गुणश्रेणी निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="8"><strong>गुणश्रेणी निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="8"><strong>गुणश्रेणी निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="8.1"><strong> | <p class="HindiText" id="8.1"><strong>1. गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">ल.सा./मू./583/695 गुणसेढि अंतरट्ठिदि विदियट्ठिदि इदिहवंति पव्वतिया।...।583।</span> = <span class="HindiText">गुणश्रेणी में तीन पर्व होते हैं - गुणश्रेणी, अन्तर स्थिति और द्वितीय स्थिति। अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य इन तीनों में विभक्त किया जाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="8.2"><strong> | <p class="HindiText" id="8.2"><strong>2. गुणश्रेणी निर्जरा के आवश्यक अधिकार</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं।]</p> | <p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.3"><strong> | <p class="HindiText" id="8.3"><strong>3. गुणश्रेणी का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.12/4,2,7,175/80/6 गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुणसेडी णाम। दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदव्वं थोवं। विदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। तदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। एवं णेयव्वं जाव दंसणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति। एसा गुणागारपंत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं। गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारो त्ति भणिदं होदि। | ||
</span> = <span class="HindiText">गुण शब्द का अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव का प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामक के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणि का गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">गुण शब्द का अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव का प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामक के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणि का गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क्ष.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">क्ष.सा./मू./583/695 सुहुमगुणादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसेढी।583।</span> = <span class="HindiText">यावत् अपकृष्ट किया द्रव्य सूक्ष्म से लेकर असंख्यातगुणा क्रम लिये अवस्थितादि आयाम में दिया जाता है उसका नाम गुणश्रेणी है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="8.4"><strong> | <p class="HindiText" id="8.4"><strong>4. गुणश्रेणी निर्जरा का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
गो.जी./भाषा/ | गो.जी./भाषा/67/174/11 उदयावलि काल के पीछे अन्तर्मुहूर्त मात्र जो गुणश्रेणि का आयाम कहिए काल प्रमाण ताविषैं दिया हुआ द्रव्य सो तिस काल का प्रथमादि समयविषैं जे पूर्वे निषेक थे, तिनकी साथि क्रमतैं असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होइ निर्जरै है सो गुणश्रेणी निर्जरा है (है।)</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.5"><strong> | <p class="HindiText" id="8.5"><strong>5. गुणश्रेणी शीर्ष का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,12/261/11 सम्मत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडगे पढमसमयआगाइदे ओवट्टियमाणसु ट्ठिदिसु जं पदेसग्गसमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं। ताव असंखेज्जगुणं जाव ट्ठिदिखंडयस्स जहण्णियाए वि ट्ठिदीए चरिमसमयं अपत्तं त्ति। सा चेव ट्ठिदि गुणसेडी सीसयं जादा।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम स्थिति काण्डक के प्रथम समय में ग्रहण करने पर अवर्तन की गयी स्थितियों में से जो प्रदेशाग्र उदय में दिया जाता है, वह अल्प है, अनन्तर समय में असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है। इस क्रम से तब तक असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है जब तक कि स्थितिकाण्डक की जघन्य भी स्थिति का अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। वह स्थिति ही गुणश्रेणिशीर्ष कहलाती है।</span></p> | ||
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ल.सा./भाषा/ | ल.सा./भाषा/135/186/5 गुणश्रेणि आयाम का अन्त का निषेक ताकौ इहाँ गुणश्रेणि शीर्ष कहते हैं।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.6"><strong> | <p class="HindiText" id="8.6"><strong>6. गुणश्रेणी आयाम का लक्षण</strong></p> | ||
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क्ष.सा./ | क्ष.सा./398/भाषा उदयावलि से बाह्य गलितावशेष रूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है ता विषै अपकर्ष किया द्रव्य का निक्षेपण हो है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.7"><strong> | <p class="HindiText" id="8.7"><strong>7. गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम का लक्षण</strong></p> | ||
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ल.सा./भाषा/ | ल.सा./भाषा/142/198/2 - उदयादि वर्तमान समय तै लगाय यहाँ गुणश्रेणी आयाम पाइये तातै उदयादि कहिये, अर एक एक समय व्यतीत होते एक-एक समय गुणश्रेणि आयाम विषै घटता जाय (उपरितन स्थिति का समय गुणश्रेणी आयाम में न मिले) तातै गलितावशेष कहा है। ऐसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम जानना।</p> | ||
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ल.सा./वचनिका/ | ल.सा./वचनिका/22/4 गलितावशेष गुणश्रेणी का प्रारम्भ करनेकौं प्रथम समय विषैं जो गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण था, तामैं एक-एक समय व्यतीत होतै ताकै द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रैणि आयाम क्रमतैं एक-एक निषैंक घटता होइ अवशेष रहै ताका नाम गलितावशेष है। (ध.6/1,8-8,6/230 पर विशेषार्थ)।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.8"><strong> | <p class="HindiText" id="8.8"><strong>8. अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./130/171/9 सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्षस्थितिकरणसमयादूर्ध्वमपि न केवलमष्टवर्षमात्रस्थितिकरणसमय एवोदयाद्यवस्थितिगुणश्रेणिरित्यर्थ:।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय की अष्ट वर्ष स्थिति करने के समयतैं लगाय उपरि सर्व समयनिविषैं उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।</span></p> | ||
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ल.सा./भाषा/ | ल.सा./भाषा/128/169/18...इहां तै पहिले (सम्यक्त्व मोह की, क्षपणा विधान के द्वारा, अष्टवर्ष स्थिति रखने के समय तै पहिलै) तो उदयावलि तै बाह्य गुणश्रेणि आयाम था। अब इहां तै लगाइ उदयरूप वर्तमान समय तै लगाइ ही गुणश्रेणि आयाम भया तातै याको उदयादि कहिये। अर (उदयादि गुणश्रेणी आयाम तै) पूर्वे तो समय व्यतीत होतै गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था, अब (उदयावलि में से) एक समय (उदय विषै) व्यतीत होतै उपरितन स्थिति का एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण समय व्यतीत होतैं भी जेताका तैता रहै। तातै अवस्थित कहिये तातैं याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।</p> | ||
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ल.सा./वचनिका/ | ल.सा./वचनिका/22/7 अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का प्रारम्भ करने का प्रथम समय द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रेणि आयाम जेता का तेता रहै। ज्यूँ ज्यूँ एक एक समय व्यतीत होइ त्यूँ त्यूँ गुणश्रेणि आयाम के अनन्तरिवर्ती ऐसा उपरितन स्थिति का एक एक निषेक गुणश्रेणि आयाम विषै मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणि आयाम कहिये है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.9"><strong> | <p class="HindiText" id="8.9"><strong>9. गुणश्रेणी आयामों का यन्त्र</strong></p> | ||
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चार्ट</p> | चार्ट</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.10"><strong> | <p class="HindiText" id="8.10"><strong>10. अन्तरस्थिति व द्वितीय स्थिति का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
क्ष.सा./भाषा/ | क्ष.सा./भाषा/583/695/16 ताके उपरिवर्ती (गुणश्रेणि के ऊपर) जिनि निषेकनिका पूर्वे अभाव किया था तिनका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है। ताकै उपरिवर्ती अवशेष सर्वस्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.11"><strong> | <p class="HindiText" id="8.11"><strong>11. गुणश्रेणि निक्षेपण विधान</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
क्ष.सा./ | क्ष.सा./586/698-700 का भावार्थ - प्रथम समय अपकर्षण किया द्रव्य तै द्वितीयादि समयनि विषै असंख्यात गुण द्रव्य लिये समय प्रतिसमय द्रव्य को अपकर्षण करै है और उदयावली विषै, गुणश्रेणि आयाम विषै और उपरितन (द्वितीय) स्थिति विषै निक्षेपण करिये है। अन्तरायाम के प्रथम स्थिति के प्रथम निषेक पर्यन्त गुणश्रेणि शीर्षपर्यन्त तो असंख्यात गुणक्रम लिये द्रव्य दीजिये है, ताकै उपरि (अन्तर स्थिति व द्वितीय स्थिति में) संख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिये है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.12"><strong> | <p class="HindiText" id="8.12"><strong>12. गुणश्रेणी निर्जरा विधान</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.6/1,9-8,5/224-227/5 उदयपयडीणमुदयावलियबाहिर ट्ठिदट्ठिदीणं पदेसग्गमोकड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडं असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उदए बहुगं देदि। विदियसमए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ त्ति।...एस कमो उदयपयडीणं चेव, ण सेसाणं, तेसिमुदयावलियब्भंतरे पडमाणपदेसग्गाभावा। उदइल्लाणमणुदइल्लाणं च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियबाहिरट्ठिदीसु ट्ठिदमोकड्डणभागहारेण खंडिदेगखंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरट्ठिदिम्हि असंखेज्जसमयप्रबद्धे देदि। तदो उवरिमट्ठिदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि। तदियट्ठिदीए तत्तो असंखेज्ज गुणे देदि। एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव गुणसेडीचरिमसमओ त्ति। तदो उवरिमाणंतराए ट्ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि। तदुवरिमट्ठिदीए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं चेव पदेसग्गं णिरंतरं देदि जाव अप्पप्पणो उक्कीरिदट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तोत्ति। णवरि उदयावलियबाहिरट्ठिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंडं समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयाहियतिभागे णिक्खिवदि पुव्वं व विसेसहीणकमेण। तदो उवरिमट्ठिदीए एसो चेव णिक्खेवो। णवरि अइच्छावणा समउतरा होदि। एवं णेयव्वं जाव अइच्छावणा आवलियमेत्ता जादा त्ति। तदो उवरिमणिक्खेवो चेव वड्ढदि जाव उक्कस्सणिक्खेवं पत्तो त्ति। जासिं ट्ठिदीणं पदेसग्गस्स उदयावलियब्भंतरे चेव णिक्खेवो तासिं पदेसग्पस्स ओकड्डणभागाहारो असंखेज्जा लोगा। एवमुवरिमसव्वसमएसु कीरमाणगुणसेडीणमेसो चेव अत्थो वत्तव्वो।</span> = <span class="HindiText">उदय में आयी हुई प्रकृतियों की उदयावली से बाहर स्थित स्थितियों के प्रदेशाग्र को (निषेकों को) अपकर्षण भागाहार (पल्य/असं.) के द्वारा खण्डित करके, एक खण्ड को असंख्यात लोक से भाजित करके एक भाग को ग्रहणकर उदय में बहुत प्रदेशाग्र को देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है। इस प्रकार उदयावली के अन्तिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है।...यह क्रम उदय में आयी हुई प्रकृतियों का ही है, शेष (सत्तावाली) प्रकृतियों का नहीं, क्योंकि उनमें उदयावली के भीतर आने वाले प्रदेशाग्रों का अभाव है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
उदय में आयी हुई और उदय में नहीं आयी हुई प्रकृतियों के प्रदेशाग्रों को तथा उदयावली के बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रों को (पूर्वोक्त प्रकार) अपकर्षण भागाहार के द्वारा खण्डित करके एक खण्ड को ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धों को उदयावली के बाहर की स्थिति में देता है। इससे ऊपर की स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धों को देता है। तृतीय स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित सयम प्रबद्धों को देता है। इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा गुणश्रेणी के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए।</p> | उदय में आयी हुई और उदय में नहीं आयी हुई प्रकृतियों के प्रदेशाग्रों को तथा उदयावली के बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रों को (पूर्वोक्त प्रकार) अपकर्षण भागाहार के द्वारा खण्डित करके एक खण्ड को ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धों को उदयावली के बाहर की स्थिति में देता है। इससे ऊपर की स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धों को देता है। तृतीय स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित सयम प्रबद्धों को देता है। इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा गुणश्रेणी के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए।</p> | ||
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उससे ऊपर की अनन्तर स्थिति में असंख्यात गुणित हीन द्रव्य को देता है। उससे ऊपर की स्थिति में विशेषहीन द्रव्य को देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्र को निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलि से बाहर की स्थिति के...एक समय कम | उससे ऊपर की अनन्तर स्थिति में असंख्यात गुणित हीन द्रव्य को देता है। उससे ऊपर की स्थिति में विशेषहीन द्रव्य को देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्र को निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलि से बाहर की स्थिति के...एक समय कम 2/3 का अतिस्थापन करके (प्रारम्भ का) एक समय अधिक आवलि के त्रिभाग में पूर्व के समान विशेषहीन क्रम से निक्षिप्त करता है। उससे ऊपर की स्थिति में (भी) यही (विशेष हीन क्रम वाला) निक्षेप है। केवल विशेषता यह है क अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिस्थापना पूर्णावली मात्र हो जाती है। उससे ऊपर उपरिम विशेष ही उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है।</p> | ||
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जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावली के भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार से सर्व समयों में की जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। (ल.सा./जी.प्र./ | जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावली के भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार से सर्व समयों में की जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। (ल.सा./जी.प्र./68-74) विशेषता यह है कि प्रथम समय में अपकर्षण...देखें [[ अपकर्षण ]]।</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.13"><strong> | <p class="HindiText" id="8.13"><strong>13. गुणश्रेणी विधान विषयक यंत्र</strong></p> | ||
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चार्ट</p> | चार्ट</p> | ||
<p class="HindiText" id="8.14"><strong> | <p class="HindiText" id="8.14"><strong>14. नोकर्म की गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.9/4,1,71/352/1 णोकम्मस्स गुणसेडीए णिज्जराभावादो।</span> = <span class="HindiText">नोकर्म की गुणश्रेणी रूप से निर्जरा नहीं होती।</span></p> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
गुणश्रेणी निर्देश
1. गुणश्रेणी विधान में तीन पर्वों का निर्देश
ल.सा./मू./583/695 गुणसेढि अंतरट्ठिदि विदियट्ठिदि इदिहवंति पव्वतिया।...।583। = गुणश्रेणी में तीन पर्व होते हैं - गुणश्रेणी, अन्तर स्थिति और द्वितीय स्थिति। अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य इन तीनों में विभक्त किया जाता है।
2. गुणश्रेणी निर्जरा के आवश्यक अधिकार
नोट - [गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं।]
3. गुणश्रेणी का लक्षण
ध.12/4,2,7,175/80/6 गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुणसेडी णाम। दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदव्वं थोवं। विदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। तदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं। एवं णेयव्वं जाव दंसणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति। एसा गुणागारपंत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं। गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारो त्ति भणिदं होदि। = गुण शब्द का अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्ति का नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोह का उपशम करने वाले जीव का प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त होने वाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामक के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणि का गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है।
क्ष.सा./मू./583/695 सुहुमगुणादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसेढी।583। = यावत् अपकृष्ट किया द्रव्य सूक्ष्म से लेकर असंख्यातगुणा क्रम लिये अवस्थितादि आयाम में दिया जाता है उसका नाम गुणश्रेणी है।
4. गुणश्रेणी निर्जरा का लक्षण
गो.जी./भाषा/67/174/11 उदयावलि काल के पीछे अन्तर्मुहूर्त मात्र जो गुणश्रेणि का आयाम कहिए काल प्रमाण ताविषैं दिया हुआ द्रव्य सो तिस काल का प्रथमादि समयविषैं जे पूर्वे निषेक थे, तिनकी साथि क्रमतैं असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होइ निर्जरै है सो गुणश्रेणी निर्जरा है (है।)
5. गुणश्रेणी शीर्ष का लक्षण
ध.6/1,9-8,12/261/11 सम्मत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडगे पढमसमयआगाइदे ओवट्टियमाणसु ट्ठिदिसु जं पदेसग्गसमुदए दिज्जदि तं थोवं, से काले असंखेज्जगुणं। ताव असंखेज्जगुणं जाव ट्ठिदिखंडयस्स जहण्णियाए वि ट्ठिदीए चरिमसमयं अपत्तं त्ति। सा चेव ट्ठिदि गुणसेडी सीसयं जादा। = सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम स्थिति काण्डक के प्रथम समय में ग्रहण करने पर अवर्तन की गयी स्थितियों में से जो प्रदेशाग्र उदय में दिया जाता है, वह अल्प है, अनन्तर समय में असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है। इस क्रम से तब तक असंख्यात गुणित प्रदेशाग्रों को देता है जब तक कि स्थितिकाण्डक की जघन्य भी स्थिति का अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है। वह स्थिति ही गुणश्रेणिशीर्ष कहलाती है।
ल.सा./भाषा/135/186/5 गुणश्रेणि आयाम का अन्त का निषेक ताकौ इहाँ गुणश्रेणि शीर्ष कहते हैं।
6. गुणश्रेणी आयाम का लक्षण
क्ष.सा./398/भाषा उदयावलि से बाह्य गलितावशेष रूप जो यह गुणश्रेणि आयाम है ता विषै अपकर्ष किया द्रव्य का निक्षेपण हो है।
7. गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम का लक्षण
ल.सा./भाषा/142/198/2 - उदयादि वर्तमान समय तै लगाय यहाँ गुणश्रेणी आयाम पाइये तातै उदयादि कहिये, अर एक एक समय व्यतीत होते एक-एक समय गुणश्रेणि आयाम विषै घटता जाय (उपरितन स्थिति का समय गुणश्रेणी आयाम में न मिले) तातै गलितावशेष कहा है। ऐसे गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम जानना।
ल.सा./वचनिका/22/4 गलितावशेष गुणश्रेणी का प्रारम्भ करनेकौं प्रथम समय विषैं जो गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण था, तामैं एक-एक समय व्यतीत होतै ताकै द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रैणि आयाम क्रमतैं एक-एक निषैंक घटता होइ अवशेष रहै ताका नाम गलितावशेष है। (ध.6/1,8-8,6/230 पर विशेषार्थ)।
8. अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का लक्षण
ल.सा./जी.प्र./130/171/9 सम्यक्त्वप्रकृतेरष्टवर्षस्थितिकरणसमयादूर्ध्वमपि न केवलमष्टवर्षमात्रस्थितिकरणसमय एवोदयाद्यवस्थितिगुणश्रेणिरित्यर्थ:। = सम्यक्त्व मोहनीय की अष्ट वर्ष स्थिति करने के समयतैं लगाय उपरि सर्व समयनिविषैं उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।
ल.सा./भाषा/128/169/18...इहां तै पहिले (सम्यक्त्व मोह की, क्षपणा विधान के द्वारा, अष्टवर्ष स्थिति रखने के समय तै पहिलै) तो उदयावलि तै बाह्य गुणश्रेणि आयाम था। अब इहां तै लगाइ उदयरूप वर्तमान समय तै लगाइ ही गुणश्रेणि आयाम भया तातै याको उदयादि कहिये। अर (उदयादि गुणश्रेणी आयाम तै) पूर्वे तो समय व्यतीत होतै गुणश्रेणि आयाम घटता होता जाता था, अब (उदयावलि में से) एक समय (उदय विषै) व्यतीत होतै उपरितन स्थिति का एक समय मिलाय गुणश्रेणि आयाम का प्रमाण समय व्यतीत होतैं भी जेताका तैता रहै। तातै अवस्थित कहिये तातैं याका नाम उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है।
ल.सा./वचनिका/22/7 अवस्थित गुणश्रेणि आयाम का प्रारम्भ करने का प्रथम समय द्वितीयादि समयनिविषैं गुणश्रेणि आयाम जेता का तेता रहै। ज्यूँ ज्यूँ एक एक समय व्यतीत होइ त्यूँ त्यूँ गुणश्रेणि आयाम के अनन्तरिवर्ती ऐसा उपरितन स्थिति का एक एक निषेक गुणश्रेणि आयाम विषै मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणि आयाम कहिये है।
9. गुणश्रेणी आयामों का यन्त्र
चार्ट
10. अन्तरस्थिति व द्वितीय स्थिति का लक्षण
क्ष.सा./भाषा/583/695/16 ताके उपरिवर्ती (गुणश्रेणि के ऊपर) जिनि निषेकनिका पूर्वे अभाव किया था तिनका प्रमाण रूप अन्तरस्थिति है। ताकै उपरिवर्ती अवशेष सर्वस्थिति ताका नाम द्वितीय स्थिति है।
11. गुणश्रेणि निक्षेपण विधान
क्ष.सा./586/698-700 का भावार्थ - प्रथम समय अपकर्षण किया द्रव्य तै द्वितीयादि समयनि विषै असंख्यात गुण द्रव्य लिये समय प्रतिसमय द्रव्य को अपकर्षण करै है और उदयावली विषै, गुणश्रेणि आयाम विषै और उपरितन (द्वितीय) स्थिति विषै निक्षेपण करिये है। अन्तरायाम के प्रथम स्थिति के प्रथम निषेक पर्यन्त गुणश्रेणि शीर्षपर्यन्त तो असंख्यात गुणक्रम लिये द्रव्य दीजिये है, ताकै उपरि (अन्तर स्थिति व द्वितीय स्थिति में) संख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिये है।
12. गुणश्रेणी निर्जरा विधान
ध.6/1,9-8,5/224-227/5 उदयपयडीणमुदयावलियबाहिर ट्ठिदट्ठिदीणं पदेसग्गमोकड्डणभागहारेण खंडिदेयखंडं असंखेज्जलोगेण भाजिदेगभागं घेत्तूण उदए बहुगं देदि। विदियसमए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं देदि जाव उदयावलियचरिमसमओ त्ति।...एस कमो उदयपयडीणं चेव, ण सेसाणं, तेसिमुदयावलियब्भंतरे पडमाणपदेसग्गाभावा। उदइल्लाणमणुदइल्लाणं च पयडीणं पदेसग्गमुदयावलियबाहिरट्ठिदीसु ट्ठिदमोकड्डणभागहारेण खंडिदेगखंडं घेत्तूण उदयावलियबाहिरट्ठिदिम्हि असंखेज्जसमयप्रबद्धे देदि। तदो उवरिमट्ठिदीए तत्तो असंखेज्जगुणे देदि। तदियट्ठिदीए तत्तो असंखेज्ज गुणे देदि। एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव गुणसेडीचरिमसमओ त्ति। तदो उवरिमाणंतराए ट्ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि। तदुवरिमट्ठिदीए विसेसहीणं देदि। एवं विसेसहीणं विसेसहीणं चेव पदेसग्गं णिरंतरं देदि जाव अप्पप्पणो उक्कीरिदट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तोत्ति। णवरि उदयावलियबाहिरट्ठिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंडं समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयाहियतिभागे णिक्खिवदि पुव्वं व विसेसहीणकमेण। तदो उवरिमट्ठिदीए एसो चेव णिक्खेवो। णवरि अइच्छावणा समउतरा होदि। एवं णेयव्वं जाव अइच्छावणा आवलियमेत्ता जादा त्ति। तदो उवरिमणिक्खेवो चेव वड्ढदि जाव उक्कस्सणिक्खेवं पत्तो त्ति। जासिं ट्ठिदीणं पदेसग्गस्स उदयावलियब्भंतरे चेव णिक्खेवो तासिं पदेसग्पस्स ओकड्डणभागाहारो असंखेज्जा लोगा। एवमुवरिमसव्वसमएसु कीरमाणगुणसेडीणमेसो चेव अत्थो वत्तव्वो। = उदय में आयी हुई प्रकृतियों की उदयावली से बाहर स्थित स्थितियों के प्रदेशाग्र को (निषेकों को) अपकर्षण भागाहार (पल्य/असं.) के द्वारा खण्डित करके, एक खण्ड को असंख्यात लोक से भाजित करके एक भाग को ग्रहणकर उदय में बहुत प्रदेशाग्र को देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है। इस प्रकार उदयावली के अन्तिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है।...यह क्रम उदय में आयी हुई प्रकृतियों का ही है, शेष (सत्तावाली) प्रकृतियों का नहीं, क्योंकि उनमें उदयावली के भीतर आने वाले प्रदेशाग्रों का अभाव है।
उदय में आयी हुई और उदय में नहीं आयी हुई प्रकृतियों के प्रदेशाग्रों को तथा उदयावली के बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रों को (पूर्वोक्त प्रकार) अपकर्षण भागाहार के द्वारा खण्डित करके एक खण्ड को ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धों को उदयावली के बाहर की स्थिति में देता है। इससे ऊपर की स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धों को देता है। तृतीय स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित सयम प्रबद्धों को देता है। इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा गुणश्रेणी के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए।
उससे ऊपर की अनन्तर स्थिति में असंख्यात गुणित हीन द्रव्य को देता है। उससे ऊपर की स्थिति में विशेषहीन द्रव्य को देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्र को निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलि से बाहर की स्थिति के...एक समय कम 2/3 का अतिस्थापन करके (प्रारम्भ का) एक समय अधिक आवलि के त्रिभाग में पूर्व के समान विशेषहीन क्रम से निक्षिप्त करता है। उससे ऊपर की स्थिति में (भी) यही (विशेष हीन क्रम वाला) निक्षेप है। केवल विशेषता यह है क अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिस्थापना पूर्णावली मात्र हो जाती है। उससे ऊपर उपरिम विशेष ही उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है।
जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावली के भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार से सर्व समयों में की जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। (ल.सा./जी.प्र./68-74) विशेषता यह है कि प्रथम समय में अपकर्षण...देखें अपकर्षण ।
13. गुणश्रेणी विधान विषयक यंत्र
चार्ट
14. नोकर्म की गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती
ध.9/4,1,71/352/1 णोकम्मस्स गुणसेडीए णिज्जराभावादो। = नोकर्म की गुणश्रेणी रूप से निर्जरा नहीं होती।