परमात्मा: Difference between revisions
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<p class="HindiText">परमात्मा या ईश्वर प्रत्येक मानव का एक काल्पनिक बना हुआ है। वास्तव में ये दोनों शब्द शुद्धात्मा के लिए प्रयोग किये जाते हैं। वह शुद्धात्मा भी दो प्रकार से जाना जाता है - एक कारणरूप और दूसरा कार्यरूप। कारण परमात्मा देशकालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्त्व है, जो मुक्त व संसारी तथा चींटी व मनुष्य सब में अन्वय रूप से पाया जाता है। और कार्यपरमात्मा वह मुक्तात्मा है, जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काट कर मुक्त हुआ। अतः कारणपरमात्मा अनादि व कार्यपरमात्मा सादि होता है। एकेश्वरादियों का सर्व व्यापक परमात्मा वास्तव में वह कारणपरमात्मा है और अनेकेश्वरादियों का कार्यपरमात्मा। अतः दोनों में कोई विरोध नहीं है। ईश्वरकर्तावाद के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समन्वय किया जा सकता है। उपादान कारण की अपेक्षा करने पर सर्व विशेषों में अनुगताकार रूप से पाया जाने से ‘कारणपरमात्मा’ जगत् के सर्व कार्यों को करता है। और निमित्तकारण की अपेक्षा करने पर मुक्तात्मा वीतरागी होने के कारण किसी भी कार्य को नहीं करता है। जैन लोग अपने विभावों का कर्ता ईश्वर को नहीं मानते, परन्तु कर्म को मान लेते हैं। तहाँ उनमें व अजैनों के ईश्वर कर्तृत्व में केवल नाम मात्र का अन्तर रह जाता है। यदि कारण तत्त्व पर दृष्टि डालें तो सर्व विभाव स्वतः टल जायें और वह स्वयं परमात्मा बन जाये। <br /> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">परमात्मा या ईश्वर प्रत्येक मानव का एक काल्पनिक बना हुआ है। वास्तव में ये दोनों शब्द शुद्धात्मा के लिए प्रयोग किये जाते हैं। वह शुद्धात्मा भी दो प्रकार से जाना जाता है - एक कारणरूप और दूसरा कार्यरूप। कारण परमात्मा देशकालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्त्व है, जो मुक्त व संसारी तथा चींटी व मनुष्य सब में अन्वय रूप से पाया जाता है। और कार्यपरमात्मा वह मुक्तात्मा है, जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काट कर मुक्त हुआ। अतः कारणपरमात्मा अनादि व कार्यपरमात्मा सादि होता है। एकेश्वरादियों का सर्व व्यापक परमात्मा वास्तव में वह कारणपरमात्मा है और अनेकेश्वरादियों का कार्यपरमात्मा। अतः दोनों में कोई विरोध नहीं है। ईश्वरकर्तावाद के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समन्वय किया जा सकता है। उपादान कारण की अपेक्षा करने पर सर्व विशेषों में अनुगताकार रूप से पाया जाने से ‘कारणपरमात्मा’ जगत् के सर्व कार्यों को करता है। और निमित्तकारण की अपेक्षा करने पर मुक्तात्मा वीतरागी होने के कारण किसी भी कार्य को नहीं करता है। जैन लोग अपने विभावों का कर्ता ईश्वर को नहीं मानते, परन्तु कर्म को मान लेते हैं। तहाँ उनमें व अजैनों के ईश्वर कर्तृत्व में केवल नाम मात्र का अन्तर रह जाता है। यदि कारण तत्त्व पर दृष्टि डालें तो सर्व विभाव स्वतः टल जायें और वह स्वयं परमात्मा बन जाये। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">परमात्मा सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">परमात्मा सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.श./टी./ | स.श./टी./6/225/15<span class="SanskritText"> परमात्मा संसारिजीवेभ्यः उत्कृष्ट आत्मा।</span> = <span class="HindiText">संसारी जीवों में सबसे उत्कृष्ट आत्मा को परमात्मा कहते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">परमात्मा के दो भेद</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">परमात्मा के दो भेद</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">कार्यकारण परमात्मा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">कार्यकारण परमात्मा</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./7<span class="SanskritText"> निजकारणपरमात्माभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः।</span> = <span class="HindiText">निज कारणपरमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्यपरमात्मा, वही अर्हन्त परमेश्वर हैं। अर्थात् परमात्मा के दो प्रकार हैं - कारणपरमात्मा और कार्य परमात्मा। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">सकल निकल परमात्मा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">सकल निकल परमात्मा</strong> </span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./192<span class="PrakritText"> परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य।192।</span> = <span class="HindiText">परमात्मा के दो भेद हैं - अरहन्त और सिद्ध। </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./44/49/5<span class="SanskritText"> सयोग्योगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मेति।</span> =<span class="HindiText"> सयोगी और अयोगी इन दो गुणस्थानों में विवक्षित एकदेश शुद्ध नय की अपेक्षा सिद्ध के समान परमात्मा हैं, और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">कारणपरमात्मा का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">कारणपरमात्मा का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./177-178 <span class="PrakritText">कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्-जाइजर-मरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं। णाणाइ चउसहावं अक्खयमविणासमच्छेद्यं।177। अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिमुक्कं। पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं।178।</span> = <span class="HindiText">कारण परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है - (परमात्म तत्त्व) जन्म, जरा, मरण रहित, परम, आठकर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला, अक्षय अविनाशी और अच्छेद्य है।177। तथा अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप रहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालंब है।178। </span><br /> | ||
स.श./मू./ | स.श./मू./30-31 <span class="SanskritText">सर्वेन्द्रियाणि संयम्यास्तमितेनान्तरात्मा। यत्क्षणं पश्यते भाति तत्तत्वं परमात्मनः। 30। यः परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः। </span>= <span class="HindiText">सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्ति से रोककर स्थित हुए अन्तःकरण के द्वारा क्षणमात्र के लिए अनुभव करनेवाले जीवों के जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासित होता है, वही परमात्मा का स्वरूप है। 30। जो परमात्मा है वही मैं हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है। इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा मेरा कोई उपास्य नहीं। 31। </span><br /> | ||
पं.प्र./मू./ | पं.प्र./मू./1/33<span class="PrakritGatha"> देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु। केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु। 33।</span> =<span class="HindiText"> जो व्यवहार नय से देहरूपी देवालय में बसता है, पर निश्चय से देह से भिन्न है, आराध्य देव स्वरूप है, अनादि अनन्त है, केवलज्ञान स्वरूप है, निःसन्देह वह अचलित पारिणामिक भाव ही परमात्मा है। 33। </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./38 <span class="SanskritText">औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद् द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनिविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधतनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकरणपरमात्मा ह्यात्मा।</span> =<span class="HindiText"> औदयिक आदि चार भावान्तरों को अगोचर होने से जो (कारणपरमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप उपाधि से जनित विभाव गुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिक भाव जिसका स्वभाव है - ऐसा कारण परमात्मा वह वास्तव में ‘आत्मा’ है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">कार्यपरमात्मा का लक्षण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">कार्यपरमात्मा का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./5 <span class="PrakritText">कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो। 5।</span> = <span class="HindiText">कर्म कलंक से रहित आत्मा को परमात्मा कहते हैं। 5। </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./7 <span class="PrakritGatha">णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा। 7। </span>= <span class="HindiText">निःशेष दोष से जो रहित है और केवलज्ञानादि परम वैभव से जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है उससे विपरीत परमात्मा नहीं है। 7। </span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./1/15-25 <span class="PrakritGatha">अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण। 15। केवल-दंसण-णाणमउ केवल-सुक्ख सहाउ। केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ। 24। एयहिं जुत्तउ लक्खणहिं जो परु णिक्कलु देउ। सो तहिं णिसइ परम-पइ जो तइलोयहं झेउ। 25। </span>= <span class="HindiText">जिसने अष्ट कर्मों को नाश करके और सब देहादि परद्रव्यों को छोड़कर केवलज्ञानमयी आत्मा पाया है, उसको शुद्ध मन से परमात्मा जानो। 15। जो केवलज्ञान, केवलदर्शनमयी है, जिसका केवलसुख स्वभाव है, जो अनन्त वीर्य वाला है, वही उत्कृष्ट रूपवाला सिद्ध परमात्मा है। 24। इन लक्षणों सहित, सबसे उत्कृष्ट, निःशरीरी व निराकार, देव जो परमात्मा सिद्ध है, जो तीन लोक का ध्येय है, वही इस लोक के शिखर पर विराजमान हैं। 25। </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./7,38 <span class="SanskritText">सकलविमलकेवलबोधकेवलदृष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेकविभवसमृद्धः यस्त्वेवंविधः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः। 7। आत्मनः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पञ्चेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परम-जिनयोगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशिततेरुपादेयो ह्यात्मा। </span>= <span class="HindiText">सकल-विमल केवलज्ञान-केवलदर्शन, परम-वीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभव से समृद्ध हैं, ऐसे जो परमात्मा अर्थात् त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द - एक स्वरूप निज कारणपरमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्यपरमात्मा वही भगवान् अर्हन्त परमेश्वर हैं। 7। सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का जो शिखामणि है, परद्रव्य से जो पराङ्मुख है, पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिन योगीश्वर है, स्व-द्रव्य में जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है - ऐसे आत्मा को ‘आत्मा’ वास्तव में उपादेय है। </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./14/47/4<span class="SanskritText"> विष्णु... परमब्रह्मा... ईश्वर... सुगतः... शिवः... जिनः। इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्रसंख्यनाम-वाच्य परमात्मा ज्ञातव्यः।</span> = <span class="HindiText">विष्णु, परमब्रह्मा, ईश्वर, सुगत, शिव और जिन इत्यादि परमागम में कहे हुए एक हजार आठ नामों से कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिए। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">परमात्मा में कारण कार्य विभाग की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">परमात्मा में कारण कार्य विभाग की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
स.श./मू./ | स.श./मू./67-98 <span class="SanskritGatha">भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः। वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्न भवति तादृशी। 97। उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः। 98।</span> = <span class="HindiText">यह आत्मा अपने से भिन्न अर्हन्त सिद्ध रूप परमात्मा की उपासना-आराधना करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाता है। जैसे - दीपक से भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी दीपक की आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके दीपक स्वरूप हो जाती है। 97। अथवा यह आत्मा अपने चित्स्वरूप को ही चिदानन्दमय रूप से आराधन करके परमात्मा हो जाता है। जैसे, बाँस का वृक्ष अपने को अपने से ही रगड़कर अग्नि रूप हो जाता है। 98। </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./360, 361 <span class="PrakritGatha">कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स। 360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमाओ हु जीवसब्भावो। खय पुणु सहावझाणे तह्मा तं कारणं झेयं। 361। </span>= <span class="HindiText">कारण और कार्य स्वभाव रूप समय अर्थात् आत्मा को जानकर उसका ध्यान करना चाहिए। उनमें से शुद्ध स्वरूप अर्थात् सिद्ध भगवान तो कार्य है और कारणभूत जो स्वभाव वह उसका साधन है। 360। वह कारण समय रूप जीवस्वभाव ही कर्मों का क्षय हो जाने पर शुद्ध अर्थात् कार्य समय रूप हो जाता है। और वह क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है, उस लिए वह उसका कारणभूत ध्येय है। 361। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">सकल निकल परमात्मा के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">सकल निकल परमात्मा के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
का.अ./मू. | का.अ./मू.198 <span class="PrakritGatha">स-सरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय सयलत्था। णाणसरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्खसंपत्ता। 198। </span>= <span class="HindiText">केवलज्ञान से जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे शरीर सहित अर्हन्त तो सकल परमात्मा हैं और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति जिन्हों को हो गयी है तथा ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं। </span><br /> | ||
ति.सा./ता.वृ./ | ति.सा./ता.वृ./43<span class="SanskritText"> निश्चयेनौदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणाभिधानपञ्चशरीरप्रपञ्चाभावान्निकलः।</span> = <span class="HindiText">निश्चय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, और कार्मण नामक पाँच शरीरों के समूह का अभाव होने से आत्मा निःकल अर्थात् निःशरीर है। </span><br /> | ||
स.श./टी./ | स.श./टी./2/223/7 <span class="SanskritText">सकलात्मने सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः स चासावात्मा। </span>= <span class="HindiText">कल अर्थात् शरीर के साथ जो वर्ते सो सकल कहलाता है और सकल भी हो और आत्मा भी हो वह सकलात्मा कहलाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./21/7/221 <span class="SanskritGatha">अयमात्मा स्वयं साक्षात्परमात्मेति निश्चयः। विशुद्धध्याननिर्धूत-कर्मेन्धनसमुत्करः। 7।</span> = <span class="HindiText">जिस समय विशुद्ध ध्यान के बल से कर्मरूपी इन्धन को भस्म कर देता है, उस समय यह आत्मा ही साक्षात् परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है। 7। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./68 <span class="SanskritText">स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थः। </span>= <span class="HindiText">भगवान् आत्मा स्वयमेव ही स्वपर को प्रकाशित करने में समर्थ है। (और भी देखें [[ परमात्मा#1.3 | परमात्मा - 1.3]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>परमात्मा के एकार्थवाची नाम -</strong> देखें | <li><span class="HindiText"><strong>परमात्मा के एकार्थवाची नाम -</strong> देखें [[ म ]]पु./25/100-217। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>पंच परमेष्ठी में देवत्व- </strong> देखें | <li><span class="HindiText"><strong>पंच परमेष्ठी में देवत्व- </strong>देखें [[ देव#I.1 | देव - I.1]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>सच्चे देव, अर्हन्त- </strong> | <li><span class="HindiText"><strong>सच्चे देव, अर्हन्त- </strong>देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>सिद्ध- </strong>देखें | <li><span class="HindiText"><strong>सिद्ध- </strong>देखें [[ मोक्ष ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">भगवान् का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">भगवान् का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,82/346/8 <span class="SanskritText">ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भगः, सोऽस्यास्तीति भगवान्।</span> = <span class="HindiText">ज्ञान-धर्म के माहात्म्यों का नाम भग है, वह जिनके हैं वे भगवान् कहलाते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">ईश्वर का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">ईश्वर का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./14/47/7<span class="SanskritText"> केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः सन्तो यस्याज्ञां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति।</span> = <span class="HindiText">केवलज्ञानादि गुण रूप ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिसके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञा का पालन करते हैं, अतः वह परमात्मा ईश्वर होता है। </span><br /> | ||
स.श./टी./ | स.श./टी./6/225/17 <span class="SanskritText">ईश्वरः इन्द्राद्यसंभविना, अन्तरङ्गबहिरङ्गेषु परमैश्वर्येण सदैव संपन्न। </span>= <span class="HindiText">इन्द्रादिक को जो असम्भव ऐसे अन्तरंग और बहिरंग परम ऐश्वर्य के द्वारा जो सदैव सम्पन्न रहता है, उसे ईश्वर कहते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">अपनी स्वतन्त्र कर्ता कारण शक्ति के कारण आत्मा ही ईश्वर है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">अपनी स्वतन्त्र कर्ता कारण शक्ति के कारण आत्मा ही ईश्वर है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./35 <span class="SanskritText">अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति...। </span>= <span class="HindiText">आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और कारणत्व की शक्तिरूप परमैश्वर्यवान् है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है...। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">ईश्वरकर्तावाद का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">ईश्वरकर्तावाद का निषेध</strong> </span><br /> | ||
आप्त.प./ | आप्त.प./9/§51-68/32-49 <span class="SanskritText">तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य। न चैतदसिद्धम्,... यत्कार्यं तद् बुद्धिमन्निमित्तकं दृष्टम्, यथा वस्त्रादि। ...नैकस्वभावेश्वरकारणकृतं विचित्रकार्यत्वात्। ...यत्र यदा यथा यत्कार्यमुत्पित्सु तत्र तदा तथा तदुत्पादनेच्छा माहेश्वरस्यैकैव तादृशी समुत्पद्यते। ... ततो नान्वयव्यतिरेकयोर्व्यापकयोरनुपलम्भोऽस्ति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ईश्वर शरीर इन्द्रिय व जगत् का निमित्त कारण है? <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि इनसे पृथक् कोई ईश्वर दिखाई नहीं देता। <strong>प्रश्न -</strong> वस्त्रादि की भाँति शरीरादि भी किसी बुद्धिमान के बनाये हुए होने चाहिए। <strong>उत्तर -</strong>भिन्न स्वभाववाले पदार्थ एक स्वभाववाले ईश्वर से उत्पन्न नहीं हो सकते। <strong>प्रश्न -</strong> यथावसर ईश्वर को वैसी-वैसी इच्छा उत्पन्न हो जाती हैं जो विभिन्न कार्यों को उत्पन्न करती है। <strong>उत्तर -</strong> इस प्रकार या तो सर्व जगत् में एक ही प्रकार का कार्य होता रहेगा या इच्छा के स्थान से अतिरिक्त अन्य स्थानों में कार्य का अभाव हो जायेगा। <strong>प्रश्न -</strong> ईश्वरेच्छा के साथ भिन्न क्षेत्रों में रहने-वाली विभिन्न सामग्री के मिल जाने से विभिन्न कार्यों की सिद्धि हो जायेगी? <strong>उत्तर -</strong> उपरोक्त हेतु में कोई अन्वय व्यतिरेक हेतु सिद्ध नहीं होता। </span><br /> | ||
स्या.मं/ | स्या.मं/6/पृ.44-56 <span class="SanskritText">यत्तावदुक्तं परैः ‘क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्तृकाः, कार्यत्वाद् घटवदिति’ तदयुक्तम्। ...स चायं जगन्ति सृजन् सशरीरोऽशरीरो वा स्यात्। ...प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधः। तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात् प्रमेयत्वादिवत् साधारणानैकान्तिको हेतुः। द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणम्। ...इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च। सिद्धे हि माहात्म्यविशेष तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम्। तत्सिद्धौ च माहात्म्य-विशेषसिद्धिरिति। ...अशरीरश्चेत् तदा दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यम्। ...अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यम् आकाशादिवत्। ...बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसंभावना इति नायमेकान्तः। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमूर्ध्नः, ...अथैतष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति ब्रू षे। ...तर्हि कुबिन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते। ...सर्वगतत्वमपि तस्य नौपपन्नम्। तद्धि शरीरात्मना, ज्ञानात्मना वा स्यात्। प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्त्रयस्य व्याप्तत्वाद् इतरनिर्मेयपदार्थानाश्रयानवकाशः। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता। ...स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत् साक्षाद् देहव्यापारेण निर्मिमीते, यदि वा संकल्पमात्रेण। आद्ये पक्षे एकस्यैव... कालक्षेपस्य संभवाद् बंहीयसाप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु संकल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किंचिद् दूषणमुत्पश्यामः।....... सहि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते, परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते, तत्कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटितं घटयति भुवनम् एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते। अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाशुभकर्मपे्ररितः सन् तथा करोतीति दत्तस्तर्हि स्ववशत्वाय जलाञ्जलिः। ...कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात् तर्हि कर्मणीश्वरत्वम्, ईश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति। ...स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन्, त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतत्स्वभावो वा। प्रथमविधायां जगन्निर्माणात् कदाचिदपि नोपरमेत्। तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः। एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानाद् एकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः। ...अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत् तत्स्वभावायोगाद् गगनवत्। अपि च तस्यैकान्तनितयस्वरूपत्वे सृष्टिवत् संहारोऽपि न घटते। ...एकस्वभावात् कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात्। स्वभावान्तरेण चेद् नित्यत्वहानिः। स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः। ...अथास्तु नित्यः, तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते। इच्छावशात् चेत्, ननु ता अपीच्छः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः।... कार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषयरूपात्वाद् नित्यत्वहानिः केन वार्यते। ...ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्, कारुण्याद् वा। न तावत् स्वार्थात् तस्य कृतकृत्यत्वात्। न च कारुण्यात्...। ततः प्राक् सर्गाज्जीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम्। सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्यामुपगमे तदुत्तरमितरेतराश्रयम् कारुण्येन सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यम्। इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्धयति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> पृथिवी आदि बुद्धिमान् के बनाये हुए हैं, कार्य होने से घट के समान। दृश्य शरीर से? <strong>उत्तर -</strong> शरीर दीखता नहीं है। दूसरे, घास वृक्षादि को ईश्वर ने अपने शरीर से नहीं रचा है। अतः कार्य हेतुपना साधारणैकान्तिक दोष का धारक है। <strong>प्रश्न -</strong> अदृश्य शरीर से बनाये हैं। <strong>उत्तर -</strong> अदृश्य शरीर की सिद्धि से ईश्वर का माहात्म्य, तथा माहात्म्य से शरीर की सिद्धि होने के कारण तथा दोनों ही होने से अन्योन्याश्रय दोष आता है। <strong>प्रश्न -</strong> ईश्वर शरीर रहित होकर बनाता है? <strong>उत्तर -</strong> दृष्टान्त ही बाधित हो जाता है। दूसरे, शरीर रहित आकाश आदिक में कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः अशरीर ईश्वर भी कार्य कैसे कर सकता है। <strong>प्रश्न -</strong> वह अनेक है। अनेक हों तो मतभेद के कारण कोई कार्य ही न बने। <strong>उत्तर -</strong> मतभेद होने का नियम नहीं। बहुत सी चींटियाँ मिलकर बिल बनाती हैं। <strong>प्रश्न -</strong> बिल आदि का कर्ता ईश्वर है? <strong>उत्तर -</strong> तो घट-पट आदि का कर्ता भी इसे ही मानकर कुम्भकार आदि का तिरस्कार क्यों नहीं कर देते। <strong>प्रश्न -</strong> ईश्वर सर्वगत है इसलिए कर्ता है?<strong>उत्तर -</strong> शरीर से सर्वगत है या ज्ञान से?यदि शरीर से तो जगत् में और पदार्थ को ठहरने का अवकाश न होगा। शरीर व्यापार से बनाता है या संकल्प मात्र से?<strong>प्रश्न -</strong> शरीर व्यापार से। <strong>उत्तर -</strong> तब तो एक कार्य में अधिक काल लगने से सबका कर्ता नहीं हो सकता। <strong>प्रश्न -</strong> संकल्प मात्र से। <strong>उत्तर -</strong> तब सर्वगतपने की आवश्यकता नहीं है। ...परम करुणाभाव के धारक ईश्वर ने सुख-दुःख से भरे इस जगत् को क्यों बनाया। केवल सुख रूप ही क्यों नहीं बना दिया। <strong>प्रश्न -</strong> ईश्वर जीवों के अन्य जन्मों में उपार्जित कर्मों से प्रेरित होकर ऐसा करता है? <strong>उत्तर -</strong> इस प्रकार तो ईश्वर स्वाधीन न रहा। और कर्म की मुख्यता होने से हमारे मत की सिद्धि हुई। दूसरे इस प्रकार कर्मों का कर्ता ईश्वर न हुआ। ...जगत् के बनाने से उसे कभी भी विश्राम न होगा। यदि विश्राम लेगा तो उसके स्वभाव के घात का प्रसंग आयेगा। इस प्रकार कोई भी कार्य पूर्ण हुआ न कहलायेगा। <strong>प्रश्न -</strong> कर्तापना उसका स्वभाव नहीं है? <strong>उत्तर -</strong> तो फिर वह जगत् का निर्माण ही कैसे करे, दूसरे एक ही प्रकार के स्वभाव से निर्माण तथा संहार दो (विरोधी) कार्य नहीं किये जा सकते। <strong>प्रश्न -</strong> संहार करने का स्वभाव अन्य है? <strong>उत्तर -</strong> नित्यता का नाश हो जायेगा। स्वभाव भेद ही अनित्यता का लक्षण है। कभी किसी स्वभाववाला और कभी किसी स्वभाववाला होगा। निरन्तर वह क्यों नहीं बनाता। शंका - जब इच्छा नहीं रहती तब बनाना छोड़ देता है? <strong>उत्तर -</strong> इच्छा से ही कर्तापने की सिद्धि है, तो सदा इच्छा क्यों नहीं करता। दूसरे कार्यों की नानारूप उसकी इच्छाओं की भी नानारूपता को सिद्ध करती है। अतः ईश्वर अनित्य है। ईश्वर ने जगत् को किसी प्रयोजन से बनाया या करुणा से। शंका - प्रयोजन से। <strong>उत्तर -</strong> कृतकृत्यता खण्डित हो जाती है। <strong>प्रश्न -</strong> करुणाभाव से। <strong>उत्तर -</strong> दुःख अनादि नहीं है, तो ईश्वर ने उन्हें क्यों बनाया। <strong>प्रश्न -</strong> दुःख देखकर पीछे से करुणा उत्पन्न हुई? <strong>उत्तर -</strong> इससे तो इतरेतराश्रय दोष आया। करुणा से जगत् रचना और जगत् से करुणा उत्पन्न होना। <br /> | ||
देखें [[ सत्#1 | सत् - 1 ]](सत् स्वभाव ही जगत् का कर्ता है)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">ईश्वरवाद का लक्षण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">ईश्वरवाद का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4.1" id="3.4.1">मिथ्या एकान्त की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4.1" id="3.4.1">मिथ्या एकान्त की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
गो.क./मू./ | गो.क./मू./880 <span class="PrakritGatha">अण्णाणी हु अणासो अप्पा तस्सं य सुहं च दुक्खं च। सग्गं णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि। 800।</span> =<span class="HindiText"> आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है। उस आत्मा के सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकादिक, गमनागमन सर्व ईश्वरकृत है, ऐसा मानना सो ईश्वरवाद का अर्थ है। 800। (स.सि./8/1/5 की टिप्पणी)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4.2" id="3.4.2">सम्यगेकान्त की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4.2" id="3.4.2">सम्यगेकान्त की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./322 <span class="PrakritText">लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणई।</span> = <span class="HindiText">लोक के मत में विष्णू करता है, वैसे ही श्रमणों के मत में आत्मा करता है। </span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./1/66 <span class="PrakritGatha">अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ। 66। </span>= <span class="HindiText">हे जीव! यह आत्मा पंगु के समान है, आप कहीं न जाता और न आता है, तीनों लोकों में जीव को कर्म ही ले जाता है, कर्म ही लाता है। 66। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./परि.नय.नं. | प्र.सा./त.प्र./परि.नय.नं. 34<span class="SanskritText"> ईश्वरनयेन धात्रीहट्टावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्रयभोक्तृ। 34। </span>= <span class="HindiText">आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतन्त्रता भोगनेवाला है। धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति। (देखें [[ कर्म#3.1 | कर्म - 3.1]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText">इससे भी आगे जाकर वैदिक ऋषि ईश्वर को निश्चित रूप देने के लिए सत्-असत्, जीवन-मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दों से ईश्वर का वर्णन करने लगे। </span></li> | <li><span class="HindiText">इससे भी आगे जाकर वैदिक ऋषि ईश्वर को निश्चित रूप देने के लिए सत्-असत्, जीवन-मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दों से ईश्वर का वर्णन करने लगे। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इससे भी आगे ब्राह्माणग्रन्थों की रचना के युग में ईश्वर के सम्बन्ध में अनेकों मनोरंजक कल्पनाएँ जागृत हुई। यथा - प्रजा-पति ने एक से अनेक होने की इच्छा की। उसके लिए उसने तप किया। जिससे क्रमशः धूप, अग्नि, प्रकाश आदि की उत्पत्ति हुई। उसी के अश्रुबिन्दु के समुद्र में गिर जाने से पृथिवी की उत्पत्ति हुई। अथवा उसके तप से ब्राहण व जल की उत्पत्ति हुई, जिससे सृष्टि बनी। </span></li> | <li><span class="HindiText"> इससे भी आगे ब्राह्माणग्रन्थों की रचना के युग में ईश्वर के सम्बन्ध में अनेकों मनोरंजक कल्पनाएँ जागृत हुई। यथा - प्रजा-पति ने एक से अनेक होने की इच्छा की। उसके लिए उसने तप किया। जिससे क्रमशः धूप, अग्नि, प्रकाश आदि की उत्पत्ति हुई। उसी के अश्रुबिन्दु के समुद्र में गिर जाने से पृथिवी की उत्पत्ति हुई। अथवा उसके तप से ब्राहण व जल की उत्पत्ति हुई, जिससे सृष्टि बनी। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उपनिषद् युग में कभी तो असत्, मृत्यु, क्षुधा आदि से जल, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति मानी गयी है, कहीं ब्रह्मा से, और कहीं अक्षर से सृष्टि की रचना मानी गयी है। (स्या.मं./परि.पृ. | <li><span class="HindiText"> उपनिषद् युग में कभी तो असत्, मृत्यु, क्षुधा आदि से जल, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति मानी गयी है, कहीं ब्रह्मा से, और कहीं अक्षर से सृष्टि की रचना मानी गयी है। (स्या.मं./परि.पृ. 411)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5.2" id="3.5.2">ईश्वरवादी मत</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5.2" id="3.5.2">ईश्वरवादी मत</strong> <br /> | ||
भारतीय दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसक, सांख्य और योगदर्शन तथा वर्तमान का पाश्चात्य जगत् इस प्रकार के सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का रचयिता माना गया है। (स्या.मं./परि.ग./पृ. | भारतीय दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसक, सांख्य और योगदर्शन तथा वर्तमान का पाश्चात्य जगत् इस प्रकार के सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का रचयिता माना गया है। (स्या.मं./परि.ग./पृ.413)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5.3" id="3.5.3">ईश्वरकर्तृत्व में युक्तियाँ</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5.3" id="3.5.3">ईश्वरकर्तृत्व में युक्तियाँ</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से सिद्ध न होने पर भी वह शब्द प्रमाण से सिद्ध है। (स्या.मं./परि.ग./ | <li><span class="HindiText"> प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से सिद्ध न होने पर भी वह शब्द प्रमाण से सिद्ध है। (स्या.मं./परि.ग./413-418)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>लोगों का ईश्वर कर्तावाद और जैनियों का कर्म कर्तावाद एक ही बात है - </strong>देखें | <li><span class="HindiText"><strong>लोगों का ईश्वर कर्तावाद और जैनियों का कर्म कर्तावाद एक ही बात है - </strong>देखें [[ कारक ]]कर्ता। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>भक्ति प्रकरण में ईश्वर में कर्तापने का आरोप निषिद्ध नहीं -</strong> देखें | <li><span class="HindiText"><strong>भक्ति प्रकरण में ईश्वर में कर्तापने का आरोप निषिद्ध नहीं -</strong> देखें [[ भक्ति ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>जीव का कथंचित् कर्ता-अकर्तापना - </strong> देखें | <li><span class="HindiText"><strong>जीव का कथंचित् कर्ता-अकर्तापना - </strong>देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]]।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 24.33, 25.110 </span></p> | |||
<p id="2">(2) स्वयं के द्वारा स्वयं में ही लीन हो जाने वाला आत्मा । यह दो प्रकार का होता है― सकल और निकल । दिव्य देह में स्थित सकल आत्मा परमात्मा और देह रहित आत्मा निकल परमात्मा है । तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव सयोगी (सकल) और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अयोगी (निकल) परमात्मा होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 46.215 </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.84,97 </span></p> | |||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
परमात्मा या ईश्वर प्रत्येक मानव का एक काल्पनिक बना हुआ है। वास्तव में ये दोनों शब्द शुद्धात्मा के लिए प्रयोग किये जाते हैं। वह शुद्धात्मा भी दो प्रकार से जाना जाता है - एक कारणरूप और दूसरा कार्यरूप। कारण परमात्मा देशकालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्त्व है, जो मुक्त व संसारी तथा चींटी व मनुष्य सब में अन्वय रूप से पाया जाता है। और कार्यपरमात्मा वह मुक्तात्मा है, जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काट कर मुक्त हुआ। अतः कारणपरमात्मा अनादि व कार्यपरमात्मा सादि होता है। एकेश्वरादियों का सर्व व्यापक परमात्मा वास्तव में वह कारणपरमात्मा है और अनेकेश्वरादियों का कार्यपरमात्मा। अतः दोनों में कोई विरोध नहीं है। ईश्वरकर्तावाद के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समन्वय किया जा सकता है। उपादान कारण की अपेक्षा करने पर सर्व विशेषों में अनुगताकार रूप से पाया जाने से ‘कारणपरमात्मा’ जगत् के सर्व कार्यों को करता है। और निमित्तकारण की अपेक्षा करने पर मुक्तात्मा वीतरागी होने के कारण किसी भी कार्य को नहीं करता है। जैन लोग अपने विभावों का कर्ता ईश्वर को नहीं मानते, परन्तु कर्म को मान लेते हैं। तहाँ उनमें व अजैनों के ईश्वर कर्तृत्व में केवल नाम मात्र का अन्तर रह जाता है। यदि कारण तत्त्व पर दृष्टि डालें तो सर्व विभाव स्वतः टल जायें और वह स्वयं परमात्मा बन जाये।
- परमात्मा निर्देश
- परमात्मा सामान्य का लक्षण
स.श./टी./6/225/15 परमात्मा संसारिजीवेभ्यः उत्कृष्ट आत्मा। = संसारी जीवों में सबसे उत्कृष्ट आत्मा को परमात्मा कहते हैं।
- परमात्मा के दो भेद
- कार्यकारण परमात्मा
नि.सा./ता.वृ./7 निजकारणपरमात्माभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः। = निज कारणपरमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्यपरमात्मा, वही अर्हन्त परमेश्वर हैं। अर्थात् परमात्मा के दो प्रकार हैं - कारणपरमात्मा और कार्य परमात्मा।
- सकल निकल परमात्मा
का.अ./मू./192 परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य।192। = परमात्मा के दो भेद हैं - अरहन्त और सिद्ध।
द्र.सं./टी./44/49/5 सयोग्योगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मेति। = सयोगी और अयोगी इन दो गुणस्थानों में विवक्षित एकदेश शुद्ध नय की अपेक्षा सिद्ध के समान परमात्मा हैं, और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही।
- कार्यकारण परमात्मा
- कारणपरमात्मा का लक्षण
नि.सा./मू./177-178 कारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्-जाइजर-मरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं। णाणाइ चउसहावं अक्खयमविणासमच्छेद्यं।177। अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिमुक्कं। पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं।178। = कारण परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है - (परमात्म तत्त्व) जन्म, जरा, मरण रहित, परम, आठकर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला, अक्षय अविनाशी और अच्छेद्य है।177। तथा अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप रहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालंब है।178।
स.श./मू./30-31 सर्वेन्द्रियाणि संयम्यास्तमितेनान्तरात्मा। यत्क्षणं पश्यते भाति तत्तत्वं परमात्मनः। 30। यः परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः। = सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्ति से रोककर स्थित हुए अन्तःकरण के द्वारा क्षणमात्र के लिए अनुभव करनेवाले जीवों के जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासित होता है, वही परमात्मा का स्वरूप है। 30। जो परमात्मा है वही मैं हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है। इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा मेरा कोई उपास्य नहीं। 31।
पं.प्र./मू./1/33 देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु। केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु। 33। = जो व्यवहार नय से देहरूपी देवालय में बसता है, पर निश्चय से देह से भिन्न है, आराध्य देव स्वरूप है, अनादि अनन्त है, केवलज्ञान स्वरूप है, निःसन्देह वह अचलित पारिणामिक भाव ही परमात्मा है। 33।
नि.सा./ता.वृ./38 औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद् द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनिविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधतनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकरणपरमात्मा ह्यात्मा। = औदयिक आदि चार भावान्तरों को अगोचर होने से जो (कारणपरमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप उपाधि से जनित विभाव गुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिक भाव जिसका स्वभाव है - ऐसा कारण परमात्मा वह वास्तव में ‘आत्मा’ है।
- कार्यपरमात्मा का लक्षण
मो.पा./मू./5 कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो। 5। = कर्म कलंक से रहित आत्मा को परमात्मा कहते हैं। 5।
नि.सा./मू./7 णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो। सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा। 7। = निःशेष दोष से जो रहित है और केवलज्ञानादि परम वैभव से जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है उससे विपरीत परमात्मा नहीं है। 7।
प.प्र./मू./1/15-25 अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण। 15। केवल-दंसण-णाणमउ केवल-सुक्ख सहाउ। केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ। 24। एयहिं जुत्तउ लक्खणहिं जो परु णिक्कलु देउ। सो तहिं णिसइ परम-पइ जो तइलोयहं झेउ। 25। = जिसने अष्ट कर्मों को नाश करके और सब देहादि परद्रव्यों को छोड़कर केवलज्ञानमयी आत्मा पाया है, उसको शुद्ध मन से परमात्मा जानो। 15। जो केवलज्ञान, केवलदर्शनमयी है, जिसका केवलसुख स्वभाव है, जो अनन्त वीर्य वाला है, वही उत्कृष्ट रूपवाला सिद्ध परमात्मा है। 24। इन लक्षणों सहित, सबसे उत्कृष्ट, निःशरीरी व निराकार, देव जो परमात्मा सिद्ध है, जो तीन लोक का ध्येय है, वही इस लोक के शिखर पर विराजमान हैं। 25।
नि.सा./ता.वृ./7,38 सकलविमलकेवलबोधकेवलदृष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेकविभवसमृद्धः यस्त्वेवंविधः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः। 7। आत्मनः सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पञ्चेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परम-जिनयोगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशिततेरुपादेयो ह्यात्मा। = सकल-विमल केवलज्ञान-केवलदर्शन, परम-वीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभव से समृद्ध हैं, ऐसे जो परमात्मा अर्थात् त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द - एक स्वरूप निज कारणपरमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्यपरमात्मा वही भगवान् अर्हन्त परमेश्वर हैं। 7। सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का जो शिखामणि है, परद्रव्य से जो पराङ्मुख है, पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिन योगीश्वर है, स्व-द्रव्य में जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है - ऐसे आत्मा को ‘आत्मा’ वास्तव में उपादेय है।
द्र.सं./टी./14/47/4 विष्णु... परमब्रह्मा... ईश्वर... सुगतः... शिवः... जिनः। इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्रसंख्यनाम-वाच्य परमात्मा ज्ञातव्यः। = विष्णु, परमब्रह्मा, ईश्वर, सुगत, शिव और जिन इत्यादि परमागम में कहे हुए एक हजार आठ नामों से कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिए।
- परमात्मा में कारण कार्य विभाग की सिद्धि
स.श./मू./67-98 भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः। वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्न भवति तादृशी। 97। उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः। 98। = यह आत्मा अपने से भिन्न अर्हन्त सिद्ध रूप परमात्मा की उपासना-आराधना करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाता है। जैसे - दीपक से भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी दीपक की आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके दीपक स्वरूप हो जाती है। 97। अथवा यह आत्मा अपने चित्स्वरूप को ही चिदानन्दमय रूप से आराधन करके परमात्मा हो जाता है। जैसे, बाँस का वृक्ष अपने को अपने से ही रगड़कर अग्नि रूप हो जाता है। 98।
न.च.वृ./360, 361 कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स। 360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमाओ हु जीवसब्भावो। खय पुणु सहावझाणे तह्मा तं कारणं झेयं। 361। = कारण और कार्य स्वभाव रूप समय अर्थात् आत्मा को जानकर उसका ध्यान करना चाहिए। उनमें से शुद्ध स्वरूप अर्थात् सिद्ध भगवान तो कार्य है और कारणभूत जो स्वभाव वह उसका साधन है। 360। वह कारण समय रूप जीवस्वभाव ही कर्मों का क्षय हो जाने पर शुद्ध अर्थात् कार्य समय रूप हो जाता है। और वह क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है, उस लिए वह उसका कारणभूत ध्येय है। 361।
- सकल निकल परमात्मा के लक्षण
का.अ./मू.198 स-सरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय सयलत्था। णाणसरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्खसंपत्ता। 198। = केवलज्ञान से जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे शरीर सहित अर्हन्त तो सकल परमात्मा हैं और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति जिन्हों को हो गयी है तथा ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं।
ति.सा./ता.वृ./43 निश्चयेनौदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणाभिधानपञ्चशरीरप्रपञ्चाभावान्निकलः। = निश्चय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, और कार्मण नामक पाँच शरीरों के समूह का अभाव होने से आत्मा निःकल अर्थात् निःशरीर है।
स.श./टी./2/223/7 सकलात्मने सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः स चासावात्मा। = कल अर्थात् शरीर के साथ जो वर्ते सो सकल कहलाता है और सकल भी हो और आत्मा भी हो वह सकलात्मा कहलाता है।
- वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है
ज्ञा./21/7/221 अयमात्मा स्वयं साक्षात्परमात्मेति निश्चयः। विशुद्धध्याननिर्धूत-कर्मेन्धनसमुत्करः। 7। = जिस समय विशुद्ध ध्यान के बल से कर्मरूपी इन्धन को भस्म कर देता है, उस समय यह आत्मा ही साक्षात् परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है। 7।
प्र.सा./त.प्र./68 स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थः। = भगवान् आत्मा स्वयमेव ही स्वपर को प्रकाशित करने में समर्थ है। (और भी देखें परमात्मा - 1.3)।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- परमात्मा सामान्य का लक्षण
- भगवान् निर्देश
- भगवान् का लक्षण
ध.13/5,5,82/346/8 ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भगः, सोऽस्यास्तीति भगवान्। = ज्ञान-धर्म के माहात्म्यों का नाम भग है, वह जिनके हैं वे भगवान् कहलाते हैं।
- भगवान् का लक्षण
- ईश्वर निर्देश
- ईश्वर का लक्षण
द्र.सं./टी./14/47/7 केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः सन्तो यस्याज्ञां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति। = केवलज्ञानादि गुण रूप ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिसके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञा का पालन करते हैं, अतः वह परमात्मा ईश्वर होता है।
स.श./टी./6/225/17 ईश्वरः इन्द्राद्यसंभविना, अन्तरङ्गबहिरङ्गेषु परमैश्वर्येण सदैव संपन्न। = इन्द्रादिक को जो असम्भव ऐसे अन्तरंग और बहिरंग परम ऐश्वर्य के द्वारा जो सदैव सम्पन्न रहता है, उसे ईश्वर कहते हैं।
- अपनी स्वतन्त्र कर्ता कारण शक्ति के कारण आत्मा ही ईश्वर है
प्र.सा./त.प्र./35 अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति...। = आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और कारणत्व की शक्तिरूप परमैश्वर्यवान् है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है...।
- ईश्वरकर्तावाद का निषेध
आप्त.प./9/§51-68/32-49 तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य। न चैतदसिद्धम्,... यत्कार्यं तद् बुद्धिमन्निमित्तकं दृष्टम्, यथा वस्त्रादि। ...नैकस्वभावेश्वरकारणकृतं विचित्रकार्यत्वात्। ...यत्र यदा यथा यत्कार्यमुत्पित्सु तत्र तदा तथा तदुत्पादनेच्छा माहेश्वरस्यैकैव तादृशी समुत्पद्यते। ... ततो नान्वयव्यतिरेकयोर्व्यापकयोरनुपलम्भोऽस्ति। = प्रश्न - ईश्वर शरीर इन्द्रिय व जगत् का निमित्त कारण है? उत्तर - नहीं, क्योंकि इनसे पृथक् कोई ईश्वर दिखाई नहीं देता। प्रश्न - वस्त्रादि की भाँति शरीरादि भी किसी बुद्धिमान के बनाये हुए होने चाहिए। उत्तर -भिन्न स्वभाववाले पदार्थ एक स्वभाववाले ईश्वर से उत्पन्न नहीं हो सकते। प्रश्न - यथावसर ईश्वर को वैसी-वैसी इच्छा उत्पन्न हो जाती हैं जो विभिन्न कार्यों को उत्पन्न करती है। उत्तर - इस प्रकार या तो सर्व जगत् में एक ही प्रकार का कार्य होता रहेगा या इच्छा के स्थान से अतिरिक्त अन्य स्थानों में कार्य का अभाव हो जायेगा। प्रश्न - ईश्वरेच्छा के साथ भिन्न क्षेत्रों में रहने-वाली विभिन्न सामग्री के मिल जाने से विभिन्न कार्यों की सिद्धि हो जायेगी? उत्तर - उपरोक्त हेतु में कोई अन्वय व्यतिरेक हेतु सिद्ध नहीं होता।
स्या.मं/6/पृ.44-56 यत्तावदुक्तं परैः ‘क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्तृकाः, कार्यत्वाद् घटवदिति’ तदयुक्तम्। ...स चायं जगन्ति सृजन् सशरीरोऽशरीरो वा स्यात्। ...प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधः। तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात् प्रमेयत्वादिवत् साधारणानैकान्तिको हेतुः। द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणम्। ...इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च। सिद्धे हि माहात्म्यविशेष तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम्। तत्सिद्धौ च माहात्म्य-विशेषसिद्धिरिति। ...अशरीरश्चेत् तदा दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यम्। ...अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यम् आकाशादिवत्। ...बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसंभावना इति नायमेकान्तः। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमूर्ध्नः, ...अथैतष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति ब्रू षे। ...तर्हि कुबिन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते। ...सर्वगतत्वमपि तस्य नौपपन्नम्। तद्धि शरीरात्मना, ज्ञानात्मना वा स्यात्। प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्त्रयस्य व्याप्तत्वाद् इतरनिर्मेयपदार्थानाश्रयानवकाशः। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता। ...स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत् साक्षाद् देहव्यापारेण निर्मिमीते, यदि वा संकल्पमात्रेण। आद्ये पक्षे एकस्यैव... कालक्षेपस्य संभवाद् बंहीयसाप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु संकल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किंचिद् दूषणमुत्पश्यामः।....... सहि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते, परमकारुणिकश्च त्वया वर्ण्यते, तत्कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटितं घटयति भुवनम् एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते। अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाशुभकर्मपे्ररितः सन् तथा करोतीति दत्तस्तर्हि स्ववशत्वाय जलाञ्जलिः। ...कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात् तर्हि कर्मणीश्वरत्वम्, ईश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति। ...स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन्, त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतत्स्वभावो वा। प्रथमविधायां जगन्निर्माणात् कदाचिदपि नोपरमेत्। तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः। एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानाद् एकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः। ...अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत् तत्स्वभावायोगाद् गगनवत्। अपि च तस्यैकान्तनितयस्वरूपत्वे सृष्टिवत् संहारोऽपि न घटते। ...एकस्वभावात् कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात्। स्वभावान्तरेण चेद् नित्यत्वहानिः। स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः। ...अथास्तु नित्यः, तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते। इच्छावशात् चेत्, ननु ता अपीच्छः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः।... कार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषयरूपात्वाद् नित्यत्वहानिः केन वार्यते। ...ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्, कारुण्याद् वा। न तावत् स्वार्थात् तस्य कृतकृत्यत्वात्। न च कारुण्यात्...। ततः प्राक् सर्गाज्जीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम्। सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्यामुपगमे तदुत्तरमितरेतराश्रयम् कारुण्येन सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यम्। इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्धयति। = प्रश्न - पृथिवी आदि बुद्धिमान् के बनाये हुए हैं, कार्य होने से घट के समान। दृश्य शरीर से? उत्तर - शरीर दीखता नहीं है। दूसरे, घास वृक्षादि को ईश्वर ने अपने शरीर से नहीं रचा है। अतः कार्य हेतुपना साधारणैकान्तिक दोष का धारक है। प्रश्न - अदृश्य शरीर से बनाये हैं। उत्तर - अदृश्य शरीर की सिद्धि से ईश्वर का माहात्म्य, तथा माहात्म्य से शरीर की सिद्धि होने के कारण तथा दोनों ही होने से अन्योन्याश्रय दोष आता है। प्रश्न - ईश्वर शरीर रहित होकर बनाता है? उत्तर - दृष्टान्त ही बाधित हो जाता है। दूसरे, शरीर रहित आकाश आदिक में कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः अशरीर ईश्वर भी कार्य कैसे कर सकता है। प्रश्न - वह अनेक है। अनेक हों तो मतभेद के कारण कोई कार्य ही न बने। उत्तर - मतभेद होने का नियम नहीं। बहुत सी चींटियाँ मिलकर बिल बनाती हैं। प्रश्न - बिल आदि का कर्ता ईश्वर है? उत्तर - तो घट-पट आदि का कर्ता भी इसे ही मानकर कुम्भकार आदि का तिरस्कार क्यों नहीं कर देते। प्रश्न - ईश्वर सर्वगत है इसलिए कर्ता है?उत्तर - शरीर से सर्वगत है या ज्ञान से?यदि शरीर से तो जगत् में और पदार्थ को ठहरने का अवकाश न होगा। शरीर व्यापार से बनाता है या संकल्प मात्र से?प्रश्न - शरीर व्यापार से। उत्तर - तब तो एक कार्य में अधिक काल लगने से सबका कर्ता नहीं हो सकता। प्रश्न - संकल्प मात्र से। उत्तर - तब सर्वगतपने की आवश्यकता नहीं है। ...परम करुणाभाव के धारक ईश्वर ने सुख-दुःख से भरे इस जगत् को क्यों बनाया। केवल सुख रूप ही क्यों नहीं बना दिया। प्रश्न - ईश्वर जीवों के अन्य जन्मों में उपार्जित कर्मों से प्रेरित होकर ऐसा करता है? उत्तर - इस प्रकार तो ईश्वर स्वाधीन न रहा। और कर्म की मुख्यता होने से हमारे मत की सिद्धि हुई। दूसरे इस प्रकार कर्मों का कर्ता ईश्वर न हुआ। ...जगत् के बनाने से उसे कभी भी विश्राम न होगा। यदि विश्राम लेगा तो उसके स्वभाव के घात का प्रसंग आयेगा। इस प्रकार कोई भी कार्य पूर्ण हुआ न कहलायेगा। प्रश्न - कर्तापना उसका स्वभाव नहीं है? उत्तर - तो फिर वह जगत् का निर्माण ही कैसे करे, दूसरे एक ही प्रकार के स्वभाव से निर्माण तथा संहार दो (विरोधी) कार्य नहीं किये जा सकते। प्रश्न - संहार करने का स्वभाव अन्य है? उत्तर - नित्यता का नाश हो जायेगा। स्वभाव भेद ही अनित्यता का लक्षण है। कभी किसी स्वभाववाला और कभी किसी स्वभाववाला होगा। निरन्तर वह क्यों नहीं बनाता। शंका - जब इच्छा नहीं रहती तब बनाना छोड़ देता है? उत्तर - इच्छा से ही कर्तापने की सिद्धि है, तो सदा इच्छा क्यों नहीं करता। दूसरे कार्यों की नानारूप उसकी इच्छाओं की भी नानारूपता को सिद्ध करती है। अतः ईश्वर अनित्य है। ईश्वर ने जगत् को किसी प्रयोजन से बनाया या करुणा से। शंका - प्रयोजन से। उत्तर - कृतकृत्यता खण्डित हो जाती है। प्रश्न - करुणाभाव से। उत्तर - दुःख अनादि नहीं है, तो ईश्वर ने उन्हें क्यों बनाया। प्रश्न - दुःख देखकर पीछे से करुणा उत्पन्न हुई? उत्तर - इससे तो इतरेतराश्रय दोष आया। करुणा से जगत् रचना और जगत् से करुणा उत्पन्न होना।
देखें सत् - 1 (सत् स्वभाव ही जगत् का कर्ता है)।
- ईश्वरवाद का लक्षण
- मिथ्या एकान्त की अपेक्षा
गो.क./मू./880 अण्णाणी हु अणासो अप्पा तस्सं य सुहं च दुक्खं च। सग्गं णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि। 800। = आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है। उस आत्मा के सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकादिक, गमनागमन सर्व ईश्वरकृत है, ऐसा मानना सो ईश्वरवाद का अर्थ है। 800। (स.सि./8/1/5 की टिप्पणी)।
- सम्यगेकान्त की अपेक्षा
स.सा./मू./322 लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणई। = लोक के मत में विष्णू करता है, वैसे ही श्रमणों के मत में आत्मा करता है।
प.प्र./मू./1/66 अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ। 66। = हे जीव! यह आत्मा पंगु के समान है, आप कहीं न जाता और न आता है, तीनों लोकों में जीव को कर्म ही ले जाता है, कर्म ही लाता है। 66।
प्र.सा./त.प्र./परि.नय.नं. 34 ईश्वरनयेन धात्रीहट्टावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्रयभोक्तृ। 34। = आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतन्त्रता भोगनेवाला है। धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति। (देखें कर्म - 3.1)।
- मिथ्या एकान्त की अपेक्षा
- वैदिक साहित्य में ईश्वरवाद
- ईश्वर के विविध रूप
- वैदिक युग के लोग सर्व प्रथम सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक पदाथो को ही अपना आराध्यदेव स्वीकार करते थे।
- आगे जाकर उनका स्थान इन्द्र, वरुण आदि देवताओं को मिला, जिन्हें कि वे एक साथ या एक-एक करके जगत् के सृष्टिकर्ता मानने लगे।
- इससे भी आगे जाकर वैदिक ऋषि ईश्वर को निश्चित रूप देने के लिए सत्-असत्, जीवन-मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दों से ईश्वर का वर्णन करने लगे।
- इससे भी आगे ब्राह्माणग्रन्थों की रचना के युग में ईश्वर के सम्बन्ध में अनेकों मनोरंजक कल्पनाएँ जागृत हुई। यथा - प्रजा-पति ने एक से अनेक होने की इच्छा की। उसके लिए उसने तप किया। जिससे क्रमशः धूप, अग्नि, प्रकाश आदि की उत्पत्ति हुई। उसी के अश्रुबिन्दु के समुद्र में गिर जाने से पृथिवी की उत्पत्ति हुई। अथवा उसके तप से ब्राहण व जल की उत्पत्ति हुई, जिससे सृष्टि बनी।
- उपनिषद् युग में कभी तो असत्, मृत्यु, क्षुधा आदि से जल, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति मानी गयी है, कहीं ब्रह्मा से, और कहीं अक्षर से सृष्टि की रचना मानी गयी है। (स्या.मं./परि.पृ. 411)
- ईश्वरवादी मत
भारतीय दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसक, सांख्य और योगदर्शन तथा वर्तमान का पाश्चात्य जगत् इस प्रकार के सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का रचयिता माना गया है। (स्या.मं./परि.ग./पृ.413)।
- ईश्वरकर्तृत्व में युक्तियाँ
इसके लिए वे लोग निम्न युक्तियाँ देते हैं -- नैयायिकों का कहना है कि सृष्टि का कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह कार्य है।
- कुछ ईश्वरवादी पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि यदि ईश्वर न होता तो उसके अस्तित्व की भावना ही हमारे हृदय में जागृत न होती।
- वैदिक जनों का कहना है कि बिना किसी सचेतन नियन्ता के सृष्टि की इतनी अद्भुत व्यवस्था सम्भव नहीं थी। अपने ऊपर आये आक्षेपों का उत्तर भी वे निम्न प्रकार देते हैं -
- कृतकृत्य होकर भी केवल करुणाबुद्धि से उसने सृष्टि की रचना की।
- प्राणियों के पुण्य-पाप के अनुसार होने के कारण वह रचना सर्वथा सुखमय नहीं हो सकती।
- शरीर रहित होते हुए भी उसने इच्छामात्र से उसकी रचना की है।
- प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से सिद्ध न होने पर भी वह शब्द प्रमाण से सिद्ध है। (स्या.मं./परि.ग./413-418)।
- ईश्वर के विविध रूप
- अन्य सम्बन्धित विषय
- ईश्वर का लक्षण
पुराणकोष से
(1) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.33, 25.110
(2) स्वयं के द्वारा स्वयं में ही लीन हो जाने वाला आत्मा । यह दो प्रकार का होता है― सकल और निकल । दिव्य देह में स्थित सकल आत्मा परमात्मा और देह रहित आत्मा निकल परमात्मा है । तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव सयोगी (सकल) और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अयोगी (निकल) परमात्मा होते हैं । महापुराण 46.215 वीरवर्द्धमान चरित्र 16.84,97