द्रव्य व भाव वेदों में परस्पर संबंध: Difference between revisions
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पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/103 <span class="PrakritGatha">उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोणी य लिंगमाई णामोदय दव्ववेदो दु ।103। </span>= <span class="HindiText">नोकषायों के उदय से जीवों के भावेद होता है । तथा योनि और लिंग आदि द्रव्यवेद नामकर्म के उदय से होता है ।103। (त.सा./2/79), (गो.जी./मू./271/591), (और भी देखें [[ वेद#1.3 | वेद - 1.3 ]]तथा वेद/2) । <br /> | ||
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पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/102, 104 <span class="PrakritGatha">तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकमं सव्वे ।102। इत्थी पुरिस णउंसय वेया खलु द्रव्वभावदो होंति । ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो ।104। </span>= <span class="HindiText">द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेदवाले दिखाई देते हैं और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रम से विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं ।102। स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते है । और वे सर्व ही विभिन्न नोकषायों के उदय होने पर यथाक्रम से विपरीत वेद वाले भी परिणत होते हैं ।104। [अर्थात् कभी द्रव्य से पुरुष होता हुआ भाव से स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भाव से पुरुष भी होता है–देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1]]] </span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./271/591<span class="PrakritGatha"> पुरिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंडओ भावे । णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा ।271। </span>= <span class="HindiText">पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से जीव पुरुष स्त्री और नपुंसक रूप भाववेदों को प्राप्त होता है और निर्माण नामक नामकर्म के उदय से द्रव्य वेदों को प्राप्त करता है । तहाँ प्रायः करके तो द्रव्य और भाव दोनों वेद समान होते हैं, परन्तु कहीं-कहीं परिणामों की विचित्रता के कारण ये असमान भी हो जाते हैं ।271। (विशेष देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1]]) । <br /> | ||
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गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./271/592/2 <span class="SanskritText">एते द्रव्यभाववेदाः प्रायेण प्रचुरवृत्त्या देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समाः द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाङ्किता भवन्ति । क्वचित्कर्मभूमि-मनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमाः-विसदृशा अपि भवन्ति । तद्यथा-द्रव्यतः पुरुषे भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं । द्रव्यस्त्रियां भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुसकं । द्रव्यनपुंसके भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियमः कथितः । कुतः द्रव्यपुरुषस्य क्षपकश्रेण्यारूढानिवृत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे ‘‘सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झंति ।’’ इति प्रतिपादकत्वेन संभवात् । </span>= <span class="HindiText">ये द्रव्य और भाववेद दोनों प्रायः अर्थात् प्रचुररूप से देव नारकियों में तथा सर्व ही भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में समान ही होते हैं, अर्थात् उनके द्रव्य व भाव दोनों ही वेदों का समान उदय पाया जाता है । परन्तु क्कचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंच इन दोनों गतियों में विषम या विसदृश भी होते हैं । वह ऐसे कि द्रव्यवेद से पुरुष होकर भाववेद से पुरुष, स्त्री व नपुंसक तीनों प्रकार का हो सकता है । इसी प्रकार द्रव्य से स्त्री और भाव से स्त्री, पुरुष व नपुंसक तथा द्रव्य से नपुंसक और भाव से पुरुष स्त्री व नपुंसक । इस प्रकार की विषमता होने से तहाँ द्रव्य और भाववेद का कोई नियम नहीं है । क्योंकि आगम में नवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त द्रव्य से एक पुरुषवेद और भाव से तीनों वेद है ऐसा कथन किया है ।–देखें [[ वेद#7 | वेद - 7 ]]। (पं.ध./उ./1092-1095) । <br /> | ||
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ध. | ध.1/1, 1, 107/346/7 <span class="SanskritText">कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदो आजन्मः आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् ।</span> = <span class="HindiText">[पर्यायरूप होने के कारण तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है–(देखें [[ वेद#2.4 | वेद - 2.4]]); परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि] जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक-एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नहीं रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरणतक भी किसी एक वेद का उदय पाया जाता है । </span><br /> | ||
ज. | ज.4/1, 5, 61/369/4<span class="PrakritText"> वेदंतरसंकंतीए अभावादो ।</span> =<span class="HindiText"> भोगभूमि में वेद परिवर्तन का अभाव है । <br /> | ||
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गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./271/591/18 <span class="SanskritText">पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनोकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्च्चशिश्ना-दिलिङ्गङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंतं द्रव्यपुरुषो भवति ।..... भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति ।.....भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति । </span>= <span class="HindiText">पुरुषवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त अंगोपांग नामकर्म के उदय के वश से मूँछ दाढ़ी व लिंग आदि चिह्नों से अंकित शरीर विशिष्ट जीव, भव के प्रथम समय को आदि करके उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य पुरुष होता है । इसी प्रकार भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य-स्त्री व द्रव्य नपुंसक होता है । </span></li> | ||
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Revision as of 21:42, 5 July 2020
- द्रव्य व भाव वेदों में परस्पर सम्बन्ध
- दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं
पं.सं./प्रा./1/103 उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोणी य लिंगमाई णामोदय दव्ववेदो दु ।103। = नोकषायों के उदय से जीवों के भावेद होता है । तथा योनि और लिंग आदि द्रव्यवेद नामकर्म के उदय से होता है ।103। (त.सा./2/79), (गो.जी./मू./271/591), (और भी देखें वेद - 1.3 तथा वेद/2) ।
- दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान
पं.सं./प्रा./1/102, 104 तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकमं सव्वे ।102। इत्थी पुरिस णउंसय वेया खलु द्रव्वभावदो होंति । ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो ।104। = द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेदवाले दिखाई देते हैं और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रम से विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं ।102। स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते है । और वे सर्व ही विभिन्न नोकषायों के उदय होने पर यथाक्रम से विपरीत वेद वाले भी परिणत होते हैं ।104। [अर्थात् कभी द्रव्य से पुरुष होता हुआ भाव से स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भाव से पुरुष भी होता है–देखें वेद - 2.1]
गो.जी./मू./271/591 पुरिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंडओ भावे । णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा ।271। = पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से जीव पुरुष स्त्री और नपुंसक रूप भाववेदों को प्राप्त होता है और निर्माण नामक नामकर्म के उदय से द्रव्य वेदों को प्राप्त करता है । तहाँ प्रायः करके तो द्रव्य और भाव दोनों वेद समान होते हैं, परन्तु कहीं-कहीं परिणामों की विचित्रता के कारण ये असमान भी हो जाते हैं ।271। (विशेष देखें वेद - 2.1) ।
- चारों गतियों की अपेक्षा दोनों में समानता व असमानता
गो.जी./जी.प्र./271/592/2 एते द्रव्यभाववेदाः प्रायेण प्रचुरवृत्त्या देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समाः द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाङ्किता भवन्ति । क्वचित्कर्मभूमि-मनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमाः-विसदृशा अपि भवन्ति । तद्यथा-द्रव्यतः पुरुषे भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं । द्रव्यस्त्रियां भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुसकं । द्रव्यनपुंसके भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकं इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियमः कथितः । कुतः द्रव्यपुरुषस्य क्षपकश्रेण्यारूढानिवृत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे ‘‘सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झंति ।’’ इति प्रतिपादकत्वेन संभवात् । = ये द्रव्य और भाववेद दोनों प्रायः अर्थात् प्रचुररूप से देव नारकियों में तथा सर्व ही भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में समान ही होते हैं, अर्थात् उनके द्रव्य व भाव दोनों ही वेदों का समान उदय पाया जाता है । परन्तु क्कचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंच इन दोनों गतियों में विषम या विसदृश भी होते हैं । वह ऐसे कि द्रव्यवेद से पुरुष होकर भाववेद से पुरुष, स्त्री व नपुंसक तीनों प्रकार का हो सकता है । इसी प्रकार द्रव्य से स्त्री और भाव से स्त्री, पुरुष व नपुंसक तथा द्रव्य से नपुंसक और भाव से पुरुष स्त्री व नपुंसक । इस प्रकार की विषमता होने से तहाँ द्रव्य और भाववेद का कोई नियम नहीं है । क्योंकि आगम में नवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त द्रव्य से एक पुरुषवेद और भाव से तीनों वेद है ऐसा कथन किया है ।–देखें वेद - 7 । (पं.ध./उ./1092-1095) ।
- भाववेद में परिवर्तन सम्भव है
ध.1/1, 1, 107/346/7 कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदो आजन्मः आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् । = [पर्यायरूप होने के कारण तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है–(देखें वेद - 2.4); परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि] जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक-एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नहीं रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरणतक भी किसी एक वेद का उदय पाया जाता है ।
ज.4/1, 5, 61/369/4 वेदंतरसंकंतीए अभावादो । = भोगभूमि में वेद परिवर्तन का अभाव है ।
- द्रव्य वेद में परिवर्तन सम्भव नहीं
गो.जी./जी.प्र./271/591/18 पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनोकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्च्चशिश्ना-दिलिङ्गङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंतं द्रव्यपुरुषो भवति ।..... भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति ।.....भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति । = पुरुषवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त अंगोपांग नामकर्म के उदय के वश से मूँछ दाढ़ी व लिंग आदि चिह्नों से अंकित शरीर विशिष्ट जीव, भव के प्रथम समय को आदि करके उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य पुरुष होता है । इसी प्रकार भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अन्तिम समय तक द्रव्य-स्त्री व द्रव्य नपुंसक होता है ।
- दोनों के कारणभूत कर्म भिन्न हैं