकसम्यक्त्वत्रयं च संभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव । योनिमतीनां पञ्चमगुणस्थानादुपरि गमनासंभवात् द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नास्ति । = असंयत तिर्यंचों में प्रथमोपशम व वेदक ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं और मनुष्यणी के प्रशमोपशम, वेदक व क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व सम्भव हैं । तथापि तहाँ एक भुज्यमान पर्याप्त आलाप ही होता है । योनिमती मनुष्य या तिर्यंच का तो पञ्चमगुणस्थान से ऊपर जाना असम्भव होने से यहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता ।
- अप्रशस्त वेदों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प होते हैं
ष.खं.५/१, ८/सू.७५/२७८ णवरि विसेसो, मणुसिणीसु असंजद संजदासंजद-पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवो खइ-यसन्माइट्ठी ।७५।
ध.५/१, ८, ७५/२७८/१० कुदो । अप्पसत्थवेदोदएण दंसणमोहणीयं खवेंतजीवाणं बहुणमणुवलंभा । = केवल विशेषता यह है कि मनुष्यणियों में असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ।७५। क्योंकि अप्रशस्त वेद के उदय के साथ दर्शनमोहनीय को क्षपण करने वाले जीव बहुत नहीं पाये जाते हैं ।
- अप्रशस्त वेद के साथ आहारक आदि ॠद्धियों का निषेध
दे./वेद/६/१- में.क.पा.–(अप्रशस्त वेद के उदय के साथ मनःपर्यय ज्ञान आदि का होना सम्भव नहीं ।)
देखें - आहार / ४ / ३ - (भाव पुरुष द्रव्य स्त्री को यद्यपि संयम होता है, परन्तु उनको आहारक ॠद्धि नहीं होती । द्रव्य स्त्री को तो संयम ही नहीं होता, तहाँ आहार ॠद्धि का प्रश्न ही क्या ।)
गो.जी./मू.व जी.प्र./७१५/११५४/५, ९ मणुसिणि पमत्तविरदे आहारदुगं तु णत्थि णियमेण ।.... ।७१५। नुशब्दात् अशुभवेदोदये मनःपर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । = मनुष्यणी की प्रमत्तविरत गुणस्थान में नियम से आहार व आहारक मिश्र योग नहीं होते । ‘तु’ शब्द से अशुभ वेद के उदय में मनःपर्ययज्ञान व परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए ।
गो.जी./मू.व जी.प्र./७२४/११६०/२, ५ णवरि य संढिच्छीणं णत्थि हु आहारगाण दुगं ।७२४।–भावषण्डद्रव्यपुरुषे भावस्त्रीद्रव्यपुरुष च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिश्रालापौ न । = इतनी विशेषता है कि नपुंसक व स्त्री वेदी को आहारकद्विक नहीं होते हैं । तात्पर्य यह कि भावनपुंसक द्रव्यपुरुष में अथवा भावस्त्री द्रव्यपुरुष में प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहार व आहारकमिश्र ये आलाप नहीं होते हैं ।
- सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश