धर्म: Difference between revisions
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<ol> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<li><span class="HindiText"> (म.पु./ | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> (म.पु./ | <li><span class="HindiText"> (म.पु./59/श्लोक नं.) पूर्वभव नं.2 में भरतक्षेत्र के कुणालदेश में श्रावस्ती नगरी का राजा था।72। पूर्वभव नं.1 में लान्तव स्वर्ग में देव हुआ।85। और वहां से चयकर वर्तमानभव में तृतीय बलभद्र हुए।–देखें [[ शलाकापुरुष#3 | शलाकापुरुष - 3]]। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> (म.पु./17/श्लोक नं.) यह एक देव था। कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवों के भस्म किये जाने का षड्यन्त्र जानकर उनके रक्षणार्थ आया था।156-162। उसने द्रौपदी का तो वहां से हरण कर लिया और पाण्डवों को सरोवर के जल से मूर्च्छित कर दिया। कृत्याविद्या के आने पर भील का रूप बना पाण्डवों के शरीरों को मृत बताकर उसे धोके में डाल दिया। विद्या ने वहां से लौटकर क्रोध से अपने साधकों को ही मार दिया। अन्त में वह देव पाण्डवों को सचेत करके अपने स्थान पर चला गया।163-225।<br /> | |||
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<p><span class="HindiText">धर्म नाम | <p><span class="HindiText">धर्म नाम स्वभाव का है। जीव का स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नहीं। अत: वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है, या कारण में कार्य का उपचार करके, जिस अनुष्ठान विशेष से उस आनन्द की प्राप्ति हो उसे भी धर्म कहते हैं। वह दो प्रकार का है–एक बाह्य दूसरा अन्तरंग। बाह्य अनुष्ठान तो पूजा, दान, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि करना है और अन्तरंग अनुष्ठान साम्यता व वीतरागभाव में स्थिति की अधिकाधिक साधना करना है। तहां बाह्य अनुष्ठान को व्यवहारधर्म कहते हैं और अन्तरंग को निश्चयधर्म। तहां निश्चयधर्म तो साक्षात् समता स्वरूप होने के कारण वास्तविक है और व्यवहार धर्म उसका कारण होने से औपचारिक। निश्चयधर्म तो सम्यक्त्व सहित ही होता है, पर व्यवहार धर्म सम्यक्त्व सहित भी होता है और उससे रहित भी। उनमें से पहला तो निश्चयधर्म से बिलकुल अस्पृष्ट रहता है और दूसरा निश्चयधर्म के अंश सहित होता है। पहला कृत्रिम है और दूसरा स्वाभाविक। पहला तो साम्यता के अभिप्राय से न होकर पुण्य आदि के अभिप्रायों से होता है और दूसरा केवल उपयोग को बाह्य विषयों से रक्षा के लिए होता है। पहले में कृत्रिम उपायों से बाह्य विषयों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराना इष्ट है और दूसरे में वह अरुचि स्वाभाविक होती है। इसलिए पहला धर्म बाह्य से भीतर की ओर जाता है जबकि दूसरा भीतर से बाहर की ओर निकलता है। इसलिए पहला तो आनन्द प्राप्ति के प्रति अकिंचित्कर रहता है और दूसरा उसका परम्परा साधन होता है, क्योंकि वह साधक को धीरे-धीरे भूमिकानुसार साम्यता के प्रति अधिकाधिक झुकाता हुआ अन्त में परम लक्ष्य के साथ घुल-मिलकर अपनी सत्ता खो देता है। पहला व्यवहार धर्म भी कदाचित् निश्चयधर्मरूप साम्यता का साधक हो सकता है, परन्तु तभी जबकि अन्य सब प्रयोजनों को छोड़कर मात्र साम्यता की प्राप्ति के लिए किया जाये तो। निश्चय सापेक्ष व्यवहारधर्म भी साधक की भूमिकानुसार दो प्रकार का होता है–एक सागार दूसरा अनगार। सागारधर्म गृहस्थ या श्रावक के लिए है और अनगारधर्म साधु के लिए। पहले में विकल्प अधिक होने के कारण निश्चय का अंश अत्यंत अल्प होता है और दूसरे में साम्यता की वृद्धि हो जाने के कारण वह अंश अधिक होता है। अत: पहले में निश्चय धर्म अप्रधान और दूसरे में वह प्रधान होता है। निश्चयधर्म अथवा निश्चयसापेक्ष व्यवहार धर्म दोनों में ही यथायोग्य क्षमा, मार्दव आदि दस लक्षण प्रकट होते हैं, जिसके कारण कि धर्म को दसलक्षण धर्म अथवा दशविध धर्म कह दिया जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">संसार से रक्षा करे या | <li><span class="HindiText">संसार से रक्षा करे या स्वभाव में धारण करे सो धर्म।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि।<br /> | <li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> स्वभाव गुण आदि के अर्थ में धर्म–देखें [[ स्वभाव#1 | स्वभाव - 1]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण | <li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण उत्तमक्षमादि।–देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण | <li><span class="HindiText"> धर्म का लक्षण रत्नत्रय।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> भेदाभेद | <li><span class="HindiText"> भेदाभेद रत्नत्रय–देखें [[ मोक्षमार्ग ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म के लक्षण।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म व शुभोपयोग।–देखें [[ उपयोग#II.4 | उपयोग - II.4]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म व पुण्य।–देखें [[ पुण्य ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चय धर्म का लक्षण।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> शुद्धात्मपरिणति।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म के अपरनाम धर्म के भेद।–देखें [[ मोक्षमार्ग ]]/2/5।<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> सागार व अनगार | <li><span class="HindiText"> सागार व अनगार धर्म।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> धर्म में | <li><span class="HindiText"><strong> धर्म में सम्यग्दर्शन का स्थान</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> मोक्षमार्ग में | <li><span class="HindiText"> मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन प्रधान है।–देखें [[ सम्यग्द#0.I.5 | सम्यग्द - 0.I.5]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText"> धर्म | <li><span class="HindiText"> धर्म सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सच्चा व्यवहार धर्म सम्यग्दृष्टि को ही होता है।–देखें [[ भक्ति ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक्त्वयुक्त ही धर्म मोक्ष का कारण है रहित नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक्त्व रहित क्रियाएं वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थ से अधर्म व पाप है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक्त्वरहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> धर्म के श्रद्धान का | <li><span class="HindiText"> धर्म के श्रद्धान का सम्यग्दर्शन में स्थान।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#II.1 | सम्यग्दर्शन - II.1]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> निश्चय धर्म की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म ही भूतार्थ है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> शुभ-अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही | <li><span class="HindiText"> शुभ-अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक धर्म है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> धर्म | <li><span class="HindiText"> धर्म वास्तव में एक है, उसके भेद, प्रयोजन वश किये गये हैं।–देखें [[ मोक्षमार्ग ]]/4।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
Line 112: | Line 113: | ||
<li><span class="HindiText"> एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं।<br /> | <li><span class="HindiText"> एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म की व्याप्ति व्यवहार धर्म के साथ है, पर व्यवहार की निश्चय के साथ नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चय रहित व्यवहार धर्म से शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चय धर्म का माहात्म्य।<br /> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि | <li><span class="HindiText"> यदि निश्चय ही धर्म है तो सांख्यादि मतों को मिथ्या क्यों कहते हो।–देखें [[ मोक्षमार्ग ]]/1/3।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> व्यवहार धर्म की कथंचित् गौणता</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहाररत जीव परमार्थ को नहीं जानते।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म में रुचि करना मिथ्यात्व है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध, अग्नि व दु:खस्वरूप है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म परमार्थ से मोह व पापरूप है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म में कथंचित् सावद्यपना।–देखें [[ सावद्य ]]।<br /> | ||
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</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म अकिंचित्कर है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म कथंचित् विरुद्धकार्य (बन्ध) को करने वाला है।–देखें [[ चारित्र#5.5 | चारित्र - 5.5]]; (धर्म/7)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ़।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार को धर्म कहना उपचार है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> व्यवहारधर्म की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म निश्चय का साधन है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म की कथंचित् इष्टता।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> अन्य के प्रति व्यक्ति का कर्त्तव्य अकर्त्तव्य।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार धर्म का महत्त्व।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> निश्चय व व्यवहार धर्म समन्वय</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म की प्रधानता का कारण।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि | <li><span class="HindiText"> यदि व्यवहारधर्म हेय है तो सम्यग्दृष्टि क्यों करता है।–देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म निषेध का कारण।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म निषेध का प्रयोजन।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म के त्याग का उपाय व क्रम।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> स्वभाव आराधना के समय व्यवहार धर्म त्याग देना चाहिए।–देखें [[ नय#I.3.6 | नय - I.3.6]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म को उपादेय कहने का कारण।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म का पालन अशुभ वंचनार्थ होता है।–देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]/4।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार पूर्वक गुणस्थान क्रम से आरोहण किया जाता है।–धर्मध्यान/6/6।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म साधु को मुख्य और गृहस्थों को गौण होता है।–देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म साधु को गौण और गृहस्थ को मुख्य होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> साधु व | <li><span class="HindiText"> साधु व गृहस्थ के व्यवहारधर्म में अन्तर।–देखें [[ संयम#1.6 | संयम - 1.6]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> साधु व | <li><span class="HindiText"> साधु व गृहस्थ के निश्चयधर्म में अन्तर।–देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
Line 219: | Line 220: | ||
<li><span class="HindiText"> उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं।<br /> | <li><span class="HindiText"> उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है निरपेक्ष नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> उत्सर्ग व अपवाद मार्ग की परस्पर सापेक्षता।–देखें [[ अपवाद#4 | अपवाद - 4]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> ज्ञान व क्रियानय का | <li><span class="HindiText"> ज्ञान व क्रियानय का समन्वय।–देखें [[ चेतना#3.8 | चेतना - 3.8]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> धर्मविषयक पुरुषार्थ।–देखें | <li><span class="HindiText"> धर्मविषयक पुरुषार्थ।–देखें [[ पुरुषार्थ ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> निश्चय व्यवहारधर्म में मोक्ष व बन्ध का कारणपना</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> केवल | <li><span class="HindiText"> केवल व्यवहार मोक्ष का कारण नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहार को मोक्ष का कारण मानना अज्ञान है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> वास्तव में व्यवहार मोक्ष का नहीं संसार का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म बन्ध का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> केवल | <li><span class="HindiText"> केवल व्यवहारधर्म मोक्ष का नहीं बन्ध का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारधर्म पुण्यबन्ध का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्म से उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकार का होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> मिथ्यात्व युक्त ही व्यवहारधर्म संसार का कारण है सम्यक्त्व सहित नहीं।–देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="9"> | <ol start="9"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक् व्यवहारधर्म निर्जरा का तथा परम्परा मोक्ष का कारण है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> देव पूजा | <li><span class="HindiText"> देव पूजा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण है।–देखें [[ पूजा#2 | पूजा - 2]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सम्यक् व्यवहारधर्म में संवर का अंश अवश्य रहता है।–देखें [[ संवर#2 | संवर - 2]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="10"> | <ol start="10"> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्ष का कारण है रहित नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यद्यपि | <li><span class="HindiText"> यद्यपि मुख्यरूप से पुण्यबन्ध ही होता है, पर परम्परा से मोक्ष का कारण पड़ता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> परम्परा मोक्ष का कारण कहने का | <li><span class="HindiText"> परम्परा मोक्ष का कारण कहने का तात्पर्य।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 281: | Line 282: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li><span class="HindiText"> दशधर्मों के नाम | <li><span class="HindiText"> दशधर्मों के नाम निर्देश।–देखें [[ धर्म#1.6 | धर्म - 1.6]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
Line 289: | Line 290: | ||
<li><span class="HindiText"> ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं।<br /> | <li><span class="HindiText"> ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनों को होते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इन दशों को धर्म कहने में हेतु।<br /> | <li><span class="HindiText"> इन दशों को धर्म कहने में हेतु।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> दशों धर्म | <li><span class="HindiText"> दशों धर्म विशेष।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> गुप्ति, समिति व दशधर्मों में | <li><span class="HindiText"> गुप्ति, समिति व दशधर्मों में अन्तर।–देखें [[ गुप्ति#2 | गुप्ति - 2]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> धर्मविच्छेद व पुन: उसकी स्थापना–देखें [[ कल्की ]]।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> संसार से रक्षा करे व | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> संसार से रक्षा करे व स्वभाव में धारण करे सो धर्म</strong></span><br /> | ||
र.क.श्रा./ | र.क.श्रा./2 <span class="SanskritGatha">देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदु:खत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।2। </span>=<span class="HindiText">जो प्राणियों को संसार के दु:ख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है। (म.पु./2/37) (ज्ञा./2-10/15)</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/2/409/11<span class="SanskritText"> इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:।</span> =<span class="HindiText">जो इष्ट स्थान (स्वर्ग मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। (रा.वा./9/2/3/591/32)।</span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/68 <span class="PrakritGatha">भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु। चउगइ दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।68। </span>=<span class="HindiText">निजी शुद्धभाव का नाम ही धर्म है। वह संसार में पड़े हुए जीवों की चतुर्गति के दु:खों से रक्षा करता है। (म.पु./47/302); (चा.सा./3/1)।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./7/9/9 <span class="SanskritText">मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्म:। </span>=<span class="HindiText">मिथ्यात्व व रागादि में नित्य संसरण करने रूप भावसंसार के प्राणी को उठाकर जो निर्विकार शुद्ध चैतन्य में धारण कर दे, वह धर्म है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./35/101/8 <span class="SanskritText">निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञान दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म भावनात्मको धर्म:, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि...दशप्रकारो धर्म:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे यानी रक्षा करे सो विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षण वाला निजशुद्धात्मा की भावनास्वरूप धर्म है। व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इन्द्र चक्रवर्ती आदि का जो वन्दने योग्य पद है उसमें पहुंचाने वाला उत्तम क्षमा आदि दश प्रकार का धर्म है।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./715 <span class="SanskritGatha">धर्मो नीचै: पदादुच्चै: पदे धरति धार्मिकम् । तत्राजवज्जवो नीचै: पदमुच्चैस्तदव्यय:।715। </span>=<span class="HindiText">जो धर्मात्मा पुरुषों को नीचपद से उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। तथा उनमें संसार नीचपद है और मोक्ष उच्चपद है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि</strong> </span><br /> | ||
बो.पा./मू./ | बो.पा./मू./25<span class="PrakritText"> धम्मो दयाविशुद्धो। </span>=<span class="HindiText">धर्म दया करके विशुद्ध होता है। (नि.सा./ता.वृ./6 में उद्धृत); (पं.वि./1/8); (द.पा./टी./2/2/20)</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/7/419/2 <span class="SanskritText">अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूल:। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त: उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बन:। </span>=<span class="HindiText">जिनेन्द्रदेव ने जो यह अहिंसा लक्षण धर्म कहा है–सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम उसकी प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, निष्परिग्रहता उसका अवलम्बन है।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/13/5/524/6<span class="SanskritText"> अहिंसालक्षणो धर्म:। </span>=<span class="HindiText">धर्म अहिंसा आदि लक्षण वाला है। (द्र.सं./टी./35/145/3)</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./478 <span class="PrakritText">जीवाणं रक्खणं धम्मो। </span>=<span class="HindiText">जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। (द.पा./टी./9/8/5)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> धर्म का लक्षण | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> धर्म का लक्षण रत्नत्रय</strong></span><br /> | ||
र.क.श्रा./ | र.क.श्रा./3<span class="SanskritText"> सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदु:। </span><span class="HindiText">गणधरादि आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र को धर्म कहते हैं। (का.अ./मू./478); (त.अनु./51) (द्र.सं./टी./145/3)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> व्यवहार धर्म के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./8/9/18<span class="SanskritText"> पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते।</span> =<span class="HindiText">पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिपरिणामरूप व्यवहार धर्म होता है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/3/116/16 <span class="SanskritText">धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते।</span> =<span class="HindiText">धर्मशब्द से यहां (धर्म पुरुषार्थ के प्रकरण में) पुण्य कहा गया है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/111-4/231/14 <span class="SanskritText">गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते।</span> =<span class="HindiText">आहार दान आदिक ही गृहस्थों का परम धर्म है। सम्यक्त्वपूर्वक किये गये उसी धर्म से परम्परा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/134/251/2<span class="SanskritText"> व्यवहारधर्मे च पुन: षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु।</span> =<span class="HindiText">साधुओं की अपेक्षा षडावश्यक लक्षण वाले तथा गृहस्थों की अपेक्षा दान पूजादि लक्षण वाले शुभोपयोग स्वरूप व्यवहारधर्म में रति करो।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निश्चयधर्म का लक्षण</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निश्चयधर्म का लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./7<span class="PrakritGatha"> चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो। </span>=<span class="HindiText">चारित्र ही धर्म है। जो धर्म है सो साम्य है और साम्य मोह क्षोभ रहित (रागद्वेष तथा मन, वचन, काय के योगों रहित) आत्मा के परिणाम हैं। (मो.पा./मू./50)</span><br /> | ||
भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./83<span class="PrakritText"> मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो। </span>=<span class="HindiText">मोह व क्षोभरहित अर्थात् रागद्वेष व योगों रहित आत्मा के परिणाम धर्म है। (स.म./32/342/22 पर उद्धृत), (प.प्र./मू./2/68), (त.अनु./52)</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./356 <span class="PrakritText">समदा तह मज्झत्थं सुद्धोभावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहावाराहणा भणिया।</span> =<span class="HindiText">समता, माध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची शब्द हैं।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./755 <span class="SanskritText">अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युति:। अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल। </span>=<span class="HindiText">वस्तुस्वरूप की अपेक्षा रागादि ही हिंसा, अधर्म व अव्रत है। और उनका त्याग ही अहिंसा, धर्म व व्रत है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5.2" id="1.5.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5.2" id="1.5.2"> शुद्धात्म परिणति</strong> </span><br /> | ||
भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./85 <span class="PrakritText">अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सहलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो। </span>=<span class="HindiText">रागादि समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में ही रत होना धर्म है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./91<span class="SanskritText"> निरुपरागतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो। </span>=<span class="HindiText">निरुपरागतत्त्व की उपलब्धि लक्षण वाला धर्म...।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./7,8<span class="SanskritText"> वस्तुस्वभावत्वार्द्धम:। शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थ:।7।...ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवति।</span> =<span class="HindiText">वस्तु का स्वभाव धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है। इसलिए धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./85/143/11<span class="SanskritText"> रागादिदोषरहित: शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो।</span> =<span class="HindiText">रागादि दोषों से रहित तथा शुद्धात्मा की अनुभूति सहित निश्चयधर्म होता है। (पं.वि./1/7), (पं.प्र./टी./1/134/251/1), (पं.ध./उ./432)<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> धर्म के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> धर्म के भेद</strong></span><br /> | ||
बा.अ./ | बा.अ./70<span class="PrakritGatha"> उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।70। </span><span class="HindiText">उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दशभेद मुनिधर्म के हैं। (त.सू./9/6), (भ.आ./वि./46/154/10 पर उद्धृत)</span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./557<span class="PrakritGatha"> तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अत्थिकायधम्मो य। तदिओ चरित्तधम्मौ सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। </span>=<span class="HindiText">धर्म के तीन भेद हैं–श्रुतधर्म, अस्तिकायधर्म, चारित्रधर्म। इन तीनों में से श्रुतधर्म तीर्थ कहा जाता है।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./6/4 <span class="SanskritText">संपूर्णदेशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत् । </span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण और एकदेश के भेद से वह धर्म दो प्रकार है। अर्थात् मुनि व गृहस्थ धर्म या अनगार व सागार धर्म के भेद से दो प्रकार का है। (बा.अ./68) (का.अ./मू./304), (चा.सा./3/1), (पं.ध./उ./717) </span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./1/7 <span class="SanskritText">धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद् द्विधा च त्रयं। रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्तत:।...। </span>=<span class="HindiText">दयास्वरूप धर्म, गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का है, तथा उत्तम क्षमादि के भेद से दश प्रकार का है। (द्र.सं./टी./35/145/3)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> धर्म में | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> धर्म में सम्यग्दर्शन का स्थान</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है</strong></span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./2<span class="PrakritText"> दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। </span>=<span class="HindiText">सर्वज्ञ देव ने अपने शिष्यों को ‘दर्शन’ धर्म का मूल है ऐसा उपदेश दिया है। (पं.ध./उ./716)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> धर्म | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है</strong></span><br /> | ||
बा.अ./ | बा.अ./68 <span class="PrakritGatha">एयारसदसभेयं धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं।68। </span>=<span class="HindiText">श्रावकों व मुनियों का जो धर्म है वह सम्यक्त्वपूर्वक होता है। (पं.ध./उ./717)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.3" id="2.3"></a>सम्यक्त्वयुक्त धर्म ही मोक्ष का कारण है रहित नहीं</strong></span><br /> | ||
बा.अणु./ | बा.अणु./57<span class="PrakritText"> जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया। </span>=<span class="HindiText">जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है वही परम्परा मोक्ष का कारण होती है।</span><br /> | ||
र.सा./ | र.सा./10 <span class="PrakritGatha">दाणं पूजा सीलं उपवासं बहुविहंपि खिवणं पि। सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसारं।10। </span>=<span class="HindiText">दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत और मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होने पर मोक्षमार्ग के कारणभूत हैं और सम्यग्दर्शन के बिना संसार को बढ़ाने वाले हैं।</span><br /> | ||
यो.सा./यो./ | यो.सा./यो./18 <span class="PrakritGatha">गिहि-वावार परिट्ठिया हेयाहेउ मुणंति। अणुदिणुझायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति। </span>=<span class="HindiText">जो गृहस्थी के धन्धे में रहते हुए भी हेयाहेय को समझते हैं और जिनभगवान् का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं।</span><br /> | ||
भावसंग्रह/ | भावसंग्रह/404,610 <span class="SanskritGatha">सम्यग्दृष्टे: पुण्यं न भवति संसारकारणं नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निदानं स न करोति।404। आवश्यकानि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्वं निर्जरानिमित्तम् ।610। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता है। और यदि वह निदान न करे तो मोक्ष का कारण होता है।404। षडावश्यक क्रिया, वैयावृत्त्य, दान, पूजा आदि जो कुछ भी धार्मिक क्रिया सम्यग्दृष्टि करता है वह सब उसके लिए निर्जरा के निमित्त हैं।610।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./145 की उत्थानिका/208/11 <span class="SanskritGatha">वीतरागसम्यक्त्वं विना व्रतदानादिकं पुण्यबन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणं। सम्यक्त्वसहितं पुन: परंपरया मुक्तिकारणं च भवति। </span>=<span class="HindiText">वीतरागसम्यक्त्व के बिना व्रत दानादिक पुण्यबन्ध के कारण हैं, मुक्ति के नहीं। परन्तु सम्यक्त्व सहित वे ही पुण्य बन्ध के साथ-साथ परम्परा से मोक्ष के कारण भी हैं। (प्र.सा./ता.वृ./255/348/20) (नि.सा./ता.वृ./18/क.32) (प्र.सा./ता.वृ./255/348/2)। (प.प्र./टी./98/93/4) (प.प्र./टी./191/297/1)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4" id="2.4"></a>सम्यक्त्वरहित क्रियाएं वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं</strong> </span><br /> | ||
यो.सा./यो./ | यो.सा./यो./47-48 <span class="PrakritGatha">धम्मु ण पढियइं होइ धम्मु ण पोत्थापिच्छियइं। धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था लुंचियइं।47। राय-रोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि बसेइ। सो धम्मु वि जिण उत्तिमउ जो पंचम-गइ णेइ।48। </span>=<span class="HindiText">पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछी से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं है, तथा केशलोंच करने से भी धर्म नहीं कहा जाता।47। जो राग और द्वेष दोनों को छोड़कर निजात्मा में वास करता है, उसे ही जिनेन्द्रदेव ने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गति को ले जाता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,1/63 <span class="PrakritText">ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेजुगुणसेऽणिकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाणज्झाणववएसो परमत्थिओ अत्थि। </span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व से रहित ध्यान के असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्मनिर्जरा के कारण न होने से ‘ज्ञानध्यान’ यह संज्ञा वास्तविक नहीं है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./275 <span class="SanskritText">भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव।</span> =<span class="HindiText">भोग के निमित्तभूत शुभकर्ममात्र जो कि अभूतार्थ हैं (उनकी ही अभव्य श्रद्धा करता है)।</span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./99/106<span class="SanskritText"> व्यवहारमभूतार्थं प्रायो भूतार्थ-विमुखजनमोहात् । केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद्भ्रश्यति स्वार्थात् । </span>=<span class="HindiText">भूतार्थ से विमुख रहने वाले व्यक्ति मोहवश अभूतार्थ व्यवहार क्रियाओं में ही उपयुक्त रहते हुए, स्वर रहित व्यञ्जन के प्रयोगवत् स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाते हैं।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./444 <span class="SanskritText">नापि धर्म: क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत:। </span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि के केवल क्रियारूप धर्म का पाया जाना भी धर्म नहीं हो सकता।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./717<span class="SanskritText"> न धर्मस्तद्विना क्वचित् ।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन के बिना कहीं भी वह (सागार व अनगार धर्म) धर्म नहीं कहलाता।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.5" id="2.5"></a>सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थ से अधर्म व पाप है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./200/क.137<span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टि: स्वयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु। आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ता:।137।</span> =<span class="HindiText">यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूं, मुझे कभी बन्ध नहीं होता, ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊंचा और पुलकित हो रहा है, ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों की उत्कृष्टता का आलम्बन करें, तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व रहित हैं।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./444 <span class="SanskritGatha">नापि धर्म: क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत:। नित्य रागादिसद्भावात् प्रत्युताधर्म एव स:।444। </span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि के सदा रागादि भावों का सद्भाव रहने से केवल क्रियारूप धर्म का पाया जाना भी वास्तव में धर्म नहीं हो सकता, किन्तु वह अधर्म ही है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> सम्यक्त्व रहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./152 <span class="PrakritGatha">परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू।152।</span> =<span class="HindiText">परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रत को सर्वज्ञ देव बालतप और बालव्रत कहते हैं।</span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./99<span class="PrakritGatha"> किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।99। </span>=<span class="HindiText">आत्मस्वभाव से विपरीत क्रिया क्या करेगी, अनेक प्रकार के उपवासादि तप भी क्या करेंगे, तथा आतापन योगादि कायक्लेश भी क्या करेगा।</span><br /> | ||
भ.आ./मू./गा.नं. | भ.आ./मू./गा.नं.3 <span class="PrakritGatha">जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होंति। ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला।57। तह मिच्छत्तकडुगिदे जीवे तवणाणचरणविरियाणि। णासंति वंतमिच्छत्तम्मि य सफलाणि जायंति।734। घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि य कुधिदस्स। बहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।1347। </span>=<span class="HindiText">अहिंसा आदि आत्मा के गुण हैं, परन्तु मरण समय ये मिथ्यात्व से युक्त हो जायं तो कड़वी तूम्बी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ होते हैं।57। मिथ्यात्व के कारण विपरीत श्रद्धानी बने हुए इस जीव में तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य ये गुण नष्ट होते हैं, और मिथ्यात्व रहित तप आदि मुक्ति के उपाय हैं।734। घोड़े की लीद दुर्गन्धियुक्त रहती है परन्तु बाहर से वह स्निग्ध कान्ति से युक्त होती है। अन्दर भी वह वैसी नहीं होती। उपर्युक्त दृष्टान्त के समान किसी पुरुष का–मुनि का आचरण ऊपर से अच्छा–निर्दोष दीख पड़ता है परन्तु उसके अन्दर के विचार कषाय से मलिन अर्थात् गन्दे रहते हैं। यह बाह्याचरण उपवास, अवमोदर्यादिक तप उसकी कुछ उन्नति नहीं करता है क्योंकि इन्द्रिय कषायरूप, अन्तरंग मलिन परिणामों से उसका अभ्यन्तर तप नष्ट हुआ है, जैसे बगुला ऊपर से स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ दीखता परन्तु अन्तरंग में मत्स्य मारने के गन्दे विचारों से युक्त ही होता है।1347।</span><br /> | ||
यो.सा./यो./ | यो.सा./यो./31<span class="PrakritGatha"> वउतउसंजमुसीलु जिय ए सव्वइँ अकयत्थु। जांव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु।31।</span> =<span class="HindiText">जब तक जीव को एक परमशुद्ध पवित्रभाव का ज्ञान नहीं होता, तब तक व्रत, तप, संयम और शील ये सब कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं।</span><br /> | ||
आ.अनु./ | आ.अनु./15 <span class="SanskritGatha">शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंस:। पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्त्वम् ।15। </span>=<span class="HindiText">पुरुष के सम्यक्त्व से रहित शान्ति, ज्ञान, चारित्र और तप इनका महत्त्व पत्थर के भारीपन के समान व्यर्थ है। परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्व से सहित है तो मूल्यवान् मणि के महत्त्व के समान पूज्य है।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./1/50 <span class="SanskritText">अभ्यस्यतान्तरदृशं किमु लोकभक्त्या, मोहं कृशीकुरुत किं वपुषा कृशेन। एतद्द्वयं यदि न किं बहुभिर्नियोगै:, क्लेशैश्च किं किमपरै: प्रचुरैस्तपोभि:।50।</span> <span class="HindiText">=हे मुनिजन ! सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्तरनेत्र का अभ्यास कीजिए। आपको लोकभक्ति से क्या प्रयोजन है। इसके अतिरिक्त आप मोह को कृश करें। केवल शरीर को कृश करने से कुछ भी लाभ नहीं है। कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके बिना बहुत से यम नियमों से, कायक्लेशों से और दूसरे प्रचुर तपों से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./41/166/7<span class="SanskritText"> एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन ज्ञानतपश्चरणव्रतोपशमध्यानादिकं मिथ्यात्वरूपमपि सम्यग्भवति। तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्वं वृथेति ज्ञातव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यक् हो जाते हैं। और सम्यक्त्व के बिना विष मिले हुए दूध के समान ज्ञान तपश्चरणादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निश्चयधर्म की कथंचित् प्रधानता</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> निश्चय धर्म ही भूतार्थ है</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./275 <span class="SanskritText">ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धते। </span>=<span class="HindiText">अभव्य व्यक्ति ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म की श्रद्धा नहीं करता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> शुभ अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> शुभ अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक धर्म है</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./181 <span class="PrakritGatha">सुहपरिणामो पुण्यं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये। </span>=<span class="HindiText">पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। और दूसरे के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम, आगम में दु:ख क्षय का कारण कहा है। (प.प्र./2/71) </span><br /> | ||
स.श./ | स.श./83 <span class="SanskritGatha">अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्यय:। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।83। </span>=<span class="HindiText">हिंसादि अव्रतों से पाप तथा अहिंसादि व्रतों से पुण्य होता है। पुण्य व पाप दोनों कर्मों का विनाश मोक्ष है। अत: मुमुक्षु को अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए। (यो.सा./यो./32) (आ.अनु./181) (ज्ञा./32/87)</span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./9/72<span class="SanskritGatha"> सर्वत्र य: सदोदास्ते न च द्वेष्टि न च रज्यते। प्रत्याख्यानादतिक्रान्त: स दोषाणामशेषत:।72। </span>=<span class="HindiText">जो महानुभाव सर्वत्र उदासीनभाव रखता है, तथा न किसी पदार्थ में द्वेष करता है और न राग, वह महानुभव प्रत्याख्यान के द्वारा समस्त दोषों से रहित हो जाता है।<br /> | ||
देखें [[ चारित्र#4.1 | चारित्र - 4.1 ]](प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यान से अतीत अप्रत्याख्यानरूप तीसरी भूमिका ही अमृतकुम्भ है)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं</strong></span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/68/190/8 <span class="SanskritText">धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्य:। तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिंसालक्षणो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति। सागारानगारलक्षणो धर्म: सोऽपि तथैव। उत्तमक्षमादिदशविधो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। ‘सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु:’ इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव। रागद्वेषमोहरहित: परिणामो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव। वस्तुस्वभावो धर्म: सोऽपि तथैव।...अत्राह शिष्य:। पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय: सर्वे गुणा: लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन: शुद्धपरिणाम एव धर्म:, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते। को विशेष:। परिहारमाह। तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेष:। तात्पर्यं तदेव।</span> =<span class="HindiText">यहां धर्म शब्द से निश्चय से जीव के शुद्धपरिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूप से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्व धर्म अन्तर्भूत हो जाते हैं। वह ऐसे कि–</span> | ||
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<li><span class="HindiText"> अहिंसा लक्षण धर्म है सो जीव के शुद्धभाव के बिना | <li><span class="HindiText"> अहिंसा लक्षण धर्म है सो जीव के शुद्धभाव के बिना सम्भव नहीं। (देखें [[ अहिंसा#2.1 | अहिंसा - 2.1]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सागार अनगार लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> सागार अनगार लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उत्तमक्षमादि दशप्रकार के लक्षण वाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है। </span></li> | <li><span class="HindiText"> उत्तमक्षमादि दशप्रकार के लक्षण वाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> रत्नत्रय लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> रागद्वेषमोह के अभावरूप लक्षण वाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और </span></li> | <li><span class="HindiText"> रागद्वेषमोह के अभावरूप लक्षण वाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> वस्तुस्वभाव लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है। <strong>प्रश्न</strong>–पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोग में सर्व गुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है, (देखें [[ धर्म#3.7 | धर्म - 3.7]])। और यहां आत्मा के शुद्ध परिणाम को धर्म बताकर उसमें सर्व धर्मों की प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है ? <strong>उत्तर</strong>–वहां शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहां धर्म संज्ञा मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है। (प्र.सा./ता.वृ./11/16) (और भी देखें [[ आगे धर्म#3.7 | आगे धर्म - 3.7]])<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.4" id="3.4"></a>निश्चय धर्म की व्याप्ति व्यवहार धर्म के साथ है पर व्यवहार की निश्चय के साथ नहीं</strong></span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./1349/1306 <span class="PrakritGatha">अब्भंतरसोधीए सुद्ध णियमेण बहिरं करणं। अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बहिरंगदोसं।</span> =<span class="HindiText">अभ्यन्तर शुद्धि पर नियम से बाह्यशुद्धि अवलम्बित है। क्योंकि अभ्यन्तर (मन के) परिणाम निर्मल होने पर वचन व काय की प्रवृत्ति भी निर्दोष होती है। और अभ्यन्तर (मन के) परिणाम मलिन होने पर वचन व काय की प्रवृत्ति भी नियम से सदोष होती है। </span><br /> | ||
लि.पा./मू./ | लि.पा./मू./2 <span class="PrakritGatha">धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।2।</span> =<span class="HindiText">धर्म से लिंग होता है, पर लिंगमात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। हे भव्य ! तू भावरूप धर्म को जान। केवल लिंग से तुझे क्या प्रयोजन है।<br /> | ||
( देखें | (देखें [[ लिंग#2 | लिंग - 2]]) (भावलिंग होने पर द्रव्यलिंग अवश्य होता है पर द्रव्यलिंग होने पर भावलिंग भजितव्य है)</span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./245<span class="PrakritText"> समणा सुद्धुवजुता सहोवजुत्ता य होंति समयम्मि।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./245 <span class="SanskritText">अस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवाय:।</span> =<span class="HindiText">शास्त्रों में ऐसा कहा है कि जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते हैं वे शुभोपयोगी भी होते हैं। इसलिए शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ समवाय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> निश्चय रहित | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है</strong></span><br /> | ||
भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./89 <span class="PrakritGatha">बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं।89।</span> =<span class="HindiText">भावरहित व्यक्ति के बाह्यपरिग्रह का त्याग, गिरि-नदी-गुफा में बसना, ध्यान, आसन, अध्ययन आदि सब निरर्थक है। (अन.ध./9/29/871)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> निश्चय रहित | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> निश्चय रहित व्यवहार धर्म से शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./156 <span class="PrakritGatha">मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। </span>=<span class="HindiText">निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् व्यवहार [शुभ कर्मों (त.प्र.टीका)] द्वारा प्रवर्तते हैं किन्तु परमार्थ के आश्रित योगीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./204/क.142 <span class="SanskritText">क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखै: कर्मभि:, क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमं ते न हि। </span>=<span class="HindiText">कोई मोक्ष से पराङ्मुख हुए दुष्करतर कर्मों के द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महाव्रत और तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो; जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, निरामय पद है और स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञान को ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से वे प्राप्त नहीं कर सकते।</span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./22/14 <span class="SanskritGatha">मन: शुद्धयैव शुद्धि: स्याद्देहिनां नात्र संशय:। वृथा तद्वद्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।14। </span>=<span class="HindiText">नि:सन्देह मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धि होती है, मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना वृथा है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> निश्चयधर्म का | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> निश्चयधर्म का माहात्म्य</strong> </span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./1/114<span class="PrakritGatha"> जइ णिविसद्धु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ। अग्गिंकणी जिम कट्ठगिरी डहइ असेसु वि पाउ।114।</span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/67 <span class="PrakritGatha">सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहं दंसणु णाणु। सुद्धहं कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।67।</span> =<span class="HindiText">जो आधे निमेषमात्र भी कोई परमात्मा में प्रीति को करे, तो जैसे अग्नि की कणी काठ के पहाड़ को भस्म करती है, उसी तरह सब ही पापों को भस्म कर डाले।114। शुद्धोपयोगियों के ही संयम, शील और तप होते हैं, शुद्धों के ही सम्यग्दर्शन और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है, शुद्धोपयोगियों के ही कर्मों का नाश होता है, इसलिए शुद्धोपयोग ही जगत में मुख्य है।</span><br /> | ||
यो.सा./यो./ | यो.सा./यो./65 <span class="PrakritGatha">सागारु वि णागारु कु वि जो अप्पाणि वसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ। </span>=<span class="HindiText">गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मा में वास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुख को पाता है, ऐसा जिनभगवान् ने कहा है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./412-414 <span class="PrakritText">एदेण सयलदोसा जीवाणासंतिरायमादीया। मोत्तूण विविहभावं एत्थे विय संठिया सिद्धा। </span>=<span class="HindiText">इस (परम चैतन्य तत्त्व को जानने) से जीव रागादिक सकल दोषों का नाश कर देता है। और विविध विकल्पों से मुक्त होकर, यहां ही, इस संसार में ही सिद्धवत् रहता है।</span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./22/26 <span class="SanskritText">अनन्तजन्यजानेककर्मबन्धस्थितिर्दृढा। भावशुद्धिं प्रपन्नस्य मुने: प्रक्षीयते क्षणात् ।</span> =<span class="HindiText">जो अनन्त जन्म से उत्पन्न हुई दृढ़ कर्मबन्ध की स्थिति है सो भावशुद्धि को प्राप्त होने वाले मुनि के क्षणभर में नष्ट हो जाती है, क्योंकि कर्मक्षय करने में भावों की शुद्धता ही प्रधान कारण है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> व्यवहार धर्म की कथंचित् गौणता</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./136 <span class="SanskritText">अर्हत्सिद्धादिषु भक्ति:, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा,...अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।</span> =<span class="HindiText">धर्म में अर्थात् व्यवहारचारित्र के अनुष्ठान में भावप्रधान चेष्टा।...यह (प्रशस्त राग) वास्तव में जो स्थूल लक्ष वाले होने से मात्र भक्ति प्रधान हैं ऐसे अज्ञानी को होता है। उच्चभूमिका में स्थिति प्राप्त न की हो तब, अस्थान (अस्थिति) का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र राग ज्वर मिटाने के हेतु कदाचित् ज्ञानी को भी होता है। (नि.सा./ता.वृ./105) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> व्यवहाररत जीव परमार्थ को नहीं जानते</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./413 <span class="PrakritGatha">पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुपयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं।413।</span> =<span class="HindiText">जो बहुत प्रकार के मुनिलिंगों में अथवा गृहीलिंगों में ममता करते हैं, अर्थात् यह मानते हैं कि द्रव्यलिंग ही मोक्ष का कारण है उन्होंने समयसार को नहीं जाना।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> व्यवहारधर्म में रुचि करना मिथ्यात्व है</strong></span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./165/238/16 <span class="SanskritText">यदि पुन: शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यादृष्टिर्भवति। </span>=<span class="HindiText">यदि शुद्धात्मा की भावना में समर्थ होते हुए भी कोई उसे छोड़कर शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है, ऐसा एकान्त से मानता है, तब स्थूल परसमयरूप परिणाम से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4">व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध अग्नि व दु:खस्वरूप है</strong></span><br /> | ||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./220 <span class="SanskritText">रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य। आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराध:।</span> =<span class="HindiText">इस लोक में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण है, अन्य गति का नहीं। और जो रत्नत्रय में पुण्य का आस्रव होता है, यह अपराध शुभोपयोग का है। (और भी देखो चारित्र/4/3)।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./77,79 <span class="SanskritText">यस्तु पुन:...धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शरीरं दु:खमेवानुभवति।77। य: खलु...शुभोपयोगवृत्त्या वकाभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहवाहिनीविधेयतामविकरति स किल समासन्नमहादु:खसंकट: कथमात्मानमविप्लुतं लभते।79।</span> =<span class="HindiText">जो जीव (पुण्यरूप) धर्मानुराग पर अत्यन्त अवलम्बित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (उपाधि से रंगी होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार पर्यन्त शारीरिक दु:ख का ही अनुभव करता है।77। जो जीव धूर्त अभिसारिका की भांति शुभोपयोग परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त हुआ मोह की सेना को वशवर्तिता को दूर नहीं कर डालता है, तो जिसके महादु:खसंकट निकट है वह, शुद्ध आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है।79।</span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./172 <span class="SanskritText">अर्हदादिगतमपि रागं चन्दनगसङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्तयात्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य...। </span>=<span class="HindiText">अर्हन्तादिगत राग को भी, चन्दनवृक्षसंगत अग्नि की भांति देवलोकादि के क्लेश प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्दाह का कारण समझकर (प्र.सा./त.प्र./11) (यो.सा./अ./9/25), (नि.सा./ता.वृ./144)।</span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./168 <span class="SanskritText">रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसंतान इति। </span>=<span class="HindiText">यह (भक्ति आदि रूप रागपरिणति) अनर्थसंतति का मूल रागरूप क्लेश का विलास ही है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> व्यवहार धर्म मोह व पापरूप है</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./85 <span class="PrakritText">अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु। विसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि।</span> =<span class="HindiText">पदार्थ का अयथाग्रहण, तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव और विषयों की संगति, ये सब मोह के चिह्न हैं। (अर्थात् पहला तो दर्शन मोह का, दूसरा शुभरागरूप मोह का तथा तीसरा अशुभरागरूप मोह का चिह्न है।) (पं.का.मू./135/136)।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./7/25 <span class="SanskritText">तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमत:। यो भोगादिनिमित्तमेव स पुन: पापं बुधैर्मन्यते।</span> =<span class="HindiText">जो धर्म पुरुषार्थ मोक्षपुरुषार्थ का साधक होता है वह तो हमें अभीष्ट है, किन्तु जो धर्म केवल भोगादिक का ही कारण होता है उसे विद्वज्जन पाप ही समझते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> व्यवहारधर्म अकिंचित्कर है</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./153 <span class="SanskritText">अज्ञानमेव बन्धहेतु:, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्व्रतनियमशीलतप:प्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् ।</span>=<span class="HindiText">अज्ञान ही बन्ध का कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानरूप होने वाले ज्ञानियों के बाह्य व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है।</span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./22/27 <span class="SanskritGatha">यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् । सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं किं कायदण्डनै:।27। </span><span class="HindiText">जिस मुनि का चित्त स्थिरीभूत है, प्रसन्न है, रागादि की कलुषता से रहित तथा ज्ञान की वासना से युक्त है, उसके सब कार्य सिद्ध हैं, इसलिए उस मुनि को कायदण्ड देने से क्या लाभ है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./271/क.173<span class="SanskritText"> सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजित:। </span>=<span class="HindiText">सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र भगवान् ने त्यागने योग्य कहे हैं, इसलिए हम यह मानते हैं कि पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./167 <span class="SanskritText">स्वसमयप्रसिद्धयर्थं पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायमदिधताऽर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति। </span>=<span class="HindiText">जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि के अर्थ, धुनकी में चिपकी हुई रूई के न्याय से, अर्हंत आदि विषयक भी रागरेणु क्रमश: दूर करने योग्य है। (अन्यथा जैसे वह थोड़ी सी भी रूई जिस प्रकार अधिकाधिक रूई को अपने साथ चिपटाती जाती है और अन्त में धुनकी को धुनने नहीं देती उसी प्रकार अल्पमात्र भी वह शुभ राग अधिकाधिक राग की वृद्धि का कारण बनता हुआ जीव को संसार में गिरा देता है।)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ</strong> </span><br /> | ||
अमृताशीति/ | अमृताशीति/59 <span class="SanskritText">गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा। पठनजपनहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धि:, मृगय तदपरं त्वं भो: प्रकारं गुरुभ्य:। </span>=<span class="HindiText">गिरि, गहन, गुफा, आदि तथा शून्यवन प्रदेशों में स्थिति, इन्द्रियनिरोध, ध्यान, तीर्थसेवा, पाठ, जप, होम आदिकों से ब्रह्म (व्यक्ति) की सिद्धि नहीं हो सकती। अत: हे भव्य ! गुरुओं के द्वारा कोई अन्य ही उपाय खोज।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9">व्यवहार को धर्म कहना उपचार है</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./414 <span class="SanskritText">य: खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थ:। </span>=<span class="HindiText">अनगार व सागार, ऐसे दो प्रकार के द्रव्य लिंगरूप मोक्षमार्ग का प्ररूपण करना व्यवहार है परमार्थ नहीं।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/367-15; 365/22; 372/3; 376/6; 377/11 निम्न भूमि में शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का सहवर्तीपना होने से, तथा सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट में ही शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाती है इसलिये, व्रतादिकरूप शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग कह दिया जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> व्यवहार धर्म की कथंचित् प्रधानता</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> व्यवहार धर्म निश्चय का साधन है</strong></span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./35/102/9 <span class="SanskritText">अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणतं शुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम् ।</span> =<span class="HindiText">निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्मद्रव्य है वह और उसका बहिरंगसहकारीकारणभूत पंचपरमेष्ठियों का आराधन है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> व्यवहार की कथंचित् इष्टता</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./260<span class="PrakritGatha">असुभोवयोगरहिदा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा। णित्थारयंति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्ता।260। </span>=<span class="HindiText">जो अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त अथवा शुभोपयुक्त होते हैं वे (श्रमण) लोगों को तार देते हैं। उनकी भक्ति से प्रशस्त पुण्य होता है।260।<br /> | ||
देखें [[ पुण्य#4.4 | पुण्य - 4.4 ]](भव्य जीवों को सदा पुण्यरूप धर्म करते रहना चाहिए।)</span><br /> | |||
कुरल | कुरल काव्य/4/6 <span class="SanskritGatha">करिष्यामीति संकल्पं त्यक्त्वा धर्मी भवद्रुतम् । धर्म एव परं मित्रं यन्मृतौ सह गच्छति।6।</span> =<span class="HindiText"> यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्म मार्ग का अवलम्बन करूंगा। किन्तु अभी बिना विलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो, क्योंकि, धर्म ही वह अमर मित्र है, जो मृत्यु के समय तुम्हारा साथ देने वाला होगा।</span><br /> | ||
सं. | सं.स्तो/58<span class="SanskritText"> पूज्यं जिनं त्वार्च्ययतो जिनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषायनाऽलं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।58। </span><span class="HindiText">हे पूज्य श्री वासुपूज्य स्वामी ! जिस प्रकार विष की एक कणिका सागर के जल को दूषित नहीं कर सकती, उसी प्रकार आपकी पूजा में होने वाला लेशमात्र सावद्य योग उससे प्राप्त बहुपुण्य राशि को दूषित नहीं कर सकता।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/3/7/507/34 <span class="SanskritText">उत्कृष्ट: शुभपरिणाम: अशुभजघन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयस: शुभस्य हेतुरिति शुभ: पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पाकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावदुपकार इत्युच्यते। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि शुभ परिणाम अशुभ के जघन्य अनुभागबन्ध के भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभ के कारण होने से ‘शुभ: पुण्यस्य’ यह सूत्र सार्थक है। जैसे कि थोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करने वाला उपकारक ही माना जाता है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/55/177/4<span class="SanskritText"> अत्राह प्रभाकरभट्ट:। तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्तीति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं...समाधिं लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव। यदि पुनस्तथाविधमवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टा: सन्त: तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि कोई पुण्य व पाप दोनों को समान समझकर व्यवहार धर्म को छोड़ तिष्ठे तो उसे क्या दूषण है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप समाधि को प्राप्त करके ऐसा करता है, तब तो हमें सम्मत ही है। और यदि उस प्रकार की अवस्था को प्राप्त किये बिना ही गृहस्थावस्था में दान पूजादिक तथा साधु की अवस्था में षडावश्यादि छोड़ देता है तो उभय भ्रष्ट हो जाने से उसे दूषण ही है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./250/344/13<span class="SanskritText"> इदमत्र तात्पर्यम् । योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते, यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति, वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति। </span>=<span class="HindiText">यहां यह तात्पर्य समझना कि जो व्यक्ति स्वशरीर पोषणार्थ या शिष्यादि के मोहवश सावद्य की इच्छा नहीं करते उनको ही यह व्याख्यान (वैयावृत्ति आदि में रत रहने वाला साधु गृहस्थ के समान है) शोभा देता है। किन्तु जो अन्यत्र तो सावद्य की इच्छा करे और धर्म कार्यों के सावद्य का त्याग करे, उसे तो सम्यक्त्व ही नहीं है।</span><br /> | ||
द.पा./टी./ | द.पा./टी./3/4/13<span class="SanskritText"> इति ज्ञात्वा....दानपूजादिसत्कर्म न निषेधनीय, आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थ:। </span>(द.पा./टी./5/5/22)।<br /> | ||
चा.पा.टी./ | चा.पा.टी./8/133/10<span class="SanskritText"> एवमर्थं ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्णचैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्म....प्रभावनाङ्गं गृहस्था: सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो ...अनन्तसंसारिणो भवन्तीति...।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> ऐसा जानकर दान पूजादि | <li class="HindiText"> ऐसा जानकर दान पूजादि सत्कर्म निषेध करने योग्य नहीं हैं, बल्कि आस्तिक भाव से स्थापित करने योग्य है। (द.पा./टी./5/5/22) </li> | ||
<li class="HindiText"> जिनपूजन, अभिषेक, | <li class="HindiText"> जिनपूजन, अभिषेक, स्तवन, नये या पुराने चैत्य चैत्यालय का जीर्णोद्धार, यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्य कर्म रूप प्रभावना अंग को यदि गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं तो वे पापात्मा मिथ्यादृष्टि अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं। (पं.ध./736-739)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> अन्य के प्रति व्यक्ति का कर्तव्य-अकर्तव्य</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./2-10/21 <span class="SanskritGatha">यद्यत्स्वस्यानिष्टं तत्तद्वाक्चित्तकर्मभि: कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्यागिम्रं लिङ्गम् ।21।</span> =<span class="HindiText">धर्म का मुख्य चिह्न यह है कि, जो जो क्रियाएं अपने को अनिष्ट लगती हों, सो सो अन्य के लिए मन वचन काय से स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="5.4" id="5.4"></a>व्यवहार धर्म का महत्त्व</strong></span><br /> | ||
आ.अनु./ | आ.अनु./224,226 <span class="SanskritGatha">विषयविरति: संगत्याग: कषायविनिग्रह:, शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यम:। नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिर्जिनेषु दयालुता, भवति कृतिन: संसाराब्धेस्तटे निकटे सति।224। समाधिगतसमस्ता: सर्वसावद्यदूरा:, स्वहितनिहितचित्ता: शान्तसर्वप्रचारा:। स्वपरसफलजल्पा: सर्वसंकल्पमुक्ता:, कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ता:।226। </span>=<span class="HindiText">इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, परिग्रह का त्याग, कषायों का दमन, शम, यम, दम आदि तथा तत्त्वाभ्यास, तपश्चरण का उद्यम, मन की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिनभगवान् में भक्ति, और दयालुता, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीव के होते हैं, जिसके कि संसाररूप समुद्र का किनारा निकट आ चुका है।224। जो समस्त हेयोपादेय तत्त्वों के जानकार, सर्वसावद्य से दूर, आत्महित में चित्त को लगाकर समस्त इन्द्रियव्यापार को शान्त करने वाले हैं, स्व व पर के हितकर वचन का प्रयोग करते हैं, तथा सब संकल्पों से रहित हो चुके हैं, ऐसे मुनि कैसे मुक्ति के पात्र न होंगे ?।226।</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./431 <span class="PrakritGatha">उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि।431। </span>=<span class="HindiText">उत्तम धर्म से युक्त तिर्यंच भी देव होता है, तथा उत्तम धर्म से युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र हो जाता है।</span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./2-10/4,11 <span class="SanskritGatha">चिन्तामणिर्निधिर्दिव्य: स्वर्धेनु: कल्पपादपा:। धर्मस्यैते श्रिया सार्द्धं मन्ये भृत्याश्चिरन्तना:।4। धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्म: स्वामी च बान्धव:। अनाथवत्सल: सोऽयं संत्राता कारणं विना।11। </span>=<span class="HindiText">लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्म के चिरकाल से किंकर हैं, ऐसा मैं मानता हूं।4। धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बान्धव है, हितू है, और धर्म ही बिना कारण अनाथों का प्रीतिपूर्वक रक्षा करने वाला है। इसलिए प्राणी को धर्म के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है।11। <br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्म की प्रधानता का कारण</strong></span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/67 <span class="PrakritGatha">सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहं दंसणु णाणु। सुद्धहं कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।67।</span> =<span class="HindiText">वास्तव में शुद्धोपयोगियों को ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान व कर्म का क्षय होता है इसलिए शुद्धोपयोग ही प्रधान है। (और भी देखें [[ धर्म#3.3 | धर्म - 3.3]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> व्यवहारधर्म निषेध का कारण</strong></span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./31,32<span class="PrakritGatha"> जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। इदि जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं। झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।32।</span> =<span class="HindiText">जो योगी व्यवहार में सोता है सो अपने स्वरूप के कार्य में जागता है और व्यवहारविषै जागता है, वह अपने आत्मकार्य विषै सोता है। ऐसा जानकर वह योगी सर्व व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है, और सर्वज्ञ देव के कहे अनुसार परमात्मस्वरूप को ध्याता है। (स.श./78)</span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/194 <span class="PrakritGatha">जामु सुहासुह-भावड़ा णवि सयल वि तुट्टंति। परम समाहि ण तामु मुणि केवलि एमु भणंति। </span>=<span class="HindiText">जब तक सकल शुभाशुभ परिणाम दूर नहीं हो जाते, तब तक रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्त में परम समाधि नहीं हो सकती, ऐसा केवली भगवान् कहते हैं। (यो.सा./यो./37)</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./381<span class="PrakritGatha"> णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो जम्हा। तम्हा णिव्वुदिकामो ववहारं चयदु तिविहेण।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि व्यवहारचारी को बन्ध होता है और निश्चय से मोक्ष होता है, इसलिए मोक्ष की इच्छा करने वाला व्यवहार का मन वचन काय से त्याग करता है।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./4/32<span class="SanskritGatha"> निश्चयेन तदेकत्वमद्वैतममृतं परम् । द्वितीयेन कृतं द्वैतं संसृतिर्व्यवहारत:।32। </span>=<span class="HindiText">निश्चय से जो वह एकत्व है वही अद्वैत है, जो कि उत्कृष्ट अमृत और मोक्ष स्वरूप है। किन्तु दूसरे (कर्म व शरीरादि) के निमित्त से जो द्वैतभाव उदित होता है, वह व्यवहार की अपेक्षा रखने से संसार का कारण होता है।<br /> | ||
( देखें | (देखें [[ धर्म#4. | धर्म - 4.]]नं0) व्यवहार धर्म की रुचि करना मिथ्यात्व है।3। व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध व दु:खस्वरूप है।4। परमार्थ से मोह व पाप है।5। इन उपरोक्त कारणों से व्यवहार त्यागने योग्य है।8।<br /> | ||
देखें [[ चारित्र#5.6 | चारित्र - 5.6 ]]अनिष्ट (स्वर्ग) फलप्रदायी होने से सराग चारित्र हेय है।<br /> | |||
देखें [[ चारित्र#6.4 | चारित्र - 6.4 ]]पहले अशुभ को छोड़कर व्रतादि धारण करे। पीछे शुद्ध की उपलब्धि हो जाने पर उसे भी छोड़ दे। (और भी देखें [[ चारित्र#7.10 | चारित्र - 7.10]])।<br /> | |||
देखें [[ धर्म#3.2 | धर्म - 3.2]]। शुद्धोपयोगी मुमुक्षु अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ दे। <br /> | |||
देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]। शुद्धोपलब्धि होने पर शुभ का त्याग न्याय है, अन्यथा उभय पथ से भ्रष्ट होकर नष्ट होता है।<br /> | |||
देखें [[ धर्म#6.4 | धर्म - 6.4]]। जिस प्रकार शुभ से अशुभ का निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्ध से शुभ का भी निरोध होता है।<br /> | |||
देखें [[ धर्म#7.4 | धर्म - 7.4]]। व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं संसार(स्वर्ग) का कारण है।<br /> | |||
देखें [[ धर्म#7.5 | धर्म - 7.5]]। व्यवहार धर्मबन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है।<br /> | |||
देखें [[ धर्म#7.6 | धर्म - 7.6]]। व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं बन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है।<br /> | |||
देखें [[ धर्मध्यान#6.6 | धर्मध्यान - 6.6]]। व्यवहार पूर्वक क्रम से गुणस्थान आरोहण होता है।<br /> | |||
देखें [[ नय#3.6 | नय - 3.6]]। स्वरूपाराधना के समय निश्चय व्यवहार के समस्त विकल्प या पक्ष स्वत: शान्त हो जाते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> व्यवहार धर्म के निषेध का प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./409 <span class="PrakritGatha">एदे दंहप्पयारा पावं कम्मस्स णासया भणिया। पुण्णस्स य संजणया पर पुणत्थं ण कायव्वा।</span> =<span class="HindiText">ये धर्म के दश भेद पापकर्म का नाश करने वाले तथा पुण्यकर्म का बन्ध करने वाले कहे हैं। किन्तु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./172/246/9<span class="SanskritText"> मोक्षाभिलाषी भव्योऽर्हदादिविषयेऽपि स्वसंवित्तिलक्षणरागं मा करोतु। </span>=<span class="HindiText">मोक्षाभिलाषी भव्य अर्हन्तादि विषयों में स्वसंवित्ति लक्षणवाला राग मत करो, अर्थात् उनके साथ तन्मय होकर अपने स्वरूप को न भूलो।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/373/3 व्रतादि के त्याग मात्र से धर्म का लोप नहीं हो जाता।<br /> | ||
देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]/4 व्यवहारधर्म का प्रयोजनविषयकषाय से बचना है।<br /> | |||
देखें [[ चारित्र#7.9 | चारित्र - 7.9 ]]व्रत पक्ष के त्याग मात्र से कर्म लिप्त नहीं हो जाते।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> व्यवहारधर्म के त्याग का उपाय व क्रम</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./151,159 <span class="PrakritGatha">जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति।151। असुहोवओगरहिओ सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पणं झाए।159। </span>=<span class="HindiText">जो इन्द्रियादि का विजयी होकर उपयोग मात्र आत्मा का ध्यान करता है कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं।151। अन्य द्रव्य में मध्यस्थ होता हुआ मैं अशुभोपभोग तथा शुभोपभोग से युक्त न होकर ज्ञानात्मक आत्मा को ध्यात हूं। (इ.उ./22)</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./347 <span class="PrakritGatha">जह वि णिरुद्धं असुहं सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य जोई ज्झाएउ णियआदं।347। </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार शुभ से अशुभ का निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्ध से शुभ का निरोध होता है। इसलिए इस क्रम से ही योगी निजात्मा को ध्याओ अर्थात् पहिले अशुभ को छोड़ने के लिए शुभ का आचरण करना और पीछे उसे भी छोड़कर शुद्ध में स्थित होना। (और भी देखें [[ चारित्र#7.10 | चारित्र - 7.10]])</span><br /> | ||
आ.अनु./ | आ.अनु./122 <span class="SanskritGatha">अशुभाच्छुभमायात: शुद्ध: स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गम:।122। </span>=<span class="HindiText">यह आराधक भव्य जीव आगमज्ञान के प्रभाव से अशुभ से शुभरूप होता हुआ शुद्ध हो जाता है, जैसे कि बिना सन्ध्या (प्रभात) को प्राप्त किये सूर्य अन्धकार का विनाश नहीं कर सकता।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./167/240/15 <span class="SanskritGatha">पूर्वे विषयानुरागं त्यक्त्वा तदनन्तरं गुणस्थानसोपानक्रमेण रागादिरहितनिजशुद्धात्मनि स्थित्वा चार्हदादिविषयेऽपि रागस्त्याज्य इत्यभिप्राय:। </span>=<span class="HindiText">पहिले विषयों के अनुराग को छोड़कर, तदनन्तर गुणस्थान सोपान के क्रम से रागादि रहित निजशुद्धात्मा में स्थित होता हुआ अर्हन्तादि विषयों में भी राग को छोड़ना चाहिए ऐसा अभिप्राय है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/31/151/3 <span class="SanskritText">यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायो चित्तस्थिरीकरणार्थं देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषकारणं परंपरया शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं पञ्चपरमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्तनिश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिणत: स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि व्यवहार से सविकल्पावस्था में चित्त को स्थिर करने के लिए, देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूति विशेष को कारण तथा परम्परा से शुद्धात्मा की प्राप्ति का हेतुभूत पंचपरमेष्ठी का वचनों द्वारा रूप वस्तु व गुण स्तवनादिक तथा मन द्वारा उनके वाचक अक्षर व उनके रूपादिक प्राथमिक जनों के लिए ध्येय होते हैं, तथापि पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रयरूप परिणति के काल में केवलज्ञान आदि अनन्तगुणपरिणत स्वशुद्धात्मा ही ध्येय है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="6.5" id="6.5"></a>व्यवहार को उपादेय कहने का कारण</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./254 <span class="SanskritText">एवमेव शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णित: शुभोपयोग: तदयं ...गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन ...कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसंपर्केणार्कतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत: परमनिर्वाणकत्वाच्च मुख्य:।</span> <span class="HindiText">=इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त (अर्थात् सम्यग्दृष्टि की) प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह शुभोपयोग (श्रमणों के तो गौण होता है पर) गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईन्धन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है और वह क्रमश: जल उठता है, उसी प्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और क्रमश: निर्वाणसौख्य का कारण होता है। (प.प्र./टी./2/111-4/231/15)</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./9/30<span class="SanskritText"> चारित्रं यदभाणि केवलदृशा देव त्वया मुक्तये, पुंसा तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यै: पुरोपार्जितै: संसारार्णवतारणे जिन तत: सैवास्तु पोतो मम।30। </span>=<span class="HindiText">हे जिन देव केवलज्ञानी ! आपने जो मुक्ति के लिए चारित्र बतलाया है, उसे निश्चय से मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम काल में धारण नहीं कर सकता है। इसलिए पूर्वोपार्जित महान् पुण्य से यहां जो मेरी आपके विषय में दृढभक्ति हुई है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान होवे।<br /> | ||
(और भी | (और भी देखें [[ मोक्षमार्ग ]]/4/5-6 व्यवहार निश्चय का साधन है)<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> | <li class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> व्यवहार धर्म साधु को गौण व गृहस्थ को मुख्य होता है</strong><br /> | ||
देखें [[ वैयावृत्त्य#8 | वैयावृत्त्य - 8 ]](बाल वृद्ध आदि साधुओं को वैयावृत्त्य करना साधुओं के लिए गौण है और गृहस्थों के लिए प्रधान है।)<br /> | |||
देखें [[ साधु#3.5 | साधु - 3.5 ]][दान पूजा आदि गृहस्थों के लिए प्रधान है और ध्यानाध्ययन मुनियों के लिए।] <br /> | |||
देखें [[ संयम#1.6 | संयम - 1.6]] [व्रत समिति गुप्ति आदि साधु का धर्म है और पूजा दया दान आदि गृहस्थों का।] <br /> | |||
देखें [[ धर्म#6.5 | धर्म - 6.5 ]](गृहस्थों को व्यवहार धर्म की मुख्यता का कारण यह है कि उनके राग की प्रकर्षता के कारण निश्चय धर्म की शक्ति का वर्तमान में अभाव है।) <br /> | |||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7"> उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं </strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="6.7" id="6.7"> उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं </strong> <br /> | ||
प्र.सा./पं. | प्र.सा./पं.जयचन्द/254 दर्शनापेक्षा से तो श्रमण का तथा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को शुद्धात्मा का ही आश्रय है। परन्तु चारित्र की अपेक्षा से श्रमण के शुद्धात्मपरिणति मुख्य होने से शुभोपयोग गौण होता है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के मुनि योग्य शुद्धपरिणति को प्राप्त न हो सकने से अशुभ वंचनार्थ शुभोपयोग मुख्य है।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/332/14 सो ऐसी (वीतराग) दशा न होई, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवर्त्तौ। परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ-यहू (प्रशस्तराग) भी बन्ध का कारण है, हेय है। श्रद्धान विषै याकौ मोक्षमार्ग जानैं मिथ्यादृष्टि ही है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.8" id="6.8"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="6.8" id="6.8"></a>निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है निरपेक्ष नहीं</strong> </span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./6/60 <span class="SanskritGatha">अन्तस्तत्त्वविशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु। द्वयो: सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्द्वितीयमाश्रयेत् ।60। </span>=<span class="HindiText">अभ्यन्तर तत्त्व तो विशुद्धात्मा और बाह्य तत्त्व प्राणियों की दया, इन दोनों के मिलने पर मोक्ष होता है। इसलिए उन दोनों का आश्रय करना चाहिए।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./2/133/250/5 <span class="SanskritText">इदमत्र तात्पर्यम् । गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयपरस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मक: श्रावकधर्म: कर्त्तव्य:, यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयबलेन विशिष्टतपश्चरणं कर्त्तव्यं। </span>=<span class="HindiText">इसका यह तात्पर्य है कि गृहस्थ तो अभेद रत्नत्रय के स्वरूप को उपादेय मानकर भेदरत्नत्रयात्मक श्रावकधर्म को करे और साधु निश्चयरत्नत्रय में स्थित होकर व्यावहारिक रत्नत्रय के बल से विशिष्ट तपश्चरण करे।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./172/247/12 <span class="SanskritText">तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकम् । तद्यथा–ये केचन... निश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्षं केवलशुभानुष्ठानरूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्गं मन्यन्ते तेन तु सुरलोकदिक्लेशपरंपरया संसारं परिभ्रमन्तीति, यदि पुन: शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयमोक्षमार्ग मन्यन्ते निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावान्निश्चयसाधकं शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तर्हि...परंपरया मोक्षं लभन्ते; इति व्यवहारैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं। येऽपि केवलनिश्चयनयावलम्बिन: सन्तोऽपि... शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयन्ते तेऽप्युभयभ्रष्टा सन्तो...पापमेव बध्नन्ति। यदि पुन: शुद्धात्मानुष्ठानरूपं निश्चयमोक्षमार्गं तत्साधकं व्यवहारमोक्षमार्गं मन्यन्ते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठानरहितापि यद्यपि शुद्धात्मभावनासोपेक्षशुभानुष्ठानरतपुरुषसदृशा न भवन्ति तथापि...परंपरया मोक्षं च लभन्ते इति निश्चयैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं। तत: स्थितमेतन्निश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यासाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभन्ते।</span> =<span class="HindiText">वह वीतरागता साध्यसाधकभाव से परस्पर सापेक्ष निश्चय व व्यवहार नयों के द्वारा ही साध्य है निरपेक्ष के द्वारा नहीं। वह ऐसे कि–(नयों की अपेक्षा साधकों को तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है–केवल व्यवहारावलम्बी, केवल निश्चयावलम्बी और नयातीत। इनमें-से भी पहिले के दो भेद हैं–निश्चय निरपेक्ष व्यवहार और निश्चय सापेक्ष व्यवहार। इसी प्रकार दूसरे के भी दो भेद हैं–व्यवहार निरपेक्ष निश्चय और व्यवहार सापेक्ष निश्चय। इन पांच विकल्पों का ही यहां स्वरूप दर्शाकर विषय का समन्वय किया गया है।) </span> | ||
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<li><span class="HindiText"> जो कोई | <li><span class="HindiText"> जो कोई निश्चय मोक्षमार्ग से निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारनय को ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उससे सुरलोकादि की क्लेशपरम्परा के द्वारा संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धानुभूति लक्षणवाले मोक्षमार्ग को मानते हुए, चारित्र में | <li><span class="HindiText"> यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धानुभूति लक्षणवाले मोक्षमार्ग को मानते हुए, चारित्र में निश्चयमोक्षमार्ग के अनुष्ठान (निर्विकल्प समाधि) की शक्ति का अभाव होने के कारण, निश्चय को सिद्ध करने वाले ऐसे शुभानुष्ठान को करें तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार एकान्त व्यवहार के निराकरण की मुख्यता से दो विकल्प कहे। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जो कोई केवल | <li><span class="HindiText"> जो कोई केवल निश्चयनयावलम्बी होकर, शुद्धात्मा की प्राप्ति न होते हुए भी, साधुओं के योग्य षडावश्यकादि अनुष्ठान को और श्रावकों के योग्य दान पूजादि अनुष्ठान को दूषण देते हैं, तो उभय भ्रष्ट हुए केवल पाप का ही बन्ध करते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि वे ही श्रद्धा में | <li><span class="HindiText"> यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धात्मा के अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्ग को तथा उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को मानते हुए; चारित्र में चारित्रमोहोदयवश शुद्धचारित्र की शक्ति का अभाव होने के कारण, अन्य साधारण शुभ व अशुभ अनुष्ठान से रहित वर्तते हुए भी; शुद्धात्मभावना सापेक्षा शुभानुष्ठानरत पुरुष के सदृश न होने पर भी, परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार एकान्त निश्चय के निराकरण की मुख्यता से दो विकल्प कहे। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इसलिए यह सिद्ध होता है कि | <li><span class="HindiText"> इसलिए यह सिद्ध होता है कि निश्चय व व्यवहार के साध्यसाधकभाव से प्राप्त निर्विकल्प समाधि के बल से मोक्ष प्राप्त करते हैं।<br /> | ||
(और भी | (और भी देखें [[ चारित्र#7.7 | चारित्र - 7.7]]) (और भी देखें [[ मोक्षमार्ग ]]/4/6)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7" id="7"></a>निश्चय व्यवहारधर्म में कथंचित् मोक्ष व बन्ध का कारणपना</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./156<span class="PrakritGatha"> मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण हु जदीण कम्मक्खओ विहिओ।</span>=<span class="HindiText">निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् लोग व्यवहार [व्रत तप आदि शुभकर्म-(टीका)] द्वारा प्रवर्तते हैं। परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा है।</span><br /> | ||
यो.सा./यो./ | यो.सा./यो./16,48<span class="PrakritGatha"> अप्पा-दंसणु एक्कु परु अण्णु कि पि वियाणि। मोक्खहं कारण जोइया णिच्छइं पहउ जाणि।16। रायरोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ। सो धम्सु वि जिण उत्तियउ जो पंचमगइ णेइ।48। </span>=<span class="HindiText">हे योगिन् ! एक परम आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ भी मोक्ष का कारण नहीं, यह तू निश्चय समझ।16। जो राग और द्वेष दोनों को छोड़कर निजात्मा में बसना है, उसे ही जिनेन्द्रदेव ने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गति को ले जाने वाला है। (नि.सा./ता.वृ./18/क.34)।</span><br /> | ||
प.प्र./मू./ | प.प्र./मू./2/38/159 <span class="PrakritGatha">अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलोणु। संवरणिज्जर जाणि तुहुं सयल वियप्प विहीणु।</span>=<span class="HindiText">मुनिराज जब तक आत्मस्वरूप में लीन हुआ रहता है, सकल विकल्पों से रहित उस मुनि को ही तू संवर निर्जरा स्वरूप जान।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./366<span class="PrakritText"> सुद्धसंवेयणेण अप्पा मुंचेइ कम्म णोकम्मं।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध संवेदन से आत्मा कर्मों व नोकर्मों से मुक्त होता है (पं.वि/1/81)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> केवल | <li><span class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> केवल व्यवहार मोक्ष का कारण नहीं </strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./153 <span class="PrakritGatha">वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति।153।</span>=<span class="HindiText">व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाहर हैं, वे निर्वाण को प्राप्त नहीं होते (सू.पा./मू./15); (यो.सा./यो./मू./1/98); (यो.सा./अ./1/48)।</span><br /> | ||
र.सा./ | र.सा./70 <span class="PrakritGatha">ण हु दंडइ कोहाइं देहं दंडेइ कहं खवइ कम्मं। सप्पो किं मुवइ तहा वम्मिउ मारिउ लोए।70।</span>=<span class="HindiText">हे बहिरात्मा ! तू क्रोध, मान, मोह आदि का त्याग न करके जो व्रत तपश्चरणादि के द्वारा शरीर को दण्ड देता है, क्या इससे तेरे कर्म नष्ट हो जायेंगे। कदापि नहीं। इस जगत् में क्या कभी बिल को पीटने से भी सर्प मरता है। कदापि नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.3" id="7.3"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.3" id="7.3"></a>व्यवहार को मोक्ष का कारण मानना अज्ञान है</strong></span><br /> | ||
पं.का./मू./ | पं.का./मू./165 <span class="PrakritGatha">अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो। </span>=<span class="HindiText">शुद्धसंप्रयोग अर्थात् शुभ भक्तिभाव से दु:खमोक्ष होता है, ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> वास्तव में व्यवहार मोक्ष का नहीं संसार का कारण है</strong></span><br /> | ||
भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./84 <span class="PrakritGatha">अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाइं णिरवसेसाणि। तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भमदि। =</span><span class="HindiText">जो आत्मा को तो प्राप्त करने की इच्छा नहीं करते और सर्व ही प्रकार के पुण्यकार्यों को करते हैं, वे भी मोक्ष को प्राप्त न करके संसार में ही भ्रमण करते हैं (स.सा./मू./154)।</span><br /> | ||
बा.अणु./ | बा.अणु./59 <span class="PrakritGatha">पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण।</span> =<span class="HindiText">कर्मों का आस्रव करने वाली (शुभ) क्रिया से परम्परा से भी निर्वाण नहीं हो सकता। इसलिए संसार में भटकाने वाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./299 <span class="PrakritGatha">असुह सुहं चिय कम्मं दुविहं तं दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स।299।</span>=<span class="HindiText">द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के शुभ व अशुभ कर्मों से मोह के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण, संसार भ्रमण होता है (न.च.वृ./376)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.5" id="7.5"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.5" id="7.5"></a>व्यवहारधर्म बन्ध का कारण है</strong></span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./284 <span class="PrakritText">ण हु सुहमसुहं हु तं पिय बंधो हवे णियमा।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./366<span class="PrakritText"> असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं। </span>=<span class="HindiText">शुभ और अशुभ रूप अशुद्ध संवेदन से जीव को नियम से कर्म व नोकर्म का बन्ध होता है (पं.वि./1/81)।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./558 <span class="SanskritText">सरागे वीतरागे वा नूनमौदयिकी क्रिया। अस्ति बन्धफलावश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् । </span>=<span class="HindiText">मोह के उदय से उत्पन्न होने के कारण, सराग की या वीतराग की जितनी भी औदयिक क्रियाएं हैं वे अवश्य ही बन्ध करने वाली है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.6" id="7.6">केवल | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.6" id="7.6"></a>केवल व्यवहारधर्म मोक्ष का नहीं बन्ध का कारण है</strong></span><br /> | ||
पं.का./मू./ | पं.का./मू./166 <span class="PrakritGatha">अर्हंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि। </span>=<span class="HindiText">अरहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन (शास्त्र) और ज्ञान के प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है परन्तु वास्तव में कर्मों का क्षय नहीं करता (प.प्र./मू./2/61); (वसु.श्रा./40)।</span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./275 <span class="PrakritGatha">सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं न तु स कममक्खयणिमित्तं। </span>=<span class="HindiText">अभव्य जीव भोग के निमित्तरूप धर्म की (अर्थात् व्यवहारधर्म की) ही श्रद्धा, प्रतीति व रुचि करता है, तथा उसे ही स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षय के निमित्तरूप (निश्चय) धर्म को नहीं।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,4,28/88/11 <span class="PrakritText">पराहीणभावेण किरिया कम्मं किण्ण कीरदे। ण तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो। जिणिंदादिअच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पराधीन भाव से क्रिया-कर्म क्यों नहीं किया जाता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदि की आसादना होने से कर्मों का बन्ध होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.7" id="7.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.7" id="7.7"> व्यवहारधर्म पुण्यबन्ध का कारण है</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./156<span class="PrakritGatha"> उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स सचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि।</span> =<span class="HindiText">उपयोग यदि शुभ हो तो जीव का पुण्य संचय को प्राप्त होता है, और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है। दोनों के अभाव में संचय नहीं होता (प्र.सा./मू./181)।</span><br /> | ||
पं.का./मू./ | पं.का./मू./135 <span class="PrakritGatha">रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदा य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।</span>=<span class="HindiText">जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकम्पा युक्त परिणाम हैं और चित्त में कलुषता का अभाव है उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है (यो.सा./अ./4/37)।</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./48<span class="PrakritText"> विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण गरहाहिं संजुत्तो। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशमभाव से युक्त तथा अपनी निन्दा और गर्हा करने वाले विरले जन ही पुण्यकर्म का उपार्जन करते हैं।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./264/237/11 <span class="SanskritText">स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पञ्चपरमेष्ठ्यादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय यद्यपि स्वभाव से मोक्ष के कारण हैं, परन्तु यदि पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्यों के आश्रित हों तो साक्षात् पुण्यबन्ध के कारण होते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.8" id="7.8"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.8" id="7.8"> परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्म से उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकार का होता है</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./36/152/5 <span class="SanskritText">तद्भवे तीर्थंकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति।</span> =<span class="HindiText">(सम्यग्दृष्टि की शुभ क्रियाएं) उस भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि रूप विशिष्ट पुण्यबन्ध की कारण होती हैं (द्र.सं./टी./38/160/2); (प्र.सा./ता.वृ./6/8/10); (प.प्र./टी./2/6/71/196/6)।</span><br /> | ||
प.प्रा./टी./ | प.प्रा./टी./2/60/182/1 <span class="SanskritText">इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव ममकाराहंकारं जनयति, बुद्धिविनाशं च करोति। न च पुन: सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् । यदि पुन: सर्वेषां मदं जनयति तर्हिं ते कथं पुण्यभाजना: सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">जो यह पुण्य पहले कहा गया है वह सर्वत्र समान नहीं होता। भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षारूप निदानबन्ध वाले परिणामों से सहित ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा जो पूर्वभव में उपार्जित किया गया पुण्य होता है, वह ही ममकार व अहंकार को उत्पन्न करता है तथा बुद्धि का विनाश करता है। परन्तु सम्यक्त्व आदि गुणों के सहित उपार्जित पुण्य ऐसा नहीं करता, जैसे कि भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि का पुण्य। यदि सभी जीवों का पुण्य मद उत्पन्न करता होता तो पुण्य के भाजन होकर भी वे मद अहंकारादि विकल्पों को छोड़कर मोक्ष कैसे जाते ?<br>(और भी–देखें [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि - 4]]); (मिथ्यादृष्टि का पुण्य पापानुबन्धी होता है पर सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.9" id="7.9"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.9" id="7.9"></a>सम्यक व्यवहारधर्म निर्जरा का तथा परम्परा मोक्ष का कारण है</strong></span><br>प्र.सा./मू. प्रक्षेपक/79-2 <span class="SanskritText">तं देवदेवं जदिवरवसहं गुरु तिलोयस्स। पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति। </span>=<span class="HindiText">जो त्रिलोकगुरु यतिवरवृषभ उस देवाधिदेव को नमस्कार करते हैं, वे मनुष्य अक्षय सुख प्राप्त करते हैं। </span>भाव संग्रह/404,610<span class="SanskritGatha"> सम्यग्दृष्टे: पुण्यं न भवति संसारकारणं नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निदानं न करोति।404। आवश्यकादि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्वंनिर्जरानिमित्तम् ।610। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता, बल्कि यदि वह निदान न करे तो मोक्ष का कारण है।404। आवश्यक आदि या वैयावृत्ति या दान पूजा आदि जो कुछ भी शुभक्रिया सम्यग्दृष्टि करता है, वह सबकी सब उसके लिए निर्जरा की निमित्त होती है। </span><br> | ||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./211<span class="SanskritGatha"> असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो य:। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपाय: ।211। </span>=<span class="HindiText">भेदरत्नत्रय की भावना से जो पुण्य कर्म का बन्ध होता है वह यद्यपि रागकृत है, तो भी वे मिथ्यादृष्टि की भांति उसे संसार का कारण नहीं हैं बल्कि परम्परा से मोक्ष का ही कारण हैं। </span>नि.सा./ता.वृ./76/क.107 <span class="SanskritText">शीलमपवर्गयोषिदनङ्सुखस्यापि मूलमाचार्या:। प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परम्पराहेतु:।</span>=<span class="HindiText">आचार्यों ने शील को मुक्तिसुन्दरी के अनंगसुख का मूल कारण कहा। व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है। </span><br>द्र.सं./टी./36/152/6 <span class="SanskritText">पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति।</span> =<span class="HindiText">(वह विशिष्ट पुण्यबन्ध) परम्परा से मुक्ति का कारण है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.10" id="7.10"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.10" id="7.10"> परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्ष का कारण है रहित नहीं</strong></span><br>स.सा./मू./156 <span class="PrakritGatha">मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। </span>=<span class="HindiText">निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् व्यवहार के द्वारा प्रवर्तते हैं, परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा गया है। </span>स.श./71 <span class="SanskritText">मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचलाधृति:। तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति:।</span>=<span class="HindiText">जिस पुरुष के चित्त में आत्मस्वरूप की निश्चल धारणा है, उसकी नियम से मुक्ति होती है, और जिस पुरुष की आत्मस्वरूप में निश्चल धारणा नहीं है, उसकी अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है (अर्थात् हो भी और न भी हो)। </span><br>प.प्र./टी./2/191 <span class="SanskritText">यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति।</span> =<span class="HindiText">यदि ‘निज शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसा श्रद्धा करके, उसके साधकरूप से तदनुकूल तपश्चरण (चारित्र) करता है, और उसके ही विशेष परिज्ञान के लिए शास्त्रादि पढ़ता है तो वह भेद रत्नत्रय परम्परा से मोक्ष का साधक होता है। यदि ऐसा न करके केवल बाह्य क्रिया करता है तो वही पुण्यबन्ध का कारण है। (पं.का./ता.वृ./172/249/9); (प्र.सा./ता.वृ./255/349/1)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.11" id="7.11">यद्यपि | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.11" id="7.11"></a>यद्यपि मुख्यरूप से पुण्यबन्ध ही होता पर परम्परा से मोक्ष का कारण पड़ता है</strong> </span><br>प्र.सा./ता.वृ./255/348/20<span class="SanskritText"> यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वक: शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च। </span>=<span class="HindiText">जब पूर्वसूत्र में कहे अनुसार सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्यरूप से तो पुण्यबन्ध होता है, परन्तु परंपरा से निर्वाण भी होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.12" id="7.12"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="7.12" id="7.12"></a>परम्परा मोक्ष का कारण कहने का तात्पर्य</strong></span><br>पं.का./ता.वृ./170/243/15 <span class="SanskritText">तेन कारणेन यद्यप्यनन्तसंसारछेदं करोति कोऽप्यचरमदेहस्तद्भवे कर्मक्षयं न करोति तथापि...भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपदं लभते। तत्र...पञ्चविदेहेषु गत्वा समवशरणे वीतरागसर्वज्ञानं पश्यति...तदनन्तरं विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवर्त्यादिविभूतिं लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोहं न करोति ततश्च विषयसुखं परिहृत्य: जिनदीक्षां गृहीत्वा निर्विकल्पसमाधिविधानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं गच्छतीति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">उस पूजादि शुभानुष्ठान के कारण से यद्यपि अनन्तसंसार की स्थिति का छेद करता है, परन्तु कोई भी अचरमदेही उसी भव में कर्मक्षय नहीं करता। तथापि भवान्तर में देवेन्द्रादि पदों को प्राप्त करता है। तहां पंचविदेहों में जाकर समवशरण में तीर्थंकर भगवान के साक्षात् दर्शन करता है। तदनन्तर विशेष रूप से दृढ़धर्मा होकर चतुर्थ गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को न छोड़ता हुआ देवलोक में काल गंवाता है। जीवन के अन्त में स्वर्ग से चयकर मनुष्य भव में चक्रवर्ती आदि की विभूति को प्राप्त करके भी पूर्वभव में भावित शुद्धात्मभावना के बल से मोह नहीं करता। और विषयसुख को छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करके निर्विकल्पसमाधि की विधि से विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजशुद्धात्मा में स्थित होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। (द्र.सं./टी./38/160/1); (द्र.सं./टी./35/145/6); (धर्मध्यान/5/2); (भा.पा./टी./81/233/6)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="8.1" id="8.1">धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि</strong> </span><br>ज्ञा./ | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="8.1" id="8.1"></a>धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि</strong> </span><br>ज्ञा./2-10/2 <span class="SanskritText">दशलक्ष्मयुत: सोऽयं जिनैर्धर्म: प्रकीर्तित:। </span>=<span class="HindiText">जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म को दश लक्षण युक्त कहा है (पं.वि./1/7); (का.अ./478); (द्र.सं./टी./35/101/8); (द्र.सं./टी./35/145/3); (द.पा.टी./9/8/4)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8.2" id="8.2">दशधर्मों के साथ ‘उत्तम’ विशेषण की सार्थकता</strong> </span><br>स.सि./ | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="8.2" id="8.2"></a>दशधर्मों के साथ ‘उत्तम’ विशेषण की सार्थकता</strong> </span><br>स.सि./9/6/413/5 <span class="SanskritText">दृष्टप्रयोजनपरिवर्तनार्थमुत्तमविशेषणम् ।</span> =<span class="HindiText">दृष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ इनके साथ ‘उत्तम’ विशेषण दिया है। (रा.वा./9/6/26/598/29)। </span><br>चा.सा./58/1 <span class="SanskritText">उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थं। </span>=<span class="HindiText">ख्याति व पूजादि की भावना की निवृत्ति के अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति पूजा आदि के अभिप्राय से धारी गयी क्षमा आदि उत्तम नहीं है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8.3" id="8.3"> ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं </strong></span><br>बा.अनु./ | <li><span class="HindiText"><strong name="8.3" id="8.3"> ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं </strong></span><br>बा.अनु./68<span class="PrakritGatha"> एयारस दसभेयं धम्मं सम्मत्तं पुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं।68।</span> =<span class="HindiText">उत्तम सुखसंयुक्त जिनेन्द्रदेव ने सागार धर्म के ग्यारह भेद और अनगार धर्म के दश भेद कहे हैं। (का.अ./मू.304); (चा.सा./58/1)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8.4" id="8.4"> परन्तु | <li><span class="HindiText"><strong name="8.4" id="8.4"> परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनों को ही होते हैं</strong></span><br>पं.वि./6/59 <span class="SanskritGatha">आद्योत्तमक्षमा यत्र सो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59।</span> =<span class="HindiText">उत्तम क्षमा है आदि में जिसके तथा जो दश भेदों से युक्त है, उस धर्म का श्रावकों को भी अपनी शक्ति और आगम के अनुसार सेवन करना चाहिए। रा.वा./हिं./9/6/668 ये धर्म अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके जैसे क्रोधादि की निवृत्ति होय तैसे यथा सम्भव होय हैं, अर मुनिनि के प्रधानपने होय हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8.5" id="8.5"> इन दशों को धर्म कहने में हेतु</strong></span><br> रा.वा./ | <li><span class="HindiText"><strong name="8.5" id="8.5"> इन दशों को धर्म कहने में हेतु</strong></span><br> रा.वा./9/6/24/598/22 <span class="SanskritText">तेषां संवरणधारणसामर्थ्याद्धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थेति।</span>=<span class="HindiText">इन धर्मों में चूंकि संवर को धारण करने की सामर्थ्य है, इसलिए ‘धारण करने से धर्म’ इस सार्थक संज्ञा को प्राप्त होते हैं। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) एक चारण ऋद्धिधारी श्रमण । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.17 </span></p> | |||
<p id="2">(2) तीर्थंकर वासुपूज्य के प्रमुख गणधर । <span class="GRef"> महापुराण 58.44 </span></p> | |||
<p id="3">(3) तीर्थंकर विमलनाथ के तीर्थ में हुआ तीसरा बलभद्र । यह द्वारावती नगरी के राजा भद्र और रानी सुभद्रा का पुत्र था । नारायण स्वयंभू इसका भाई था । <span class="GRef"> महापुराण 59.87 </span>स्वयंभु मधु प्रतिनारायण को मारकर अर्ध भरतक्षेत्र का स्वामी हुआ । उसने बहुत काल तक राज्य का उपभोग किया । मरकर वह भी सातवें नरक में गया । अपने भाई के वियोग से उत्पन्न शोक के कारण यह विमलनाथ के समीप संयमी हुआ । उग्र तपस्या की, केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार से मुक्त हुआ । अपने दूसरे पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के पश्चिम विदेहक्षेत्र में मित्रनन्दी राजा था और प्रथम पूर्वभव में अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 59.64-71, 87, 95-106, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 111 </span></p> | |||
<p id="4">(4) एक देव । कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवों को भस्म किये जाने का षड्यंत्र जानकर यह पाण्डवों के कुल की रक्षा करने के ध्येय से एकाएक पाण्डवों के पास आया था । इसने द्रौपदी को छिपा लिया और उसे मारने के लिए एक-एक करके आये हुए पाण्डवों को विषमिश्रित सरोवर का जल पिलाकर मूर्च्छित कर दिया । कनकध्वज द्वारा भेजी हुई कृत्याविद्या के आने पर इसने भील का रूप धारण कर लिया । पाण्डवों के शरीर को मृत बताकर इसने कृत्या को धोखे में डाल दिया । कृत्याविद्या के द्वारा कार्य पूछे जाने पर इसने पाण्डवों को मारने की आज्ञा देने वाले कनकध्वज को ही मारने के लिए कहा । तदनुसार कृत्याविद्या ने कनकध्वज के पास लौटकर उसे मार डाला । विद्या अपने स्थान पर चली गयी । धर्म ने अमृत बिन्दुओं से पाण्डवों को सींचकर सोये हुए के समान उठा दिया । अर्जुन को द्रौपदी दे दी । सारा वृत्तान्त सुनाया और युधिष्ठिर आदि की वन्दना करके अपने स्थान को लौट आया । <span class="GRef"> पांडवपुराण 17.150-225 </span></p> | |||
<p id="5">(5) राम का पक्षधर एक योद्धा । <span class="GRef"> पद्मपुराण 58.14 </span></p> | |||
<p id="6">(6) अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाकापुरुष एवं पन्द्रहवें तीर्थंकर । ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विद्यमान रत्नपुर नगर में कुरुवंशी-काश्यपगोत्री राजा भानु के घर जन्में थे । रानी सुप्रभा इनकी माता थी । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय इनकी माता ने सोलह स्वप्न देखे थे । उसी समय अनुत्तर विमान से च्युत होकर ये सुप्रभा रानी के गर्भ में आये । माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग मे अनन्तनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने इनका यह नाम रखा था । इनकी आयु दस लाख वर्ष, शारीरिक कान्ति स्वर्ण के समान और अवगाहना एक सौ अस्सी हाथ थी । कुमारावस्था के अढ़ाई लाख वर्ष बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाते पर उल्कापात देख इन्हें वैराग्य हो गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र सुधर्म को इन्होंने राज्य दे दिया । नागदत्ता नाम की पालकी में बैठ ये शीलवन आये और वहाँ माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । ये आहारार्थ पाटलिपुत्र आये, वहाँ धन्यषेण नृप ने इन्हें अहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये । एक वर्ष पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्र में इन्होंने केवलज्ञान प्रान्त किया । देवों ने महोत्सव किया । इनके संघ में अरिष्टसेन आदि तेंतालीस गणधर, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ उपाध्याय, तीन हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, चार हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी, दो हजार आठ सौ वादी कुल, चौसठ हजार मुनि तथा सुव्रता आदि बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, दो लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए अन्त में ये सम्मेदगिरि आये । यहाँ एक मास का योग-निरोध करके आठ सौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हो गये और ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी की रात्रि के अवाम में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर पुण्य नक्षत्र में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । देवों ने आकर परम उत्साह से निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया । दूसरे पूर्वभव में ये सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे और प्रथम पूर्वभव से अहमिन्द्र रहे । <span class="GRef"> महापुराण 2.131, 61.2-54, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5. 215, 20.120, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.17, 60. 153-196, 341-396, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 107 </span></p> | |||
<p id="7">(7) जीव और पुद्गल के गमन में सहायक एक द्रव्य । <span class="GRef"> महापुराण 24.133-134, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.3, 72, 58.54 </span></p> | |||
<p id="8">(8) एक अनुप्रेक्षा (भावना)― आत्मज्ञान को ही परम धर्म समझकर उसका चिन्तन करना । <span class="GRef"> पद्मपुराण 14.239, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25.117-123 </span></p> | |||
<p id="9">(9) चतुर्विध पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ । यह अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष का साधन हे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.193, 9.137 </span></p> | |||
<p id="10">(10) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त वस्तु का यथार्थ स्वरूप । <span class="GRef"> महापुराण 21. 133 </span></p> | |||
<p id="11">(11) प्राणियों को कुगति से सुगति में ले जाने वाला । यह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप के भेद से चार प्रकार का होता है । उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से इसके दस लक्षण है । <span class="GRef"> महापुराण 11. 103-104, 47.302-303, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 106. 90, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.130, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 23.71, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 122 </span>इसके दो भेद भी है― सागार और अनगार । इनमें पांच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना अनगार धर्म है । सम्यग्दर्शन पूर्व का तप, दान, पूजा और पंचाणुव्रतों का पालन सागार धर्म है । <span class="GRef"> महापुराण 41.104, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 4.48, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.7-9, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 9. 81-82 </span>पाण्डवपुराणकार ने ऊपर कहे सागार धर्म में पूजा के स्थान पर शुभ-भावना को स्थान दिया है । <span class="GRef"> पांडवपुराण 1.123 </span>आचार्य रविषेण ने पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार धर्म कहा है । <span class="GRef"> पद्मपुराण 4.6 </span>सामान्यत: जीव-दया, सत्य, क्षमा, शौच, त्याग, सम्यग्ज्ञान और वैराग्य ये सब धर्म है । <span class="GRef"> महापुराण 10.15 </span></p> | |||
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Revision as of 21:42, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- (म.पु./59/श्लोक नं.) पूर्वभव नं.2 में भरतक्षेत्र के कुणालदेश में श्रावस्ती नगरी का राजा था।72। पूर्वभव नं.1 में लान्तव स्वर्ग में देव हुआ।85। और वहां से चयकर वर्तमानभव में तृतीय बलभद्र हुए।–देखें शलाकापुरुष - 3।
- (म.पु./17/श्लोक नं.) यह एक देव था। कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवों के भस्म किये जाने का षड्यन्त्र जानकर उनके रक्षणार्थ आया था।156-162। उसने द्रौपदी का तो वहां से हरण कर लिया और पाण्डवों को सरोवर के जल से मूर्च्छित कर दिया। कृत्याविद्या के आने पर भील का रूप बना पाण्डवों के शरीरों को मृत बताकर उसे धोके में डाल दिया। विद्या ने वहां से लौटकर क्रोध से अपने साधकों को ही मार दिया। अन्त में वह देव पाण्डवों को सचेत करके अपने स्थान पर चला गया।163-225।
धर्म नाम स्वभाव का है। जीव का स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नहीं। अत: वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है, या कारण में कार्य का उपचार करके, जिस अनुष्ठान विशेष से उस आनन्द की प्राप्ति हो उसे भी धर्म कहते हैं। वह दो प्रकार का है–एक बाह्य दूसरा अन्तरंग। बाह्य अनुष्ठान तो पूजा, दान, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि करना है और अन्तरंग अनुष्ठान साम्यता व वीतरागभाव में स्थिति की अधिकाधिक साधना करना है। तहां बाह्य अनुष्ठान को व्यवहारधर्म कहते हैं और अन्तरंग को निश्चयधर्म। तहां निश्चयधर्म तो साक्षात् समता स्वरूप होने के कारण वास्तविक है और व्यवहार धर्म उसका कारण होने से औपचारिक। निश्चयधर्म तो सम्यक्त्व सहित ही होता है, पर व्यवहार धर्म सम्यक्त्व सहित भी होता है और उससे रहित भी। उनमें से पहला तो निश्चयधर्म से बिलकुल अस्पृष्ट रहता है और दूसरा निश्चयधर्म के अंश सहित होता है। पहला कृत्रिम है और दूसरा स्वाभाविक। पहला तो साम्यता के अभिप्राय से न होकर पुण्य आदि के अभिप्रायों से होता है और दूसरा केवल उपयोग को बाह्य विषयों से रक्षा के लिए होता है। पहले में कृत्रिम उपायों से बाह्य विषयों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराना इष्ट है और दूसरे में वह अरुचि स्वाभाविक होती है। इसलिए पहला धर्म बाह्य से भीतर की ओर जाता है जबकि दूसरा भीतर से बाहर की ओर निकलता है। इसलिए पहला तो आनन्द प्राप्ति के प्रति अकिंचित्कर रहता है और दूसरा उसका परम्परा साधन होता है, क्योंकि वह साधक को धीरे-धीरे भूमिकानुसार साम्यता के प्रति अधिकाधिक झुकाता हुआ अन्त में परम लक्ष्य के साथ घुल-मिलकर अपनी सत्ता खो देता है। पहला व्यवहार धर्म भी कदाचित् निश्चयधर्मरूप साम्यता का साधक हो सकता है, परन्तु तभी जबकि अन्य सब प्रयोजनों को छोड़कर मात्र साम्यता की प्राप्ति के लिए किया जाये तो। निश्चय सापेक्ष व्यवहारधर्म भी साधक की भूमिकानुसार दो प्रकार का होता है–एक सागार दूसरा अनगार। सागारधर्म गृहस्थ या श्रावक के लिए है और अनगारधर्म साधु के लिए। पहले में विकल्प अधिक होने के कारण निश्चय का अंश अत्यंत अल्प होता है और दूसरे में साम्यता की वृद्धि हो जाने के कारण वह अंश अधिक होता है। अत: पहले में निश्चय धर्म अप्रधान और दूसरे में वह प्रधान होता है। निश्चयधर्म अथवा निश्चयसापेक्ष व्यवहार धर्म दोनों में ही यथायोग्य क्षमा, मार्दव आदि दस लक्षण प्रकट होते हैं, जिसके कारण कि धर्म को दसलक्षण धर्म अथवा दशविध धर्म कह दिया जाता है।
- धर्म के भेद व लक्षण
- संसार से रक्षा करे या स्वभाव में धारण करे सो धर्म।
- धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि।
- स्वभाव गुण आदि के अर्थ में धर्म–देखें स्वभाव - 1।
- धर्म का लक्षण उत्तमक्षमादि।–देखें धर्म - 8।
- धर्म का लक्षण रत्नत्रय।
- भेदाभेद रत्नत्रय–देखें मोक्षमार्ग ।
- व्यवहार धर्म के लक्षण।
- व्यवहार धर्म व शुभोपयोग।–देखें उपयोग - II.4।
- व्यवहार धर्म व पुण्य।–देखें पुण्य ।
- निश्चय धर्म का लक्षण।
- साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम।
- शुद्धात्मपरिणति।
- साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम।
- निश्चयधर्म के अपरनाम धर्म के भेद।–देखें मोक्षमार्ग /2/5।
- धर्म के भेद।
- संसार से रक्षा करे या स्वभाव में धारण करे सो धर्म।
- सागार व अनगार धर्म।–देखें वह वह नाम ।
- धर्म में सम्यग्दर्शन का स्थान
- सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है।
- मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन प्रधान है।–देखें सम्यग्द - 0.I.5।
- सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है।
- धर्म सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है।
- सच्चा व्यवहार धर्म सम्यग्दृष्टि को ही होता है।–देखें भक्ति ।
- सम्यक्त्वयुक्त ही धर्म मोक्ष का कारण है रहित नहीं।
- सम्यक्त्व रहित क्रियाएं वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं।
- सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थ से अधर्म व पाप है।
- सम्यक्त्वरहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है।
- धर्म के श्रद्धान का सम्यग्दर्शन में स्थान।–देखें सम्यग्दर्शन - II.1।
- निश्चय धर्म की कथंचित् प्रधानता
- निश्चयधर्म ही भूतार्थ है।
- शुभ-अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक धर्म है।
- धर्म वास्तव में एक है, उसके भेद, प्रयोजन वश किये गये हैं।–देखें मोक्षमार्ग /4।
- निश्चयधर्म ही भूतार्थ है।
- एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं।
- निश्चयधर्म की व्याप्ति व्यवहार धर्म के साथ है, पर व्यवहार की निश्चय के साथ नहीं।
- निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है।
- निश्चय रहित व्यवहार धर्म से शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती।
- निश्चय धर्म का माहात्म्य।
- यदि निश्चय ही धर्म है तो सांख्यादि मतों को मिथ्या क्यों कहते हो।–देखें मोक्षमार्ग /1/3।
- व्यवहार धर्म की कथंचित् गौणता
- व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है।
- व्यवहाररत जीव परमार्थ को नहीं जानते।
- व्यवहार धर्म में रुचि करना मिथ्यात्व है।
- व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध, अग्नि व दु:खस्वरूप है।
- व्यवहार धर्म परमार्थ से मोह व पापरूप है।
- व्यवहार धर्म में कथंचित् सावद्यपना।–देखें सावद्य ।
- व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है।
- व्यवहार धर्म अकिंचित्कर है।
- व्यवहार धर्म कथंचित् विरुद्धकार्य (बन्ध) को करने वाला है।–देखें चारित्र - 5.5; (धर्म/7)।
- व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है।
- व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ़।
- व्यवहार को धर्म कहना उपचार है।
- व्यवहारधर्म की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहारधर्म निश्चय का साधन है।
- व्यवहारधर्म की कथंचित् इष्टता।
- अन्य के प्रति व्यक्ति का कर्त्तव्य अकर्त्तव्य।
- व्यवहार धर्म का महत्त्व।
- व्यवहारधर्म निश्चय का साधन है।
- निश्चय व व्यवहार धर्म समन्वय
- निश्चयधर्म की प्रधानता का कारण।
- यदि व्यवहारधर्म हेय है तो सम्यग्दृष्टि क्यों करता है।–देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- व्यवहारधर्म निषेध का कारण।
- व्यवहारधर्म निषेध का प्रयोजन।
- व्यवहारधर्म के त्याग का उपाय व क्रम।
- स्वभाव आराधना के समय व्यवहार धर्म त्याग देना चाहिए।–देखें नय - I.3.6।
- व्यवहारधर्म को उपादेय कहने का कारण।
- व्यवहारधर्म का पालन अशुभ वंचनार्थ होता है।–देखें मिथ्यादृष्टि - 4/4।
- व्यवहार पूर्वक गुणस्थान क्रम से आरोहण किया जाता है।–धर्मध्यान/6/6।
- निश्चयधर्म साधु को मुख्य और गृहस्थों को गौण होता है।–देखें अनुभव - 5।
- व्यवहारधर्म साधु को गौण और गृहस्थ को मुख्य होता है।
- साधु व गृहस्थ के व्यवहारधर्म में अन्तर।–देखें संयम - 1.6।
- साधु व गृहस्थ के निश्चयधर्म में अन्तर।–देखें अनुभव - 5।
- उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं।
- निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है निरपेक्ष नहीं।
- उत्सर्ग व अपवाद मार्ग की परस्पर सापेक्षता।–देखें अपवाद - 4।
- ज्ञान व क्रियानय का समन्वय।–देखें चेतना - 3.8।
- धर्मविषयक पुरुषार्थ।–देखें पुरुषार्थ ।
- निश्चयधर्म की प्रधानता का कारण।
- निश्चय व्यवहारधर्म में मोक्ष व बन्ध का कारणपना
- निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण है।
- केवल व्यवहार मोक्ष का कारण नहीं।
- व्यवहार को मोक्ष का कारण मानना अज्ञान है।
- वास्तव में व्यवहार मोक्ष का नहीं संसार का कारण है।
- व्यवहारधर्म बन्ध का कारण है।
- केवल व्यवहारधर्म मोक्ष का नहीं बन्ध का कारण है।
- व्यवहारधर्म पुण्यबन्ध का कारण है।
- परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्म से उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकार का होता है।
- मिथ्यात्व युक्त ही व्यवहारधर्म संसार का कारण है सम्यक्त्व सहित नहीं।–देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- सम्यक् व्यवहारधर्म निर्जरा का तथा परम्परा मोक्ष का कारण है।
- देव पूजा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण है।–देखें पूजा - 2।
- सम्यक् व्यवहारधर्म में संवर का अंश अवश्य रहता है।–देखें संवर - 2।
- परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्ष का कारण है रहित नहीं।
- यद्यपि मुख्यरूप से पुण्यबन्ध ही होता है, पर परम्परा से मोक्ष का कारण पड़ता है।
- परम्परा मोक्ष का कारण कहने का तात्पर्य।
- निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण है।
- दशधर्म निर्देश
- धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि।
- दशधर्मों के नाम निर्देश।–देखें धर्म - 1.6।
- दशधर्मों के साथ ‘उत्तम’ विशेषण की सार्थकता।
- ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं।
- परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनों को होते हैं।
- इन दशों को धर्म कहने में हेतु।
- दशों धर्म विशेष।–देखें वह वह नाम ।
- गुप्ति, समिति व दशधर्मों में अन्तर।–देखें गुप्ति - 2।
- धर्मविच्छेद व पुन: उसकी स्थापना–देखें कल्की ।
- धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि।
- धर्म के भेद व लक्षण
- संसार से रक्षा करे व स्वभाव में धारण करे सो धर्म
र.क.श्रा./2 देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदु:खत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।2। =जो प्राणियों को संसार के दु:ख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है। (म.पु./2/37) (ज्ञा./2-10/15)
स.सि./9/2/409/11 इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:। =जो इष्ट स्थान (स्वर्ग मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। (रा.वा./9/2/3/591/32)।
प.प्र./मू./2/68 भाउ विसुद्धणु अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु। चउगइ दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।68। =निजी शुद्धभाव का नाम ही धर्म है। वह संसार में पड़े हुए जीवों की चतुर्गति के दु:खों से रक्षा करता है। (म.पु./47/302); (चा.सा./3/1)।
प्र.सा./ता.वृ./7/9/9 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्म:। =मिथ्यात्व व रागादि में नित्य संसरण करने रूप भावसंसार के प्राणी को उठाकर जो निर्विकार शुद्ध चैतन्य में धारण कर दे, वह धर्म है।
द्र.सं./टी./35/101/8 निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञान दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म भावनात्मको धर्म:, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि...दशप्रकारो धर्म:। =निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे यानी रक्षा करे सो विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षण वाला निजशुद्धात्मा की भावनास्वरूप धर्म है। व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इन्द्र चक्रवर्ती आदि का जो वन्दने योग्य पद है उसमें पहुंचाने वाला उत्तम क्षमा आदि दश प्रकार का धर्म है।
पं.ध./उ./715 धर्मो नीचै: पदादुच्चै: पदे धरति धार्मिकम् । तत्राजवज्जवो नीचै: पदमुच्चैस्तदव्यय:।715। =जो धर्मात्मा पुरुषों को नीचपद से उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। तथा उनमें संसार नीचपद है और मोक्ष उच्चपद है।
- धर्म का लक्षण अहिंसा व दया आदि
बो.पा./मू./25 धम्मो दयाविशुद्धो। =धर्म दया करके विशुद्ध होता है। (नि.सा./ता.वृ./6 में उद्धृत); (पं.वि./1/8); (द.पा./टी./2/2/20)
स.सि./9/7/419/2 अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूल:। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त: उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बन:। =जिनेन्द्रदेव ने जो यह अहिंसा लक्षण धर्म कहा है–सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम उसकी प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, निष्परिग्रहता उसका अवलम्बन है।
रा.वा./6/13/5/524/6 अहिंसालक्षणो धर्म:। =धर्म अहिंसा आदि लक्षण वाला है। (द्र.सं./टी./35/145/3)
का.अ./मू./478 जीवाणं रक्खणं धम्मो। =जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं। (द.पा./टी./9/8/5)
- धर्म का लक्षण रत्नत्रय
र.क.श्रा./3 सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदु:। गणधरादि आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र को धर्म कहते हैं। (का.अ./मू./478); (त.अनु./51) (द्र.सं./टी./145/3)
- व्यवहार धर्म के लक्षण
प्र.सा./ता.वृ./8/9/18 पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते। =पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिपरिणामरूप व्यवहार धर्म होता है।
प.प्र./टी./2/3/116/16 धर्मशब्देनात्र पुण्यं कथ्यते। =धर्मशब्द से यहां (धर्म पुरुषार्थ के प्रकरण में) पुण्य कहा गया है।
प.प्र./टी./2/111-4/231/14 गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते। =आहार दान आदिक ही गृहस्थों का परम धर्म है। सम्यक्त्वपूर्वक किये गये उसी धर्म से परम्परा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
प.प्र./टी./2/134/251/2 व्यवहारधर्मे च पुन: षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु। =साधुओं की अपेक्षा षडावश्यक लक्षण वाले तथा गृहस्थों की अपेक्षा दान पूजादि लक्षण वाले शुभोपयोग स्वरूप व्यवहारधर्म में रति करो।
- निश्चयधर्म का लक्षण
- साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम
प्र.सा./मू./7 चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो। =चारित्र ही धर्म है। जो धर्म है सो साम्य है और साम्य मोह क्षोभ रहित (रागद्वेष तथा मन, वचन, काय के योगों रहित) आत्मा के परिणाम हैं। (मो.पा./मू./50)
भा.पा./मू./83 मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो। =मोह व क्षोभरहित अर्थात् रागद्वेष व योगों रहित आत्मा के परिणाम धर्म है। (स.म./32/342/22 पर उद्धृत), (प.प्र./मू./2/68), (त.अनु./52)
न.च.वृ./356 समदा तह मज्झत्थं सुद्धोभावो य वीयरायत्तं। तह चारित्तं धम्मो सहावाराहणा भणिया। =समता, माध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची शब्द हैं।
पं.ध./उ./755 अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युति:। अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल। =वस्तुस्वरूप की अपेक्षा रागादि ही हिंसा, अधर्म व अव्रत है। और उनका त्याग ही अहिंसा, धर्म व व्रत है।
- शुद्धात्म परिणति
भा.पा./मू./85 अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सहलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो। =रागादि समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में ही रत होना धर्म है।
प्र.सा./त.प्र./91 निरुपरागतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो। =निरुपरागतत्त्व की उपलब्धि लक्षण वाला धर्म...।
प्र.सा./त.प्र./7,8 वस्तुस्वभावत्वार्द्धम:। शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थ:।7।...ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवति। =वस्तु का स्वभाव धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है। इसलिए धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है।
पं.का./ता.वृ./85/143/11 रागादिदोषरहित: शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो। =रागादि दोषों से रहित तथा शुद्धात्मा की अनुभूति सहित निश्चयधर्म होता है। (पं.वि./1/7), (पं.प्र./टी./1/134/251/1), (पं.ध./उ./432)
- साम्यता व मोहक्षोभ विहीन परिणाम
- धर्म के भेद
बा.अ./70 उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।70। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दशभेद मुनिधर्म के हैं। (त.सू./9/6), (भ.आ./वि./46/154/10 पर उद्धृत)
मू.आ./557 तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अत्थिकायधम्मो य। तदिओ चरित्तधम्मौ सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। =धर्म के तीन भेद हैं–श्रुतधर्म, अस्तिकायधर्म, चारित्रधर्म। इन तीनों में से श्रुतधर्म तीर्थ कहा जाता है।
पं.वि./6/4 संपूर्णदेशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत् । =सम्पूर्ण और एकदेश के भेद से वह धर्म दो प्रकार है। अर्थात् मुनि व गृहस्थ धर्म या अनगार व सागार धर्म के भेद से दो प्रकार का है। (बा.अ./68) (का.अ./मू./304), (चा.सा./3/1), (पं.ध./उ./717)
पं.वि./1/7 धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद् द्विधा च त्रयं। रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्तत:।...। =दयास्वरूप धर्म, गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्ररूप उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का है, तथा उत्तम क्षमादि के भेद से दश प्रकार का है। (द्र.सं./टी./35/145/3)
- संसार से रक्षा करे व स्वभाव में धारण करे सो धर्म
- धर्म में सम्यग्दर्शन का स्थान
- सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है
द.पा./मू./2 दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। =सर्वज्ञ देव ने अपने शिष्यों को ‘दर्शन’ धर्म का मूल है ऐसा उपदेश दिया है। (पं.ध./उ./716)
- धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है
बा.अ./68 एयारसदसभेयं धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं।68। =श्रावकों व मुनियों का जो धर्म है वह सम्यक्त्वपूर्वक होता है। (पं.ध./उ./717)।
- <a name="2.3" id="2.3"></a>सम्यक्त्वयुक्त धर्म ही मोक्ष का कारण है रहित नहीं
बा.अणु./57 जण्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया। =जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है वही परम्परा मोक्ष का कारण होती है।
र.सा./10 दाणं पूजा सीलं उपवासं बहुविहंपि खिवणं पि। सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसारं।10। =दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत और मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होने पर मोक्षमार्ग के कारणभूत हैं और सम्यग्दर्शन के बिना संसार को बढ़ाने वाले हैं।
यो.सा./यो./18 गिहि-वावार परिट्ठिया हेयाहेउ मुणंति। अणुदिणुझायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति। =जो गृहस्थी के धन्धे में रहते हुए भी हेयाहेय को समझते हैं और जिनभगवान् का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं।
भावसंग्रह/404,610 सम्यग्दृष्टे: पुण्यं न भवति संसारकारणं नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निदानं स न करोति।404। आवश्यकानि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्वं निर्जरानिमित्तम् ।610। =सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता है। और यदि वह निदान न करे तो मोक्ष का कारण होता है।404। षडावश्यक क्रिया, वैयावृत्त्य, दान, पूजा आदि जो कुछ भी धार्मिक क्रिया सम्यग्दृष्टि करता है वह सब उसके लिए निर्जरा के निमित्त हैं।610।
स.सा./ता.वृ./145 की उत्थानिका/208/11 वीतरागसम्यक्त्वं विना व्रतदानादिकं पुण्यबन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणं। सम्यक्त्वसहितं पुन: परंपरया मुक्तिकारणं च भवति। =वीतरागसम्यक्त्व के बिना व्रत दानादिक पुण्यबन्ध के कारण हैं, मुक्ति के नहीं। परन्तु सम्यक्त्व सहित वे ही पुण्य बन्ध के साथ-साथ परम्परा से मोक्ष के कारण भी हैं। (प्र.सा./ता.वृ./255/348/20) (नि.सा./ता.वृ./18/क.32) (प्र.सा./ता.वृ./255/348/2)। (प.प्र./टी./98/93/4) (प.प्र./टी./191/297/1)।
- <a name="2.4" id="2.4"></a>सम्यक्त्वरहित क्रियाएं वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं
यो.सा./यो./47-48 धम्मु ण पढियइं होइ धम्मु ण पोत्थापिच्छियइं। धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था लुंचियइं।47। राय-रोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि बसेइ। सो धम्मु वि जिण उत्तिमउ जो पंचम-गइ णेइ।48। =पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछी से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं है, तथा केशलोंच करने से भी धर्म नहीं कहा जाता।47। जो राग और द्वेष दोनों को छोड़कर निजात्मा में वास करता है, उसे ही जिनेन्द्रदेव ने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गति को ले जाता है।
ध.9/4,1,1/63 ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाणझाणाणमसंखेजुगुणसेऽणिकम्मणिज्जराए अणिमित्ताणं णाणज्झाणववएसो परमत्थिओ अत्थि। =सम्यक्त्व से रहित ध्यान के असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्मनिर्जरा के कारण न होने से ‘ज्ञानध्यान’ यह संज्ञा वास्तविक नहीं है।
स.सा./आ./275 भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव। =भोग के निमित्तभूत शुभकर्ममात्र जो कि अभूतार्थ हैं (उनकी ही अभव्य श्रद्धा करता है)।
अन.ध./99/106 व्यवहारमभूतार्थं प्रायो भूतार्थ-विमुखजनमोहात् । केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद्भ्रश्यति स्वार्थात् । =भूतार्थ से विमुख रहने वाले व्यक्ति मोहवश अभूतार्थ व्यवहार क्रियाओं में ही उपयुक्त रहते हुए, स्वर रहित व्यञ्जन के प्रयोगवत् स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाते हैं।
पं.ध./उ./444 नापि धर्म: क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत:। =मिथ्यादृष्टि के केवल क्रियारूप धर्म का पाया जाना भी धर्म नहीं हो सकता।
पं.ध./उ./717 न धर्मस्तद्विना क्वचित् । =सम्यग्दर्शन के बिना कहीं भी वह (सागार व अनगार धर्म) धर्म नहीं कहलाता।
- <a name="2.5" id="2.5"></a>सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थ से अधर्म व पाप है
स.सा./आ./200/क.137 सम्यग्दृष्टि: स्वयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु। आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ता:।137। =यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूं, मुझे कभी बन्ध नहीं होता, ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊंचा और पुलकित हो रहा है, ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों की उत्कृष्टता का आलम्बन करें, तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व रहित हैं।
पं.ध./उ./444 नापि धर्म: क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत:। नित्य रागादिसद्भावात् प्रत्युताधर्म एव स:।444। =मिथ्यादृष्टि के सदा रागादि भावों का सद्भाव रहने से केवल क्रियारूप धर्म का पाया जाना भी वास्तव में धर्म नहीं हो सकता, किन्तु वह अधर्म ही है।
- सम्यक्त्व रहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है
स.सा./मू./152 परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू।152। =परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रत को सर्वज्ञ देव बालतप और बालव्रत कहते हैं।
मो.पा./मू./99 किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।99। =आत्मस्वभाव से विपरीत क्रिया क्या करेगी, अनेक प्रकार के उपवासादि तप भी क्या करेंगे, तथा आतापन योगादि कायक्लेश भी क्या करेगा।
भ.आ./मू./गा.नं.3 जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होंति। ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्धं हवे अफला।57। तह मिच्छत्तकडुगिदे जीवे तवणाणचरणविरियाणि। णासंति वंतमिच्छत्तम्मि य सफलाणि जायंति।734। घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि य कुधिदस्स। बहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स।1347। =अहिंसा आदि आत्मा के गुण हैं, परन्तु मरण समय ये मिथ्यात्व से युक्त हो जायं तो कड़वी तूम्बी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ होते हैं।57। मिथ्यात्व के कारण विपरीत श्रद्धानी बने हुए इस जीव में तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य ये गुण नष्ट होते हैं, और मिथ्यात्व रहित तप आदि मुक्ति के उपाय हैं।734। घोड़े की लीद दुर्गन्धियुक्त रहती है परन्तु बाहर से वह स्निग्ध कान्ति से युक्त होती है। अन्दर भी वह वैसी नहीं होती। उपर्युक्त दृष्टान्त के समान किसी पुरुष का–मुनि का आचरण ऊपर से अच्छा–निर्दोष दीख पड़ता है परन्तु उसके अन्दर के विचार कषाय से मलिन अर्थात् गन्दे रहते हैं। यह बाह्याचरण उपवास, अवमोदर्यादिक तप उसकी कुछ उन्नति नहीं करता है क्योंकि इन्द्रिय कषायरूप, अन्तरंग मलिन परिणामों से उसका अभ्यन्तर तप नष्ट हुआ है, जैसे बगुला ऊपर से स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ दीखता परन्तु अन्तरंग में मत्स्य मारने के गन्दे विचारों से युक्त ही होता है।1347।
यो.सा./यो./31 वउतउसंजमुसीलु जिय ए सव्वइँ अकयत्थु। जांव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु।31। =जब तक जीव को एक परमशुद्ध पवित्रभाव का ज्ञान नहीं होता, तब तक व्रत, तप, संयम और शील ये सब कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं।
आ.अनु./15 शमबोधवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंस:। पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्वसंयुक्त्वम् ।15। =पुरुष के सम्यक्त्व से रहित शान्ति, ज्ञान, चारित्र और तप इनका महत्त्व पत्थर के भारीपन के समान व्यर्थ है। परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्व से सहित है तो मूल्यवान् मणि के महत्त्व के समान पूज्य है।
पं.वि./1/50 अभ्यस्यतान्तरदृशं किमु लोकभक्त्या, मोहं कृशीकुरुत किं वपुषा कृशेन। एतद्द्वयं यदि न किं बहुभिर्नियोगै:, क्लेशैश्च किं किमपरै: प्रचुरैस्तपोभि:।50। =हे मुनिजन ! सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्तरनेत्र का अभ्यास कीजिए। आपको लोकभक्ति से क्या प्रयोजन है। इसके अतिरिक्त आप मोह को कृश करें। केवल शरीर को कृश करने से कुछ भी लाभ नहीं है। कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके बिना बहुत से यम नियमों से, कायक्लेशों से और दूसरे प्रचुर तपों से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
द्र.सं./टी./41/166/7 एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन ज्ञानतपश्चरणव्रतोपशमध्यानादिकं मिथ्यात्वरूपमपि सम्यग्भवति। तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्वं वृथेति ज्ञातव्यम् ।=सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यक् हो जाते हैं। और सम्यक्त्व के बिना विष मिले हुए दूध के समान ज्ञान तपश्चरणादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए।
- सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है
- निश्चयधर्म की कथंचित् प्रधानता
- निश्चय धर्म ही भूतार्थ है
स.सा./आ./275 ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धते। =अभव्य व्यक्ति ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म की श्रद्धा नहीं करता।
- शुभ अशुभ से अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक धर्म है
प्र.सा./मू./181 सुहपरिणामो पुण्यं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये। =पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। और दूसरे के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम, आगम में दु:ख क्षय का कारण कहा है। (प.प्र./2/71)
स.श./83 अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्यय:। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।83। =हिंसादि अव्रतों से पाप तथा अहिंसादि व्रतों से पुण्य होता है। पुण्य व पाप दोनों कर्मों का विनाश मोक्ष है। अत: मुमुक्षु को अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए। (यो.सा./यो./32) (आ.अनु./181) (ज्ञा./32/87)
यो.सा./अ./9/72 सर्वत्र य: सदोदास्ते न च द्वेष्टि न च रज्यते। प्रत्याख्यानादतिक्रान्त: स दोषाणामशेषत:।72। =जो महानुभाव सर्वत्र उदासीनभाव रखता है, तथा न किसी पदार्थ में द्वेष करता है और न राग, वह महानुभव प्रत्याख्यान के द्वारा समस्त दोषों से रहित हो जाता है।
देखें चारित्र - 4.1 (प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यान से अतीत अप्रत्याख्यानरूप तीसरी भूमिका ही अमृतकुम्भ है)
- एक शुद्धोपयोग में धर्म के सब लक्षण गर्भित हैं
प.प्र./टी./2/68/190/8 धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्य:। तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिंसालक्षणो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति। सागारानगारलक्षणो धर्म: सोऽपि तथैव। उत्तमक्षमादिदशविधो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। ‘सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु:’ इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव। रागद्वेषमोहरहित: परिणामो धर्म: सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव। वस्तुस्वभावो धर्म: सोऽपि तथैव।...अत्राह शिष्य:। पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय: सर्वे गुणा: लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन: शुद्धपरिणाम एव धर्म:, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते। को विशेष:। परिहारमाह। तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेष:। तात्पर्यं तदेव। =यहां धर्म शब्द से निश्चय से जीव के शुद्धपरिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूप से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्व धर्म अन्तर्भूत हो जाते हैं। वह ऐसे कि–- अहिंसा लक्षण धर्म है सो जीव के शुद्धभाव के बिना सम्भव नहीं। (देखें अहिंसा - 2.1)।
- सागार अनगार लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है।
- उत्तमक्षमादि दशप्रकार के लक्षण वाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है।
- रत्नत्रय लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है।
- रागद्वेषमोह के अभावरूप लक्षण वाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और
- वस्तुस्वभाव लक्षण वाला धर्म भी वैसा ही है। प्रश्न–पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोग में सर्व गुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है, (देखें धर्म - 3.7)। और यहां आत्मा के शुद्ध परिणाम को धर्म बताकर उसमें सर्व धर्मों की प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है ? उत्तर–वहां शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहां धर्म संज्ञा मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है। (प्र.सा./ता.वृ./11/16) (और भी देखें आगे धर्म - 3.7)
- <a name="3.4" id="3.4"></a>निश्चय धर्म की व्याप्ति व्यवहार धर्म के साथ है पर व्यवहार की निश्चय के साथ नहीं
भ.आ./मू./1349/1306 अब्भंतरसोधीए सुद्ध णियमेण बहिरं करणं। अब्भंतरदोसेण हु कुणदि णरो बहिरंगदोसं। =अभ्यन्तर शुद्धि पर नियम से बाह्यशुद्धि अवलम्बित है। क्योंकि अभ्यन्तर (मन के) परिणाम निर्मल होने पर वचन व काय की प्रवृत्ति भी निर्दोष होती है। और अभ्यन्तर (मन के) परिणाम मलिन होने पर वचन व काय की प्रवृत्ति भी नियम से सदोष होती है।
लि.पा./मू./2 धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।2। =धर्म से लिंग होता है, पर लिंगमात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। हे भव्य ! तू भावरूप धर्म को जान। केवल लिंग से तुझे क्या प्रयोजन है।
(देखें लिंग - 2) (भावलिंग होने पर द्रव्यलिंग अवश्य होता है पर द्रव्यलिंग होने पर भावलिंग भजितव्य है)
प्र.सा./मू./245 समणा सुद्धुवजुता सहोवजुत्ता य होंति समयम्मि।
प्र.सा./त.प्र./245 अस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवाय:। =शास्त्रों में ऐसा कहा है कि जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते हैं वे शुभोपयोगी भी होते हैं। इसलिए शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ समवाय है।
- निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है
भा.पा./मू./89 बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं।89। =भावरहित व्यक्ति के बाह्यपरिग्रह का त्याग, गिरि-नदी-गुफा में बसना, ध्यान, आसन, अध्ययन आदि सब निरर्थक है। (अन.ध./9/29/871)
- निश्चय रहित व्यवहार धर्म से शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती
स.सा./मू./156 मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। =निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् व्यवहार [शुभ कर्मों (त.प्र.टीका)] द्वारा प्रवर्तते हैं किन्तु परमार्थ के आश्रित योगीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा है।
स.सा./आ./204/क.142 क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखै: कर्मभि:, क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमं ते न हि। =कोई मोक्ष से पराङ्मुख हुए दुष्करतर कर्मों के द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महाव्रत और तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो; जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, निरामय पद है और स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञान को ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से वे प्राप्त नहीं कर सकते।
ज्ञा./22/14 मन: शुद्धयैव शुद्धि: स्याद्देहिनां नात्र संशय:। वृथा तद्वद्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।14। =नि:सन्देह मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धि होती है, मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना वृथा है।
- निश्चयधर्म का माहात्म्य
प.प्र./मू./1/114 जइ णिविसद्धु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ। अग्गिंकणी जिम कट्ठगिरी डहइ असेसु वि पाउ।114।
प.प्र./मू./2/67 सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहं दंसणु णाणु। सुद्धहं कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।67। =जो आधे निमेषमात्र भी कोई परमात्मा में प्रीति को करे, तो जैसे अग्नि की कणी काठ के पहाड़ को भस्म करती है, उसी तरह सब ही पापों को भस्म कर डाले।114। शुद्धोपयोगियों के ही संयम, शील और तप होते हैं, शुद्धों के ही सम्यग्दर्शन और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है, शुद्धोपयोगियों के ही कर्मों का नाश होता है, इसलिए शुद्धोपयोग ही जगत में मुख्य है।
यो.सा./यो./65 सागारु वि णागारु कु वि जो अप्पाणि वसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ। =गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मा में वास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुख को पाता है, ऐसा जिनभगवान् ने कहा है।
न.च.वृ./412-414 एदेण सयलदोसा जीवाणासंतिरायमादीया। मोत्तूण विविहभावं एत्थे विय संठिया सिद्धा। =इस (परम चैतन्य तत्त्व को जानने) से जीव रागादिक सकल दोषों का नाश कर देता है। और विविध विकल्पों से मुक्त होकर, यहां ही, इस संसार में ही सिद्धवत् रहता है।
ज्ञा./22/26 अनन्तजन्यजानेककर्मबन्धस्थितिर्दृढा। भावशुद्धिं प्रपन्नस्य मुने: प्रक्षीयते क्षणात् । =जो अनन्त जन्म से उत्पन्न हुई दृढ़ कर्मबन्ध की स्थिति है सो भावशुद्धि को प्राप्त होने वाले मुनि के क्षणभर में नष्ट हो जाती है, क्योंकि कर्मक्षय करने में भावों की शुद्धता ही प्रधान कारण है।
- निश्चय धर्म ही भूतार्थ है
- व्यवहार धर्म की कथंचित् गौणता
- व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है
पं.का./त.प्र./136 अर्हत्सिद्धादिषु भक्ति:, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा,...अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति। =धर्म में अर्थात् व्यवहारचारित्र के अनुष्ठान में भावप्रधान चेष्टा।...यह (प्रशस्त राग) वास्तव में जो स्थूल लक्ष वाले होने से मात्र भक्ति प्रधान हैं ऐसे अज्ञानी को होता है। उच्चभूमिका में स्थिति प्राप्त न की हो तब, अस्थान (अस्थिति) का राग रोकने के हेतु अथवा तीव्र राग ज्वर मिटाने के हेतु कदाचित् ज्ञानी को भी होता है। (नि.सा./ता.वृ./105)
- व्यवहाररत जीव परमार्थ को नहीं जानते
स.सा./मू./413 पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुपयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं।413। =जो बहुत प्रकार के मुनिलिंगों में अथवा गृहीलिंगों में ममता करते हैं, अर्थात् यह मानते हैं कि द्रव्यलिंग ही मोक्ष का कारण है उन्होंने समयसार को नहीं जाना।
- व्यवहारधर्म में रुचि करना मिथ्यात्व है
पं.का./ता.वृ./165/238/16 यदि पुन: शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपरसमयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यादृष्टिर्भवति। =यदि शुद्धात्मा की भावना में समर्थ होते हुए भी कोई उसे छोड़कर शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है, ऐसा एकान्त से मानता है, तब स्थूल परसमयरूप परिणाम से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है।
- व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध अग्नि व दु:खस्वरूप है
पु.सि.उ./220 रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य। आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराध:। =इस लोक में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण है, अन्य गति का नहीं। और जो रत्नत्रय में पुण्य का आस्रव होता है, यह अपराध शुभोपयोग का है। (और भी देखो चारित्र/4/3)।
प्र.सा./त.प्र./77,79 यस्तु पुन:...धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शरीरं दु:खमेवानुभवति।77। य: खलु...शुभोपयोगवृत्त्या वकाभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहवाहिनीविधेयतामविकरति स किल समासन्नमहादु:खसंकट: कथमात्मानमविप्लुतं लभते।79। =जो जीव (पुण्यरूप) धर्मानुराग पर अत्यन्त अवलम्बित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (उपाधि से रंगी होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार पर्यन्त शारीरिक दु:ख का ही अनुभव करता है।77। जो जीव धूर्त अभिसारिका की भांति शुभोपयोग परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त हुआ मोह की सेना को वशवर्तिता को दूर नहीं कर डालता है, तो जिसके महादु:खसंकट निकट है वह, शुद्ध आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है।79।
पं.का./त.प्र./172 अर्हदादिगतमपि रागं चन्दनगसङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्तयात्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य...। =अर्हन्तादिगत राग को भी, चन्दनवृक्षसंगत अग्नि की भांति देवलोकादि के क्लेश प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्दाह का कारण समझकर (प्र.सा./त.प्र./11) (यो.सा./अ./9/25), (नि.सा./ता.वृ./144)।
पं.का./त.प्र./168 रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसंतान इति। =यह (भक्ति आदि रूप रागपरिणति) अनर्थसंतति का मूल रागरूप क्लेश का विलास ही है।
- व्यवहार धर्म मोह व पापरूप है
प्र.सा./मू./85 अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु। विसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि। =पदार्थ का अयथाग्रहण, तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव और विषयों की संगति, ये सब मोह के चिह्न हैं। (अर्थात् पहला तो दर्शन मोह का, दूसरा शुभरागरूप मोह का तथा तीसरा अशुभरागरूप मोह का चिह्न है।) (पं.का.मू./135/136)।
पं.वि./7/25 तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमत:। यो भोगादिनिमित्तमेव स पुन: पापं बुधैर्मन्यते। =जो धर्म पुरुषार्थ मोक्षपुरुषार्थ का साधक होता है वह तो हमें अभीष्ट है, किन्तु जो धर्म केवल भोगादिक का ही कारण होता है उसे विद्वज्जन पाप ही समझते हैं।
- व्यवहारधर्म अकिंचित्कर है
स.सा./आ./153 अज्ञानमेव बन्धहेतु:, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्व्रतनियमशीलतप:प्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् ।=अज्ञान ही बन्ध का कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानरूप होने वाले ज्ञानियों के बाह्य व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मों का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है।
ज्ञा./22/27 यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् । सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं किं कायदण्डनै:।27। जिस मुनि का चित्त स्थिरीभूत है, प्रसन्न है, रागादि की कलुषता से रहित तथा ज्ञान की वासना से युक्त है, उसके सब कार्य सिद्ध हैं, इसलिए उस मुनि को कायदण्ड देने से क्या लाभ है।
- व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है
स.सा./आ./271/क.173 सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजित:। =सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र भगवान् ने त्यागने योग्य कहे हैं, इसलिए हम यह मानते हैं कि पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है।
प्र.सा./त.प्र./167 स्वसमयप्रसिद्धयर्थं पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायमदिधताऽर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति। =जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि के अर्थ, धुनकी में चिपकी हुई रूई के न्याय से, अर्हंत आदि विषयक भी रागरेणु क्रमश: दूर करने योग्य है। (अन्यथा जैसे वह थोड़ी सी भी रूई जिस प्रकार अधिकाधिक रूई को अपने साथ चिपटाती जाती है और अन्त में धुनकी को धुनने नहीं देती उसी प्रकार अल्पमात्र भी वह शुभ राग अधिकाधिक राग की वृद्धि का कारण बनता हुआ जीव को संसार में गिरा देता है।)
- व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ
अमृताशीति/59 गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा। पठनजपनहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धि:, मृगय तदपरं त्वं भो: प्रकारं गुरुभ्य:। =गिरि, गहन, गुफा, आदि तथा शून्यवन प्रदेशों में स्थिति, इन्द्रियनिरोध, ध्यान, तीर्थसेवा, पाठ, जप, होम आदिकों से ब्रह्म (व्यक्ति) की सिद्धि नहीं हो सकती। अत: हे भव्य ! गुरुओं के द्वारा कोई अन्य ही उपाय खोज।
- व्यवहार को धर्म कहना उपचार है
स.सा./आ./414 य: खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थ:। =अनगार व सागार, ऐसे दो प्रकार के द्रव्य लिंगरूप मोक्षमार्ग का प्ररूपण करना व्यवहार है परमार्थ नहीं।
मो.मा.प्र./7/367-15; 365/22; 372/3; 376/6; 377/11 निम्न भूमि में शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का सहवर्तीपना होने से, तथा सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट में ही शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाती है इसलिये, व्रतादिकरूप शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग कह दिया जाता है।
- व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को सम्भव है
- व्यवहार धर्म की कथंचित् प्रधानता
- व्यवहार धर्म निश्चय का साधन है
द्र.सं./टी./35/102/9 अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणतं शुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनं च शरणम् । =निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्मद्रव्य है वह और उसका बहिरंगसहकारीकारणभूत पंचपरमेष्ठियों का आराधन है।
- व्यवहार की कथंचित् इष्टता
प्र.सा./मू./260असुभोवयोगरहिदा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा। णित्थारयंति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्ता।260। =जो अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त अथवा शुभोपयुक्त होते हैं वे (श्रमण) लोगों को तार देते हैं। उनकी भक्ति से प्रशस्त पुण्य होता है।260।
देखें पुण्य - 4.4 (भव्य जीवों को सदा पुण्यरूप धर्म करते रहना चाहिए।)
कुरल काव्य/4/6 करिष्यामीति संकल्पं त्यक्त्वा धर्मी भवद्रुतम् । धर्म एव परं मित्रं यन्मृतौ सह गच्छति।6। = यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्म मार्ग का अवलम्बन करूंगा। किन्तु अभी बिना विलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो, क्योंकि, धर्म ही वह अमर मित्र है, जो मृत्यु के समय तुम्हारा साथ देने वाला होगा।
सं.स्तो/58 पूज्यं जिनं त्वार्च्ययतो जिनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषायनाऽलं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।58। हे पूज्य श्री वासुपूज्य स्वामी ! जिस प्रकार विष की एक कणिका सागर के जल को दूषित नहीं कर सकती, उसी प्रकार आपकी पूजा में होने वाला लेशमात्र सावद्य योग उससे प्राप्त बहुपुण्य राशि को दूषित नहीं कर सकता।
रा.वा./6/3/7/507/34 उत्कृष्ट: शुभपरिणाम: अशुभजघन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयस: शुभस्य हेतुरिति शुभ: पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पाकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावदुपकार इत्युच्यते। =यद्यपि शुभ परिणाम अशुभ के जघन्य अनुभागबन्ध के भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभ के कारण होने से ‘शुभ: पुण्यस्य’ यह सूत्र सार्थक है। जैसे कि थोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करने वाला उपकारक ही माना जाता है।
प.प्र./टी./2/55/177/4 अत्राह प्रभाकरभट्ट:। तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्तीति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं...समाधिं लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव। यदि पुनस्तथाविधमवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टा: सन्त: तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् । =प्रश्न–यदि कोई पुण्य व पाप दोनों को समान समझकर व्यवहार धर्म को छोड़ तिष्ठे तो उसे क्या दूषण है ? उत्तर–यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप समाधि को प्राप्त करके ऐसा करता है, तब तो हमें सम्मत ही है। और यदि उस प्रकार की अवस्था को प्राप्त किये बिना ही गृहस्थावस्था में दान पूजादिक तथा साधु की अवस्था में षडावश्यादि छोड़ देता है तो उभय भ्रष्ट हो जाने से उसे दूषण ही है।
प्र.सा./ता.वृ./250/344/13 इदमत्र तात्पर्यम् । योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते, यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति, वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति। =यहां यह तात्पर्य समझना कि जो व्यक्ति स्वशरीर पोषणार्थ या शिष्यादि के मोहवश सावद्य की इच्छा नहीं करते उनको ही यह व्याख्यान (वैयावृत्ति आदि में रत रहने वाला साधु गृहस्थ के समान है) शोभा देता है। किन्तु जो अन्यत्र तो सावद्य की इच्छा करे और धर्म कार्यों के सावद्य का त्याग करे, उसे तो सम्यक्त्व ही नहीं है।
द.पा./टी./3/4/13 इति ज्ञात्वा....दानपूजादिसत्कर्म न निषेधनीय, आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थ:। (द.पा./टी./5/5/22)।
चा.पा.टी./8/133/10 एवमर्थं ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्णचैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्म....प्रभावनाङ्गं गृहस्था: सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो ...अनन्तसंसारिणो भवन्तीति...। =- ऐसा जानकर दान पूजादि सत्कर्म निषेध करने योग्य नहीं हैं, बल्कि आस्तिक भाव से स्थापित करने योग्य है। (द.पा./टी./5/5/22)
- जिनपूजन, अभिषेक, स्तवन, नये या पुराने चैत्य चैत्यालय का जीर्णोद्धार, यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्य कर्म रूप प्रभावना अंग को यदि गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं तो वे पापात्मा मिथ्यादृष्टि अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं। (पं.ध./736-739)
- अन्य के प्रति व्यक्ति का कर्तव्य-अकर्तव्य
ज्ञा./2-10/21 यद्यत्स्वस्यानिष्टं तत्तद्वाक्चित्तकर्मभि: कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्यागिम्रं लिङ्गम् ।21। =धर्म का मुख्य चिह्न यह है कि, जो जो क्रियाएं अपने को अनिष्ट लगती हों, सो सो अन्य के लिए मन वचन काय से स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए।
- <a name="5.4" id="5.4"></a>व्यवहार धर्म का महत्त्व
आ.अनु./224,226 विषयविरति: संगत्याग: कषायविनिग्रह:, शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यम:। नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिर्जिनेषु दयालुता, भवति कृतिन: संसाराब्धेस्तटे निकटे सति।224। समाधिगतसमस्ता: सर्वसावद्यदूरा:, स्वहितनिहितचित्ता: शान्तसर्वप्रचारा:। स्वपरसफलजल्पा: सर्वसंकल्पमुक्ता:, कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ता:।226। =इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, परिग्रह का त्याग, कषायों का दमन, शम, यम, दम आदि तथा तत्त्वाभ्यास, तपश्चरण का उद्यम, मन की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिनभगवान् में भक्ति, और दयालुता, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीव के होते हैं, जिसके कि संसाररूप समुद्र का किनारा निकट आ चुका है।224। जो समस्त हेयोपादेय तत्त्वों के जानकार, सर्वसावद्य से दूर, आत्महित में चित्त को लगाकर समस्त इन्द्रियव्यापार को शान्त करने वाले हैं, स्व व पर के हितकर वचन का प्रयोग करते हैं, तथा सब संकल्पों से रहित हो चुके हैं, ऐसे मुनि कैसे मुक्ति के पात्र न होंगे ?।226।
का.अ./मू./431 उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि।431। =उत्तम धर्म से युक्त तिर्यंच भी देव होता है, तथा उत्तम धर्म से युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र हो जाता है।
ज्ञा./2-10/4,11 चिन्तामणिर्निधिर्दिव्य: स्वर्धेनु: कल्पपादपा:। धर्मस्यैते श्रिया सार्द्धं मन्ये भृत्याश्चिरन्तना:।4। धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्म: स्वामी च बान्धव:। अनाथवत्सल: सोऽयं संत्राता कारणं विना।11। =लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्म के चिरकाल से किंकर हैं, ऐसा मैं मानता हूं।4। धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बान्धव है, हितू है, और धर्म ही बिना कारण अनाथों का प्रीतिपूर्वक रक्षा करने वाला है। इसलिए प्राणी को धर्म के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है।11।
- व्यवहार धर्म निश्चय का साधन है
- निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय
- <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्म की प्रधानता का कारण
प.प्र./मू./2/67 सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहं दंसणु णाणु। सुद्धहं कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।67। =वास्तव में शुद्धोपयोगियों को ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान व कर्म का क्षय होता है इसलिए शुद्धोपयोग ही प्रधान है। (और भी देखें धर्म - 3.3)
- व्यवहारधर्म निषेध का कारण
मो.पा./मू./31,32 जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। इदि जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं। झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।32। =जो योगी व्यवहार में सोता है सो अपने स्वरूप के कार्य में जागता है और व्यवहारविषै जागता है, वह अपने आत्मकार्य विषै सोता है। ऐसा जानकर वह योगी सर्व व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है, और सर्वज्ञ देव के कहे अनुसार परमात्मस्वरूप को ध्याता है। (स.श./78)
प.प्र./मू./2/194 जामु सुहासुह-भावड़ा णवि सयल वि तुट्टंति। परम समाहि ण तामु मुणि केवलि एमु भणंति। =जब तक सकल शुभाशुभ परिणाम दूर नहीं हो जाते, तब तक रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्त में परम समाधि नहीं हो सकती, ऐसा केवली भगवान् कहते हैं। (यो.सा./यो./37)
न.च.वृ./381 णिच्छयदो खलु मोक्खो बंधो ववहारचारिणो जम्हा। तम्हा णिव्वुदिकामो ववहारं चयदु तिविहेण। =क्योंकि व्यवहारचारी को बन्ध होता है और निश्चय से मोक्ष होता है, इसलिए मोक्ष की इच्छा करने वाला व्यवहार का मन वचन काय से त्याग करता है।
पं.वि./4/32 निश्चयेन तदेकत्वमद्वैतममृतं परम् । द्वितीयेन कृतं द्वैतं संसृतिर्व्यवहारत:।32। =निश्चय से जो वह एकत्व है वही अद्वैत है, जो कि उत्कृष्ट अमृत और मोक्ष स्वरूप है। किन्तु दूसरे (कर्म व शरीरादि) के निमित्त से जो द्वैतभाव उदित होता है, वह व्यवहार की अपेक्षा रखने से संसार का कारण होता है।
(देखें धर्म - 4.नं0) व्यवहार धर्म की रुचि करना मिथ्यात्व है।3। व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध व दु:खस्वरूप है।4। परमार्थ से मोह व पाप है।5। इन उपरोक्त कारणों से व्यवहार त्यागने योग्य है।8।
देखें चारित्र - 5.6 अनिष्ट (स्वर्ग) फलप्रदायी होने से सराग चारित्र हेय है।
देखें चारित्र - 6.4 पहले अशुभ को छोड़कर व्रतादि धारण करे। पीछे शुद्ध की उपलब्धि हो जाने पर उसे भी छोड़ दे। (और भी देखें चारित्र - 7.10)।
देखें धर्म - 3.2। शुद्धोपयोगी मुमुक्षु अव्रतों की भांति व्रतों को भी छोड़ दे।
देखें धर्म - 5.2। शुद्धोपलब्धि होने पर शुभ का त्याग न्याय है, अन्यथा उभय पथ से भ्रष्ट होकर नष्ट होता है।
देखें धर्म - 6.4। जिस प्रकार शुभ से अशुभ का निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्ध से शुभ का भी निरोध होता है।
देखें धर्म - 7.4। व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं संसार(स्वर्ग) का कारण है।
देखें धर्म - 7.5। व्यवहार धर्मबन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है।
देखें धर्म - 7.6। व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं बन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है।
देखें धर्मध्यान - 6.6। व्यवहार पूर्वक क्रम से गुणस्थान आरोहण होता है।
देखें नय - 3.6। स्वरूपाराधना के समय निश्चय व्यवहार के समस्त विकल्प या पक्ष स्वत: शान्त हो जाते हैं।
- व्यवहार धर्म के निषेध का प्रयोजन
का.अ./मू./409 एदे दंहप्पयारा पावं कम्मस्स णासया भणिया। पुण्णस्स य संजणया पर पुणत्थं ण कायव्वा। =ये धर्म के दश भेद पापकर्म का नाश करने वाले तथा पुण्यकर्म का बन्ध करने वाले कहे हैं। किन्तु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए।
पं.का./ता.वृ./172/246/9 मोक्षाभिलाषी भव्योऽर्हदादिविषयेऽपि स्वसंवित्तिलक्षणरागं मा करोतु। =मोक्षाभिलाषी भव्य अर्हन्तादि विषयों में स्वसंवित्ति लक्षणवाला राग मत करो, अर्थात् उनके साथ तन्मय होकर अपने स्वरूप को न भूलो।
मो.मा.प्र./7/373/3 व्रतादि के त्याग मात्र से धर्म का लोप नहीं हो जाता।
देखें मिथ्यादृष्टि - 4/4 व्यवहारधर्म का प्रयोजनविषयकषाय से बचना है।
देखें चारित्र - 7.9 व्रत पक्ष के त्याग मात्र से कर्म लिप्त नहीं हो जाते।
- व्यवहारधर्म के त्याग का उपाय व क्रम
प्र.सा./मू./151,159 जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि। कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति।151। असुहोवओगरहिओ सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पणं झाए।159। =जो इन्द्रियादि का विजयी होकर उपयोग मात्र आत्मा का ध्यान करता है कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं।151। अन्य द्रव्य में मध्यस्थ होता हुआ मैं अशुभोपभोग तथा शुभोपभोग से युक्त न होकर ज्ञानात्मक आत्मा को ध्यात हूं। (इ.उ./22)
न.च.वृ./347 जह वि णिरुद्धं असुहं सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य जोई ज्झाएउ णियआदं।347। =जिस प्रकार शुभ से अशुभ का निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्ध से शुभ का निरोध होता है। इसलिए इस क्रम से ही योगी निजात्मा को ध्याओ अर्थात् पहिले अशुभ को छोड़ने के लिए शुभ का आचरण करना और पीछे उसे भी छोड़कर शुद्ध में स्थित होना। (और भी देखें चारित्र - 7.10)
आ.अनु./122 अशुभाच्छुभमायात: शुद्ध: स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गम:।122। =यह आराधक भव्य जीव आगमज्ञान के प्रभाव से अशुभ से शुभरूप होता हुआ शुद्ध हो जाता है, जैसे कि बिना सन्ध्या (प्रभात) को प्राप्त किये सूर्य अन्धकार का विनाश नहीं कर सकता।
पं.का./ता.वृ./167/240/15 पूर्वे विषयानुरागं त्यक्त्वा तदनन्तरं गुणस्थानसोपानक्रमेण रागादिरहितनिजशुद्धात्मनि स्थित्वा चार्हदादिविषयेऽपि रागस्त्याज्य इत्यभिप्राय:। =पहिले विषयों के अनुराग को छोड़कर, तदनन्तर गुणस्थान सोपान के क्रम से रागादि रहित निजशुद्धात्मा में स्थित होता हुआ अर्हन्तादि विषयों में भी राग को छोड़ना चाहिए ऐसा अभिप्राय है।
प.प्र./टी./2/31/151/3 यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायो चित्तस्थिरीकरणार्थं देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषकारणं परंपरया शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं पञ्चपरमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्तनिश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिणत: स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति। =यद्यपि व्यवहार से सविकल्पावस्था में चित्त को स्थिर करने के लिए, देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूति विशेष को कारण तथा परम्परा से शुद्धात्मा की प्राप्ति का हेतुभूत पंचपरमेष्ठी का वचनों द्वारा रूप वस्तु व गुण स्तवनादिक तथा मन द्वारा उनके वाचक अक्षर व उनके रूपादिक प्राथमिक जनों के लिए ध्येय होते हैं, तथापि पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रयरूप परिणति के काल में केवलज्ञान आदि अनन्तगुणपरिणत स्वशुद्धात्मा ही ध्येय है।
- <a name="6.5" id="6.5"></a>व्यवहार को उपादेय कहने का कारण
प्र.सा./त.प्र./254 एवमेव शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णित: शुभोपयोग: तदयं ...गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन ...कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसंपर्केणार्कतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत: परमनिर्वाणकत्वाच्च मुख्य:। =इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त (अर्थात् सम्यग्दृष्टि की) प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह शुभोपयोग (श्रमणों के तो गौण होता है पर) गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईन्धन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है और वह क्रमश: जल उठता है, उसी प्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और क्रमश: निर्वाणसौख्य का कारण होता है। (प.प्र./टी./2/111-4/231/15)
पं.वि./9/30 चारित्रं यदभाणि केवलदृशा देव त्वया मुक्तये, पुंसा तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यै: पुरोपार्जितै: संसारार्णवतारणे जिन तत: सैवास्तु पोतो मम।30। =हे जिन देव केवलज्ञानी ! आपने जो मुक्ति के लिए चारित्र बतलाया है, उसे निश्चय से मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम काल में धारण नहीं कर सकता है। इसलिए पूर्वोपार्जित महान् पुण्य से यहां जो मेरी आपके विषय में दृढभक्ति हुई है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान होवे।
(और भी देखें मोक्षमार्ग /4/5-6 व्यवहार निश्चय का साधन है)
- व्यवहार धर्म साधु को गौण व गृहस्थ को मुख्य होता है
देखें वैयावृत्त्य - 8 (बाल वृद्ध आदि साधुओं को वैयावृत्त्य करना साधुओं के लिए गौण है और गृहस्थों के लिए प्रधान है।)
देखें साधु - 3.5 [दान पूजा आदि गृहस्थों के लिए प्रधान है और ध्यानाध्ययन मुनियों के लिए।]
देखें संयम - 1.6 [व्रत समिति गुप्ति आदि साधु का धर्म है और पूजा दया दान आदि गृहस्थों का।]
देखें धर्म - 6.5 (गृहस्थों को व्यवहार धर्म की मुख्यता का कारण यह है कि उनके राग की प्रकर्षता के कारण निश्चय धर्म की शक्ति का वर्तमान में अभाव है।)
- उपरोक्त नियम चारित्र की अपेक्षा है श्रद्धा की अपेक्षा नहीं
प्र.सा./पं.जयचन्द/254 दर्शनापेक्षा से तो श्रमण का तथा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को शुद्धात्मा का ही आश्रय है। परन्तु चारित्र की अपेक्षा से श्रमण के शुद्धात्मपरिणति मुख्य होने से शुभोपयोग गौण होता है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के मुनि योग्य शुद्धपरिणति को प्राप्त न हो सकने से अशुभ वंचनार्थ शुभोपयोग मुख्य है।
मो.मा.प्र./7/332/14 सो ऐसी (वीतराग) दशा न होई, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवर्त्तौ। परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ-यहू (प्रशस्तराग) भी बन्ध का कारण है, हेय है। श्रद्धान विषै याकौ मोक्षमार्ग जानैं मिथ्यादृष्टि ही है।
- <a name="6.8" id="6.8"></a>निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है निरपेक्ष नहीं
पं.वि./6/60 अन्तस्तत्त्वविशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु। द्वयो: सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्द्वितीयमाश्रयेत् ।60। =अभ्यन्तर तत्त्व तो विशुद्धात्मा और बाह्य तत्त्व प्राणियों की दया, इन दोनों के मिलने पर मोक्ष होता है। इसलिए उन दोनों का आश्रय करना चाहिए।
प.प्र./टी./2/133/250/5 इदमत्र तात्पर्यम् । गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयपरस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मक: श्रावकधर्म: कर्त्तव्य:, यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयबलेन विशिष्टतपश्चरणं कर्त्तव्यं। =इसका यह तात्पर्य है कि गृहस्थ तो अभेद रत्नत्रय के स्वरूप को उपादेय मानकर भेदरत्नत्रयात्मक श्रावकधर्म को करे और साधु निश्चयरत्नत्रय में स्थित होकर व्यावहारिक रत्नत्रय के बल से विशिष्ट तपश्चरण करे।
पं.का./ता.वृ./172/247/12 तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकम् । तद्यथा–ये केचन... निश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्षं केवलशुभानुष्ठानरूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्गं मन्यन्ते तेन तु सुरलोकदिक्लेशपरंपरया संसारं परिभ्रमन्तीति, यदि पुन: शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयमोक्षमार्ग मन्यन्ते निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावान्निश्चयसाधकं शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तर्हि...परंपरया मोक्षं लभन्ते; इति व्यवहारैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं। येऽपि केवलनिश्चयनयावलम्बिन: सन्तोऽपि... शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयन्ते तेऽप्युभयभ्रष्टा सन्तो...पापमेव बध्नन्ति। यदि पुन: शुद्धात्मानुष्ठानरूपं निश्चयमोक्षमार्गं तत्साधकं व्यवहारमोक्षमार्गं मन्यन्ते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठानरहितापि यद्यपि शुद्धात्मभावनासोपेक्षशुभानुष्ठानरतपुरुषसदृशा न भवन्ति तथापि...परंपरया मोक्षं च लभन्ते इति निश्चयैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं। तत: स्थितमेतन्निश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यासाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभन्ते। =वह वीतरागता साध्यसाधकभाव से परस्पर सापेक्ष निश्चय व व्यवहार नयों के द्वारा ही साध्य है निरपेक्ष के द्वारा नहीं। वह ऐसे कि–(नयों की अपेक्षा साधकों को तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है–केवल व्यवहारावलम्बी, केवल निश्चयावलम्बी और नयातीत। इनमें-से भी पहिले के दो भेद हैं–निश्चय निरपेक्ष व्यवहार और निश्चय सापेक्ष व्यवहार। इसी प्रकार दूसरे के भी दो भेद हैं–व्यवहार निरपेक्ष निश्चय और व्यवहार सापेक्ष निश्चय। इन पांच विकल्पों का ही यहां स्वरूप दर्शाकर विषय का समन्वय किया गया है।)- जो कोई निश्चय मोक्षमार्ग से निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारनय को ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उससे सुरलोकादि की क्लेशपरम्परा के द्वारा संसार में ही परिभ्रमण करते हैं।
- यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धानुभूति लक्षणवाले मोक्षमार्ग को मानते हुए, चारित्र में निश्चयमोक्षमार्ग के अनुष्ठान (निर्विकल्प समाधि) की शक्ति का अभाव होने के कारण, निश्चय को सिद्ध करने वाले ऐसे शुभानुष्ठान को करें तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार एकान्त व्यवहार के निराकरण की मुख्यता से दो विकल्प कहे।
- जो कोई केवल निश्चयनयावलम्बी होकर, शुद्धात्मा की प्राप्ति न होते हुए भी, साधुओं के योग्य षडावश्यकादि अनुष्ठान को और श्रावकों के योग्य दान पूजादि अनुष्ठान को दूषण देते हैं, तो उभय भ्रष्ट हुए केवल पाप का ही बन्ध करते हैं।
- यदि वे ही श्रद्धा में शुद्धात्मा के अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्ग को तथा उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्ग को मानते हुए; चारित्र में चारित्रमोहोदयवश शुद्धचारित्र की शक्ति का अभाव होने के कारण, अन्य साधारण शुभ व अशुभ अनुष्ठान से रहित वर्तते हुए भी; शुद्धात्मभावना सापेक्षा शुभानुष्ठानरत पुरुष के सदृश न होने पर भी, परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार एकान्त निश्चय के निराकरण की मुख्यता से दो विकल्प कहे।
- इसलिए यह सिद्ध होता है कि निश्चय व व्यवहार के साध्यसाधकभाव से प्राप्त निर्विकल्प समाधि के बल से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
(और भी देखें चारित्र - 7.7) (और भी देखें मोक्षमार्ग /4/6)
- <a name="6.1" id="6.1"></a>निश्चय धर्म की प्रधानता का कारण
- <a name="7" id="7"></a>निश्चय व्यवहारधर्म में कथंचित् मोक्ष व बन्ध का कारणपना
- निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण
स.सा./मू./156 मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण हु जदीण कम्मक्खओ विहिओ।=निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् लोग व्यवहार [व्रत तप आदि शुभकर्म-(टीका)] द्वारा प्रवर्तते हैं। परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा है।
यो.सा./यो./16,48 अप्पा-दंसणु एक्कु परु अण्णु कि पि वियाणि। मोक्खहं कारण जोइया णिच्छइं पहउ जाणि।16। रायरोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ। सो धम्सु वि जिण उत्तियउ जो पंचमगइ णेइ।48। =हे योगिन् ! एक परम आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ भी मोक्ष का कारण नहीं, यह तू निश्चय समझ।16। जो राग और द्वेष दोनों को छोड़कर निजात्मा में बसना है, उसे ही जिनेन्द्रदेव ने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गति को ले जाने वाला है। (नि.सा./ता.वृ./18/क.34)।
प.प्र./मू./2/38/159 अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलोणु। संवरणिज्जर जाणि तुहुं सयल वियप्प विहीणु।=मुनिराज जब तक आत्मस्वरूप में लीन हुआ रहता है, सकल विकल्पों से रहित उस मुनि को ही तू संवर निर्जरा स्वरूप जान।
न.च.वृ./366 सुद्धसंवेयणेण अप्पा मुंचेइ कम्म णोकम्मं। =शुद्ध संवेदन से आत्मा कर्मों व नोकर्मों से मुक्त होता है (पं.वि/1/81)।
- केवल व्यवहार मोक्ष का कारण नहीं
स.सा./मू./153 वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति।153।=व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाहर हैं, वे निर्वाण को प्राप्त नहीं होते (सू.पा./मू./15); (यो.सा./यो./मू./1/98); (यो.सा./अ./1/48)।
र.सा./70 ण हु दंडइ कोहाइं देहं दंडेइ कहं खवइ कम्मं। सप्पो किं मुवइ तहा वम्मिउ मारिउ लोए।70।=हे बहिरात्मा ! तू क्रोध, मान, मोह आदि का त्याग न करके जो व्रत तपश्चरणादि के द्वारा शरीर को दण्ड देता है, क्या इससे तेरे कर्म नष्ट हो जायेंगे। कदापि नहीं। इस जगत् में क्या कभी बिल को पीटने से भी सर्प मरता है। कदापि नहीं।
- <a name="7.3" id="7.3"></a>व्यवहार को मोक्ष का कारण मानना अज्ञान है
पं.का./मू./165 अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो। =शुद्धसंप्रयोग अर्थात् शुभ भक्तिभाव से दु:खमोक्ष होता है, ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है।
- वास्तव में व्यवहार मोक्ष का नहीं संसार का कारण है
भा.पा./मू./84 अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाइं णिरवसेसाणि। तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भमदि। =जो आत्मा को तो प्राप्त करने की इच्छा नहीं करते और सर्व ही प्रकार के पुण्यकार्यों को करते हैं, वे भी मोक्ष को प्राप्त न करके संसार में ही भ्रमण करते हैं (स.सा./मू./154)।
बा.अणु./59 पारंपज्जएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि णिंदं आसवो जाण। =कर्मों का आस्रव करने वाली (शुभ) क्रिया से परम्परा से भी निर्वाण नहीं हो सकता। इसलिए संसार में भटकाने वाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।
न.च.वृ./299 असुह सुहं चिय कम्मं दुविहं तं दव्वभावभेयगयं। तं पिय पडुच्च मोहं संसारो तेण जीवस्स।299।=द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के शुभ व अशुभ कर्मों से मोह के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण, संसार भ्रमण होता है (न.च.वृ./376)।
- <a name="7.5" id="7.5"></a>व्यवहारधर्म बन्ध का कारण है
न.च.वृ./284 ण हु सुहमसुहं हु तं पिय बंधो हवे णियमा।
न.च.वृ./366 असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं। =शुभ और अशुभ रूप अशुद्ध संवेदन से जीव को नियम से कर्म व नोकर्म का बन्ध होता है (पं.वि./1/81)।
पं.ध./उ./558 सरागे वीतरागे वा नूनमौदयिकी क्रिया। अस्ति बन्धफलावश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् । =मोह के उदय से उत्पन्न होने के कारण, सराग की या वीतराग की जितनी भी औदयिक क्रियाएं हैं वे अवश्य ही बन्ध करने वाली है।
- <a name="7.6" id="7.6"></a>केवल व्यवहारधर्म मोक्ष का नहीं बन्ध का कारण है
पं.का./मू./166 अर्हंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि। =अरहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन (शास्त्र) और ज्ञान के प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है परन्तु वास्तव में कर्मों का क्षय नहीं करता (प.प्र./मू./2/61); (वसु.श्रा./40)।
स.सा./मू./275 सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं न तु स कममक्खयणिमित्तं। =अभव्य जीव भोग के निमित्तरूप धर्म की (अर्थात् व्यवहारधर्म की) ही श्रद्धा, प्रतीति व रुचि करता है, तथा उसे ही स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षय के निमित्तरूप (निश्चय) धर्म को नहीं।
ध.13/5,4,28/88/11 पराहीणभावेण किरिया कम्मं किण्ण कीरदे। ण तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो। जिणिंदादिअच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च। =प्रश्न–पराधीन भाव से क्रिया-कर्म क्यों नहीं किया जाता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदि की आसादना होने से कर्मों का बन्ध होता है।
- व्यवहारधर्म पुण्यबन्ध का कारण है
प्र.सा./मू./156 उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स सचयं जादि। असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि। =उपयोग यदि शुभ हो तो जीव का पुण्य संचय को प्राप्त होता है, और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है। दोनों के अभाव में संचय नहीं होता (प्र.सा./मू./181)।
पं.का./मू./135 रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदा य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।=जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकम्पा युक्त परिणाम हैं और चित्त में कलुषता का अभाव है उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है (यो.सा./अ./4/37)।
का.अ./मू./48 विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण गरहाहिं संजुत्तो। =सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशमभाव से युक्त तथा अपनी निन्दा और गर्हा करने वाले विरले जन ही पुण्यकर्म का उपार्जन करते हैं।
पं.का./ता.वृ./264/237/11 स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पञ्चपरमेष्ठ्यादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति।=सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय यद्यपि स्वभाव से मोक्ष के कारण हैं, परन्तु यदि पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्यों के आश्रित हों तो साक्षात् पुण्यबन्ध के कारण होते हैं।
- परन्तु सम्यक् व्यवहारधर्म से उत्पन्न पुण्य विशिष्ट प्रकार का होता है
द्र.सं./टी./36/152/5 तद्भवे तीर्थंकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति। =(सम्यग्दृष्टि की शुभ क्रियाएं) उस भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि रूप विशिष्ट पुण्यबन्ध की कारण होती हैं (द्र.सं./टी./38/160/2); (प्र.सा./ता.वृ./6/8/10); (प.प्र./टी./2/6/71/196/6)।
प.प्रा./टी./2/60/182/1 इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव ममकाराहंकारं जनयति, बुद्धिविनाशं च करोति। न च पुन: सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् । यदि पुन: सर्वेषां मदं जनयति तर्हिं ते कथं पुण्यभाजना: सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थ:। =जो यह पुण्य पहले कहा गया है वह सर्वत्र समान नहीं होता। भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगों की आकांक्षारूप निदानबन्ध वाले परिणामों से सहित ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा जो पूर्वभव में उपार्जित किया गया पुण्य होता है, वह ही ममकार व अहंकार को उत्पन्न करता है तथा बुद्धि का विनाश करता है। परन्तु सम्यक्त्व आदि गुणों के सहित उपार्जित पुण्य ऐसा नहीं करता, जैसे कि भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि का पुण्य। यदि सभी जीवों का पुण्य मद उत्पन्न करता होता तो पुण्य के भाजन होकर भी वे मद अहंकारादि विकल्पों को छोड़कर मोक्ष कैसे जाते ?
(और भी–देखें मिथ्यादृष्टि - 4); (मिथ्यादृष्टि का पुण्य पापानुबन्धी होता है पर सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है)। - <a name="7.9" id="7.9"></a>सम्यक व्यवहारधर्म निर्जरा का तथा परम्परा मोक्ष का कारण है
प्र.सा./मू. प्रक्षेपक/79-2 तं देवदेवं जदिवरवसहं गुरु तिलोयस्स। पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति। =जो त्रिलोकगुरु यतिवरवृषभ उस देवाधिदेव को नमस्कार करते हैं, वे मनुष्य अक्षय सुख प्राप्त करते हैं। भाव संग्रह/404,610 सम्यग्दृष्टे: पुण्यं न भवति संसारकारणं नियमात् । मोक्षस्य भवति हेतु: यदि च निदानं न करोति।404। आवश्यकादि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्वंनिर्जरानिमित्तम् ।610। =सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता, बल्कि यदि वह निदान न करे तो मोक्ष का कारण है।404। आवश्यक आदि या वैयावृत्ति या दान पूजा आदि जो कुछ भी शुभक्रिया सम्यग्दृष्टि करता है, वह सबकी सब उसके लिए निर्जरा की निमित्त होती है।
पु.सि.उ./211 असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो य:। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपाय: ।211। =भेदरत्नत्रय की भावना से जो पुण्य कर्म का बन्ध होता है वह यद्यपि रागकृत है, तो भी वे मिथ्यादृष्टि की भांति उसे संसार का कारण नहीं हैं बल्कि परम्परा से मोक्ष का ही कारण हैं। नि.सा./ता.वृ./76/क.107 शीलमपवर्गयोषिदनङ्सुखस्यापि मूलमाचार्या:। प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परम्पराहेतु:।=आचार्यों ने शील को मुक्तिसुन्दरी के अनंगसुख का मूल कारण कहा। व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है।
द्र.सं./टी./36/152/6 पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। =(वह विशिष्ट पुण्यबन्ध) परम्परा से मुक्ति का कारण है। - परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्ष का कारण है रहित नहीं
स.सा./मू./156 मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति। परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। =निश्चय के विषय को छोड़कर विद्वान् व्यवहार के द्वारा प्रवर्तते हैं, परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरों के ही कर्मों का नाश आगम में कहा गया है। स.श./71 मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचलाधृति:। तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति:।=जिस पुरुष के चित्त में आत्मस्वरूप की निश्चल धारणा है, उसकी नियम से मुक्ति होती है, और जिस पुरुष की आत्मस्वरूप में निश्चल धारणा नहीं है, उसकी अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है (अर्थात् हो भी और न भी हो)।
प.प्र./टी./2/191 यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति। =यदि ‘निज शुद्धात्मा ही उपादेय है’ ऐसा श्रद्धा करके, उसके साधकरूप से तदनुकूल तपश्चरण (चारित्र) करता है, और उसके ही विशेष परिज्ञान के लिए शास्त्रादि पढ़ता है तो वह भेद रत्नत्रय परम्परा से मोक्ष का साधक होता है। यदि ऐसा न करके केवल बाह्य क्रिया करता है तो वही पुण्यबन्ध का कारण है। (पं.का./ता.वृ./172/249/9); (प्र.सा./ता.वृ./255/349/1)। - <a name="7.11" id="7.11"></a>यद्यपि मुख्यरूप से पुण्यबन्ध ही होता पर परम्परा से मोक्ष का कारण पड़ता है
प्र.सा./ता.वृ./255/348/20 यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वक: शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च। =जब पूर्वसूत्र में कहे अनुसार सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्यरूप से तो पुण्यबन्ध होता है, परन्तु परंपरा से निर्वाण भी होता है। - <a name="7.12" id="7.12"></a>परम्परा मोक्ष का कारण कहने का तात्पर्य
पं.का./ता.वृ./170/243/15 तेन कारणेन यद्यप्यनन्तसंसारछेदं करोति कोऽप्यचरमदेहस्तद्भवे कर्मक्षयं न करोति तथापि...भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपदं लभते। तत्र...पञ्चविदेहेषु गत्वा समवशरणे वीतरागसर्वज्ञानं पश्यति...तदनन्तरं विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवर्त्यादिविभूतिं लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोहं न करोति ततश्च विषयसुखं परिहृत्य: जिनदीक्षां गृहीत्वा निर्विकल्पसमाधिविधानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं गच्छतीति भावार्थ:। =उस पूजादि शुभानुष्ठान के कारण से यद्यपि अनन्तसंसार की स्थिति का छेद करता है, परन्तु कोई भी अचरमदेही उसी भव में कर्मक्षय नहीं करता। तथापि भवान्तर में देवेन्द्रादि पदों को प्राप्त करता है। तहां पंचविदेहों में जाकर समवशरण में तीर्थंकर भगवान के साक्षात् दर्शन करता है। तदनन्तर विशेष रूप से दृढ़धर्मा होकर चतुर्थ गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को न छोड़ता हुआ देवलोक में काल गंवाता है। जीवन के अन्त में स्वर्ग से चयकर मनुष्य भव में चक्रवर्ती आदि की विभूति को प्राप्त करके भी पूर्वभव में भावित शुद्धात्मभावना के बल से मोह नहीं करता। और विषयसुख को छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करके निर्विकल्पसमाधि की विधि से विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजशुद्धात्मा में स्थित होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। (द्र.सं./टी./38/160/1); (द्र.सं./टी./35/145/6); (धर्मध्यान/5/2); (भा.पा./टी./81/233/6)।
- निश्चयधर्म साक्षात् मोक्ष का कारण
- दशधर्म निर्देश
- <a name="8.1" id="8.1"></a>धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि
ज्ञा./2-10/2 दशलक्ष्मयुत: सोऽयं जिनैर्धर्म: प्रकीर्तित:। =जिनेन्द्र भगवान् ने धर्म को दश लक्षण युक्त कहा है (पं.वि./1/7); (का.अ./478); (द्र.सं./टी./35/101/8); (द्र.सं./टी./35/145/3); (द.पा.टी./9/8/4)। - <a name="8.2" id="8.2"></a>दशधर्मों के साथ ‘उत्तम’ विशेषण की सार्थकता
स.सि./9/6/413/5 दृष्टप्रयोजनपरिवर्तनार्थमुत्तमविशेषणम् । =दृष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ इनके साथ ‘उत्तम’ विशेषण दिया है। (रा.वा./9/6/26/598/29)।
चा.सा./58/1 उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थं। =ख्याति व पूजादि की भावना की निवृत्ति के अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति पूजा आदि के अभिप्राय से धारी गयी क्षमा आदि उत्तम नहीं है। - ये दशधर्म साधुओं के लिए कहे गये हैं
बा.अनु./68 एयारस दसभेयं धम्मं सम्मत्तं पुव्वयं भणियं। सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं।68। =उत्तम सुखसंयुक्त जिनेन्द्रदेव ने सागार धर्म के ग्यारह भेद और अनगार धर्म के दश भेद कहे हैं। (का.अ./मू.304); (चा.सा./58/1)। - परन्तु यथासम्भव मुनि व श्रावक दोनों को ही होते हैं
पं.वि./6/59 आद्योत्तमक्षमा यत्र सो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59। =उत्तम क्षमा है आदि में जिसके तथा जो दश भेदों से युक्त है, उस धर्म का श्रावकों को भी अपनी शक्ति और आगम के अनुसार सेवन करना चाहिए। रा.वा./हिं./9/6/668 ये धर्म अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके जैसे क्रोधादि की निवृत्ति होय तैसे यथा सम्भव होय हैं, अर मुनिनि के प्रधानपने होय हैं। - इन दशों को धर्म कहने में हेतु
रा.वा./9/6/24/598/22 तेषां संवरणधारणसामर्थ्याद्धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थेति।=इन धर्मों में चूंकि संवर को धारण करने की सामर्थ्य है, इसलिए ‘धारण करने से धर्म’ इस सार्थक संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
- <a name="8.1" id="8.1"></a>धर्म का लक्षण उत्तम क्षमादि
पुराणकोष से
(1) एक चारण ऋद्धिधारी श्रमण । हरिवंशपुराण 60.17
(2) तीर्थंकर वासुपूज्य के प्रमुख गणधर । महापुराण 58.44
(3) तीर्थंकर विमलनाथ के तीर्थ में हुआ तीसरा बलभद्र । यह द्वारावती नगरी के राजा भद्र और रानी सुभद्रा का पुत्र था । नारायण स्वयंभू इसका भाई था । महापुराण 59.87 स्वयंभु मधु प्रतिनारायण को मारकर अर्ध भरतक्षेत्र का स्वामी हुआ । उसने बहुत काल तक राज्य का उपभोग किया । मरकर वह भी सातवें नरक में गया । अपने भाई के वियोग से उत्पन्न शोक के कारण यह विमलनाथ के समीप संयमी हुआ । उग्र तपस्या की, केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार से मुक्त हुआ । अपने दूसरे पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के पश्चिम विदेहक्षेत्र में मित्रनन्दी राजा था और प्रथम पूर्वभव में अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ । महापुराण 59.64-71, 87, 95-106, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 111
(4) एक देव । कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवों को भस्म किये जाने का षड्यंत्र जानकर यह पाण्डवों के कुल की रक्षा करने के ध्येय से एकाएक पाण्डवों के पास आया था । इसने द्रौपदी को छिपा लिया और उसे मारने के लिए एक-एक करके आये हुए पाण्डवों को विषमिश्रित सरोवर का जल पिलाकर मूर्च्छित कर दिया । कनकध्वज द्वारा भेजी हुई कृत्याविद्या के आने पर इसने भील का रूप धारण कर लिया । पाण्डवों के शरीर को मृत बताकर इसने कृत्या को धोखे में डाल दिया । कृत्याविद्या के द्वारा कार्य पूछे जाने पर इसने पाण्डवों को मारने की आज्ञा देने वाले कनकध्वज को ही मारने के लिए कहा । तदनुसार कृत्याविद्या ने कनकध्वज के पास लौटकर उसे मार डाला । विद्या अपने स्थान पर चली गयी । धर्म ने अमृत बिन्दुओं से पाण्डवों को सींचकर सोये हुए के समान उठा दिया । अर्जुन को द्रौपदी दे दी । सारा वृत्तान्त सुनाया और युधिष्ठिर आदि की वन्दना करके अपने स्थान को लौट आया । पांडवपुराण 17.150-225
(5) राम का पक्षधर एक योद्धा । पद्मपुराण 58.14
(6) अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाकापुरुष एवं पन्द्रहवें तीर्थंकर । ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विद्यमान रत्नपुर नगर में कुरुवंशी-काश्यपगोत्री राजा भानु के घर जन्में थे । रानी सुप्रभा इनकी माता थी । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रात:काल के समय इनकी माता ने सोलह स्वप्न देखे थे । उसी समय अनुत्तर विमान से च्युत होकर ये सुप्रभा रानी के गर्भ में आये । माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग मे अनन्तनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने इनका यह नाम रखा था । इनकी आयु दस लाख वर्ष, शारीरिक कान्ति स्वर्ण के समान और अवगाहना एक सौ अस्सी हाथ थी । कुमारावस्था के अढ़ाई लाख वर्ष बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाते पर उल्कापात देख इन्हें वैराग्य हो गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र सुधर्म को इन्होंने राज्य दे दिया । नागदत्ता नाम की पालकी में बैठ ये शीलवन आये और वहाँ माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । ये आहारार्थ पाटलिपुत्र आये, वहाँ धन्यषेण नृप ने इन्हें अहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये । एक वर्ष पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्र में इन्होंने केवलज्ञान प्रान्त किया । देवों ने महोत्सव किया । इनके संघ में अरिष्टसेन आदि तेंतालीस गणधर, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारी, चालीस हजार सात सौ उपाध्याय, तीन हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, चार हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी, दो हजार आठ सौ वादी कुल, चौसठ हजार मुनि तथा सुव्रता आदि बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, दो लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए अन्त में ये सम्मेदगिरि आये । यहाँ एक मास का योग-निरोध करके आठ सौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हो गये और ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी की रात्रि के अवाम में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर पुण्य नक्षत्र में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । देवों ने आकर परम उत्साह से निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया । दूसरे पूर्वभव में ये सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे और प्रथम पूर्वभव से अहमिन्द्र रहे । महापुराण 2.131, 61.2-54, पद्मपुराण 5. 215, 20.120, हरिवंशपुराण 1.17, 60. 153-196, 341-396, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 107
(7) जीव और पुद्गल के गमन में सहायक एक द्रव्य । महापुराण 24.133-134, हरिवंशपुराण 4.3, 72, 58.54
(8) एक अनुप्रेक्षा (भावना)― आत्मज्ञान को ही परम धर्म समझकर उसका चिन्तन करना । पद्मपुराण 14.239, पांडवपुराण 25.117-123
(9) चतुर्विध पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ । यह अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष का साधन हे । हरिवंशपुराण 3.193, 9.137
(10) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त वस्तु का यथार्थ स्वरूप । महापुराण 21. 133
(11) प्राणियों को कुगति से सुगति में ले जाने वाला । यह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप के भेद से चार प्रकार का होता है । उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से इसके दस लक्षण है । महापुराण 11. 103-104, 47.302-303, पद्मपुराण 106. 90, हरिवंशपुराण 2.130, पांडवपुराण 23.71, वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 122 इसके दो भेद भी है― सागार और अनगार । इनमें पांच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना अनगार धर्म है । सम्यग्दर्शन पूर्व का तप, दान, पूजा और पंचाणुव्रतों का पालन सागार धर्म है । महापुराण 41.104, पद्मपुराण 4.48, हरिवंशपुराण 10.7-9, पांडवपुराण 9. 81-82 पाण्डवपुराणकार ने ऊपर कहे सागार धर्म में पूजा के स्थान पर शुभ-भावना को स्थान दिया है । पांडवपुराण 1.123 आचार्य रविषेण ने पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार धर्म कहा है । पद्मपुराण 4.6 सामान्यत: जीव-दया, सत्य, क्षमा, शौच, त्याग, सम्यग्ज्ञान और वैराग्य ये सब धर्म है । महापुराण 10.15