परत्वापरत्व
From जैनकोष
वैशेषिक दर्शन/7/2/21/250/3 एकदिक्काभ्यामेककालाभ्यां संनिकृष्टविग्रकृष्टाभ्यां परमपरं च। 21। = परत्व और अपरत्व दो प्रकार के होते हैं। एक देशसंबंध से दूसरे काल संबंध से। ( सर्वार्थसिद्धि/5/22/292/10 )
राजवार्तिक/5/22/22/481/23 क्षेत्रप्रशंसाकालनिमित्ते परत्वापरत्वे। तत्र क्षेत्रनिमित्ते तावदाकाशप्रदेशाल्पबहुत्वापेक्षे। एकस्यां दिशि बहूनाकाशप्रदेशानतीत्य स्थितः परः, ततः अल्पानतीत्य स्थितोऽपरः। प्रशंसाकृते अहिंसादिप्रशस्त-गुणयोगात् परो धर्मः, तद्विपरीतोऽधर्मोऽपरः इति। कालहेतुके शतवर्षः परः, षोडशवर्षोऽपर इति। =
- परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं जैसे - दूरवर्ती पदार्थ ‘पर’ और समीपवर्ती पदार्थ ‘अपर’ कहा जाता है।
- गुणकृत भी होते हैं जैसे अहिंसा आदि प्रशस्तगुणों के कारण धर्म ‘पर’ और अधर्म ‘अपर’ कहा जाता है।
- कालकृत भी होते हैं जैसे - सौ वर्षवाला वृद्ध ‘पर’ और सोलह वर्ष का कुमार ‘अपर’ कहा जाता है।