परद्रव्य: Difference between revisions
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<p>मो. पा./मू./ | <p>मो. पा./मू./17<span class="PrakritGatha"> आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ। तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसोंहि। 17।</span> = <span class="HindiText">आत्म स्वभाव से अन्य जो कुछ सचित्त (स्त्री, पुत्रादिक) अचित्त (धन, धान्यादिक) मिश्र (आभूषण सहित मनुष्यादिक) होता है, वह सर्व परद्रव्य है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने सत्यार्थ कहा है। 17। </span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./1/113 <span class="PrakritGatha">जं णियदव्वहं भिण्णु जड तं पर-दव्वु वियाणि। पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि। 113। </span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/108/227/2 <span class="SanskritText">रागादिभावकर्म-ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्म शरीरादिनोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते। </span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/110/228/14 <span class="SanskritText">अपध्यानपरिणाम एव परसंसर्गः। </span>= <span class="HindiText">जो आत्म पदार्थ से जुदा जड़पदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो। और वह परद्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवाँ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो। 113। अन्दर के विकार रागादि भावकर्म और बाहर के शरीरादि नोकर्म तथा मिथ्यात्व व रागादि से परिणत असंयत जन भी परद्रव्य कहे जाते हैं। 108। वास्तव में अपध्यान रूप परिणाम ही परसंसर्ग (द्रव्य) है। 110। </span></p> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
मो. पा./मू./17 आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ। तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसोंहि। 17। = आत्म स्वभाव से अन्य जो कुछ सचित्त (स्त्री, पुत्रादिक) अचित्त (धन, धान्यादिक) मिश्र (आभूषण सहित मनुष्यादिक) होता है, वह सर्व परद्रव्य है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने सत्यार्थ कहा है। 17।
प.प्र./मू./1/113 जं णियदव्वहं भिण्णु जड तं पर-दव्वु वियाणि। पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि। 113।
प.प्र./टी./2/108/227/2 रागादिभावकर्म-ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्म शरीरादिनोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते।
प.प्र./टी./2/110/228/14 अपध्यानपरिणाम एव परसंसर्गः। = जो आत्म पदार्थ से जुदा जड़पदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो। और वह परद्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवाँ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो। 113। अन्दर के विकार रागादि भावकर्म और बाहर के शरीरादि नोकर्म तथा मिथ्यात्व व रागादि से परिणत असंयत जन भी परद्रव्य कहे जाते हैं। 108। वास्तव में अपध्यान रूप परिणाम ही परसंसर्ग (द्रव्य) है। 110।