स्ववश: Difference between revisions
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नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./146 <span class="PrakritText">परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मल सहावं। अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।146।</span> =<span class="HindiText">जो परभाव को त्यागकर निर्मलस्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म (जिन) कहते हैं।</span> | ||
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भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./84/217/5 <span class="PrakritText">सव्वत्थ सर्वस्मिन्देशे आत्मवशता। स्वेच्छया आस्ते, गच्छति; शेते वा। इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति वस्त्विति तदनुरोधकृता परतन्त्रता नास्ति संयतस्य।</span> =<span class="HindiText">सर्वत्र आत्मवशता-परिग्रह के त्याग से संयत के वह गुण भी प्राप्त होता है। मुनि के पास कोई परिग्रह न होने से वे स्वेच्छा से बैठते हैं, जाते हैं, सोते हैं। बैठने-उठने में मेरी अमुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरे को चाहिए इस प्रकार की चिन्ता उनके नहीं होती।</span></p> | ||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
नि.सा./मू./146 परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मल सहावं। अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।146। =जो परभाव को त्यागकर निर्मलस्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म (जिन) कहते हैं।
भ.आ./वि./84/217/5 सव्वत्थ सर्वस्मिन्देशे आत्मवशता। स्वेच्छया आस्ते, गच्छति; शेते वा। इहासनादिकरणे इदं मम विनश्यति वस्त्विति तदनुरोधकृता परतन्त्रता नास्ति संयतस्य। =सर्वत्र आत्मवशता-परिग्रह के त्याग से संयत के वह गुण भी प्राप्त होता है। मुनि के पास कोई परिग्रह न होने से वे स्वेच्छा से बैठते हैं, जाते हैं, सोते हैं। बैठने-उठने में मेरी अमुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरे को चाहिए इस प्रकार की चिन्ता उनके नहीं होती।