वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> वनस्पति सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> वनस्पति सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.1/1, 1/सू.41/268 <span class="PrakritText">वणप्फइकाइया दुविहा, पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा, पज्जता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा, बादरा सुहुमा । बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहुमा दुविहा, पज्जत्त अपज्जत्त चेदि ।4 ।</span> = <span class="HindiText">वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं<strong>−</strong>प्रत्येक शरीर और साधारणशरीर । प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं<strong>−</strong>पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं<strong>−</strong>बादर और सूक्ष्म । बादर दो प्रकार के हैं<strong>−</strong>पर्याप्त और अपर्याप्त । </span><br /> | ||
ष.खं | ष.खं 14/5, 6/सू.119/225 <span class="PrakritText">सरीरिसरीरपरूवणाए अत्थि जीवा पत्तेय-साधारण-सरीरा ।119 । </span>= <span class="HindiText">शरीरिशरीर प्ररूपणा की अपेक्षा जीव प्रत्येक शरीर वाले और साधारण शरीर वाले हैं । (गो.जी./जी.प्र./185/422/3) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> प्रत्येक वनस्पति सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1, 1, 41/268/6<span class="SanskritText"> प्रत्येकंपृथकृशरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः खदिरादयो वनस्पतयः ।</span> = <span class="HindiText">जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है,उन्हें प्रत्येक शरीर जीव कहते हैं जैसे<strong>−</strong>खैर आदि वनस्पति । (गो.जी./जी.प्र./85/422/4) । </span><br /> | ||
ध. | ध.3/1, 2, 87/333/1 <span class="PrakritText">जेण जीवेण एक्केण चेव एक्कसरीरट्ठिएण सुहदुखमणुभवेदव्वमिदि कम्ममुवज्जिदं सो जीवो पत्तेयसरीरो ।</span> =<span class="HindiText"> जिस जीवने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख दुःख के अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किये हैं, वह जीव प्रत्येक शरीर है । </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 119/225/4<span class="PrakritText"> एक्कस्सेव जीवस्स जं सरीरं तं पत्तेयसरीरं । तं सरीरं जं जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीरा णाम ।.... अथवा पत्तेयं पुधभूदं सरीरं जेसिं ते पत्तेयसरीरा । </span>= <span class="HindiText">एक ही जीव का जो शरीर है उसकी प्रत्येक शरीर संज्ञा है । वह शरीर जिन जीवों के हैं वे प्रत्येक शरीरजीव कहलाते हैं ।.... अथवा प्रत्येक अर्थात् पृथक् भूत शरीर जिन जीवों का है वे प्रत्येक शरीर जीव हैं । </span><br /> | ||
गो.जो./जो.प्र./ | गो.जो./जो.प्र./186/423/14 <span class="SanskritText">यावन्ति प्रत्येकशरीराणि तावन्त एव प्रत्येकवनस्पतिजीवाः तत्र प्रतिशरीरं एकैकस्य जीवस्य प्रतिज्ञानात् ।</span> = <span class="HindiText">जितने प्रत्येक शरीर हैं, उतने वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव जानने चाहिए, क्योंकि एक-एक शरीर के प्रति एक-एक जीव के होने का नियम है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रत्येक वनस्पति के भेद </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रत्येक वनस्पति के भेद </strong> </span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./128 <span class="PrakritGatha">पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति तसा वि य वि-ति चउरक्खा तहेव पञ्चक्खा ।128। </span>= <span class="HindiText">प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं<strong>−</strong>एक निगोद सहित, दूसरे निगोद रहित ।..... ।128। (गो.जी./जी.प्र./185/422/5 )। </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./81-83/201/13 <span class="SanskritText">तृणं वल्ली गुल्मः वृक्षः मूलं चेति पञ्चपि प्रत्येकवनस्पयो निगोदशरीरैः प्रतिष्ठिता-प्रतिष्ठितभेदाद्दश । </span>= <span class="HindiText">तृण, बेलि, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्ष, कन्दमूल ऐसे पाँच भेद प्रत्येक वनस्पति के हैं । ये पाँचों वनस्पतियाँ जब निगोद शरीर के आश्रित हों तो प्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती हैं, तथा निगोद से रहित हों तो अप्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती हैं । (और भी देखें [[ वनस्पति#3.5 | वनस्पति - 3.5]]) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वनस्पति के लिए ही प्रत्येक शब्द का प्रयोग है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> वनस्पति के लिए ही प्रत्येक शब्द का प्रयोग है </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1, 1, 41/268/6<span class="SanskritText"> पृथिवीकायादिपञ्चनामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेशस्तथा सति स्यादिति चेन्न इष्टत्वात् । तर्हि तेषामपि प्रत्येकशरीरविशेषणं विधातव्यमिति चेन्न, तत्र वनस्पतिष्विव व्यवच्छेद्याभावात् ।</span> =<span class="HindiText"> (जिनका पृथक् पृथक् शरीर होता है, उन्हें प्रत्येक शरीर जीव कहते हैं<strong>−</strong>देखें [[ वनस्पति ]]।1/3) = <strong>प्रश्न−</strong>प्रत्येक शरीर का इस प्रकार लक्षण करने पर पृथिवीकाय आदि पाँचों शरीरों को भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जायेगी? <strong>उत्तर−</strong>यह आशंका कोई आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथिवीकाय आदि के प्रत्येक शरीर मानना इष्ट ही है । <strong>प्रश्न−</strong>तो फिर पृथिवीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक शरीर विशेषण लगा देना चाहिए? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि जिस प्रकार वनस्पतियों में प्रत्येक वनस्पति से निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पायी जाती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्येक शरीर से भिन्न निराकरण करने योग्य कोई भेद नहीं पाया जाता है, इसलिए पृथिवी आदि में अलग विशेषण देने की आवश्यकता नहीं है । (ध.3/1-2, 7/331/4) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> मूल बीज अग्रबीज आदि के उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> मूल बीज अग्रबीज आदि के उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./186/423/4 <span class="SanskritText">मूलं बीजं येषां ते मूलबीजाः । (येषां मूलं प्रादुर्भवति ते) आर्द्रकहरिद्रादयः । अग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजाः (येषां अग्रं प्ररोहयति ते) आर्यकोदोच्यादयः । पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः इक्षुवेत्रादयः । कन्दी बीजं येषां ते कन्दबीजाः पिण्डालसूरणादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः सल्लकीकण्टकीपलादयः । बीजात् रोहन्तीति बीजरुहाः शालिगोधूमादयः । संमूर्छे समन्तात् प्रसृतपुद्गलस्कन्धे भवाः सम्मूर्छिमाः मूलादिनियतबीजनिरपेक्षाः ।... एते मूलबीजादिसंमूर्छिमपर्यन्ताः सप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरजीवास्तेऽपि संमूर्छिमा एव भवन्ति । </span>= | ||
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<li class="HindiText"> जिनका मूल | <li class="HindiText"> जिनका मूल अर्थात् जड़ ही बीज हो (जो जड़के बोने से उत्पन्न होती हैं) वे मूलबीज कही जाती हैं जैसे-अदरख, हल्दी आदि । </li> | ||
<li class="HindiText"> अग्रभाग ही जिनका बीज हो ( | <li class="HindiText"> अग्रभाग ही जिनका बीज हो (अर्थात् टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न हों) वे अग्रबीज हैं जैसे<strong>−</strong>आर्यक व उदीची आदि । </li> | ||
<li class="HindiText"> पर्व ही है बीज जिनका वे पर्वबीज जानने । जैसे<strong>−</strong>ईख, बेंत आदि । </li> | <li class="HindiText"> पर्व ही है बीज जिनका वे पर्वबीज जानने । जैसे<strong>−</strong>ईख, बेंत आदि । </li> | ||
<li class="HindiText"> जो कन्द से उत्पन्न होती हैं, वे कन्दबीजी कही जाती हैं जैसे<strong>−</strong>आलू सूरणादि ।</li> | <li class="HindiText"> जो कन्द से उत्पन्न होती हैं, वे कन्दबीजी कही जाती हैं जैसे<strong>−</strong>आलू सूरणादि ।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> प्रत्येक शरीर नामकर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> प्रत्येक शरीर नामकर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./8/11/391/8 <span class="SanskritText">शरीरनामकर्मोदयान्निर्वर्त्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारण यतो भवति तत्प्रत्येक शरीर नाम । (एकमेकमात्मानं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं प्रत्येकशरीरम्) रा.वा. ।</span> = <span class="HindiText">शरीर नामकर्मके उदय से रचा गया जो शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोगका कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है । (प्रत्येक शरीर के प्रति अर्थात् एक एक शरीर के प्रति एक एक आत्मा हो, उसको प्रत्येक शरीर कहते हैं । रा.वा.) (रा.वा./8/11/19/578/18) (गो.क./जी.प्र./33/30/2) । </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1, 9-1, 28/62/8 <span class="PrakritText">जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पत्तेयसरीरो होदि, तस्स कम्मस्स पत्तेयसरीरमिदि सण्णा । जदि पत्तेयसरीरणामकम्मं ण होज्ज, तो एक्कम्हि सरीरे एगजीवस्सेव उवलंभो ण होज्ज । ण च एवं, णिव्वाहमुवलंभा ।</span> = <span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से जीव प्रत्येक शरीरी होता है, उस कर्म की ‘प्रत्येकशरीर’ यह संज्ञा है । यदि प्रत्येक शरीर नामकर्म न हो, तो एक शरीर में एक जीव का ही उपलम्भ न होगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रत्येक शरीर जीवों का सद्भाव बाधारहित पाया जाता है । </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5, 5, 101/365/8 <span class="PrakritText">जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदि तं कम्मं पत्तेयसरीरणामं । </span>= <span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से एक शरीर में एक ही जीव जीवित रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> प्रत्येक शरीर वर्गणा का प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> प्रत्येक शरीर वर्गणा का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5, 6, 116/144/2<span class="PrakritText"> वट्टमाणकाले पत्तेयसरीरवग्गणओ उक्कस्सेण असंखेज्जलोगमेत्तीओ चेव होंति त्ति णियमादो । </span>= <span class="HindiText">वर्तमानकाल में प्रत्येक शरीर वर्गणाएँ उत्कृष्ट रूप से असंख्यात लोक प्रमाण ही होती हैं, यह नियम है । </span></li> | ||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
- वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश
- वनस्पति सामान्य के भेद
ष.खं.1/1, 1/सू.41/268 वणप्फइकाइया दुविहा, पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा, पज्जता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा, बादरा सुहुमा । बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहुमा दुविहा, पज्जत्त अपज्जत्त चेदि ।4 । = वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं−प्रत्येक शरीर और साधारणशरीर । प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं−पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं−बादर और सूक्ष्म । बादर दो प्रकार के हैं−पर्याप्त और अपर्याप्त ।
ष.खं 14/5, 6/सू.119/225 सरीरिसरीरपरूवणाए अत्थि जीवा पत्तेय-साधारण-सरीरा ।119 । = शरीरिशरीर प्ररूपणा की अपेक्षा जीव प्रत्येक शरीर वाले और साधारण शरीर वाले हैं । (गो.जी./जी.प्र./185/422/3) ।
- प्रत्येक वनस्पति सामान्य का लक्षण
ध.1/1, 1, 41/268/6 प्रत्येकंपृथकृशरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः खदिरादयो वनस्पतयः । = जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है,उन्हें प्रत्येक शरीर जीव कहते हैं जैसे−खैर आदि वनस्पति । (गो.जी./जी.प्र./85/422/4) ।
ध.3/1, 2, 87/333/1 जेण जीवेण एक्केण चेव एक्कसरीरट्ठिएण सुहदुखमणुभवेदव्वमिदि कम्ममुवज्जिदं सो जीवो पत्तेयसरीरो । = जिस जीवने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख दुःख के अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किये हैं, वह जीव प्रत्येक शरीर है ।
ध.14/5, 6, 119/225/4 एक्कस्सेव जीवस्स जं सरीरं तं पत्तेयसरीरं । तं सरीरं जं जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीरा णाम ।.... अथवा पत्तेयं पुधभूदं सरीरं जेसिं ते पत्तेयसरीरा । = एक ही जीव का जो शरीर है उसकी प्रत्येक शरीर संज्ञा है । वह शरीर जिन जीवों के हैं वे प्रत्येक शरीरजीव कहलाते हैं ।.... अथवा प्रत्येक अर्थात् पृथक् भूत शरीर जिन जीवों का है वे प्रत्येक शरीर जीव हैं ।
गो.जो./जो.प्र./186/423/14 यावन्ति प्रत्येकशरीराणि तावन्त एव प्रत्येकवनस्पतिजीवाः तत्र प्रतिशरीरं एकैकस्य जीवस्य प्रतिज्ञानात् । = जितने प्रत्येक शरीर हैं, उतने वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव जानने चाहिए, क्योंकि एक-एक शरीर के प्रति एक-एक जीव के होने का नियम है ।
- प्रत्येक वनस्पति के भेद
का.अ./मू./128 पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति तसा वि य वि-ति चउरक्खा तहेव पञ्चक्खा ।128। = प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं−एक निगोद सहित, दूसरे निगोद रहित ।..... ।128। (गो.जी./जी.प्र./185/422/5 )।
गो.जी./जी.प्र./81-83/201/13 तृणं वल्ली गुल्मः वृक्षः मूलं चेति पञ्चपि प्रत्येकवनस्पयो निगोदशरीरैः प्रतिष्ठिता-प्रतिष्ठितभेदाद्दश । = तृण, बेलि, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्ष, कन्दमूल ऐसे पाँच भेद प्रत्येक वनस्पति के हैं । ये पाँचों वनस्पतियाँ जब निगोद शरीर के आश्रित हों तो प्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती हैं, तथा निगोद से रहित हों तो अप्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती हैं । (और भी देखें वनस्पति - 3.5) ।
- वनस्पति के लिए ही प्रत्येक शब्द का प्रयोग है
ध.1/1, 1, 41/268/6 पृथिवीकायादिपञ्चनामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेशस्तथा सति स्यादिति चेन्न इष्टत्वात् । तर्हि तेषामपि प्रत्येकशरीरविशेषणं विधातव्यमिति चेन्न, तत्र वनस्पतिष्विव व्यवच्छेद्याभावात् । = (जिनका पृथक् पृथक् शरीर होता है, उन्हें प्रत्येक शरीर जीव कहते हैं−देखें वनस्पति ।1/3) = प्रश्न−प्रत्येक शरीर का इस प्रकार लक्षण करने पर पृथिवीकाय आदि पाँचों शरीरों को भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जायेगी? उत्तर−यह आशंका कोई आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथिवीकाय आदि के प्रत्येक शरीर मानना इष्ट ही है । प्रश्न−तो फिर पृथिवीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक शरीर विशेषण लगा देना चाहिए? उत्तर−नहीं, क्योंकि जिस प्रकार वनस्पतियों में प्रत्येक वनस्पति से निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पायी जाती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्येक शरीर से भिन्न निराकरण करने योग्य कोई भेद नहीं पाया जाता है, इसलिए पृथिवी आदि में अलग विशेषण देने की आवश्यकता नहीं है । (ध.3/1-2, 7/331/4) ।
- मूल बीज अग्रबीज आदि के उदाहरण
गो.जी./जी.प्र./186/423/4 मूलं बीजं येषां ते मूलबीजाः । (येषां मूलं प्रादुर्भवति ते) आर्द्रकहरिद्रादयः । अग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजाः (येषां अग्रं प्ररोहयति ते) आर्यकोदोच्यादयः । पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः इक्षुवेत्रादयः । कन्दी बीजं येषां ते कन्दबीजाः पिण्डालसूरणादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः सल्लकीकण्टकीपलादयः । बीजात् रोहन्तीति बीजरुहाः शालिगोधूमादयः । संमूर्छे समन्तात् प्रसृतपुद्गलस्कन्धे भवाः सम्मूर्छिमाः मूलादिनियतबीजनिरपेक्षाः ।... एते मूलबीजादिसंमूर्छिमपर्यन्ताः सप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरजीवास्तेऽपि संमूर्छिमा एव भवन्ति । =- जिनका मूल अर्थात् जड़ ही बीज हो (जो जड़के बोने से उत्पन्न होती हैं) वे मूलबीज कही जाती हैं जैसे-अदरख, हल्दी आदि ।
- अग्रभाग ही जिनका बीज हो (अर्थात् टहनी की कलम लगाने से वे उत्पन्न हों) वे अग्रबीज हैं जैसे−आर्यक व उदीची आदि ।
- पर्व ही है बीज जिनका वे पर्वबीज जानने । जैसे−ईख, बेंत आदि ।
- जो कन्द से उत्पन्न होती हैं, वे कन्दबीजी कही जाती हैं जैसे−आलू सूरणादि ।
- जो स्कन्ध से उत्पन्न होती हैं वे स्कन्धबीज हैं, जैसे−सलरि, पलाश आदि ।
- जो बीज से ही उत्पन्न होती हैं, वे बीजरुद्व कहलाती हैं । जैसे−चावल, गेहूँ आदि ।
- और जो नियत बीज आदि की अपेक्षा से रहित, केवल मिट्टी और जल के सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं, उनको सम्मर्छिम कहते हैं । जैसे−फूई, काई आदि ।... ये मूलादि सम्मूर्छिम वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक दोनों प्रकार की होती हैं और सबकी सब सन्मूर्छिम ही होती हैं, गर्भज नहीं ।
- प्रत्येक शरीर नामकर्म का लक्षण
स.सि./8/11/391/8 शरीरनामकर्मोदयान्निर्वर्त्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारण यतो भवति तत्प्रत्येक शरीर नाम । (एकमेकमात्मानं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं प्रत्येकशरीरम्) रा.वा. । = शरीर नामकर्मके उदय से रचा गया जो शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोगका कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है । (प्रत्येक शरीर के प्रति अर्थात् एक एक शरीर के प्रति एक एक आत्मा हो, उसको प्रत्येक शरीर कहते हैं । रा.वा.) (रा.वा./8/11/19/578/18) (गो.क./जी.प्र./33/30/2) ।
ध.6/1, 9-1, 28/62/8 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पत्तेयसरीरो होदि, तस्स कम्मस्स पत्तेयसरीरमिदि सण्णा । जदि पत्तेयसरीरणामकम्मं ण होज्ज, तो एक्कम्हि सरीरे एगजीवस्सेव उवलंभो ण होज्ज । ण च एवं, णिव्वाहमुवलंभा । = जिस कर्म के उदय से जीव प्रत्येक शरीरी होता है, उस कर्म की ‘प्रत्येकशरीर’ यह संज्ञा है । यदि प्रत्येक शरीर नामकर्म न हो, तो एक शरीर में एक जीव का ही उपलम्भ न होगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रत्येक शरीर जीवों का सद्भाव बाधारहित पाया जाता है ।
ध.13/5, 5, 101/365/8 जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदि तं कम्मं पत्तेयसरीरणामं । = जिस कर्म के उदय से एक शरीर में एक ही जीव जीवित रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है ।
- प्रत्येक शरीर वर्गणा का प्रमाण
ध.14/5, 6, 116/144/2 वट्टमाणकाले पत्तेयसरीरवग्गणओ उक्कस्सेण असंखेज्जलोगमेत्तीओ चेव होंति त्ति णियमादो । = वर्तमानकाल में प्रत्येक शरीर वर्गणाएँ उत्कृष्ट रूप से असंख्यात लोक प्रमाण ही होती हैं, यह नियम है ।
- वनस्पति सामान्य के भेद