उपशम
From जैनकोष
कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना उपशम कहलाता है। कर्मों के उदय के अभाव के कारण उतने समय के लिए जीव के परिणाम अत्यंत शुद्ध हो जाते हैं, परंतु अवधि पूरी हो जाने पर नियम से कर्म पुनः उदय में आ जाते हैं और जीव के परिणाम पुनः गिर जाते हैं। उपशम-करण का संबंध केवल मोहकर्म व तज्जन्य परिणामों से ही है, ज्ञानादि अन्य भावों से नहीं, क्योंकि रागादि विकारों में क्षणिक उतार-चढ़ाव संभव हैं। कर्मों के दबने को उपशम और उससे उत्पन्न जीव के शुद्ध परिणामों को औपशमिक भाव कहते हैं।
- उपशम निर्देश
- उपशम सामान्य का लक्षण
- सदवस्थारूप उपशम का लक्षण
- प्रशस्त व अप्रशस्त उपशम
- उपशम के निक्षेपों की अपेक्षा भेद
- नो आगम भाव उपशम का लक्षण
- उपशम व विसंयोजना में अंतर
- दर्शनमोह का उपशम विधान
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा स्वामित्व
- प्रथमोपशम में दर्शनमोह उपशम विधि
- मिथ्यात्व का त्रिधाकरण
- द्वितीयोपशम की अपेक्षा स्वामित्व
- द्वितीयोपशम की अपेक्षा दर्शनमोह उपशमविधि
- उपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी की संयोजना के विधि निषेध संबंधी दो मत
- चारित्रमोह का उपशम विधान
- चारित्रमोह की उपशम विधि
- उपशम संबंधी कुछ नियम व शंकाएँ
- अंतरायाम में प्रवेश करने से पहले मिथ्यात्व ही रहता है
- उपशांत-द्रव्य का अवस्थान अपूर्वकरण तक ही है, ऊपर नहीं
- नवकप्रबद्ध का एक आवली पर्यंत उपशम संभव नहीं
- उपशमन काल संबंधी शंका
- उपशम विषयक प्ररूपणाएँ
- मूलोत्तर प्रकृतियों की स्थिति आदि में उपशम विषयक प्ररूपणाएँ
- औपशमिक भाव निर्देश
- औपशमिक भाव का लक्षण
- औपशमिक भाव के भेद-प्रभेद
• निक्षेपों रूप भेदों के लक्षण - देखें निक्षेप
• अनंतानुबंधी विसंयोजना - देखें विसंयोजना
• त्रिकरण परिचय - देखें करण - 3
• अंतरकरण विधान - देखें अंतरकरण
• स्थितिबंधापसरण - देखें अपकर्षण - 3
• मोहोपशम व आत्माभिमुख परिणाम में केवल भाषा का भेद है - देखें उपशम - 6.1
• अनादि मिथ्यादृष्टि केवल एक मिथ्यात्व का ही और सादि मिथ्यादृष्टि 1, 2 या 3 प्रकृतियों का उपशम करता है - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2
• द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में आरोहक संबंधी दो मत - देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.4
• पुनः पुनः दर्शनमोह उपशमाने की सीमा - देखें सम्यग्दर्शन - IV.2
• पुनः पुनः चारित्रमोह उपशमाने की सीमा - देखें संयम - 2
• दर्शन व चारित्रमोह के उपशामक की मृत्यु नहीं होती - देखें मरण - 3
• उपशम श्रेणी में कदाचित् मृत्यु संभव - देखें मरण - 3
• मोह के मंद उदय में ही यथार्थ पुरुषार्थ संभव है - देखें कारण - III.6
• दर्शन चारित्र मोह के उपशामकों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम
• क्षायोपशमिक भाव में कथंचित् औपशमिकपने का विधि निषेध-देखें क्षयोपशम
• गुणस्थानों व मार्गणा स्थानों में यथासंभव भावों का निर्देश - देखें वह वह नाम
• अपूर्वकरण गुणस्थान में किसी भी कर्म का उपशम न होते हुए भी वहाँ औपशमिक भाव कैसे कहा गया - देखें अपूर्वकरण - 4
• औपशमिक भाव व आत्माभिमुख परिणाम में केवल भाषा का भेद है - देखें औपशमिक भावका लक्षण
• औपशमिक भाव जीव का निज तत्त्व है - देखें भाव - 2
- उपशम निर्देश
- उपशम सामान्य का लक्षण धवला पुस्तक 9/4,1,45/91/236
- सदवस्था रूप उपशमका लक्षण राजवार्तिक अध्याय 2/5/3/107/1
- प्रशस्त व अप्रशस्त उपशम धवला पुस्तक 15/276/2
- उपशम के निक्षेपों की अपेक्षा भेद –
- नोआगम भाव उपशम का लक्षण धवला पुस्तक 15/275/5
- उपशम व विसंयोजना में अंतर
- दर्शनमोह का उपशम विधान
- प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा स्वामित्व षट्खंडागम पुस्तक 6/1,9-8/9/238
- प्रथमोपशम में दर्शनमोह उपशम विधि षट्खंडागम पुस्तक 6/1,9-8/सूत्र 3-8/203-238
- मिथ्यात्व का त्रिधाकरण धवला पुस्तक 6/1,9-8,7/235
- द्वितीयोपशम की अपेक्षा स्वामित्व धवला पुस्तक 6/1,9-8,14/288/6
- द्वितीयोपशम की अपेक्षा दर्शनमोह उपशम विधि लब्धिसार / मूल या टीका गाथा /205-218/259-272
- उपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी की संयोजना के विधि निषेध संबंधी दो मत
- चारित्रमोह का उपशम विधान
- चारित्रमोह की उपशम विधि
- उपशम संबंधी कुछ नियम व शंकाएँ
- अंतरायाम में प्रवेश करने से पहले मिथ्यात्व ही रहता है धवला पुस्तक 6/1,9-8,9/6/240
- उपशांत द्रव्य का अवस्थान अपूर्वकरण तक ही है ऊपर नहीं गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 450/599/5
- नवक प्रबद्धका एक आवलीपर्यंत उपशम संभव नहीं धवला पुस्तक 1/1,1,27/215 विशेषार्थ/
- उपशमन काल संबंधी शंका
- उपशम विषयक प्ररूपणाएँ
- औपशमिक भाव निर्देश
- औपशमिक भाव का लक्षण सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/1/149/9
- औपशमिक भाव के भेद-प्रभेद
उदए संकम उदए चदुसु वि दादुंकमेण णो सक्कं। उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्मं।
= जो कर्म उदय में नहीं दिया जा सके, वह उपशांत कहलाता है।
( धवला पुस्तक 15/4/276); ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 440/593)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/1/149/5आत्मान कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुभूतिरुपशमः। यथा कतकादिद्रव्यसंबंधादंभसि पंकस्य उपशमः।
= आत्मा में कर्म की निजशक्ति का कारणवश प्रगट न होना उपशम है। जैसे कतक आदि द्रव्य के संबंध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है।
राजवार्तिक अध्याय 2/1/1/100/10यथा सकलुषस्यांभसः कतकादिद्रव्यसपर्काद् अधःप्रापितमलद्रव्यस्य तत्कृतकालुष्याभावात् प्रसाद उपलभ्यते, तथा कर्मणः कारणवशादनुद्भूतस्ववीर्यवृत्तिता आत्मनो विशुद्धिरुपशमः।
= जैसे कतकफल या निर्मली के डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है, उसी तरह परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना अर्थात् प्रगट न होना, उपशम है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 8/29/12)
तस्यैव सर्वघातिस्पर्धकस्यानुदयप्राप्तस्य सदवस्था उपशम इत्युच्यते अनुद्भूतस्ववीर्यवृत्तित्वात्।
= अनुदय प्राप्त सर्वघाती स्पर्धकों की सत्ता रूप अवस्था को उपशम कहते हैं, क्योंकि इस अवस्था में उसकी अपनी शक्ति प्रगट नहीं हो सकती।
अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंतं पदेसग्गं तमोकड्डिदुं पि सक्कं; उक्कडिदुं पि सक्कं; पयडीए संकामिदुं पि सक्कं उदयावलियं पवेसिदुं ण उ सक्कं।
= अप्रशस्त उपशमना के द्वारा जो कर्म प्रदेश उपशांत होता है वह अपकर्षण के लिए भी शक्य है, उत्कर्षण के लिए भी शक्य है, तथा अन्य प्रकृति में संक्रमण कराने के लिए भी शक्य है। वह केवल उदयावली में प्रविष्ट करने के लिए शक्य नहीं है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 650/1099/16अनंतानुबंधिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य च उदयाभावलक्षणाप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपंकतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वं नाम।
= अनंतानुबंधी की चौकड़ी और दर्शनमोह का त्रिक इन सात प्रकृति का अभाव है लक्षण जाका ऐसा अप्रशस्त उपशम होने से जैसे कतकफल आदि से मल कर्दम नीचे बैठने करि जल प्रसन्न हो है तैसे जो तत्त्वार्थ श्रद्धान उपजै सो यहु उपशम नाम सम्यक्त्व है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/212/6उवसमो णाम किं। उदय-उदीरण-ओकड्डुक्कड्डण-परपयडिसंकम-ट्ठिदि-अणुभाग-कंडयधादेहि विणा अच्छणमुवसमो।
= प्रश्न-उपशम किसे कहते हैं? उत्तर-उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृति संक्रमण, स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात के बिना ही कर्मों के सत्ता में रहने को (प्रशस्त) उपशम कहते हैं। (यह उपशम चारित्रमोह का होता है)
धवला पुस्तक 15/275
(Kosh1_P0370_Fig0025)
णोआगमभावुवसमणा उवसंतो कलहो जुद्धं वा इच्चेवमादि।
= नो आगम भावोपशमना-जैसे कलह उपशांत हो गया अथवा युद्ध उपशांत हो गया इत्यादि।
सरूवं छंड्डिय अण्ण-पयडि-सरूवेणच्छणमणंताणुबंधीणमुवसमो, दंसणतियस्स उदयाभावो उवसमो तेसिमुवसंताणं पि ओकड्डुक्कड्डण-परपयडि संकमाणमत्थित्तादो।
= अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से रहना अनंतानुबंधी का उपशम है। और उदय में नहीं आना ही दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम है, क्योंकि, उत्कर्षण अपकर्षण और परप्रकृति रूप से संक्रमण को प्राप्त और उपशांत हुई उस तीन प्रकृतियों का अस्तित्व पाया जाता है। विशेषार्थ पृष्ठ 214-अनंतानुबंधी के अन्य प्रकृति रूप से संक्रमण होने को ग्रंथांतरों में विसंयोजना कहा है और यहाँ पर उसे उपशम कहा है। यद्यपि यह केवल शब्द भेद है, और स्वयं वीरसेन स्वामी को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी का अभाव इष्ट है, फिर भी उसे विसंयोजना शब्द से न कहकर उपशम शब्द के द्वारा कहने से उनका यह अभिप्राय रहा हो कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होकर पुनः अनंतानुबंधी का बंध करने लगता है और जिन कर्मप्रदेशों का उसने अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण किया था उनका फिर से अनंतानुबंधी रूप से संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी की सत्ता नहीं रहती है, फिर भी उसका पुनः सद्भाव होना संभव है। अतः द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी की विसंयोजना न कहकर उपशम शब्द का प्रयोग किया गया है।
उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि, चदुसु वि गदीसु उवसामेदि। चदुसु वि गदुसु उवसामेंतो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो एइंदियविगलिंदिएसु। पंचिंदिएसु उवसामेंतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु। सण्णीसु उवसामेंतो गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु। गब्भोवक्कंतिएसु उवसामेंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि णो अपज्जत्तएसु। पज्जत्तएसु उवसामेंतो संखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि ।9।
= दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है? चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हुआ पंचेंद्रियों में उपशमाता है, एकेंद्रियों व विकलेंद्रियों में नहीं उपशमाता है। पंचेंद्रियों में उपशमाता हुआ, संज्ञियों में उपशमाता है असंज्ञियों में पंचेंद्रियों में उपशमाता हुआ, संज्ञियों में उपशमाता है असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रांतिकों में अर्थात् गर्भज जीवों में उपशमाता है, सम्मूर्च्छिमों में नहीं। गर्भोपक्रांतिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है ।9।
कषायपाहुड़ सुत्त 98/632सायारे पट्ठवओ णिट्ठवओ मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दुजहण्णेण तेउलेस्साए ।98।
= साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शन मोहनीय कर्म के उपशमन का प्रस्थापक होता है। किंतु निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य हैं। तीनों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशमन करता है। विशेषार्थ-तेजोलेश्या का यह नियम मनुष्य तिर्यंचों की अपेक्षा कहा जाना चाहिए। उक्त नियम देव और नारकियों में संभव इसलिए नहीं है कि देवों के सदा काल शुभ लेश्या और नारकियों के अशुभ लेश्या ही पायी जाती है।
धवला पुस्तक 6/1,9-8,4/207/4......कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई वा, किंतु हायमाणकसाओ। असंजदो।....छण्णं लेस्साणमण्णदरलेस्सो किंतु हायमाणअसुहलेस्सो वड्ढमाण सुहलेस्सो। भव्वो। आहारी।
= (चारों गतियों, तीनों वेदों व तीनों योगों में से किसी भी गति वेद या योग वाला हो), क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी अथवा लोभकषायी अर्थात् चारों कषायों में से किसी भी कषाय वाला हो। किंतु हीयमान कषाय वाला होना चाहिए। असंयत हो। (साकारोपयोगी हो)। कृष्णादि छहों लेश्या में से किसी एक लेश्या वाला हो, किंतु यदि अशुभ लेश्या हो तो हीयमान होनी चाहिए और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होनी चाहिए। भव्य तथा आहारक हो।
राजवार्तिक अध्याय 9/1/13/258/23अनादिमिथ्यादृष्टिर्भव्यः षड्विंशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मकः सादिमिथ्यादृष्टिर्वा षड्विंशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मकः सप्तविंशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मको वा अष्टाविंशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मको वा प्रथमसम्यक्त्व ग्रहीतुमारभमाणः शुभपरिणामाभिमुखः अंतर्मुहूर्तमनंतगुणवृद्ध्या वर्द्धमानविशुद्धिः, चतुर्षु मनोयोगेषु अन्यतमेन मनोयोगेन, चतुर्षुवाग्योगेषु अन्यतमेन वाग्योगेन औदारिकवै क्रियककाययोगयोरन्यतरेण काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकषाय, साकारोपयोगः, त्रिषु वेदेष्वन्यतमेन वेदेन संक्लेशविरहितः वर्धमानशुभपरिणामप्रतापेन सर्वकर्मप्रकृतीनां स्थिति ह्वासयन्, अशुभप्रकृतीनामनुभागबंधमपसारयं शुभप्रकृतीनां रसमुद्वर्तयन् त्रीणि करणानि कर्तुमुपक्रमते।
= अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के मोह की छब्बीस प्रकृतियों का सत्त्व होता है और सादिमिथ्यादृष्टि के 26,27 या 28 प्रकृतियों का सत्त्व होता है। ये जब प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के उन्मुख होते हैं तब निरंतर अनंतगुणी विशुद्धि को बढ़ाते हुए शुभ परिणामों से संयुक्त होते जाते हैं। उस समय ये चार मनोयोगों में से किसी एक मनोयोग, चार वचनयोगों में से किसी एक वचनयोग, औदारिक और वैक्रियक में से किसी एक काययोग से युक्त होते हैं। इनके कोई भी एक कषाय होती है जो अत्यंत हीन हो जाती है। साकारोपयोग और तीनों वेदों में से किसी एक वेद से युक्त होकर भी संक्लेश रहित हो, प्रवर्धमान शुभ परिणामों से सभी कर्म प्रकृतियों की स्थिति को कम करते हुए, अशुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग का खंडन कर शुभ प्रकृतियों के अनुभाग रस को बढ़ाते हुए तीन करणों को प्रारंभ करते हैं।
(लब्धिसार / मूल या टीका गाथा / 2/41) (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.2)
एदेसिं चेव सव्यकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदिं बंधदि तावे पणमसम्मत्तं लभदि ।3। सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो ।4। एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिट्ठिदिं ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि ।5। पढमसम्मत्तमुप्पादेंतो अतोमुहुत्तमोहट्टेदि ।6। ओहटटेदूण मिच्छत्तं तिण्णि भागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ।7। दंसणमोहणीयं कम्मं उवसमेंदि ।8।
= इन ही सर्व कर्मों की जब अंतः कोटाकोटी स्थिति को बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है ।3। वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव पंचेंद्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है ।4। जिस समय सर्व कर्मों की संख्यात हजार सागरों से हीन अंतः कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है, उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है ।5। प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है, अर्थात् अंतरकरण करता है ।6। अंतरकरण करके मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करता है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।7। मिथ्यात्व के तीन भाग करने के पश्चात् दर्शनमोहनीय कर्म को उपशमाता है ।8। भावार्थ-सम्यक्त्वाभिमुख जीव पंचलब्धि को क्रम से प्राप्त करता हुआ उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करता है। क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोपगमन लब्धि व करण लब्धि-ये पाँच लब्धियों के नाम हैं। विचारने की शक्ति विशेष का उत्पन्न होना क्षयोपशम लब्धि है। परिणामों में प्रति समय विशुद्धि की वृद्धि होना विशुद्धि लब्धि है। सम्यक् उपदेश का सुनना व मनन करना देशना लब्धि है। उसके कारण हुई परिणामविशुद्धि के फलस्वरूप पूर्व कर्मों की स्थिति घटकर अंतःकोडाकोड़ी सागर मात्र रह जाती है और नवीन कर्म भी इससे अधिक स्थिति के नहीं बंध पाते, यह प्रायोग्य लब्धि है। अंत में उस सुने हुए उपदेश का भलीभाँति निदिध्यासन करना करण लब्धि है। करण लब्धि के भी तरतमता लिये हुए तीन भाग होते हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। तहाँ अधःकरण में परिणामों की विशुद्धि में प्रतिक्षण अनंत गुणी वृद्धि होती है। अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनंतगुणहीन और शुभ प्रकृतियों का अनुभग अनंतगुणा अधिक बंधता है। स्थिति भी उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यात भाग करि हीन हीन बांधती है। अपूर्वकरण में विशुद्धि प्रतिक्षण बहुत अधिक वृद्धिंगत होने लगती है। यहाँ पूर्व बद्ध स्थिति का कांडक घात भी होने लगता है, और स्थिति बंधापसरण भी। विशुद्धि में अत्यंत वृद्धि हो जानेपर वह अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। यहाँ पहले से भी अधिक वेग से परिणाम वृद्धिमान होते हैं। यह तीनों ही करण जीव के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं। इनके प्राप्त करने में कोई अधिक समय भी नहीं लगता। तीनों ही प्रकार के परिणाम अंतर्मुहूर्त मात्र में पूरे हो जाते हैं। तब अनिवृत्तिकरण काल के संख्यातभाग जाने पर अंतरकरण करता है। परिणामों की विशुद्धि के कारण सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशों में से कुछ निषेकों का अपना स्थान छोड़कर, उत्कर्षण व अपकर्षण-द्वारा ऊपर-नीचे के निषेकों में मिल जाना ही अंतरकरण है। इस अंतरकरण के द्वारा निषेकों की एक अटूट पंक्ति टूटकर दो भागों में विभाजित हो जाती है-एक पूर्व स्थिति और दूसरी उपरितन स्थिति। बीच में अंतर्मुहूर्त प्रमाण निषेकों का अंतर पड़ जाता है। तत्पश्चात् उन्हीं परिणामों के प्रभाव से अनादि का मिथ्यात्व नामा कर्म तीन भागों में विभाजित हो जाता है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व। ये तीनों ही कोई स्वतंत्र प्रकृतियाँ नहीं हैं, बल्कि उस एक प्रकृति में ही कुछ प्रदेशों का अनुभाग तो पूर्ववत् ही रह जाता है उसे तो मिथ्यात्व कहते हैं। कुछ अनुभाग अनंतगुणाहीन हो जाता है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं और कुछ का अनुभाग घटकर उससे भी अनंतगुणाहीन हो जाता है, उसे सम्यक्प्रकृति कहते हैं। तब इन तीनों ही भागों की अंतर्मुहूर्तमात्र के लिए ऐसी मूर्च्छित-सी अवस्था हो जाती है कि वे न उदयावली में प्रवेश कर पाते हैं और न ही उनका उत्कर्षण-अपकर्षण आदि हो सकता है। तब इतने कालमात्र के लिए उदयावली में-से दर्शनमोह की तीनों ही प्रकृतियों का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसे ही उपशमकरण कहते हैं। इसके होने पर जीव को उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि विरोधी कर्म का अभाव हो गया है। परंतु अंतर्मुहूर्त मात्र अवधि पूरी हो जाने पर वे कर्म पुनः सचेष्ट हो उठते हैं और उदयावली में प्रवेश कर जाते हैं। तब वह जीव पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। अथवा यदि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय होता है तो मिश्र गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है या यदि सम्यक्प्रकृति का उदय हो जाता है तो क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/1/13/588/31); (धवला पुस्तक 6/1,9-8/207-243); ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 2,108/41-146); (गोम्मटसार जीवकांड/ जीव तत्व प्रदीपिका 704/1141/10); ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 550/742/15)
तेण ओहट्ट दूणेत्ति उत्ते खंडयघादेण विणा मिच्छत्ताणुभागं घादिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त अणुभागायारेण परिणामिय पढमसम्मत्तंप्पडिवण्णपढमसमए चेव तिण्णिकम्मंसे उप्पादेदि।".....(आगे देखें नीचे भाषार्थ )
= इसलिए `अंतरकरण करके' ऐसा कहने पर कांडक घात के बिना मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग को घातकर और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभागरूप आकार से परिणमाकर प्रथमोशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व रूप एक कर्म के तीन कर्मांश अर्थात् भेद या खंड उत्पन्न हो जाते हैं। भाषार्थ-प्रथम समयवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व से प्रदेशाग्र को लेकर (अर्थात् उनको उदीरणा करके) उनका बहुभाग सम्यग्मिथ्यात्व में देता है और उससे असंख्यात गुणा हीन प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति में देता है प्रथम समय में सम्यग्मिथ्यात्व में दिये गये प्रदेशाग्र की अपेक्षा द्वितीय समय में सम्यक्त्व प्रकृति में असंख्यात गुणित प्रदेशों को देता है। और उसी ही समय में (अर्थात् दूसरे ही समय में) सम्यक्त्व प्रकृति में दिये गये प्रदेशों की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यात गुणित प्रदेशों को देता है। (इसी प्रकार तीसरे समय में सम्यक्त्व प्रकृति का द्रव्य द्वितीय समय के सम्यग्मिथ्यात्व से असंख्यात गुणा और सम्यग्मिथ्यात्व का द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्व से असंख्यात गुणा)। इस प्रकार (सर्प की चालवत्) अंतर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणी के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म को पूरित करता है, जब तक कि गुणसंक्रमण काल का अंतिम समय प्राप्त होता है।
(लब्धिसार / मूल या टीका गाथा व जीव तत्व प्रदीपिका/90-91/126-128)
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा /90/125मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूवेण य तत्तिधा य दव्वादी। सत्तीदो य असंखाणंतेण य होंति भजियकमा।
= मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनी रूपकरि तीन प्रकार हो है, सो क्रमतै द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवाँ भागमात्र और अनुभाग अपेक्षा अनंत भागमात्र जानने। सोई कहिए है-मिथ्यात्व का परमाणु रूप जो द्रव्य ताकौं गुण संक्रम भागहार का भाग देइ एक अधिक असंख्यातकरि गुणिये। इतना द्रव्य बिना (शेष) समस्त द्रव्य मिथ्यात्व रूप ही रहा। अब गुणसंक्रम भागाहार करि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यकौ असंख्यात करि गुणिये इतना द्रव्य मिश्र-मोह रूप परिणाम्या। अर गुणसंक्रम भागहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यकौ एककरि गुणिए इतना द्रव्य सम्यक्त्व मोहरूप परिणमा। तातैं द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवाँ भागका क्रम आया। बहुरि अनुभाग अपेक्षा संख्यात अनुभाग कांडकनिके घातकरि जो मिथ्यात्वका अनुभागके पूर्व अनुभागके अनंतवाँ भागमात्र अवशेष रहा ताके (भी) अनंतवें भाग मिश्रमोहका अनुभाग है। बहुरि याके (भी) अनंतवें भाग सम्यक्त्वमोह का अनुभाग है, ऐसे अनुभाग है, ऐसे अनुभाग अपेक्षा अनंतवाँ भाग का क्रम आया ।90।"
संपधि ओवसमियचारित्तप्पडिवज्जणिवाहणं बुच्चदे। तं जधा-जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुव्वमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि।
= अब औपशमिक चारित्र की प्राप्ति के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है-जो वेदक सम्यग्दृष्टि (4-7 गुणस्थानवर्ती) जीव है वह पूर्व में ही अनंतानुबंधी चतुष्टय का विसंयोजन करता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/210/11तत्व ताव उवसामण-विहिं वत्तइस्सामो। अणंताणुबंधि कोध-माण-माया-लोभ-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तपयडीओ असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव एदेसु जो वा सोवाउवसामेदि।
= पहले उपशम विधि को कहते हैं-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, तथा मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों का असंयत सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानों में रहने वाला कोई भी जीव उपशम करनेवाला होता है।
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा /205/251उपसमचरियाहिमुहा वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता।
= उपशम सम्यक्त्व के सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानतै अनंतानुबंधी का विसंयोजन करि.....
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 550/743/4तद्द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यग्दृष्ट्यप्रमत्त एव करणत्रयपरिणामैः सप्तप्रकृतिरुपशमय्य गृह्णाति.....।
= बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौ वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त ही तीन करण के परिणामनि करि सातौ प्रकृति कौं उपशमाय ग्रहण करै है।
( गोम्मट्टसार जीवकांड /जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 704/141/17) और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.3.2)
धवला पुस्तक 1/1,1,27/214 विशेषार्थ-="लब्धिसार आदि ग्रंथों में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति अप्रमत्त-संयत गुणस्थान तक ही बतलायी है, किंतु यहाँ पर उपशमन विधि के कथन में उसकी उत्पत्ति असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थानमें बतलायी गयी है। धवला में प्रतिपादित इस मत का उल्लेख श्वेतांबर संप्रदाय में प्रचलित कर्मप्रकृति आदि ग्रंथों में देखने में आता है।"
उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अण विजायित्ता। अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तोऽपमत्तो य ।205। ततो तियरणविहिणा देसणमोहं समं खु उवसमदि। सम्मत्तुप्पत्तिंवा अण्ण च गुणसेढिकरणविही ।206। सम्मस्स असंखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि। तत्तो मुहत्तअंते दंसणमोहंतरं कुणई ।209। सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्स कालादो। संखेज्जगुणं कालं विसोहिवड्ढीहि। वड्ढदि हु ।217। तेण परं हायदि वा वड्ढदि तव्वड्ढिदो विसुद्धीहिं। उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमत्तेसु ।218।
= उपशम चारित्र के सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानतै अनंतानुबंधी का विसंयोजनकरि अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अधःप्रवृत्त अप्रमत्त कहिये स्वस्थान अप्रमत्त ही है। तहां प्रमत्त अप्रमत्त विषै हजारों बार गमनागमन करि पीछे अप्रमत्त विषै विश्राम करै हैं (अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत वैसे ही परिणामों के साथ टिका रहै है) ।205। स्वस्थान अप्रमत्त विषै अंतर्मुहूर्त विश्रामकरि तहाँ पीछे तीन करण विधान करि युगपत् दर्शनमोह कौ उपशमावै है। तहां अपूर्वकरण का प्रथम समयतै लगाय प्रथमोशमवत् गुणसंक्रमण बिना अन्य स्थिति व अनुभाग कांडकघात व गुणश्रेणी निर्जरा सर्व विधान जानना। अनंतानुबंधी का विसंयोजन याकै हो है, ता विषै भी सर्व स्थिति खंडनादि पूर्वोक्तवत् जानना ।206। अनिवृत्तिकरण काल का सख्यातवां भाग अवशेष रहे सम्यक्त्वमोहनीय के द्रव्यकौ अपकर्षणकरि (उपरितन स्थिति में, गुणश्रेणी आयाम में, और उदयावली विषै दीजिये है)। सो यहाँ उदयावली विषै दिया जो उदीरणा द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण आवै है। यातै परे अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत भये दर्शनमोह का अंतर करै है ।209। प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्तिविषै पूर्वै गुणसंक्रमण पूरणकाल (देखें उपशम - 2.3) अंतर्मुहूर्त मात्र कह्या था, तातैं संख्यात गुणा काल पर्यंत यहू द्वितीयोपशम् सम्यग्दृष्टि प्रथम समयतै लगाय समय समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धताकरि बधै है। ऐसे इहाँ एकांतानुवृद्धता की वृद्धि का काल अंतर्मुहूर्त मात्र जानना ।217। तिस एकांतानुवृद्धि कालतै पीछे विशुद्धता करि घटे वा बधै वा हानि वृद्धि बिना जैसा का तैसा रहै किछू नियम नाहीं। ऐसे उपशमाए हैं तीन दर्शनमोह जानै ऐसा जीव बहुत बार प्रमत्त अप्रमत्तनिविषै उलटनि करि प्राप्त हो है ।218।
(धवला पुस्तक 6/1,9-8,14/288-292); (धवला पुस्तक 1/1,1,27/210-214); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 704/1141/17); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 550/743/4)।
उबसमसम्मादिट्ठिस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंतस्स अप्पदरं होदि त्ति तत्थ अप्पदरकालपरूवणा कायव्वा त्ति। ण, उवसमसम्मादिट्ठिस्स अणंताणुबंधिविसंओयणाए अभावादो। तदभावो कुदो णव्वदे। उवसमसम्मादिट्ठिम्मि अवट्ठिदपदं चेव परूवेमाण उच्चारणाइरियवयणादो णव्वदे। उवसमसम्मादिट्ठिम्मि अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोयणं भणंत आइरियवणेण विरुज्झमाणमेदं वयणमप्पमाणभावं किं ण दुक्कदि। सच्चमेदं जदि तं सुत्तं होदि। सुत्तेण वक्खाणं वाहिज्जदि ण बक्खाणेण वक्खाणं। एत्थ पुण दो वि उवएसा परूवेयव्वा दोहमेक्कदरस्स सुत्ताणुसारित्तवगमाभावादो। किमट्ठमुवसमसम्मादिट्ठिम्मि अणंताणुबंधिचउक्कविसंयोजणा णत्थि। उवसमसम्मत्तकालं पेक्खिय अणंताणुबंधिचउक्कस्स बहुत्तादो अणंताणुबंधिविसंयोजणपरिणामाणं तत्थाभावादो वा। एथ पुण विसंयोजणापक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियव्वो पवाइज्जमाणत्तादो चउवीससंतकम्मियस्स सादिरेयवेछावट्ठिसागरोवममेत्तकालपरूवयं सुत्ताणुसारित्तादो च।
= प्रश्न-जो उपशमसम्यग्दृष्टि चार अनंतानुबंधी की विसंयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्ति स्थान पाया जाता है, इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टि में अल्पतर विभक्ति स्थान के काल की प्ररूपणा करनी चाहिए? उत्तर-नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी चार की विसंयोजना नहीं पायी जाती है। प्रश्न-`उपशमसम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी चार की विसंयोजना नहीं होती है' यह किस प्रमाण से जाना जाता है? उत्तर-`उपशमसम्यग्दृष्टि के एक अवस्थित पद ही होता है' इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले उच्चारणाचार्य के वचन से जाना जाता है। प्रश्न-`उपशमसम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी चार की विसंयोजना होती है' इस प्रकार कथन करनेवाले आचार्य वचन के साथ यह उक्त वचन विरोध को प्राप्त होता है, इसलिए यह वचन अप्रमाण क्यों नहीं है? उत्तर-यदि उपशमसम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी चार की विसंयोजना का कथन करनेवाला वचन सूत्र वचन होता तो यह कहना सत्य होता, क्योंकि सूत्र के द्वारा व्याख्यान (टीका) बाधित हो जाता है। परंतु एक व्याख्यान के द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता, इसलिए `उपशम सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी की विसंयोजना नहीं होती है', यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँ पर दोनों ही उपदेशों का प्ररूपण करना चाहिए; क्योंकि दोनों में से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है इस प्रकार के ज्ञान करने का कोई साधन नहीं पाया जाता है। प्रश्न-उपशमसम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी चार की विसंयोजना क्यों नहीं होती है? उत्तर-उपशम सम्यक्त्व के काल की अपेक्षा अनंतानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना का काल अधिक है; अथवा वहाँ अनंतानुबंधी की विसंयोजना के कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि उपशमसम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी की विसंयोजना नहीं होती है। फिर भी यहाँ उपशमसम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी की विसंयोजना होती है' यह पक्ष ही प्रधान रूप से स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का उपदेश परंपरा से है।
एवं पमत्तमियरं परावत्तिसहस्सयं तू कादूण। इगवीसमोहणीयं उवसमदि ण अण्णपयडीसु ।219। तिकरणबंधोसरणं कमकरणं देशघादिकरणं च। अंतरकरणमुपशमकरणं उपशामने भवति ।220।
= ऐसैं (द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात्) अप्रमत्ततै प्रमत्तविषै प्रमत्ततै अप्रमत्तविषै हजारों बार पलटनिकरि अनंतानुबंधी चतुष्क बिना अवशेष इकईस चारित्रमोह की प्रकृति के उपशमावने का उद्यम करै है। अन्य प्रकृतिनिका उपशम होता नहीं, जातै तिनिकै उपशम करना है ।219। अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, ए तीन करण अर, स्थितिबंधापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अनंतकरण, उपशमकरण ऐसे आठ अधिकार चारित्रमोह के उपशम विधान विषै पाइए है। तहाँ अधःकरण सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि करै है। ताका लक्षण वा ताका कीया कार्य जैसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कौं सन्मुख होते कहे है तैसे इहाँ भी जानना। विशेष इतना-इहाँ संयमी के संभवै ऐसी प्रकृतिनिका बंध व उदय कहना। अर अनंतानुबंधी चतुष्क, नरक, तिर्यंच आयु बिना अन्य प्रकृतिनिका सत्त्व कहना ।229।
धवला पुस्तक 1/1,127/211/3अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयमणंतगुण-विसोहिए वड्ढंतो अंतोमुहुत्तेणंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदि-खंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदि-बंधोसरणाणि करेदि। एक्केक्कं ट्ठिदि-खंडय-कालब्भंतरे संखेज्ज-सहस्साणि अणुभाग-खंडयाणि घादेदि। पडिसमयमसंखेज्जगुणाए सेढीए पदेस-णिज्जरं करेदि। जे अप्पसत्थ-कम्मसे ण बंधदि तेसिं पदेसग्गसंखेज्ज गुणाए सेढीए अण्णपयडीसु बज्झमाणियासु संकामेदि। पुणो अपुव्वकरणं बोलेऊण अणियट्टि-गुणट्ठाणं पविसिऊणंतोमुहुत्तमणे णेव विहाणेणाच्छिय बारस-कसाय-णव-णोकसायाणमंतरं अंतोमुहुत्तेण करेदि। अंतरे कदे पढम-समयादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण असंखेज्ज-गुणाए सेढिए णउंसय-वेदमुवसामेदि।..... तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण णवुंसयवेदमुवसामिद-विहाणेणित्थिवेदमुवसामेदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तेणेव विहिणा छण्णोकसाए पुरिसवेद-चिराण-संत-कम्मेण सह जुगवं उवसामेदि। तत्तो उवरि समऊण-दो आवलियाओ गंतूण पुरिसवेदणवकबंधमुवसामेदि। तत्तौ अंतोमुहुत्तमुवरिगंतूण पडिसमयमसंखेज्जाए गुणसेढिए अपच्चक्खाण-पच्चक्खाणावरणसण्णिदे दीण्णि वि कोधे-कोध-संजलण-चिराण संतकम्मेण सह जुगवमुवसामेदि। तत्तो उवरि दो आवलियाओ समऊणाओ गंतूण कोध-सजलण-णवक-बंधमुवसामेदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तेसिं चेव दुविहं माणमसंखेज्जाए गुणसेढीए माणसंजलण-चिराण-संत-कम्मेण सह जुगवं उवसामेदि। तदो समऊण-दो-आवलियाओ गंतूण माणसंजलणमुवसामेदि। तदो पडिसमयमसंखेज्जगुणाए सेढीए उवसामेंतो अंतोमुहुत्तं गंतूण दुविहं मायं माया-संजलण-चिराण-संतकम्मेण सह जुगवं उवसामेदि। तदो दो आवलियाओ समउणाओ गंतूण माया-संजलणमुवसामेदि। तदो समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेढीए पदेसमुवसामेंतो अंतोमुहुत्तं गंतूण लोभ-संजलण-चिराण-संत-कम्मेण सह पच्चक्खाणापच्चक्खाणावरणदुविहं लोभं लोभ-वेदगद्धाए विदिय-ति-भागे सुहुमकिट्टीओ करेंतो उवसामेदि। सुहुमकिट्टिं मोत्तूण अवसेसो बादरलोभो फद्दयं गदो सव्वो णवकबंधुच्छिट्ठावलिय-वज्जो अणियट्ठि-चरिमसमए उवसंतो णवंसयवेदप्पहुडि जाव बादरलोभसंजलणो त्ति ताव एदासिं पयडीणमणियट्टी उवसामगो होदि। तदो णंतर-समए-सुहुमकिट्टि-सरूवं लोभं वेदंतो णट्ठ-अणियट्टि-सण्णो सुहुमसांपराइओ होदि। तदो सो अप्पणो चरिम-समए लोहसंजलणं सुहुमकिट्टि-सरूवं णिस्सेसमुवसामिय उवसंत-कसाय वीदराग-छदुमत्थो होदि। एसा मोहणीयस्स उवसामण-विही।"
= अपूर्वकरण गुणस्थान में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता किंतु अपूर्वकरण गुणस्थान वाला जीव प्रत्येक समय में अनंतगुणी विशुद्धि से बढ़ता हुआ एक-एक अंतर्मुहूर्त में एक-एक स्थिति खंड का घात करता हुआ संख्यात हजार स्थिति खंडों का घात करता है। और उतने ही स्थितिबंधापसरणों को करता है। तथा एक-एक स्थितिखंड के काल में संख्यात हजार अनुभाग खंडों का घात करता है और प्रतिसमय असंख्यात गुणित-श्रेणीरूप से प्रदेश की निर्जरा करता है, तथा जिन अप्रशस्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता है, उनकी कर्मवर्गणाओं को उस समय बंधनेवाली अन्य प्रकृतियों में असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे संक्रमण कर देता है। इस तरह अपूर्वकरण गुणस्थान को उल्लंघन करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके, एक अंतर्मुहूर्त पूर्वोक्त विधि से रहता है। तत्पश्चात् एक अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा बारह कषाय और नौ नोकषाय इनका अंतर (करण) करता है। (यहाँ क्रमकरण करता है। अर्थात् विशेष क्रम से स्थितिबंध को घटाता हुआ उन 21 प्रकृतियों का पल्यमात्र स्थितिबंध करने लगता है। (लब्धिसार 227-238) अंतरकरण विधि के हो जाने के पश्चात् क्रमकरण करता है अर्थात् क्रमपूर्वक इन 21 प्रकृतियों का उपशम करता है।) प्रथम समय से लेकर ऊपर अंतर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणीश्रेणी के द्वारा `नपुंसक वेद का' उपशम करता है। तदनंतर एक अंतर्मुहूर्त जाकर `स्त्री वेद का' उपशम करता है। फिर एक अंतर्मुहूर्त जाकर `पुरुष वेद' के (एक समय घाट दो आवलीमात्र नवक समयप्रबद्धों को छोड़कर बाकी संपूर्ण) प्राचीन सत्ता में स्थित कर्म के साथ `छह नोकषायों का' (युगपत्) उपशम करता है। इसके आगे एक समय कम दो आवली काल बिताकर पुरुषवेद के नवक समय प्रबद्धका उपशम करता है। इसके पश्चात् (पुरुषवेदवत् ही पहिले प्राचीन सत्ता का और फिर नवक समयप्रबद्ध का उपशम करने के क्रमपूर्वक असंख्यातगुणश्रेणी के द्वारा संज्वलन क्रोध के साथ `अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोधों का' फिर इसी प्रकार `तीनों मानव माया का' उपशम करता है। तत्पश्चात् प्रत्येक समय में असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्म प्रदेशों का उपशम करता हुआ, लोभवेदक के दूसरे त्रिभाग में सूक्ष्मकृष्टि को करता हुआ `संज्वलन लोभ' के नवक समय प्रबद्धों को छोड़कर प्राचीन सत्ता में स्थित कर्मों के साथ प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यान इन दोनों लोभों का एक अंतर्मुहूर्त में उपशम करता है। इस तरह सूक्ष्मकृष्टिगत लोभ को छोड़कर और एक समय कम दो आवलीमात्र नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकों को छोड़कर शेष स्पर्धकगत संपूर्ण बादर लोभ अनिवृत्ति करके चरम समय में उपशांत हो जाता है। इस प्रकार नपुंसक वेद से लेकर जब तक बादर संज्वलन लोभ रहता है तब तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियों का उपशम करने वाला होता है। इसके अनंतर समय में जो सूक्ष्मकृष्टिगत लोभ का अनुभव करता है और जिसने `अनिवृत्ति' इस संज्ञा को नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती होता है। तदनंतर वह अपने काल के चरम समय में सूक्ष्मकृष्टिगत संपूर्ण लोभ संज्वलन का उपशम करके उपशांतकषाय वीतराग-छद्मस्थ होता है। इस प्रकार मोहनीय की उपशम विधि का वर्णन समाप्त हुआ।
( धवला पुस्तक 6/1,9-8,14/292-316)
मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धव्वं। उवसंते आसाणे तेण परं होइ भयणिज्जं।
= उपशामक के जब तक अंतर प्रवेश नहीं होता है तब तक मिथ्यात्ववेदनीय कर्म का उदय जानना चाहिए। दर्शनमोहनीय के उपशांत होने पर, अर्थात् उपशम सम्यक्त्व के काल में, और सासादन काल में मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं रहता है। किंतु उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है, अर्थात् किसी के उसका उदय भी होता है और किसी को नहीं भी होता है (मिश्रप्रकृति या सम्यक्त्व प्रकृति का उदय हो जाता है)।
यत् उपशांतद्रव्यं उदयावल्यां निक्षेप्तुमशक्यं.....तत् अपूर्वकरणगुणस्थानपर्यंतमेव स्यात्। तदुपरि गुणस्थानेषु यथासंभवं शक्यमित्यर्थः।
= उपशांत द्रव्य का उदयावेली में प्राप्त करने को समर्थ न होने का नियम अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यंत ही होता है। उसके ऊपर के गुणस्थान में यथासंभव शक्य है।
=13 जिन कर्मप्रकृतियों की बंध, उदय और सत्त्व व्युच्छित्ति एक साथ होती है, उनके बंध और उदय व्युच्छित्ति के काल में एक समय कम दो आवली मात्र नवक समय प्रबद्ध रह जाते हैं। (देखें उपशम - 3), जिनकी सत्त्व व्युच्छित्ति अनंतर होती है, वह इस प्रकार है कि विवक्षित (पुरुषवेद आदि) प्रकृति के उपशम या क्षपण होने के दो आवली काल अवशिष्ट रह जाने पर द्विचरमावली के प्रथम समय में बंधे हुए द्रव्य का, बंधावली को व्यतीत करके चरमावली के प्रथम समय से लेकर, प्रत्येक समय में एक फालि का उपशम या क्षय होता हुआ चरमावली के अंत समय में संपूर्ण रीति से उपशम या क्षय होता है। तथा द्विचरमावली के द्वितीय समय में जो द्रव्य बंधता है उसका चरमावली के द्वितीय समय से लेकर अंत समय तक उपशम या क्षय होता हुआ अंतिम फालि को छोड़कर सबका उपशम या क्षय होता है। इसी प्रकार द्विचरमावली के तृतीयादि समयों में बंधे हुए द्रव्य का बंधावली को व्यतीत करके, चरमावली के तृतीयादि समय से लेकर एक-एक फालि का उपशम या क्षय होता हुआ क्रम से दो आदि फालि रूप द्रव्य को छोड़कर शेष सबका उपशम या क्षय होता है। तथा चरमावली के प्रथमादि समयों में बंधे हुए द्रव्य का उपशम या क्षय नहीं होता है, क्योंकि, बंध हुए द्रव्य का एक आवली तक उपशम नहीं होता ऐसा नियम है। इस प्रकार चरमावली का संपूर्ण द्रव्य और द्विचरमावली का एक समय कम आवली मात्र द्रव्य उपशम या क्षय रहित रहता है, जिसका प्राचीन सत्ता में स्थित कर्म के उपशम या क्षय हो जाने के पश्चात् ही उपशम या क्षय होता है।
प्रश्न- लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 87 के अनुसार प्रथम स्थितिके प्रथम समयसे लेकर उसके अंतिम समय तक प्रति समय द्वितीय स्थितिके द्रव्यको उपशमाता है। परंतु लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 94 के अनुसार प्रथम स्थिति के काल से दर्शनमोह को उपशमाने काल समयकम दो आवली मात्र अधिक है। इन दोनों कथनों में विरोध प्रतीत होता है। उत्तर-पहिले कथन में नवीन बंध की विवक्षा नहीं है, और दूसरे में नवीन बंध की विवक्षा है। जो बंध हुए पीछे एक आवली तक तो अचल रहता है और उसके आगे एक आवली उसको उपशमाने लगता है। (देखो इससे पहिला शीर्षक)।
• मूलोत्तर प्रकृतियोंकी प्रशस्त व अप्रशस्त उपशमनाका नाना जीवापेक्षा भंग विचय - देखें धवला पुस्तक संख्या- 15.पृष्ठ 277-280
• मूलोत्तर प्रकृतियोंकी स्थिति उपशमना संबंधी समुत्कीर्तना व भंग विचय - देखें धवला पुस्तक संख्या 15. पृष्ठ 280-281
• मूलोत्तर प्रकृतियोंकी अनुभाग उपशमना संबंधी समुत्कीर्तना व भंग विचय - देखें धवला पुस्तक संख्या - 15.पृष्ठ 282
• मूलोत्तर प्रकृतियोंकी प्रदेश उपशमना संबंधी समुत्कीर्तना व भंग विचय - देखें धवला पुस्तक संख्या - 15.पृष्ठ 282
"उपशमः प्रयोजनमस्येत्यौपशमिकः।"
= जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है।
(राजवार्तिक अध्याय 2/1/6/100/23)
धवला पुस्तक 1/1,1,8/161/2तेषामुपशमादौपशमिकः। .....गुणसहचरित्वादात्मापि गुणसंज्ञां प्रतिलभते।
= जो कर्मों के उपशम से उत्पन्न होता है उसे औपशमिक भाव कहते हैं। (क्योंकि) गुणों के साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञा को प्राप्त होता है।
(धवला पुस्तक 5/1, 7,1/185/1); ( धवला पुस्तक 5/1,7,8/1); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 814/987); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 8/29/13); (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 967)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 56/106उपशमेन युक्तः औपशमिकः।
= उपशम से युक्त (भाव) औपशमिक है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 320आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशमिक-क्षणिकभावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धाभिसुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते।
= आगम भाषा में जो औपशमिक क्षायोपशमिक या क्षायिक ये तीन भाव कहे जाते हैं, वे ही अध्यात्म भाषा में शुद्धाभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि संज्ञाओं को प्राप्त होते हैं।
जो सो ओवसमिओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-से उवसंतकोहे उसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरागे उवसंतदोसे उवसतमोहे उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थे उवसमियं सम्मत्तं, उवसमियं चारित्तं, जे चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सव्वो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीव भावबंधो णाम ।17।
= जो औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध है उसका निर्देश इस प्रकार है-उपशांत क्रोध, उपशांत मान, उपशांत माया, उपशांत लोभ, उपशांतराग, उपशांत दोष (द्वेष), उपशांतमोह, उपशांतकषाय वीतरागछद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व, और औपशमिक चारित्र, तथा इनसे लेकर जितने (अन्य भी) औपशमिक भाव हैं, वह सब औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध है ।17।
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2/3"सम्यक्त्वचारित्रे ।3।"
= औपशमिक भाव के दो भेद हैं औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/3/152/6); ( नयचक्रवृहद् गाथा 370); (तत्त्वार्थसार अधिकार 2/5); ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 816/988)
धवला पुस्तक 5/1,7,1/7 व टीका/190"सम्मत्तं चारित्तं दो चेय ट्ठाणाइमुवसमें होंति। अट्ठ वियप्पा य तहा कोहाइया मुणेदव्वा ।7।....ओवसमियस्स भावस्स सम्मत्तं चारित्तं चेदि दोण्णि ट्ठाणाणि। कुदो। उवसमसम्मत्तं उवसमचारित्तमिदि दोण्ह चे उवलंभा। उवसमसम्मत्तमेयविहं। ओवसमियं चारित्तं सत्तविहं। तं जहा-णवुंसयवेदुवसामणद्ध; ए एय चारित्तं, इत्थिवेदुवसामणद्धाए विदियं, पुरिस-छण्णोकसायउवसमसामणद्धाए तदियं, कोहुवसामणद्धाए चउत्थं, माणुवसामणद्धाए पंचमं, मावोवसामणद्धाए छट्ठं, लोहुवसामणद्धाए सत्तमोवसमियं चारित्तं। भिण्णकज्जलिंगेण कारणभेदसिद्धीदो उवसमियं चारित्तं सत्तविहं उत्तं। अण्णहा पुण आणेयपयारं, समयं पडि उवसमसेडिह्मि पुध पुध असंखेज्जगुणसेडिणिज्जराणिमित्तपरिणामुवलंभा।"
= औपशमिक भाव में सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते हैं। तथा औपशमिक भाव के विकल्प आठ होते हैं, जोकि क्रोधादि कषायों के उपशमन रूप जानना चाहिए ।7। औपशमिक भाव के सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते हैं, क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते हैं, क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो ही भाव पाये जाते हैं। इनमेंसे औपशमिक सम्यक्त्व एक प्रकार का है और औपशमिक चारित्र सात प्रकार का है। जैसे-नपुंसक वेद के उपशमन काल में एक चारित्र, स्त्री वेद के उपशमन काल में दूसरा चारित्र, पुरुष वेद और छः नौकषायों के उपशमन काल में तीसरा चारित्र, क्रोध संज्वलन के उपशमन काल में चौथा चारित्र, मान संज्वलन के उपशमन काल में पाँचवाँ चारित्र, माया संज्वलन के उपशमन काल में छठा चारित्र और लोभ संज्वलन के उपशमन काल में सातवाँ औपशमिक चारित्र होता है। भिन्न-भिन्न कार्यों के लिंग से कारणों में भी भेद की सिद्धि होती है, इसलिए औपशमिक चारित्र सात प्रकार का कहा है। अन्यथा अर्थात् उक्त प्रकार की विवक्षा न की जाय तो, वह अनेक प्रकार है; क्योंकि, प्रति समय उपशम श्रेणी में पृथक्-पृथक् असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा के निमित्त भूत परिणाम पाये जाते हैं।