स्त्रीप्रव्रज्या व मुक्तिनिषेध: Difference between revisions
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प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०४/१८ <span class="SanskritText">किंच यथा प्रथमसंहननाभावात्स्त्री सप्तमनरकं न गच्छति तथा निर्वाणमपि । पुवेदं वेदंता पुरिसा जे खवगसेडिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्त य ते दु सिज्झंति । इति गाथाकथितार्थभिप्रायेण भावस्त्रीणां कथं निर्वाणमिति चेत् । तासां भावस्त्रीणां प्रथमसंहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमोक्षपरिणामप्रतिबन्धकतीव्रकामोद्रेकोऽपि नास्ति । द्रव्यस्त्रीणां प्रथमसंहननं नास्तीति, कस्मान्नागमे कथितमास्त इति चेत । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>जिस प्रकार प्रथम संहनन के अभाव से स्त्री सप्तम नरक नहीं जाती है, उसी प्रकार निर्वाण को भी प्राप्त नहीं करती है । सिद्धभक्ति में कहा है कि द्रव्य से पुरुषवेद को अथवा भाव से तीनों वेदों को अनुभव करता हुआ जीव क्षपकश्रेणी पर | प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०४/१८ <span class="SanskritText">किंच यथा प्रथमसंहननाभावात्स्त्री सप्तमनरकं न गच्छति तथा निर्वाणमपि । पुवेदं वेदंता पुरिसा जे खवगसेडिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्त य ते दु सिज्झंति । इति गाथाकथितार्थभिप्रायेण भावस्त्रीणां कथं निर्वाणमिति चेत् । तासां भावस्त्रीणां प्रथमसंहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमोक्षपरिणामप्रतिबन्धकतीव्रकामोद्रेकोऽपि नास्ति । द्रव्यस्त्रीणां प्रथमसंहननं नास्तीति, कस्मान्नागमे कथितमास्त इति चेत । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>जिस प्रकार प्रथम संहनन के अभाव से स्त्री सप्तम नरक नहीं जाती है, उसी प्रकार निर्वाण को भी प्राप्त नहीं करती है । सिद्धभक्ति में कहा है कि द्रव्य से पुरुषवेद को अथवा भाव से तीनों वेदों को अनुभव करता हुआ जीव क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ ध्यान से संयुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है । इस गाथा में कहे गये अभिप्राय से भावस्त्रियों को निर्वाण कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>भावस्त्री को प्रथमसंहनन भी होता है और द्रव्य स्त्रीवेद के अभाव से उसको मोक्ष परिणाम का प्रतिबन्धक तीव्र कामोद्रेक भी नहीं होता है । परन्तु द्रव्य स्त्री को प्रथम संहनन नहीं होता, क्योंकि आगम में उसका निषेध किया है ।–देखें - [[ संहनन | संहनन । ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.9" id="7.9"> स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.9" id="7.9"> स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०५/३ <span class="SanskritText">किंतु भवन्मते मल्लितीर्थंकरः स्त्रीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थंकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्धय्यादिषोडशभावनाः पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टेः स्त्रीवेदकर्मणो बन्ध एव नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो बन्ध एवं नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो वान्यः कोऽपि वा स्त्रीभूत्वा निर्वाणं गतः तर्हि स्त्रीरूपप्रतिमाराधना किं न क्रियते भवद्भिः ।</span> = <span class="HindiText">किन्तु आपके मत में मल्लितीर्थंकर को स्त्री कहा है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि तीर्थंकर पूर्वभव में षोडशकारण भावनाओं को भाकर होते हैं । ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं करते, तब वे स्त्री कैसे बन सकते हैं । [सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते– देखें - [[ | प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०५/३ <span class="SanskritText">किंतु भवन्मते मल्लितीर्थंकरः स्त्रीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थंकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्धय्यादिषोडशभावनाः पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टेः स्त्रीवेदकर्मणो बन्ध एव नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो बन्ध एवं नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो वान्यः कोऽपि वा स्त्रीभूत्वा निर्वाणं गतः तर्हि स्त्रीरूपप्रतिमाराधना किं न क्रियते भवद्भिः ।</span> = <span class="HindiText">किन्तु आपके मत में मल्लितीर्थंकर को स्त्री कहा है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि तीर्थंकर पूर्वभव में षोडशकारण भावनाओं को भाकर होते हैं । ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं करते, तब वे स्त्री कैसे बन सकते हैं । [सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते– देखें - [[ जन्म#3 | जन्म / ३ ]]] । और भी यदि मल्लितीर्थंकर या कोई अन्य स्त्री होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ है तो आप लोग स्त्रीरूप प्रतिमा की भी आराधना क्यों नहीं करते ?<br /> | ||
देखें - [[ तीर्थंकर#2.2 | तीर्थंकर / २ / २ ]](तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध यद्यपि तीनों वेदों में होता है, पर उसका उदय एक पुरुषवेद में ही सम्भव है ।) </span></li> | देखें - [[ तीर्थंकर#2.2 | तीर्थंकर / २ / २ ]](तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध यद्यपि तीनों वेदों में होता है, पर उसका उदय एक पुरुषवेद में ही सम्भव है ।) </span></li> | ||
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Revision as of 18:16, 20 June 2020
- स्त्रीप्रव्रज्या व मुक्तिनिषेध
- स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं होता
शी.पा./मू./२९ सुणहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो । जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहिं सव्वेहिं ।२९। = श्वान, गर्दभ, गौ आदि पशु और स्त्री इनको मोक्ष होते हुए किसने देखा है । जो चौथे मोक्ष पुरुषार्थ का शोधन करता है उसको ही मुक्ति होती है ।२९।
प्र.सा./प्रक्षेपक/२२५-८/३०४ जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता । घोरं चरदि य चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ।८। = सम्यग्दर्शन से शुद्धि, सूत्र का अध्ययन तथा तपश्चरणरूप चारित्र इन कर संयुक्त भी स्त्री को कर्मों की सम्पूर्ण निर्जरा नहीं कही गयी है ।
मो.पा./टी./१२/३१३/११ स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात् । = महाव्रतों का अभाव होने से स्त्रियों को मुक्ति नहीं होती । (और भी देखें - शीर्षक नं . ४) ।
देखें - शीर्षक नं . ४ (सावरण होने के कारण उन्हें मुक्ति नहीं है ।)
देखें - मोक्ष / ४ / ५ (तीनों ही भाव लिंगों से मोक्ष सम्भव है, पर द्रव्य से केवल पुरुषवेद से ही होता है) ।
- फिर भी भवान्तर में मुक्ति की अभिलाषा से जिन दीक्षा लेती हैं
प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०५/७ यदि पूर्वोक्तदोषाः सन्तः स्त्रीणां तर्हि सीतारुक्मिणीकुन्तीद्रौपदीसुभद्राप्रभृतयो जिनदीक्षां गृहीत्वा विशिष्टतपश्चरणेन कथं षोडशस्वर्गे गता इति चेत् । परिहारमाह-तत्र दोषो नास्ति तस्मात्स्वर्गादागत्य पुरुषवेदेन मोक्षं यास्यन्त्यग्रे । तद्भवमोक्षो नास्ति भवान्तरे भवतु को दोष इति । = प्रश्न–यदि स्त्रियों के पूर्वोक्त सब दोष होते हैं (देखें - आगे के शीर्षक ) तो सीता, रुक्मिणी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सतियाँ जिनदीक्षा ग्रहण करके विशिष्ट तपश्चरण के द्वारा १६वें स्वर्ग में कैसे चली गयीं? उत्तर–इसमें कोई दोष नहीं है, इसलिए कि स्वर्ग से आकर, आगे पुरुषवेद से मोक्ष को प्राप्त करेंगी । स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं है, परन्तु भवान्तर से मोक्ष हो जाने में क्या दोष है ।
- तद्भव मुक्ति निषेध में हेतु चंचलस्वभाव
प्र.सा./मू./प्रक्षेपक गाथा/२२५-३ से ६/३०२ पइडीपमादमइया एतासिं वित्ति भासया पमदा । तम्हा ताओ पमदा पमादबहुलोत्ति णिद्दिट्ठा।३ । संति धुवं पमदाणं मोहपदासा भयं दुगुंच्छा य । चित्ते चित्त माया तम्हा तासिं ण णिव्वाणं ।४। ण विणा वट्टदि णारो एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ।५। चित्तस्सावो तासिं सित्थिल्लं अत्तवं च पक्खलणं । विज्जदि सहसा तासु.... ।६ । = स्त्रियाँ प्रमाद की मूर्ति हैं । प्रमाद की बहुलता से ही उन्हें प्रमदा कहा जाता है ।३ । उन प्रमदाओं को नित्य मोह, प्रद्वेष, भय, दुगुंछा आदिरूप परिणाम तथा चित्त में चित्र-विचित्र माया बनी रहती हैं, इसलिए उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।४। स्त्रियाँ कभी भी दोष रहित नहीं होतीं इसलिए उनका शरीर सदा वस्त्र से ढका रहता है ।५। स्त्रियों को चित्त की चंचलता व शिथिलता सदा बनी रहती है ।६। (यो.सा./अ./८/४५-४८) ।
- तद्भव मुक्ति निषेध में हेतु सचेलता
सू.पा./मू./२२ लिंगं इत्थीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि । अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भंजेइ ।२२। = स्त्री का लिंग ऐसा है–एक काल भोजन करे, एक वस्त्र धरे और भोजन करते समय भी वस्त्र को न उतारे ।
प्र.सा./मू./प्रक्षेपक/२२५-२/३०२ णिच्छयदो इत्थीणं सिद्धी ण हि जम्हा दिट्ठा । तम्हा तप्पडिरूवं वियप्पियं लिंग-मित्थीणं ।२। = क्योंकि स्त्रियों को निश्चय से उसी जन्म से सिद्धि नहीं कही गयी है, इसलिए स्त्रियों का लिंग सावरण कहा गया है ।२ । (यो.सा./अ./८/४४) ।
देखें - मो ./४/५- (सग्रन्थ लिंग से मुक्ति सम्भव नहीं)
ध.१/१, १, ९३/३३३/१ अस्मादेवार्षांद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धय्येदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्तेः । भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत्, न तासां भावसंयमोऽस्ति भावसंयमाविनाभाविवस्त्राद्युपादानान्यथानुपपत्तेः । = प्रश्न–इसी आगम से (मनुष्यणियों में संयत गुणस्थान के प्रतिपादक सूत्र नं.९३ से) द्रव्य स्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायेगा? उत्तर–नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होने से उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती । प्रश्न–वस्त्र सहित होते हुए भी उन द्रव्यस्त्रियों के भावसंयम के होने में कोई विरोध नहीं आना चाहिए? उत्तर–उनके भावसंयम नहीं है, क्योंकि अन्यथा अर्थात् भावसंयम के मानने पर, उनके भाव असंयमका अविनाभावी वस्त्र आदि का ग्रहण करना नहीं बन सकता है ।
ध.११/४, २, ६, १२/११४/११ ण च दव्वत्थीणं णिग्गंत्थत्तमत्थि, चेलादिपरिच्चाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो । ण च दव्वत्थिणवंसयवेदेणं चेलादिचागो अत्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादी । = द्रव्य स्त्रियों के निर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्त्रादि परित्याग के बिना उनके भावनिर्ग्रन्थता का अभाव है । द्रव्य स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी वस्त्रादि का त्याग करके निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर सकते हैं, ऐसी आशंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर छेदसूत्र के साथ विरोध होता है ।
- आर्यिका को महाव्रती कैसे कहते हो
प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/२२५-८/३०४/२४ अथ मतंयदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम् । परिहारमाहतदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम् । न चोपचारः साक्षाद्भवितुमर्हति.... । किंतु यदि तद्भवे मोक्षो भवति स्त्रीणां तर्हि शतवर्षदीक्षिताया अर्जिकाया अद्यदिने दीक्षितः साधुः कथं वन्द्यो भवति । सैव प्रथमतः किं न वन्द्या भवति साधोः । = प्रश्न–यदि स्त्री को मोक्ष नहीं होता तो आर्यिकाओं को महाव्रतों का आरोप किसलिए किया जाता है । उत्तर–साधुसंघ की व्यवस्थामात्र के लिए उपचार से वे महाव्रत कहे जाते हैं और उपचार में साक्षात् होने की सामर्थ्य नहीं है । किन्तु यदि तद्भव से स्त्री मोक्ष गयी होती तो १०० वर्ष की दीक्षिता आर्यिका के द्वारा आज का नवदीक्षित साधु वन्द्य कैसे होता । वह आर्यिका ही पहिले उस साधु की वन्द्या क्यों न होती । (मो.पा./टी./१२ /३१३/१८); (और भी देखें - आहारक / ४ / ३ ; वेद/३/४ गो.जी.) ।
- फिर मनुष्यणी को १४ गुणस्थान कैसे कहे गये
ध.१/१, १, ९३/३३३/४ कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेन्न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । भाववेदो बादरकषायान्नोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थानां संभव इति चेन्न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना न साराद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेन्न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तदृय्यपदेशमादधान-मनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न–तो फिर ‘स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन कैसे बन सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि भावस्त्री में अर्थात् स्त्री वेदयुक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । प्रश्न–बादर कषाय गुणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है, इसलिए भाववेद में १४ गुणस्थानों का सद्भाव नहीं हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि यहाँ पर वेद की प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है और वह पहिले नष्ट नहीं होती है । प्रश्न–यद्यपि मनुष्यगति में १४ गुणस्थान सम्भव हैं, फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हो सकते? उत्तर–नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्य गति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है ।
- स्त्री के सवस्त्र लिंग में हेतु
प्र.सा./मू./प्रक्षेपक गाथा/२२५/५-९ ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि सउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ।५ ।...अत्तवंच पक्खलणं । विज्जदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआणं ।६। लिंगं हि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकखपदेसेसु । भणिदो सुहुमुप्पदो तासिं कह संजमो होदि ।७। तम्हा तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिदिट्ठं ।९। =- स्त्रियाँ कभी दोष के बिना नहीं रहतीं इसीलिए उनका शरीर वस्त्र से ढका रहता है और विरक्त अवस्था में वस्त्रसहित लिंग धारण करने का ही उपदेश है ।५ । (यो. सा./अ./८/४७) ।
- प्रतिमास चित्तशुद्धि विनाशक रक्त स्रवण होता है ।६। (यो.सा./अ./८/४८); ( देखें - शुक्लध्यान / ३ / ५ ) ।
- शरीर में बहुत-से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है ।६। उनके काँख, योनि और स्तन आदि अवयवों में बहुत-से सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए उनके पूर्ण संयम नहीं फल सकता ।७। (सू.पा./मू./२४); (यो.सा./अ./८/४८-४९) । (मो.पा./टी./१२ /३१३/१२) ।
- इसलिए जिनेन्द्र भगवान् ने स्त्रियों के लिए सावरण लिंग का निर्देश किया है ।
- मुक्ति निषेध में हेतु उत्तम संहननादिक का अभाव
प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०४/१८ किंच यथा प्रथमसंहननाभावात्स्त्री सप्तमनरकं न गच्छति तथा निर्वाणमपि । पुवेदं वेदंता पुरिसा जे खवगसेडिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्त य ते दु सिज्झंति । इति गाथाकथितार्थभिप्रायेण भावस्त्रीणां कथं निर्वाणमिति चेत् । तासां भावस्त्रीणां प्रथमसंहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमोक्षपरिणामप्रतिबन्धकतीव्रकामोद्रेकोऽपि नास्ति । द्रव्यस्त्रीणां प्रथमसंहननं नास्तीति, कस्मान्नागमे कथितमास्त इति चेत । = प्रश्न–जिस प्रकार प्रथम संहनन के अभाव से स्त्री सप्तम नरक नहीं जाती है, उसी प्रकार निर्वाण को भी प्राप्त नहीं करती है । सिद्धभक्ति में कहा है कि द्रव्य से पुरुषवेद को अथवा भाव से तीनों वेदों को अनुभव करता हुआ जीव क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ ध्यान से संयुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है । इस गाथा में कहे गये अभिप्राय से भावस्त्रियों को निर्वाण कैसे हो सकता है? उत्तर–भावस्त्री को प्रथमसंहनन भी होता है और द्रव्य स्त्रीवेद के अभाव से उसको मोक्ष परिणाम का प्रतिबन्धक तीव्र कामोद्रेक भी नहीं होता है । परन्तु द्रव्य स्त्री को प्रथम संहनन नहीं होता, क्योंकि आगम में उसका निषेध किया है ।–देखें - संहनन ।
- स्त्री को तीर्थंकर कहना युक्त नहीं
प्र.सा./ता.वृ./प्रक्षेपक २२५-८/३०५/३ किंतु भवन्मते मल्लितीर्थंकरः स्त्रीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थंकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्धय्यादिषोडशभावनाः पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टेः स्त्रीवेदकर्मणो बन्ध एव नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो बन्ध एवं नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो वान्यः कोऽपि वा स्त्रीभूत्वा निर्वाणं गतः तर्हि स्त्रीरूपप्रतिमाराधना किं न क्रियते भवद्भिः । = किन्तु आपके मत में मल्लितीर्थंकर को स्त्री कहा है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि तीर्थंकर पूर्वभव में षोडशकारण भावनाओं को भाकर होते हैं । ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं करते, तब वे स्त्री कैसे बन सकते हैं । [सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते– देखें - जन्म / ३ ] । और भी यदि मल्लितीर्थंकर या कोई अन्य स्त्री होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ है तो आप लोग स्त्रीरूप प्रतिमा की भी आराधना क्यों नहीं करते ?
देखें - तीर्थंकर / २ / २ (तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध यद्यपि तीनों वेदों में होता है, पर उसका उदय एक पुरुषवेद में ही सम्भव है ।)
- स्त्री को तद्भव से मोक्ष नहीं होता