वीर्य: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">वीर्य</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">वीर्य</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/6/323/12 <span class="SanskritText">द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम्। </span>= <span class="HindiText">द्रव्य की अपनी शक्ति विशेष वीर्य है। (रा.वा./6/6/6/ 512/7)। </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5, 5, 138/390/3 <span class="SanskritText">वीर्यं शक्तिरित्यर्थः।</span> = <span class="HindiText">वीर्य का अर्थ शक्ति है।</span><BR> मोक्ष पञ्चाशत/47 <span class="SanskritText">आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च या। उत्साहो वीर्यमिति तत्कीर्तितं मुनिपुंगवैः।47। </span>= <span class="HindiText">निर्विकार आत्मा का जो उत्साह या कृतकृत्यत्वरूप बुद्धि, उसे ही मुनिजन वीर्य कहते हैं। </span><br /> | ||
स.सा./आ./परि./शक्ति नं. | स.सा./आ./परि./शक्ति नं.6 <span class="SanskritText">स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः। </span>= <span class="HindiText">स्वरूप (आत्मस्वरूप की) रचना की सामर्थ्य रूप वीर्य शक्ति है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> वीर्य के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> वीर्य के भेद</strong> </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./14 की टिप्पणी-<span class="SanskritText">क्षयोपशमिकी शक्तिः क्षायिकीं चेति शक्तेर्द्वौ भेदौ। </span>= <span class="HindiText">क्षायोपशमिकी व क्षायिकी के भेद से शक्ति दो प्रकार है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> क्षायिक वीर्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> क्षायिक वीर्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/4/154/10 <span class="SanskritText">वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्यं क्षयिकम्।</span> =<span class="HindiText"> वीर्यान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक अनन्त वीर्य प्रगट होता है। (रा.वा./2/4/6/106/9)। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/4/7/154/15<span class="SanskritText"> केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यवृति। </span>= <span class="HindiText">सिद्धभगवान् में केवलज्ञानरूप से अनन्त वीर्य की वृत्ति है। </span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./1/61/61/12 <span class="SanskritText">केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तवीर्यं भण्यते। </span>= <span class="HindiText">केवलज्ञान के विषय में अनन्त पदार्थों को जानने की जो शक्ति है वही अनन्तवीर्य है। (द्र. सं./टी./14/42/11)। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है</strong> </span><br /> | ||
गो.क./जी.प्र./ | गो.क./जी.प्र./16/11/10 <span class="SanskritText">वीर्यं तु जीवाजीवगतमिति।</span> =<span class="HindiText"> वीर्य जीव तथा अजीव दोनों में पाया जाता है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> वीर्य सर्व गुणों का सहकारी है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> वीर्य सर्व गुणों का सहकारी है</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./5/15/7 <span class="SanskritText">छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्युत्फ्त्तौ सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः। </span>= <span class="HindiText">छद्मस्थानों के तो वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और केवलियों के उसका सर्वथा क्षय ज्ञान चारित्र आदि की उत्पत्ति में सर्वत्र सहकारी कारण है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> सिद्धों में अनन्त वीर्य | <li><span class="HindiText"> सिद्धों में अनन्त वीर्य क्या–देखें [[ दान#2 | दान - 2]]। </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
[[वीरासन | | <noinclude> | ||
[[ वीरासन | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[Category:व]] | [[ वीर्य प्रवाद | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: व]] | |||
== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) कुरुवंश का एक राजा । इसे राजा विचित्र से राज्य मिला था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45.27 </span></p> | |||
<p id="2">(2) शक्ति । इससे भयभीत प्राणियों की रक्षा की जाती है । <span class="GRef"> पद्मपुराण 97. 37 </span></p> | |||
<noinclude> | |||
[[ वीरासन | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ वीर्य प्रवाद | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: व]] |
Revision as of 21:47, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- वीर्य
स.सि./6/6/323/12 द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम्। = द्रव्य की अपनी शक्ति विशेष वीर्य है। (रा.वा./6/6/6/ 512/7)।
ध.13/5, 5, 138/390/3 वीर्यं शक्तिरित्यर्थः। = वीर्य का अर्थ शक्ति है।
मोक्ष पञ्चाशत/47 आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च या। उत्साहो वीर्यमिति तत्कीर्तितं मुनिपुंगवैः।47। = निर्विकार आत्मा का जो उत्साह या कृतकृत्यत्वरूप बुद्धि, उसे ही मुनिजन वीर्य कहते हैं।
स.सा./आ./परि./शक्ति नं.6 स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः। = स्वरूप (आत्मस्वरूप की) रचना की सामर्थ्य रूप वीर्य शक्ति है।
- वीर्य के भेद
न.च.वृ./14 की टिप्पणी-क्षयोपशमिकी शक्तिः क्षायिकीं चेति शक्तेर्द्वौ भेदौ। = क्षायोपशमिकी व क्षायिकी के भेद से शक्ति दो प्रकार है।
- क्षायिक वीर्य का लक्षण
स.सि./2/4/154/10 वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्यं क्षयिकम्। = वीर्यान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक अनन्त वीर्य प्रगट होता है। (रा.वा./2/4/6/106/9)।
रा.वा./2/4/7/154/15 केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यवृति। = सिद्धभगवान् में केवलज्ञानरूप से अनन्त वीर्य की वृत्ति है।
प.प्र./टी./1/61/61/12 केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तवीर्यं भण्यते। = केवलज्ञान के विषय में अनन्त पदार्थों को जानने की जो शक्ति है वही अनन्तवीर्य है। (द्र. सं./टी./14/42/11)।
- वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है
गो.क./जी.प्र./16/11/10 वीर्यं तु जीवाजीवगतमिति। = वीर्य जीव तथा अजीव दोनों में पाया जाता है।
- वीर्य सर्व गुणों का सहकारी है
द्र.सं./टी./5/15/7 छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्युत्फ्त्तौ सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः। = छद्मस्थानों के तो वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और केवलियों के उसका सर्वथा क्षय ज्ञान चारित्र आदि की उत्पत्ति में सर्वत्र सहकारी कारण है।
- सिद्धों में अनन्त वीर्य क्या–देखें दान - 2।
पुराणकोष से
(1) कुरुवंश का एक राजा । इसे राजा विचित्र से राज्य मिला था । हरिवंशपुराण 45.27
(2) शक्ति । इससे भयभीत प्राणियों की रक्षा की जाती है । पद्मपुराण 97. 37