केवलज्ञान का स्वपर-प्रकाशकपना: Difference between revisions
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- केवलज्ञान का स्वपर-प्रकाशकपना
- निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है
नि.सा./मू./ १५९ जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।१५९।=व्यवहार नय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं; निश्चयनय से केवलज्ञानी आत्मा को जानता है और देखता है। (प.प्र./टी./१/५२/५०/८ और भी देखें - श्रुतकेवली / ३ )
प.प्र./मू./१/५ ते पुणु बंदउँ सिद्धगण जे अप्पाणि वसंत/लोयलोउ वि सयलु इहु अच्छहिं विमलु णियंत।५।=मैं उन सिद्धों को वन्दता हूँ, जो निश्चय करके अपने स्वरूप में तिष्ठते हैं और व्यवहार नयकरि लोकालोक को संशयरहित प्रत्यक्ष देखते हुए ठहर रहे हैं।
- निश्चय से पर को न जानने का तात्पर्य उपयोग का पर के साथ तन्मय न होना है
प्र.सा./त.प्र./५२/क.४ जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भावि भूतं समस्तं, मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा। तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकार त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्ति:।४।=जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत् और वर्तमान समस्त विश्व को एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिए अब, जिसके (समस्त) ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित, ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
प्र.सा./त.प्र./३२ अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य समस्तमेव नि:शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते। अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभाषितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम:....विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव।=यह आत्मा स्वभाव से ही परद्रव्यों के ग्रहण-त्याग का तथा परद्रव्यरूप से परिणमित होने का अभाव होने से स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूप से परिणमित होकर, नि:शेषरूप से परिपूर्ण आत्मा को आत्मा से आत्मा में संचेतता जानता अनुभव करता है। अथवा एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से ज्ञप्तिपरिवर्तन का अभाव होने से जिसके ग्रहणत्यागरूप क्रिया विराम को प्राप्त हुई है, सर्वप्रकार से अशेष विश्व को देखता जानता ही है। इस प्रकार उसका अत्यन्त भिन्नत्व ही है। भावार्थ–केवली भगवान् सर्वात्म प्रदेशों से अपने को ही अनुभव करते रहते हैं, इस प्रकार वे परद्रव्यों से सर्वथा भिन्न हैं। अथवा केवली भगवान् को सर्वपदार्थों का युगपत् ज्ञान होता है। उनका ज्ञान एक ज्ञेय को छोड़कर किसी अन्य विवक्षित ज्ञेयाकार को जानने के लिए भी नहीं जाता है, इस प्रकार भी वे पर से सर्वथा भिन्न हैं।
प्र.सा./ता.वृ./३७/५०/१६ अयं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण जानाति न च तन्मयत्वेन, निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेवस्वसंवित्त्याकारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति।=यह केवली भगवान् परद्रव्य व उनकी पर्यायों को परिच्छित्ति (प्रतिभास) मात्र से जानते हैं; तन्मयरूप से नहीं। परन्तु निश्चय से तो वे केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत स्वकीय सिद्धपर्याय को ही स्वसंवित्तिरूप आकार से अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञान से तन्मय होकर जानता है या अनुभव करता है।
स.सा./ता.वृ./३५६-३६५ श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन ज्ञानात्मा घटपटादिज्ञेयपदार्थस्य निश्चयेन ज्ञायको न भवति तन्मयो न भवतीत्यर्थ: तर्हि किं भवति। ज्ञायको ज्ञायक एव स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थ:। ...तथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परद्रव्यं घटादिकं ज्ञेयं वस्तुव्यवहारेण जानाति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति।=जिस प्रकार खड़िया दीवार रूप नहीं होती बल्कि दीवार के बाह्य भाग में ही ठहरती है इसी प्रकार ज्ञानात्मा घट पट आदि ज्ञेयपदार्थों का निश्चय से ज्ञायक नहीं होता अर्थात् उनके साथ तन्मय नहीं होता, ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। जिस प्रकार खड़िया दीवार से तन्मय न होकर भी उसे श्वेत करती है, इसी प्रकार वह ज्ञानात्मा घट पट आदि परद्रव्यरूप ज्ञेयवस्तुओं को व्यवहार से जानता है पर उनके साथ तन्मय नहीं होता।
प.प्र./टी./१/५२/५०/१० कश्चिदाह। यदि व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं, न च निश्चयनयेनेति। परिहारमाह–यथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति, तेन कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं जानाति तर्हि परकीयसुखदु:खरागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दु:खी रागी द्वेषी च स्यादिति महद्दूषणं प्राप्नोतीति।=प्रश्न–यदि केवली भगवान् व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं तो व्यवहारनय से ही उन्हें सर्वज्ञत्व भी होओ परन्तु निश्चयनय से नहीं ? उत्तर–जिस प्रकार तन्मय होकर स्वकीय आत्मा को जानते हैं उसी प्रकार परद्रव्य को तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण व्यवहार कहा गया है, न कि उनके परिज्ञान का ही अभाव होने के कारण। यदि स्वद्रव्य की भाँति परद्रव्य को भी निश्चय से तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख व दुःख को जानने से स्वयं सुखी दुःखी और परकीय रागद्वेष को जानने से स्वयं रागी द्वेषी हो गये होते। और इस प्रकार महत् दूषण प्राप्त होता है। (प.प्र./टी./१/५/११) और भी देखें - मोक्ष / ६ व हिंसा/४/५ में भी इसी प्रकार का शंका-समाधान)।
- आत्मा ज्ञेय के साथ नहीं; पर ज्ञेयाकार के साथ तन्मय होता है
रा.वा./१/१०/१०/५०/१९ यदि यथा बाह्यप्रमेयाकारात् प्रमाणमन्यत् तथाभ्यन्तरप्रमेयाकारादप्यन्यत् स्यात्, अनवस्थास्य स्यात् ।१०।...स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि । संज्ञालक्षणादिभेदात् स्यादन्यत्वम्, व्यतिरेकेणानुपलब्धे: स्यादनन्यत्वमित्यादि।१३।=जिस प्रकार बाह्य प्रमेयाकारों से प्रमाण जुदा है, उसी तरह यदि अन्तरंग प्रमेयाकार से भी वह जुदा हो तब तो अनवस्था दोष आना ठीक है, परन्तु इनमें तो कथंचित् अन्यत्व और कथंचित् अनन्यत्व है। संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षा अन्यत्व है और पृथक् पृथक् रूप से अनुपलब्धि होने के कारण इनमें अनन्यत्व है। (प्र.सा./त.प्र./३६)।
प्र.सा./त.प्र./२९,३१ यथा चक्षु रूपिद्रव्याणि स्वप्रदेशैरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात्कुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति। पश्यति च, एवमात्मापि....ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्ट:....समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव कलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च। एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति।२९।...यदि खलु...सर्वेऽर्था न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत। अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तर्हि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीर्णप्रमिबिम्बस्थानीयस्वसंवेद्याकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते।=जिस प्रकार चक्षु रूपीद्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (उन्हें जानता देखता है), तथा ज्ञेयाकारों को आत्मसात्कार करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिए अप्रविष्ट रहकर (उनको जानता देखता है), तथा वस्तुओं में वर्तते हुए समस्त ज्ञेयाकारों को मानो मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लिया हो, ऐसे अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है। इस प्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्मा के पदार्थ में अप्रवेश की भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है।२९। यदि समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हों तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जाता। और यदि वह सर्वगत माना जाय तो फिर साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिका में अवतरित बिम्ब की भाँति अपने अपने ज्ञेयाकारों के कारण (होने से), और परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान ज्ञेयाकारों के कारण होने से पदार्थ कैसे ज्ञानस्थित निश्चित नहीं होते।३१। (प्र.सा./त.प्र./३६) (प्र.सा./पं.जयचन्द/१७४)
- आत्मा ज्ञेयरूप नहीं, पर ज्ञेय के आकार रूप अवश्य परिणमन करता है
स.सा./आ./४९ सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाच्चारस:।=(उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रस के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रस रूप परिणमित नहीं होता, इसलिए (आत्मा) अरस है।
- ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार का अर्थ
रा.वा./१/६/५/३४/२९ अथवा, चैतन्यशक्तेर्द्वावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च। अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकार:, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकार:।=चैतन्य शक्ति के दो आकार हैं ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार। तहां प्रतिबिम्बशून्य दर्पणतलवत् तो ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पणतलवत् ज्ञेयाकार है।
- वास्तव में ज्ञेयाकारों से प्रतिबिम्बित निजात्मा को देखते हैं
रा.वा./१/१२/१५/५६/२३ अथ द्रव्यसिद्धिर्माभूदिति ‘आकार एव न ज्ञानम्’ इति कल्प्यते; एवं सति कस्य ते आकारा इति तेषामप्यभाव: स्यात् ।=यदि (बौद्ध लोग) अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धि के भय से केवल आकार ही आकार मानते हैं, पर ज्ञान नहीं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं, क्योंकि निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते हैं। ज्ञान का अभाव होने से आकारों का भी अभाव हो जायेगा।
ध. १३/५,५,८४/३५३/२ अशेषबाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिन: सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्त्यभावादित्युक्ते आह—‘पस्सदि’ त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति। =केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थों का ज्ञान होने पर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदन का अभाव है; ऐसी आशंका के होने पर सूत्र में ‘पश्यति’ कहा है। अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित आत्मा को भी देखते हैं।
प्र.सा./त.प्र./४९ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव। ज्ञानं तु प्रत्यात्मवर्ति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि। ते च सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धना:। अथ य: ...प्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्षं न करोति स कथं...सर्वद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् ।...एवं च सति ज्ञानमयत्वेन स्वसंचेतकत्वादात्मानो ज्ञातृज्ञेययोर्वस्तुत्वे नान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयो: स्वस्यामवस्थायामन्योन्यसंबलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव प्रतिभाति। यद्येवं न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात् परिपूर्णस्यैकस्यात्मनोऽपि ज्ञान न सिद्धयेत् ।=पहिले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मा में वर्तता हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है; वह प्रतिभास अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाला है और उन विशेषों के निमित्त सर्व द्रव्यपर्याय हैं। अब जो पुरुष उस प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता वह सर्वद्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा? अत: जो आत्मा को नहीं जानता व सबको नहीं जानता। आत्मा ज्ञानमयता के कारण संचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी, प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण, उन्हें (ज्ञान व ज्ञेयाकार को) भिन्न करना अत्यन्त अशक्य है इसलिए, मानो सब कुछ आत्मा में प्रविष्ट हो गया हो इस प्रकार प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान के परिपूर्ण आत्मसंचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध न हो। (प्र.सा./त.प्र./४८), (प्र.सा./ता.वृ./३५), (पं.ध./पू./६७३)
स.सा./परिशिष्ट/क२५१ ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति।...।२५१।=ज्ञेयाकारों को धोकर चेतन को एकाकार करने की इच्छा से अज्ञानीजन वास्तव में ज्ञान को ही नहीं चाहता। ज्ञानी तो विचित्र होने पर भी ज्ञान को प्रक्षालित ही अनुभव करता है।
- ज्ञेयाकार में ज्ञेय का उपचार करके ज्ञेय को जाना कहा जाता है
प्र.सा./त.प्र./३० यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमाने, तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात्...समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्यं वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमान न विप्रतिषिध्यते।=जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनीलरत्न अपने प्रभावसमूह से दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार संवेदन (ज्ञान) भी आत्मा से अभिन्न होने से समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता, कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है;(स.सा./पं.जयचन्द/६)
स.सा./ता.वृ./२६८ घटाकारपरिणतं ज्ञानं घट इत्युपचारेणोच्यते। =घटाकार परिणत ज्ञान को ही उपचार से घट कहते हैं।
- छद्मस्थ भी निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है
प्र.सा८/ता.वृ./३९/५२/१६ यथायं केवली परकीयद्रव्यपर्यायान् यद्यपि परिच्छित्तिमात्रेण जानाति तथापि निश्चयनयेन सहजानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छित्तिं करोति, तथा निर्मलविवेकिजनोऽपि यद्यपि व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम् ।=जिस प्रकार केवली भगवान् परकीय द्रव्यपर्यायों को यद्यपि परिच्छित्तिमात्ररूप से जानते हैं तथापि निश्चयनय से सहजानन्दरूप एकस्वभावी शुद्धात्मा में ही तन्मय होकर परिच्छित्ति करते हैं, उसी प्रकार निर्मल विवेकीजन भी यद्यपि व्यवहार से परकीय द्रव्यगुण पर्यायों का ज्ञान करता है परन्तु निश्चय से निर्विकार स्वसंवेदन पर्याय में ही तद्विषयक पर्याय का ही ज्ञान करता है।
- केवलज्ञान के स्व–पर प्रकाशकपने का समन्वय
नि.सा./मू./१६६-१७२ अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जह कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।१६६। मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमर्णिदियं होइ।१६७। पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स।१६८। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जो केइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।१६९। णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणइ अप्पगं अप्पा। अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं।१७०। अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि।१७१। जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।१७२।=प्रश्न—केवली भगवान् आत्मस्वरूप को देखते हैं लोकालोक को नहीं, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे क्या दोष है?।१६६। उत्तर—मूर्त, अमूर्त, चेतन व अचेतन द्रव्यों को स्व को तथा समस्त को देखने वाले को ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अनिश्चय कहलाता है। विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार नहीं देखता उसकी दृष्टि परोक्ष है।१६७-१६८। प्रश्न—(तो फिर) केवली भगवान् लोकालोक को जानते हैं आत्मा को नहीं ऐसा यदि कहें तो क्या दोष है।१६९। उत्तर—ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से पृथक् सिद्ध हो। इसलिए तू आत्मा को ज्ञान जान और ज्ञान को आत्मा जान। इसमें तनिक भी सन्देह न कर। इसलिए ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी (ऐसा निश्चय कर)–(और भी देखें - दर्शन / २ / ६ )१७०-१७१। प्रश्न—(पर को जानने से तो केवली भगवान् को बन्ध होने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि ऐसा होने से वे स्वभाव में स्थित न रह सकेंगे)? उत्तर—केवली का जानना देखना क्योंकि इच्छापूर्वक नहीं होता है, (स्वाभाविक होता है) इसलिए उस जानने देखने से उन्हें बन्ध नहीं है।१७२।
नि.सा./ता.वृ./गा. स भगवान्...सच्चिदानन्दमयमात्मानं निश्चयत: पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षयाय: कोऽपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति।१६६। पराश्रितो व्यवहार इति मानाद् व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति (लोकालोकं जानाति) यदि व्यवहारनयविवक्षया कोऽपि जिननाथतत्त्वविचारलब्ध: कदाचिदेवं वक्ति चेत् तस्य न खलु दूषणमिति।१६९। केवलज्ञानदर्शनाभ्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयं एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान् परमेश्वर: परम, भट्टारक; पराश्रितो व्यवहार: इति वचनात् । शुद्धनिश्चयत:...निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च।...किं कृत्वा, ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् ।...आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परंज्योति:स्वरूपत्वात् स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति।...अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येति सततनिरुपरागनिरञ्जनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय: इति वचनात् । सहजज्ञानं तावदात्मन: सकाशात् संज्ञालक्षणप्रयोजनेन...भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अत: कारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति।१५९।=वह भगवान् आत्मा को निश्चय से देखते हैं’’ शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा से यदि शुद्ध अन्तस्तत्त्व का वेदन करने वाला अर्थात् ध्यानस्थ पुरुष या परम जिनयोगीश्वर कहें तो उनको कोई दूषण नहीं है।१६६। और व्यवहारनय क्योंकि पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनय से व्यवहार या भेद की प्रधानता होने के कारण ‘शुद्धात्मरूप को नहीं जानते, लोकालोक को जानते हैं’ ऐसा यदि कोई जिननाथतत्त्व का विचार करने वाला अर्थात् विकल्पस्थित पुरुष व्यवहारनय की विवक्षा से कहे तो उसे भी कोई दूषण नहीं है।१६९। अर्थात् विवक्षावश दोनों ही बातें ठीक हैं। (अब दूसरे प्रकार से भी आत्मा का स्वपरप्रकाशकत्व दर्शाते हैं, तहाँ व्यवहार से तथा निश्चय से दोनों अपेक्षाओं से ही ज्ञान को व आत्मा को स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया है) सो कैसे—केवलज्ञान व केवलदर्शन से व्यवहारनय की अपेक्षा वह भगवान् तीनों जगत् को एक समय में जानते हैं, क्योंकि व्यवहारनय पराश्रित कथन करता है। और शुद्धनिश्चयनय से निज कारण परमात्मा व कार्य परमात्मा को देखते व जानते हैं (क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित कथन करता है। दीपकवत् स्वपरप्रकाशकपना ज्ञान का धर्म है।१६९।=इसी प्रकार आत्मा भी व्यवहारनय से जगत्त्रय कालत्रय को और परंज्योति स्वरूप होने के कारण (निश्चय से) स्वयं प्रकाशात्मक आत्मा को भी जानता है।१५९। निश्चयनय के पक्ष में भी ज्ञान के स्वपरप्रकाशकपना है। (निश्चय नय से) वह सतत निरुपराग निरंजन स्वभाव में अवस्थित है, क्योंकि निश्चय नय स्वाश्रित कथन करता है। सहज ज्ञान संज्ञा, लक्षण व प्रयोजन की अपेक्षा आत्मा से कथंचित् भिन्न है, वस्तुवृत्ति रूप से नहीं। इसलिए वह उस आत्मगत दर्शन, सुख, चारित्रादि गुणों को जानता है, और स्वात्मा को भी कारण परमात्मस्वरूप जानता है। (इस प्रकार स्व पर दोनों को जानता है।) (और भी देखें - दर्शन / २ / ६ ) (और भी देखो नय/V/७/१) तथा (नय/V/९/४)।
- निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानता है