विसंयोजना: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> विसंयोजना का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> विसंयोजना का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./2/2-22/246/219/6 का विसंयोजना। <span class="PrakritText">अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेण परिणमनं विसंयोजना। </span>= <span class="HindiText">अनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृति रूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं। </span><br /> | ||
गो.क./जो.प्र./ | गो.क./जो.प्र./336/487/1 <span class="SanskritText">युगपदेव विसंयोज्य द्वादशकषायनोकषायरूपेण परिणम्य....। </span>=<span class="HindiText"> अनन्तानुबन्धी चतुष्क की युगपत् विसंयोजना करके अर्थात् बारह कषायों व नव नोकषायों रूप से परिणमा कर। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विसंयोजना, क्षय व उपशम में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विसंयोजना, क्षय व उपशम में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./2/2-22/246/219/7<span class="PrakritText"> ण परोदयकम्मक्खवणाए वियहिचारों, तेसिं परसरूवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो।</span> = <span class="HindiText">विसंयोजना का इस प्रकार लक्षण करने पर, जिन कर्मों की पर-प्रकृति रूप से क्षपणा होती है, उनके साथ व्यभिचार (अतिव्याप्ति) आ जायेगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी को छोड़कर पररूप से परिणत हुए अन्य कर्मों की पुनः उत्पत्ति नहीं पायी जाती है। अतः विसंयोजना का लक्षण अन्य कर्मों की क्षपणा में घटित न होने से अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है। <br /> | ||
देखें [[ उपशम#1.6 | उपशम - 1.6 ]](अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से रहना अनन्तानुबन्धी का उपशम है और उदय में नहीं आना दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का उपशम है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विसंयोजना का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विसंयोजना का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./2/2-22/#245/218/5<span class="PrakritText"> अट्ठावीससंतकम्मिएण अणंताणुबंधी विसंजोइदे चउवीस विहत्तीओ होदि। को विसंजोअओ। सम्मादिट्ठी। मिच्छाइट्ठी ण विसंजोएदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा चउवीस विहत्तिओ होदि त्ति एदम्हादो सुत्तादो णव्वदे। अणंताणुबंधिविसंजोइदसम्मादिट्ठिम्हि मिच्छतं पडिवण्णे चउवीस विहत्ती किण्ण होदि। ण, मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए चेव चरित्तमोहकम्मक्खंधेसु अणंताणुबंधिसरूवेण परिणदेसु अट्ठावीसपयडिसंतुप्पत्तीदो।...अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कधं चउवीसविहत्तीओ। ण, चउवीस संतकम्मियसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तत्थ चउवीसपयडिसंतुवलंभादो। चारित्तमोहनीयं तत्थ अणंताणुबंधिसरूवेण किण्ण परिणमइ। ण, तत्थ तप्परिणमनहेदुमिच्छत्तुदयाभावादो, सासणे इव तिव्वसंकिलेसाभावादो वा।</span> =<span class="HindiText"> अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर देने पर चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है<strong>। प्रश्न–</strong>विसंयोजना कौन करता है? <strong>उत्तर–</strong>सम्यग्दृष्टि जीव विसंयोजना करता है। <strong>प्रश्न–</strong>मिथ्या दृष्टि जीव विसंयोजना नहीं करता है, यह कैसे जाना जाता है? <strong>उत्तर–</strong>‘सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी है’ इस सूत्र से जाना जाता है। <strong>प्रश्न–</strong>अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाने पर मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि ऐसे जीव के मिथ्यात्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में ही चारित्र मोहनीय के कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूप से परिणत हो जाते हैं। अतः उसके चौबीस प्रकृतियों की सत्त न रहकर अट्ठाईस प्रकृतियों की ही सत्ता पायी जाती है। <strong>प्रश्न–</strong>जब कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि चौबीस कर्मों की सत्त वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर उनके भी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता बन जाती है। <strong>प्रश्न–</strong>सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव चारित्रमोहनीय को अनन्तानुबन्धी रूप से क्यों नहीं परिणमा लेता है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि वहाँ पर चारित्रमोहनीय को अनन्तानुबन्धी रूप से परिणमाने का कारण भूत मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है। अथवा सासादन गुणस्थान में जिस प्रकार के तीव्र संक्लेशरूप परिणाम पाये जाते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उस प्रकार के तीव्र संक्लेशरूप परिणाम नहीं पाये जाते हैं। </span><br /> | ||
ध. | ध.12/4, 2, 7, 178/82/9 <span class="SanskritText">जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिट्ठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तव्विसंजोयणब्भुवगमादोत्ति। </span>= <strong>प्रश्न–</strong><span class="HindiText">यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है, तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गयी है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">विसंयोजना का जघन्य उत्कृष्ट काल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">विसंयोजना का जघन्य उत्कृष्ट काल</strong> </span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.2/2-22/#283-284/249/2 <span class="PrakritText">चउवीसविहत्ती केवचिरं कालादो। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं (चूर्ण सूत्र) कुदो। अट्ठावीससंतकम्मियस्स सम्माइट्ठस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय चउवीस विहत्तीए आदिं कादूण सब्वजहण्णंतोमुहुत्तमच्छिय खविदमिच्छत्तस्स चउवीस विहत्तीए जहण्णकालुवलंभादो। उक्कस्सेण वेछावट्ठि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि। (चूर्ण सूत्र)। कुदो। छव्वीससंतकम्मियस्स लांतवकाविट्ठमिच्छाइट्ठिदेवस्स चोद्दससागरोवमाउट्ठिदियस्स तत्थे पढमे सागरे अंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मतं पडिवज्जिय सव्वलहुएण कालेण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय चउवीसविहत्तीए आदि कादूण विदियसागरोवमपढमसमए वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय तेरससागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालेदूण कालं कादूण पुव्वकोडिआउमणुस्सेसुववज्जिय पुणो एदेण’’</span>....<span class="HindiText">(आगे केवल भावार्थ दिया है) = </span> | ||
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<li class="HindiText"> (चौबीस प्रकृति स्थान का कितना काल है? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। (चूर्ण सूत्र)। वह ऐसे कि | <li class="HindiText"> (चौबीस प्रकृति स्थान का कितना काल है? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। (चूर्ण सूत्र)। वह ऐसे कि 28 प्रकृतिक स्थान वाले किसी जीव ने अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिक स्थान का प्रारम्भ किया। और अन्तर्मुहूर्त काल तक वहाँ रहकर मिथ्यात्व का क्षय किया। </li> | ||
<li class="HindiText"> चौबीस प्रकृतिक स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक | <li class="HindiText"> चौबीस प्रकृतिक स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक 132 सागर है। (चूर्ण सूत्र) वह ऐसे कि–26 प्रकृतिक स्थान वाले किसी लांतव कापिष्ठ स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देव ने अपनी आयु के प्रथम सागर में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त किया। तहाँ सर्व लघुकाल द्वारा अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके 24 प्रकृतिक स्थान को प्रारम्भ कर लेता है। फिर दूसरे सागर के पहले समय में वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके साधिक 13 सागर काल तक वहाँ सम्यक्त्व का पालन करके और मरकर पूर्वकोटि प्रमाण आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् 22 सागर आयु वाले देव, मनुष्य तथा 31 सागर आयु वाले देवों में उत्पन्न होता है। वहाँ सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। वहाँ से मरकर क्रम से मनुष्य, 20 सागर आयु वाले देव, मनुष्य, 22 सागर आयु वाले देव, मनुष्य, 24 सागर आयु वाले देव तथा मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्त में मिथ्यात्व का क्षय करता है। <strong>नोट–</strong>मनुष्यों की आयु सर्व कोटि पूर्व तथा देवों की आयु सर्वत्र कोटि पूर्व कम वह-वह-वह आयु जाननी चाहिए। इस प्रकार 13+22+31+20+22+24= 132 सागर प्राप्त होता है। इस काल में अन्तर्मुहूर्त पहिला तथा अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष अन्तिम भव के जोड़ने पर साधिक का प्रमाण आता है, क्योंकि अन्तिम मनुष्य भव में इतना काल बीतने पर मिथ्यात्व का क्षय करता है।] <br /> | ||
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<li class="HindiText">पुनः संयोजना हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल के बिना मरण नहीं | <li class="HindiText">पुनः संयोजना हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल के बिना मरण नहीं होता–देखें [[ मरण#3.6 | मरण - 3.6 ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText">पुनः पुनः विसंयोजना करने की सीमा पल्य । असं. | <li class="HindiText">पुनः पुनः विसंयोजना करने की सीमा पल्य । असं. बार–देखें [[ संयम#2 | संयम - 2 ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना विधि में त्रिकरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना विधि में त्रिकरण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1, 9-8, 14/288/6 <span class="SanskritText">जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुव्वमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि। तस्स जाणि करणाणि ताणि परूवेदव्वाणि। तं जधाअधापवत्तकरणं अपुव्वकरणं अणियट्टीकरणं च।</span> = <span class="HindiText">(उपशम चारित्र की प्राप्ति विधि में) जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है वह पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टय का विसंयोजन करता है। उसके जो कारण होते हैं उनका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है–अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण।–(विशेष देखें [[ उपशम#2.5 | उपशम - 2.5]])। (ल.सा./मू./112/150); (गो.क./जी.प्र./550/743/16)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> अनन्तानुबन्धी विसंयोजन विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> अनन्तानुबन्धी विसंयोजन विधि</strong> </span><br /> | ||
मो.क./जी.प्र./ | मो.क./जी.प्र./550/743/16 <span class="SanskritText">अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रागुक्तचतुरावश्यकानि कुर्वन्...तच्चरमसमये सर्वं विसंयोजितं द्वादशकषायनवनोकषायरूपं नीतं।</span> = <span class="HindiText">कोई एक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अधःप्रवृत्तकरण के योग्य चार आवश्यकों को करके तदनन्तर अपूर्वकरण को प्राप्त होता है। वहाँ भी उसके योग्य चार आवश्यकों को करते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में अथवा संयम या संयमासंयम की उत्पत्ति में गुणश्रेणी द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणे अनन्तानुबन्धी के द्रव्य का अपकर्षण करता है । इससे भी असंख्यात गुणे द्रव्य अन्य कषायों रूप से परिणमाता है। अनन्तर समय में अनिवृत्तिकरण में प्रवेश पाकर स्थिति सत्त्वापसरण द्वारा (देखें [[ अपकर्षण#3 | अपकर्षण - 3]]) अनन्तानुबन्धी की स्थिति को घटाता हुआ अन्त में उच्छिष्टावली मात्र स्थिति शेष रखता है। अनिवृत्तिकरणकाल का अन्तिम अवली में उस आवली प्रमाण द्रव्य के निषेकों को एक-एक करके प्रति समय अन्य प्रकृति रूप परिणमा कर गलाता है और इस प्रकार उस उच्छिष्टावली के अन्तिम समय अनन्तानुबंधी चतुष्क का पूरा द्रव्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है।] <br /> | ||
<strong>नोट–</strong>त्रिकरणों का स्वरूप | <strong>नोट–</strong>त्रिकरणों का स्वरूप देखें [[ ]]‘करण। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की | <li class="HindiText"> सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना–देखें [[ ]]संक्रमण/4। </li> | ||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
उपशम व क्षयिक सम्यक्त्व प्राप्ति विधि में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ रूप से परिणमित हो जाना विसंयोजना कहलाता है।
- विसंयोजना का लक्षण
क.पा./2/2-22/246/219/6 का विसंयोजना। अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेण परिणमनं विसंयोजना। = अनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृति रूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं।
गो.क./जो.प्र./336/487/1 युगपदेव विसंयोज्य द्वादशकषायनोकषायरूपेण परिणम्य....। = अनन्तानुबन्धी चतुष्क की युगपत् विसंयोजना करके अर्थात् बारह कषायों व नव नोकषायों रूप से परिणमा कर।
- विसंयोजना, क्षय व उपशम में अन्तर
क.पा./2/2-22/246/219/7 ण परोदयकम्मक्खवणाए वियहिचारों, तेसिं परसरूवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो। = विसंयोजना का इस प्रकार लक्षण करने पर, जिन कर्मों की पर-प्रकृति रूप से क्षपणा होती है, उनके साथ व्यभिचार (अतिव्याप्ति) आ जायेगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी को छोड़कर पररूप से परिणत हुए अन्य कर्मों की पुनः उत्पत्ति नहीं पायी जाती है। अतः विसंयोजना का लक्षण अन्य कर्मों की क्षपणा में घटित न होने से अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है।
देखें उपशम - 1.6 (अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से रहना अनन्तानुबन्धी का उपशम है और उदय में नहीं आना दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का उपशम है।)
- विसंयोजना का स्वामित्व
क.पा./2/2-22/#245/218/5 अट्ठावीससंतकम्मिएण अणंताणुबंधी विसंजोइदे चउवीस विहत्तीओ होदि। को विसंजोअओ। सम्मादिट्ठी। मिच्छाइट्ठी ण विसंजोएदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा चउवीस विहत्तिओ होदि त्ति एदम्हादो सुत्तादो णव्वदे। अणंताणुबंधिविसंजोइदसम्मादिट्ठिम्हि मिच्छतं पडिवण्णे चउवीस विहत्ती किण्ण होदि। ण, मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए चेव चरित्तमोहकम्मक्खंधेसु अणंताणुबंधिसरूवेण परिणदेसु अट्ठावीसपयडिसंतुप्पत्तीदो।...अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कधं चउवीसविहत्तीओ। ण, चउवीस संतकम्मियसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तत्थ चउवीसपयडिसंतुवलंभादो। चारित्तमोहनीयं तत्थ अणंताणुबंधिसरूवेण किण्ण परिणमइ। ण, तत्थ तप्परिणमनहेदुमिच्छत्तुदयाभावादो, सासणे इव तिव्वसंकिलेसाभावादो वा। = अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर देने पर चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है। प्रश्न–विसंयोजना कौन करता है? उत्तर–सम्यग्दृष्टि जीव विसंयोजना करता है। प्रश्न–मिथ्या दृष्टि जीव विसंयोजना नहीं करता है, यह कैसे जाना जाता है? उत्तर–‘सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी है’ इस सूत्र से जाना जाता है। प्रश्न–अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाने पर मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी क्यों नहीं होता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि ऐसे जीव के मिथ्यात्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में ही चारित्र मोहनीय के कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूप से परिणत हो जाते हैं। अतः उसके चौबीस प्रकृतियों की सत्त न रहकर अट्ठाईस प्रकृतियों की ही सत्ता पायी जाती है। प्रश्न–जब कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी कैसे हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि चौबीस कर्मों की सत्त वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर उनके भी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता बन जाती है। प्रश्न–सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव चारित्रमोहनीय को अनन्तानुबन्धी रूप से क्यों नहीं परिणमा लेता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि वहाँ पर चारित्रमोहनीय को अनन्तानुबन्धी रूप से परिणमाने का कारण भूत मिथ्यात्व का उदय नहीं पाया जाता है। अथवा सासादन गुणस्थान में जिस प्रकार के तीव्र संक्लेशरूप परिणाम पाये जाते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उस प्रकार के तीव्र संक्लेशरूप परिणाम नहीं पाये जाते हैं।
ध.12/4, 2, 7, 178/82/9 जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिट्ठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तव्विसंजोयणब्भुवगमादोत्ति। = प्रश्न–यदि सम्यक्त्वरूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है, तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गयी है।
- विसंयोजना का जघन्य उत्कृष्ट काल
क.पा.2/2-22/#283-284/249/2 चउवीसविहत्ती केवचिरं कालादो। जहण्णेण अंतोमुहुत्तं (चूर्ण सूत्र) कुदो। अट्ठावीससंतकम्मियस्स सम्माइट्ठस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय चउवीस विहत्तीए आदिं कादूण सब्वजहण्णंतोमुहुत्तमच्छिय खविदमिच्छत्तस्स चउवीस विहत्तीए जहण्णकालुवलंभादो। उक्कस्सेण वेछावट्ठि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि। (चूर्ण सूत्र)। कुदो। छव्वीससंतकम्मियस्स लांतवकाविट्ठमिच्छाइट्ठिदेवस्स चोद्दससागरोवमाउट्ठिदियस्स तत्थे पढमे सागरे अंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मतं पडिवज्जिय सव्वलहुएण कालेण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय चउवीसविहत्तीए आदि कादूण विदियसागरोवमपढमसमए वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय तेरससागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालेदूण कालं कादूण पुव्वकोडिआउमणुस्सेसुववज्जिय पुणो एदेण’’....(आगे केवल भावार्थ दिया है) =- (चौबीस प्रकृति स्थान का कितना काल है? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। (चूर्ण सूत्र)। वह ऐसे कि 28 प्रकृतिक स्थान वाले किसी जीव ने अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिक स्थान का प्रारम्भ किया। और अन्तर्मुहूर्त काल तक वहाँ रहकर मिथ्यात्व का क्षय किया।
- चौबीस प्रकृतिक स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक 132 सागर है। (चूर्ण सूत्र) वह ऐसे कि–26 प्रकृतिक स्थान वाले किसी लांतव कापिष्ठ स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देव ने अपनी आयु के प्रथम सागर में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त किया। तहाँ सर्व लघुकाल द्वारा अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके 24 प्रकृतिक स्थान को प्रारम्भ कर लेता है। फिर दूसरे सागर के पहले समय में वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त करके साधिक 13 सागर काल तक वहाँ सम्यक्त्व का पालन करके और मरकर पूर्वकोटि प्रमाण आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् 22 सागर आयु वाले देव, मनुष्य तथा 31 सागर आयु वाले देवों में उत्पन्न होता है। वहाँ सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। वहाँ से मरकर क्रम से मनुष्य, 20 सागर आयु वाले देव, मनुष्य, 22 सागर आयु वाले देव, मनुष्य, 24 सागर आयु वाले देव तथा मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्त में मिथ्यात्व का क्षय करता है। नोट–मनुष्यों की आयु सर्व कोटि पूर्व तथा देवों की आयु सर्वत्र कोटि पूर्व कम वह-वह-वह आयु जाननी चाहिए। इस प्रकार 13+22+31+20+22+24= 132 सागर प्राप्त होता है। इस काल में अन्तर्मुहूर्त पहिला तथा अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष अन्तिम भव के जोड़ने पर साधिक का प्रमाण आता है, क्योंकि अन्तिम मनुष्य भव में इतना काल बीतने पर मिथ्यात्व का क्षय करता है।]
- अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना विधि में त्रिकरण
ध.6/1, 9-8, 14/288/6 जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुव्वमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि। तस्स जाणि करणाणि ताणि परूवेदव्वाणि। तं जधाअधापवत्तकरणं अपुव्वकरणं अणियट्टीकरणं च। = (उपशम चारित्र की प्राप्ति विधि में) जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है वह पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टय का विसंयोजन करता है। उसके जो कारण होते हैं उनका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है–अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण।–(विशेष देखें उपशम - 2.5)। (ल.सा./मू./112/150); (गो.क./जी.प्र./550/743/16)।
- अनन्तानुबन्धी विसंयोजन विधि
मो.क./जी.प्र./550/743/16 अधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रागुक्तचतुरावश्यकानि कुर्वन्...तच्चरमसमये सर्वं विसंयोजितं द्वादशकषायनवनोकषायरूपं नीतं। = कोई एक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अधःप्रवृत्तकरण के योग्य चार आवश्यकों को करके तदनन्तर अपूर्वकरण को प्राप्त होता है। वहाँ भी उसके योग्य चार आवश्यकों को करते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में अथवा संयम या संयमासंयम की उत्पत्ति में गुणश्रेणी द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणे अनन्तानुबन्धी के द्रव्य का अपकर्षण करता है । इससे भी असंख्यात गुणे द्रव्य अन्य कषायों रूप से परिणमाता है। अनन्तर समय में अनिवृत्तिकरण में प्रवेश पाकर स्थिति सत्त्वापसरण द्वारा (देखें अपकर्षण - 3) अनन्तानुबन्धी की स्थिति को घटाता हुआ अन्त में उच्छिष्टावली मात्र स्थिति शेष रखता है। अनिवृत्तिकरणकाल का अन्तिम अवली में उस आवली प्रमाण द्रव्य के निषेकों को एक-एक करके प्रति समय अन्य प्रकृति रूप परिणमा कर गलाता है और इस प्रकार उस उच्छिष्टावली के अन्तिम समय अनन्तानुबंधी चतुष्क का पूरा द्रव्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है।]
नोट–त्रिकरणों का स्वरूप देखें [[ ]]‘करण।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना–देखें [[ ]]संक्रमण/4।