संयम: Difference between revisions
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<p class="HindiText"> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">सम्यक् प्रकार यमन करना अर्थात् व्रत-समिति-गुप्ति आदि रूप से प्रवर्तना अथवा विशुद्धात्मध्यान में प्रवर्तना संयम है। तहाँ समिति आदि रूप प्रवर्तना अपहृत या व्यवहार संयम और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम है। इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते हैं। अन्य प्राणियों की रक्षा करना प्राणिसंयम है और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ऐसे इसके पाँच भेद हैं।</span> | |||
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<li id="I"><strong>[[संयम#1 | भेद व लक्षण]]</strong> | |||
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<li id="I.1">[[संयम#1.1 | संयम का लक्षण।]]</li> | |||
<li id="I.2">[[संयम#1.2 | व्यवहार संयम का लक्षण।]]</li> | |||
<li id="I.3">[[संयम#1.3 | निश्चय संयम का लक्षण।]]</li> | |||
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<li>निश्चय व्यवहार चारित्र की कथंचित् मुख्यता गौणता। - देखें [[ चारित्र#4.7 | चारित्र - 4.7]]।</li> | |||
<li>संयम लब्धिस्थान व एकान्तानुवृद्धि आदि संयम। - देखें [[ लब्धि#5 | लब्धि - 5]]।</li> | |||
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<li id="I.4">[[संयम#1.4 | संयममार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण।]]</li> | |||
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<li>सामायिकादि संयम। - देखें [[ शीर्षक सं#4 | शीर्षक सं - 4]]।</li> | |||
<li>क्षायोपशमिकादि संयम निर्देश। - देखें [[ भाव#2 | भाव - 2]]।</li> | |||
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<li id="I.5">[[संयम#1.5 | निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण।]]</li> | |||
<li id="I.6">[[संयम#1.6 | सकल व देशसंयम की अपेक्षा।]]</li> | |||
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<ul><li>सकल चारित्र देशचारित्र की अपेक्षा है यथाख्यात की अपेक्षा नहीं। - देखें [[ संयत#2.1 | संयत - 2.1 ]]में गो.जी.।</li></ul> | |||
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<li id="I.7">[[संयम#1.7 | अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश]] | |||
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<li id="I.7.1">[[संयम#1.7.1 | लक्षण व उनकी वीतरागता सम्बन्धी विशेषताएँ।]]</li> | |||
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<li id="I.8">[[संयम#1.8 | प्राणी व इन्द्रिय संयम के लक्षण।]]</li> | |||
<li id="I.9">[[संयम#1.9 | प्राणि व इन्द्रियसंयम के 17 भेद।]]</li> | |||
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<li id="II"><strong>[[संयम#2 | नियम व शंका समाधान]]</strong> | |||
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<li>चारित्रमोह का उपशम क्षय व क्षयोपशम विधान। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | |||
<li>सम्यक्त्व सहित ही होता है। - देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]।</li> | |||
<li>व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयमी नहीं। - देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]/8।</li> | |||
<li>सवस्त्रसंयम निषेध। - देखें [[ वेद#7.4 | वेद - 7.4]]।</li> | |||
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<li id="II.1">[[संयम#2.1 | संयम व विरति में अन्तर।]]</li> | |||
<li id="II.2">[[संयम#2.2 | संयम गुप्ति व समिति आदि में अन्तर।]]</li> | |||
<li id="II.3">[[संयम#2.3 | चारित्र व संयम में अन्तर।]]</li> | |||
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<li>उत्सर्ग व अपवादसंयम निर्देश। - देखें [[ अपवाद#4 | अपवाद - 4]]।</li> | |||
<li>सयोगकेवली के संयम में भी कथंचित् मल का सद्भाव। - देखें [[ केवली#2.2 | केवली - 2.2]]।</li> | |||
<li>संयम में परीषहजय का अन्तर्भाव। - देखें [[ कायक्लेश ]]।</li> | |||
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<li id="II.4">[[संयम#2.4 | इन्द्रियसंयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता।]]</li> | |||
<li id="II.5">[[संयम#2.5 | इन्द्रिय व मनोजय का उपाय।]]</li> | |||
<li id="II.6">[[संयम#2.6 | कषाय निग्रह का उपाय।]]</li> | |||
<li id="II.7">[[संयम#2.7 | संयम पालनार्थ भावना विशेष।]]</li> | |||
<li id="II.8">[[संयम#2.8 | पंचम काल में सम्भव है।]]</li> | |||
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<ul><li>निगोद से निकलकर सीधे संयम प्राप्ति करने सम्बन्धी। - देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]।</li></ul> | |||
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<li id="II.9">[[संयम#2.9 | जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल सम्बन्धी नियम।]]</li> | |||
<li id="II.10">[[संयम#2.10 | पुन: पुन: संयमादि प्राप्ति की सीमा।]]</li> | |||
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<li>संयमी मरकर देवगति में ही जन्मता है। - देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]/6।</li> | |||
<li>संयममार्गणा में क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी। - देखें [[ संयत#2 | संयत - 2]]।</li> | |||
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<li id="III"><strong>[[संयम#3 | संयम का स्वामित्व]]</strong> | |||
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<li>सामायिक आदि संयमों का स्वामित्व। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | |||
<li>क्षायोपशमिकादि संयमों का स्वामित्व (5-7 तक क्षायोपशमिक और आगे औपशमिक व क्षायिक)। - देखें [[ वह वह गुणस्थान ]]।</li> | |||
<li>गुणस्थानों में परस्पर संयमों का आरोहण अवरोहण क्रम। - देखें [[ संयत#1.5 | संयत - 1.5]]।</li> | |||
<li>बद्धायुष्कों में केवल देवायु वाला ही संयम धारण कर सकता है। - देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]]।</li> | |||
<li>स्त्री को या सचेल की सम्भव नहीं। - देखें [[ वेद#7.4 | वेद - 7.4]]।</li> | |||
<li>संयम मार्गणा में सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</li> | |||
<li>संयम मार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | |||
<li>संयमियों में कर्मों का बन्ध-उदय-सत्त्व। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | |||
<li>सभी मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | |||
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<p class="HindiText" id="1"> <strong>भेद व लक्षण</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.1"> <strong> 1. संयम का लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">ध.7/2,1,3/7/3 सम्यक् यमो वा संयम:।</span> =<span class="HindiText">सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियन्त्रण सो संयम है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#3 | चारित्र - 3]]/7 [संयमन करने को संयम कहते हैं। अर्थात् भावसंयम से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।]।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.2"> <strong>2. व्यवहार संयम का लक्षण</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.2.1"> 1. व्रत समिति गुप्ति आदि की अपेक्षा</p> | |||
<p> <span class="PrakritText">प्र.सा./मू./240 पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो।240। | |||
</span>=<span class="HindiText">पंचसमितियुक्त, पाँच इन्द्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला, दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">प्र.सा./प्रक्षेपक गा./मू./240-1 चागो व अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं। सो संजमोत्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण।</span> =<span class="HindiText">बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग, मन वचन कायरूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारम्भ, इन्द्रिय विषयों से विरक्तता, कषायों का क्षय यह सामान्यरूप से संयम का लक्षण कहा गया है। विशेष रूप से प्रव्रज्या की अवस्थाएँ होती हैं।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">चा.पा./मू./28 पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिरायारं।28।</span> =<span class="HindiText">पाँच इन्द्रियों का संवर (देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]) पाँच व्रत और पच्चीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">बा.अ./76 वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा।76। | |||
</span>=<span class="HindiText">व्रत व समितियों का पालन, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियम से संयम धर्म होता है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./127 वदसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्हं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ।127।</span> =<span class="HindiText">पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों का जीतना (देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]) सो संयम कहा गया है।127। (ध.1/1,1,4/गा.92/145); (ध.7/2,1,3/7/2); (गो.जी./मू./465/876)।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ तप#2.1 | तप - 2.1 ]](तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करना संयम है।)</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.3"> <strong>3. निश्चय संयम का लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">प्र.सा./त.प्र./14,242 सकलषड्जीवनिकायनिशुम्भनविकल्पात्पञ्चेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्चव्यावर्त्यात्मन: | |||
शुद्धस्वरूपैसंयमनात् ...।14। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन...परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं।242।</span> =<span class="HindiText">1. समस्त छह जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूप में संयमन करने से (संयमयुक्त है)। 2. ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा रचित उसी तत्त्व में परिणति, ऐसे लक्षण वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों पर्यायों की युगपतता के द्वारा परिणत आत्मा में आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतपना होता है...।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">पं.ध./उ./1117 शुद्धस्वात्मोपलब्धि: स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च। | |||
</span>=<span class="HindiText">निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि ही संयम कहलाता है।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.4"> <strong>4. संयम मार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ष.खं.1/1,1/सूत्र 123/368 संजमाणुवादेण अत्थि संजदा सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि।123।</span> =<span class="HindiText">संयम मार्गणा के अनुवाद से सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं।123। (द्र.सं./टी./13/38/2)।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.3 | चारित्र - 1.3 ]][सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं।]</p> | |||
<p class="HindiText"> <strong>नोट</strong> - [इनके लक्षणों के लिए-देखें [[ वह वह नाम ]]।]</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.5"> <strong>5. निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.7/1,1,48/91/5 णायसंजमो ठवणसंजमो दव्वसंजमो भावसंजमो चेदि चउव्विहो संजमो। ...तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि। भावसंजमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि। | |||
</span>=<span class="HindiText">नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम। इस प्रकार संयम चार प्रकार का है। (नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत् जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयम के साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमण्डलु, पुस्तक आदि को कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है - आगमभावसंयम तो गया, अर्थात् निक्षेपवत् जानना। नोआगम भावसंयम तीन प्रकार का है - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयम के लिए। - | |||
देखें [[ संयत#2 | संयत - 2]] और औपशमिक व क्षायिक के लिए - देखें [[ श्रेणी ]]]।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.6"> <strong>6. सकल व देश संयम की अपेक्षा</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">चा.पा./मू./21 दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं। सायारं सग्गंथे परिग्गहो रहिय खलु णिरायारं।21।</span> =<span class="HindiText">संयम चरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार तथा निरागार। सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रह से रहित मुनिकै होता है।21।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">र.क.श्रा./50 सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।50।</span> =<span class="HindiText">वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है। समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">पु.सि.उ./40 हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मत: परिग्रहत:। कार्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।40।</span> =<span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों के सर्वदेश व एकदेश त्याग से चारित्र दो प्रकार का होता है। (देखें [[ व्रत#3.1 | व्रत - 3.1]])।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ल.सा./मू./168/221 दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले...।</span> =<span class="HindiText">चारित्र की लब्धि सकल व देश के भेद से दो प्रकार है।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./160/231/13 चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रन्थविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रन्थविहितमार्गेण पञ्चमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक व्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति।</span> =<span class="HindiText">मुनियों का चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रन्थों में कथित मार्ग से, प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों के योग्य (देखें [[ संयत ]]) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (देखें [[ संयम#1.2 | संयम - 1.2]]) और गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रन्थों में कथित मार्ग से, पंचमगुणस्थान के योग्य (देखें [[ संयत ]]ासंयत) दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि 11 स्थानों रूप होता है - (देखें [[ श्रावक ]])।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> सिद्धान्त प्रवेशिका/224-225 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।224। मुनियों के व्रतों को सकल चारित्र कहते हैं।225।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.7"> <strong>7 अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.7.1"> 1. लक्षण</p> | |||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/6/15/596/29 संयमो हि द्विविध: - उपेक्षासंयमोऽपहृतसंयमश्चेति। देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्टकायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वङ्गलक्षण उपेक्षासंयम:। अपहृतसंयमस्त्रिविध: उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति। तत्र प्रासुकवस्त्याहारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य बाह्यजन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्ट:, मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो मध्यम:, उपकरणान्तरेच्छया जघन्य:।</span> =<span class="HindiText">संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम। देश और काल के विधान को समझने वाले स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षासंयम है। अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है। प्रासुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य जन्तुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरण से जन्तुओं को बुहार देने वाले मध्यम और अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। (चा.सा./65/7-75/2) (और भी | |||
देखें [[ संयम#1.9 | संयम - 1.9]])।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">नि.सा./ता.वृ./64 अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतय: अतस्ते परमजिनमुनय: एकान्ततो निस्पृहा:, अतएव बाह्योपकरणनिर्मुक्ता।=</span><span class="HindiText">यह अपहृतसंयमियों को संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियों को पुस्तक, कमण्डलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमुनि एकान्त में निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.7.2"> 2. दोनों की वीतराग व सराग चारित्र के साथ एकार्थता</p> | |||
<p> <span class="SanskritText">प.प्र./टी./2/67/188/15 अथवोपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवत:। | |||
</span>=<span class="HindiText">उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों भी उन शुद्धोपयोगियों को ही होते हैं।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.14 | चारित्र - 1.14]],15 [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.7.3"> 3. अपहृतसंयम की विशेषताएँ</p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]/2 [अपहृत संयम दो प्रकार का है - इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम।]</p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ शुद्धि#2 | शुद्धि - 2 ]][इस अपहृत संयम में भाव, काय, विनय आदि के भेद से आठ शुद्धियों का उपदेश है।]</p> | |||
<p class="HindiText"> </p> | |||
<p class="HindiText" id="1.8"> <strong>8. प्राणि व इन्द्रिय संयम के लक्षण</strong></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ असंयम ]][असंयम दो प्रकार का है - प्राणि असयंम और इन्द्रिय असंयम। तहाँ षट्काय जीवों की विराधना प्राणि असंयम है और इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति इन्द्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इन्द्रिय संयम हैं - यथा)]</p> | |||
<p> <span class="PrakritText">मू.आ./418 पंचरस पंचवण्ण दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदियपाणा य संजमो णेओ।</span> =<span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मन के 28 विषय हैं। इनका निरोध सो इन्द्रिय संयम है और चौदह प्रकार की जीवों की (देखें [[ जीव समास ]]) रक्षा करना सो प्राणि संयम है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/128 सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थ दोसा य। तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।128।</span> =<span class="HindiText">पहले जीवसमास प्रकरण में जो सत्तावन प्रकार के जीव बता आये हैं (देखें [[ जीवसमास ]]) उनकी हिंसा से तथा अठाईस प्रकार के इन्द्रिय विषयों के (देखें [[ सन्दर्भ सं#1 | सन्दर्भ सं - 1]]) दोषों से विरति भाव का होना संयम है।128।</span></p> | |||
<p class="SanskritText"> स.सि./6/12/331/11 प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरति: संयम:।</p> | |||
<p> <span class="SanskritText">स.सि./9/6/412/1 समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयम:।</span> =<span class="HindiText">1. प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं। (रा.वा./6/12/6/522/21)। 2. समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इन्द्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। (रा.वा./9/6/14/696/26); (चा.सा./75/1); (त.सा./6/18); (पं.वि./1/96)</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/6/14/696/27 एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहार: प्राणिसंयम:। शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वङ्ग इन्द्रियसंयम:।</span> =<span class="HindiText">एकेन्द्रियादि प्राणियों की पीड़ा का परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इन्द्रियों के विषय उनमें राग का अभाव सो इन्द्रिय संयम है। (चा.सा./75/1); (अन.ध./6/37-38/591)।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">का.अ./मू./399 जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकज्जेसु। तणछेदं पि ण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स।</span> =<span class="HindiText">जीव रक्षा में तत्पर जो मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनि के (प्राणि) संयम धर्म होता है।399।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> नि.सा./ता.वृ./123 संयम: सकलेन्द्रियव्यापारपरित्याग:। =समस्त इन्द्रियों के व्यापार का परित्याग सो संयम है।</p> | |||
<p> <span class="SanskritText">पं.ध./उ./1118-1122 पञ्चानामिन्द्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिन्द्रियनिरोधाख्य: संयम: प्रथमो मत:।1118। स्थावराणां च पञ्चानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । असुसंरक्षणाख्य: स्याद्द्वितीय: प्राणसंयम:।1119। सत्यमक्षार्थसंबन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत् । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम् ।1121। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मन:। न वचो न वपु: क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।1122।</span> =<span class="HindiText">पाँचों इन्द्रियों व मन के रोकने में इन्द्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है।1118-1119। इन्द्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान होता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धि का न होना इन्द्रिय संयम है।1121। और इसी प्रकार त्रस व स्थावर जीवों में से किसी के भी वध के लिए मन, वचन व काय का उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है।1122।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.9"> <strong>9. प्राणि व इन्द्रिय संयम के 17 भेद</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">मू.आ./416-417 पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो। विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेसु संजमणं।416। अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेक्खावहरणदु संजमो चेव। मणवयणकायसंजम सत्तरस विधो दु णादव्वो।417।</span> =<span class="HindiText">पृथिवी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इन्द्रिय वाले चार त्रस जीव इनकी रक्षा में 9 प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदि का छेदन न करना ऐसा 1 भेद अजीवकाय की रक्षारूप है।416। अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम, इस प्रकार कुल मिलकर 17 संयम होते हैं।417। (यहाँ पीछी से द्रव्य का शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।)</span></p> | |||
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<p class="HindiText" id="2"> <strong>नियम व शंका-समाधान आदि</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.1"> <strong> 1. संयम व विरति में अन्तर</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.14/5,6,16/12/1 संजम-विरईणं को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाइं संजमो। समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - संयम और विरति में क्या भेद है ? <strong>उत्तर</strong> - समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (चा.सा./40/1)</span></p> | |||
<p> <span class="HindiText">देखें [[ संवर#2.5 | संवर - 2.5 ]][विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप।]</span></p> | |||
<p> <strong class="HindiText" id="2.2">2. संयम गुप्ति व समिति में अन्तर</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/6/11-15/596/15 अथ क: संयम:। कश्चिदाह - भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्ति: संयम: गुप्त्यन्तर्भावात् ।11। गुप्तिर्हि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रान्तर्भावात् संयमाभाव: स्यात् । अपरमाह - कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा संयम इति। नापि कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा; समितिप्रसङ्गात् ।12। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तय:, अतस्तत्रान्तर्भाव: प्रसज्यते। त्रसस्थावरवधप्रतिषेध आत्यन्तिक: संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रान्तर्भावात् ।12। ...कस्तर्हि संयम:। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहार: संयम:।14। अतोऽपहृतसंयमभेदसिद्धि:।15।</span> =<span class="HindiText">1. कोई भाषादि की निवृत्ति को संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्ति में अन्तर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयम का अभाव है। 2. काय आदि की प्रवृत्ति को भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषों की निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षण का समिति में अन्तर्भाव हो जाने से वह संयम नहीं हो सकता। 3. त्रसस्थावर जीवों के वध का आत्यन्तिक प्रतिषेध भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्र में अन्तर्भाव हो जाता है। 4. <strong>प्रश्न</strong> - तब फिर संयम क्या है ? <strong>उत्तर - </strong>समितियों में प्रवर्तमान जीव के प्राणिवध व इन्द्रिय विषयों का परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहृत संयम के भेदों की सिद्धि होती है। (अर्थात् अपहृत संयम दो प्रकार का है - प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम।) (चा.सा./75/1); (अन.ध./6/37/591)।</span></p> | |||
<p> <strong class="HindiText" id="2.3">3. चारित्र व संयम में अन्तर</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/18/5/617/7 स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यात:, तत्र संयमेऽन्तर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति; तन्न; किं कारणम् । अन्ते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात् । धर्मे अन्तर्भूतमपि चारित्रमन्ते गह्यते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - दश प्रकार का धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नाम के धर्म में चारित्र का अन्तर्भाव प्राप्त होता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षय का कारण होने से चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है। और इसीलिए सूत्र में उसका अन्त में ग्रहण किया गया है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ चारित्र#1.6 | चारित्र - 1.6 ]][चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं।]</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.4"> <strong>4. इन्द्रिय संयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">मू.आ./988-989 जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जह दाणिं।988। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अठ्ठंगुलदोसेण दु जीवो दुक्खं हु पप्पोदि।989।</span> =<span class="HindiText">इस अनादिसंसार में इस जीव ने जिह्वा व उपस्थ इन्द्रिय के कारण अनन्त बार दु:ख पाया। इसलिए अब इन दोनों को जीत।988। चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इन्द्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इन्द्रिय, इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव दु:ख पाता है।989।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">कुरल काव्य/13/7 अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु। असंयतो यतो जिह्वा बह्वपायैरधिष्ठिता।7।</span> =<span class="HindiText">और किसी इन्द्रिय को चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्वा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिह्वा बहुत दु:ख देती है।7।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ रसपरित्याग#2 | रसपरित्याग - 2 ]][जिह्वा के वश होने पर सब इन्द्रियाँ वश हो जाती हैं।]।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.5"> <strong>5. इन्द्रिय व मनोजय का उपाय</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">भ.आ./मू.1837-1838 इंदियदुद्दंतस्सा णिग्घिप्पंति दमणाणखलिणेहिं। उप्पहगामी णिघिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया।1837। अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेण्डिदुं ण तीरंति। विज्जामंतोसधहीणेणव आसीविसा सप्पा।1838।</span> =<span class="HindiText">उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रियरूपी अश्वों का निग्रह हो सकता है।1837। विद्या, औषध और मन्त्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पों के वश करने को समर्थ नहीं होते वैसे ही इन्द्रिय-सर्प भी मन की एकाग्रता नष्ट होने से ज्ञान के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते।1838।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">चा.पा./मू./29 अमण्णुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य। ण करेइ रायदोसे पंचेंदियसंवरो अणिओ।</span> =<span class="HindiText">पाँचों इन्द्रियों के विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जीवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मनोज्ञ पदार्थों में राग-द्वेष का न करना ही पाँच इन्द्रियों का संवर है। (मू.आ./17-21)।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">कुरल काव्य/35/3 निग्रहं कुरु पञ्चानामिन्द्रियाणां विकारिणाम् । प्रियेषु त्यज संमोहं त्यागस्यायं शुभक्रम:।3। | |||
</span>=<span class="HindiText">अपनी पाँचों इन्द्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो।3।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">त.अनु./79 संचिन्तयन्ननुप्रेक्षा: स्वाध्याये नित्यमुद्यत:। जयत्येव मन: साधुरिन्द्रियार्थ-पराङ्गमुख:।79।</span> =<span class="HindiText">जो साधु भले प्रकार अनुप्रेक्षाओं का सदा चिन्तवन करता है, स्वाध्याय में उद्यमी और इन्द्रिय विषयों से प्राय: मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मन को जीतता है।79।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.6"> <strong>6. कषाय निग्रह का उपाय</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">भ.आ./मू./1836 उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं। सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं।1836।</span> =<span class="HindiText">जैसे सशस्त्रपुरुष चोरों से अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रों को धारण करने वाला कषायरूपी चोरों से अवश्य अपनी रक्षा करता है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">भ.आ./मू./260-268 कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च। संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए।260। तं वत्थुं मोत्तव्वं जे पडिउप्पज्जदे कसायग्गि। तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं।262। तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चेव। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि।267।</span> | |||
<span class="HindiText">= हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ कषाय को जीतो।260। जिस वस्तु के निमित्त से कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषाय का शमन करने वाली वस्तु का आश्रय करना चाहिए।262। [धीरे-धीरे बढ़ते हुए कषाय अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तक का कारण बन जाती है] इसलिए यह कषायाग्नि अब पाप को उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् ! आपका उपदेश ग्रहण करता हूँ। मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका वन्दन करता हूँ, ऐसे वचनरूप जल से शान्त करना चाहिए।267।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">प.प्र./मू./2/184 णिठ्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ। तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ।184।</span> =<span class="HindiText"> हे जीव ! जो कोई अविवेकी किसी को कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करने के लिए परब्रह्म का मन में शीघ्र ध्यान करो।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">आ.अनु./213 हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशङ्कं, सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व।</span> =<span class="HindiText">निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवर में जब तक कषायोंरूप हिंस्र जलजन्तुओं का समूह निवास करता है, तब तक निश्चय से यह उत्तम क्षमादि गुणों का समुदाय नि:शंक होकर उस हृदयरूप सरोवर का आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र-मध्यमादि उपशम भेदों से उन कषायों के जीतने का प्रयत्न कर।213।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">स.सा./आ./279/क.176 इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन स:। रागादोन्नात्मन: कुर्यान्नातो भवति कारक:।176।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभाव को जानता है, इसलिए वह रागादि को निजरूप नहीं करता, अत: वह रागादिक का कर्ता नहीं है।176। (देखें [[ चेतना#3.2 | चेतना - 3.2]],3)।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">यो.सा./अ./5/7 विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्जवलम् । यो ध्यायत्यात्मानात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ।7। | |||
</span>=<span class="HindiText">अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ राग#5.3 | राग - 5.3 ]][राग और द्वेष का मूल कारण परिग्रह है। अत: उसका त्याग करके रागद्वेष को जीत लेता है।]</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.7"> <strong>7. संयमपालनार्थ भावना विशेष</strong></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./9/627/599/19 संयमो ह्यात्महित: तमुतिष्ठिन्निहैव पूज्यते परत्र किमस्ति वाच्यम् । असंयत: प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्त: कर्माशुभं संचिनुते।</span> =<span class="HindiText">संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है।</span></p> | |||
<p> <span class="SanskritText">पं.विं./1/97 मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवच: श्रुति: स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने। प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं स्यातां न यनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयम:।97।</span> =<span class="HindiText">इस संसारी प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लम्बी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयम के बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। (और भी | |||
देखें [[ अनुप्रेक्षा#1.11 | अनुप्रेक्षा - 1.11]])।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.8"> <strong>8. पंचम काल में भी सम्भव है</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">र.सा./38 सम्मविसोही तवगुणचारित्तसण्णाणदानपरिधाणं। भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियदं।38।</span> =<span class="HindiText">इस दुस्सह दु:खम (पंचम) काल में मनुष्य के सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।38।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ धर्मध्यान#5 | धर्मध्यान - 5 ]][यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान सम्भव नहीं परन्तु अपनी अपनी भूमिकानुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य सम्भव है]।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.9"> <strong>9. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल</strong></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.9.1"> 1. तिर्यंचों में</p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा-तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं जीवो पडिवज्जदि।...एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...तिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि। ...एसा उत्तरपडिवत्ती।</span> =<span class="HindiText"> इस विषय में दो उपदेश हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। 2. वह तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दिवस पृथक्त्व से लगाकर उपरिमकाल में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नीचे के काल में नहीं।]</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.9.2"> 2. मनुष्यों में</p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा...मणुसेसु गब्भादि अट्ठवस्सेसु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मतं संजमं संजामसंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...मणुसेसु अट्ठवस्साणुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा उत्तरपडिवत्ती।</span> =<span class="HindiText"> इस विषय में दो उपदेश हैं - 1. मनुष्यों में गर्भकाल से प्रारम्भकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। (ध.5/1,6,69/52) 2. वह आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.9/4,1,66/307/5 मणुस्सेसु वासपुधत्तेण विणा मासपुधत्तब्भंतरे सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो।</span> =<span class="HindiText"> मनुष्यों में वर्ष पृथक्त्व के बिना मास पृथक्त्व के भीतर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.10/4,2,4,59/278/12 गब्भादो णिक्खंतपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि त्ति ऐसो भावत्थो। गब्भम्मि पदिदपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वयणण्णहाणुवत्तीदो। जदि गब्भम्मि पदिदपढमसमयादो अट्ठवस्साणि घेप्पंति तो गब्भवदणजम्मणेण अट्ठवस्सीओ जादो त्ति सुत्तकारो भणेज्ज। ण च एवं, तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि वासेहि संजमं पडिवज्जदि त्ति एसो चेव अत्थो घेत्तव्वो; सव्वलहुणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम ग्रहण के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से' यह सूत्रवचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं.72,59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ' ऐसा सूत्रकार कहते हैं। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्ष का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश घटित नहीं होता।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5 ]][जन्म लेने के पश्चात् आठ वर्षों के ऊपर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.9.3"> 3. सूक्ष्म आदि जीवों में</p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ध.10/5,2,456/276/9 अपज्जत्तेहिंतो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेण संजमासंजमग्गहणाभावादो। ...आउकाइयपज्जत्तेहिंतो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो।</span>=<span class="HindiText">अपर्याप्तकों में से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है। ...अप्कायिक पर्याप्तकों में से मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के सर्वलघुकाल के द्वारा संयम आदि का ग्रहण सम्भव नहीं है।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ जन्म#5 | जन्म - 5]]/5 [सूक्ष्म निगोदिया से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम या संयम का ग्रहण। सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होने वाले जीव युगपत् सम्यक्त्व व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भव त्रस का धारण करके मनुष्य में उत्पन्न होने वाले जीव के ही वह सम्भव है।]</p> | |||
<p class="HindiText"> </p> | |||
<p class="HindiText" id="2.10"> <strong>10. पुन: पुन: संयमादि प्राप्त करने की सीमा</strong></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">ष.खं.10/4,2,4/सूत्र 71/294 एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकडयाणि अणुपालइयत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसारिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो।71। | |||
</span>=<span class="HindiText">इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्व के काण्डकों की तथा कषायोपशमना की संख्या कही गयी है। यथा - चार बार संयम को प्राप्त करने पर एक संयम काण्डक होता है। ऐसे आठ ही संयम काण्डक होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक 32 बार ही संयम का ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता।) इन आठ संयमकाण्डों के भीतर कषायोपशामना के बार चार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिका में जो चारित्र मोह के उपशामन विधान की और दर्शनमोह के उपशामन विधान की प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु संयमासंयम काण्डक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक पल्य/असं. के चौगुने बार संयमासंयम का ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकाण्डकों से सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक है, जो पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।</span></p> | |||
<p> <span class="PrakritText">गो.क./मू./619-619/822 सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं। पल्लासंखेज्जदियं वारं पडिवज्जदे जीवो।618। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं बाराइं संजममुवलहिय णिव्वदि।619।</span> =<span class="HindiText">प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन का विधान ये एक जीव में उत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यात बार ही होते हैं।618। उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मों का क्षय होता है। संयम 32 बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। (पं.सं./प्रा./टी./5/488)।</span></p> | |||
[[ | <p>भूतकालीन 12वें तीर्थंकर - देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]।</p> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> भरतेश द्वारा व्रतियों के लिए बताये गये छ: कर्मों में एक कर्म—पांचों इन्द्रियों और मन का वंशीकरण तथा छ: काय के जीवों की रक्षा । इसमें पाँच महाव्रतों का धारण, पांच समितियों का पालन, कषायों का निग्रह और मन-वचन-काय रूप प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । संयमी शरीर को संयम का साधन जानकर उसकी स्थिति के लिए ही आहार करते हैं । वे रसों में आसक्त नहीं होते । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इसके रक्षक है । <span class="GRef"> महापुराण 20. 9, 173, 38. 24-34, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.129, 47.11, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.71, 23.65, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.10 </span></p> | |||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == सम्यक् प्रकार यमन करना अर्थात् व्रत-समिति-गुप्ति आदि रूप से प्रवर्तना अथवा विशुद्धात्मध्यान में प्रवर्तना संयम है। तहाँ समिति आदि रूप प्रवर्तना अपहृत या व्यवहार संयम और दूसरा लक्षण उपेक्षा या निश्चय संयम है। इन्हीं दोनों को वीतराग व सराग चारित्र भी कहते हैं। अन्य प्राणियों की रक्षा करना प्राणिसंयम है और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना इन्द्रिय संयम है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ऐसे इसके पाँच भेद हैं।
- भेद व लक्षण
- निश्चय व्यवहार चारित्र की कथंचित् मुख्यता गौणता। - देखें चारित्र - 4.7।
- संयम लब्धिस्थान व एकान्तानुवृद्धि आदि संयम। - देखें लब्धि - 5।
- सामायिकादि संयम। - देखें शीर्षक सं - 4।
- क्षायोपशमिकादि संयम निर्देश। - देखें भाव - 2।
- सकल चारित्र देशचारित्र की अपेक्षा है यथाख्यात की अपेक्षा नहीं। - देखें संयत - 2.1 में गो.जी.।
- नियम व शंका समाधान
- चारित्रमोह का उपशम क्षय व क्षयोपशम विधान। - देखें वह वह नाम ।
- सम्यक्त्व सहित ही होता है। - देखें चारित्र - 3।
- व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयमी नहीं। - देखें चारित्र - 3/8।
- सवस्त्रसंयम निषेध। - देखें वेद - 7.4।
- उत्सर्ग व अपवादसंयम निर्देश। - देखें अपवाद - 4।
- सयोगकेवली के संयम में भी कथंचित् मल का सद्भाव। - देखें केवली - 2.2।
- संयम में परीषहजय का अन्तर्भाव। - देखें कायक्लेश ।
- इन्द्रियसंयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता।
- इन्द्रिय व मनोजय का उपाय।
- कषाय निग्रह का उपाय।
- संयम पालनार्थ भावना विशेष।
- पंचम काल में सम्भव है।
- निगोद से निकलकर सीधे संयम प्राप्ति करने सम्बन्धी। - देखें जन्म - 5।
- संयम का स्वामित्व
- सामायिक आदि संयमों का स्वामित्व। - देखें वह वह नाम ।
- क्षायोपशमिकादि संयमों का स्वामित्व (5-7 तक क्षायोपशमिक और आगे औपशमिक व क्षायिक)। - देखें वह वह गुणस्थान ।
- गुणस्थानों में परस्पर संयमों का आरोहण अवरोहण क्रम। - देखें संयत - 1.5।
- बद्धायुष्कों में केवल देवायु वाला ही संयम धारण कर सकता है। - देखें आयु - 6।
- स्त्री को या सचेल की सम्भव नहीं। - देखें वेद - 7.4।
- संयम मार्गणा में सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- संयम मार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- संयमियों में कर्मों का बन्ध-उदय-सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- सभी मार्गणा स्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।
भेद व लक्षण
1. संयम का लक्षण
ध.7/2,1,3/7/3 सम्यक् यमो वा संयम:। =सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियन्त्रण सो संयम है।
देखें चारित्र - 3/7 [संयमन करने को संयम कहते हैं। अर्थात् भावसंयम से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।]।
2. व्यवहार संयम का लक्षण
1. व्रत समिति गुप्ति आदि की अपेक्षा
प्र.सा./मू./240 पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो।240। =पंचसमितियुक्त, पाँच इन्द्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला, दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है।
प्र.सा./प्रक्षेपक गा./मू./240-1 चागो व अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं। सो संजमोत्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण। =बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग, मन वचन कायरूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारम्भ, इन्द्रिय विषयों से विरक्तता, कषायों का क्षय यह सामान्यरूप से संयम का लक्षण कहा गया है। विशेष रूप से प्रव्रज्या की अवस्थाएँ होती हैं।
चा.पा./मू./28 पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु। पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं णिरायारं।28। =पाँच इन्द्रियों का संवर (देखें संयम - 2) पाँच व्रत और पच्चीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है।
बा.अ./76 वदसमिदिपालणाए दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा।76। =व्रत व समितियों का पालन, मन वचन काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियम से संयम धर्म होता है।
पं.सं./प्रा./127 वदसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्हं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ।127। =पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँच इन्द्रियों का जीतना (देखें संयम - 2) सो संयम कहा गया है।127। (ध.1/1,1,4/गा.92/145); (ध.7/2,1,3/7/2); (गो.जी./मू./465/876)।
देखें तप - 2.1 (तेरह प्रकार के चारित्र में प्रयत्न करना संयम है।)
3. निश्चय संयम का लक्षण
प्र.सा./त.प्र./14,242 सकलषड्जीवनिकायनिशुम्भनविकल्पात्पञ्चेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्चव्यावर्त्यात्मन: शुद्धस्वरूपैसंयमनात् ...।14। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन...परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं।242। =1. समस्त छह जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूप में संयमन करने से (संयमयुक्त है)। 2. ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की तथाप्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा रचित उसी तत्त्व में परिणति, ऐसे लक्षण वाले सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों पर्यायों की युगपतता के द्वारा परिणत आत्मा में आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतपना होता है...।
पं.ध./उ./1117 शुद्धस्वात्मोपलब्धि: स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च। =निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि ही संयम कहलाता है।
4. संयम मार्गणा की अपेक्षा भेद व लक्षण
ष.खं.1/1,1/सूत्र 123/368 संजमाणुवादेण अत्थि संजदा सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि।123। =संयम मार्गणा के अनुवाद से सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं।123। (द्र.सं./टी./13/38/2)।
देखें चारित्र - 1.3 [सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं।]
नोट - [इनके लक्षणों के लिए-देखें वह वह नाम ।]
5. निक्षेपों की अपेक्षा भेद व लक्षण
ध.7/1,1,48/91/5 णायसंजमो ठवणसंजमो दव्वसंजमो भावसंजमो चेदि चउव्विहो संजमो। ...तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि। भावसंजमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि। =नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम। इस प्रकार संयम चार प्रकार का है। (नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत् जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयम के साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमण्डलु, पुस्तक आदि को कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का है - आगमभावसंयम तो गया, अर्थात् निक्षेपवत् जानना। नोआगम भावसंयम तीन प्रकार का है - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयम के लिए। - देखें संयत - 2 और औपशमिक व क्षायिक के लिए - देखें श्रेणी ]।
6. सकल व देश संयम की अपेक्षा
चा.पा./मू./21 दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं। सायारं सग्गंथे परिग्गहो रहिय खलु णिरायारं।21। =संयम चरण चारित्र दो प्रकार का है - सागार तथा निरागार। सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रह से रहित मुनिकै होता है।21।
र.क.श्रा./50 सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।50। =वह चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है। समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है।
पु.सि.उ./40 हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मत: परिग्रहत:। कार्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।40। =हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों के सर्वदेश व एकदेश त्याग से चारित्र दो प्रकार का होता है। (देखें व्रत - 3.1)।
ल.सा./मू./168/221 दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले...। =चारित्र की लब्धि सकल व देश के भेद से दो प्रकार है।
पं.का./ता.वृ./160/231/13 चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रन्थविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रन्थविहितमार्गेण पञ्चमगुणस्थानयोग्यं दानशीलपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक व्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति। =मुनियों का चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रन्थों में कथित मार्ग से, प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों के योग्य (देखें संयत ) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (देखें संयम - 1.2) और गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रन्थों में कथित मार्ग से, पंचमगुणस्थान के योग्य (देखें संयत ासंयत) दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि 11 स्थानों रूप होता है - (देखें श्रावक )।
सिद्धान्त प्रवेशिका/224-225 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।224। मुनियों के व्रतों को सकल चारित्र कहते हैं।225।
7 अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश
1. लक्षण
रा.वा./9/6/15/596/29 संयमो हि द्विविध: - उपेक्षासंयमोऽपहृतसंयमश्चेति। देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्टकायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वङ्गलक्षण उपेक्षासंयम:। अपहृतसंयमस्त्रिविध: उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति। तत्र प्रासुकवस्त्याहारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य बाह्यजन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्ट:, मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो मध्यम:, उपकरणान्तरेच्छया जघन्य:। =संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम। देश और काल के विधान को समझने वाले स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षासंयम है। अपहृतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है। प्रासुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य जन्तुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरण से जन्तुओं को बुहार देने वाले मध्यम और अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। (चा.सा./65/7-75/2) (और भी देखें संयम - 1.9)।
नि.सा./ता.वृ./64 अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतय: अतस्ते परमजिनमुनय: एकान्ततो निस्पृहा:, अतएव बाह्योपकरणनिर्मुक्ता।=यह अपहृतसंयमियों को संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियों को पुस्तक, कमण्डलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमुनि एकान्त में निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं।
2. दोनों की वीतराग व सराग चारित्र के साथ एकार्थता
प.प्र./टी./2/67/188/15 अथवोपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवत:। =उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों भी उन शुद्धोपयोगियों को ही होते हैं।
देखें चारित्र - 1.14,15 [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।
3. अपहृतसंयम की विशेषताएँ
देखें संयम - 2/2 [अपहृत संयम दो प्रकार का है - इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम।]
देखें शुद्धि - 2 [इस अपहृत संयम में भाव, काय, विनय आदि के भेद से आठ शुद्धियों का उपदेश है।]
8. प्राणि व इन्द्रिय संयम के लक्षण
देखें असंयम [असंयम दो प्रकार का है - प्राणि असयंम और इन्द्रिय असंयम। तहाँ षट्काय जीवों की विराधना प्राणि असंयम है और इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति इन्द्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इन्द्रिय संयम हैं - यथा)]
मू.आ./418 पंचरस पंचवण्ण दोगंधे अट्ठफास सत्तसरा। मणसा चोद्दसजीवा इंदियपाणा य संजमो णेओ। =पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मन के 28 विषय हैं। इनका निरोध सो इन्द्रिय संयम है और चौदह प्रकार की जीवों की (देखें जीव समास ) रक्षा करना सो प्राणि संयम है।
पं.सं./प्रा./1/128 सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थ दोसा य। तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।128। =पहले जीवसमास प्रकरण में जो सत्तावन प्रकार के जीव बता आये हैं (देखें जीवसमास ) उनकी हिंसा से तथा अठाईस प्रकार के इन्द्रिय विषयों के (देखें सन्दर्भ सं - 1) दोषों से विरति भाव का होना संयम है।128।
स.सि./6/12/331/11 प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरति: संयम:।
स.सि./9/6/412/1 समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयम:। =1. प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं। (रा.वा./6/12/6/522/21)। 2. समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इन्द्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। (रा.वा./9/6/14/696/26); (चा.सा./75/1); (त.सा./6/18); (पं.वि./1/96)
रा.वा./9/6/14/696/27 एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहार: प्राणिसंयम:। शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वङ्ग इन्द्रियसंयम:। =एकेन्द्रियादि प्राणियों की पीड़ा का परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इन्द्रियों के विषय उनमें राग का अभाव सो इन्द्रिय संयम है। (चा.सा./75/1); (अन.ध./6/37-38/591)।
का.अ./मू./399 जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकज्जेसु। तणछेदं पि ण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स। =जीव रक्षा में तत्पर जो मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनि के (प्राणि) संयम धर्म होता है।399।
नि.सा./ता.वृ./123 संयम: सकलेन्द्रियव्यापारपरित्याग:। =समस्त इन्द्रियों के व्यापार का परित्याग सो संयम है।
पं.ध./उ./1118-1122 पञ्चानामिन्द्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिन्द्रियनिरोधाख्य: संयम: प्रथमो मत:।1118। स्थावराणां च पञ्चानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । असुसंरक्षणाख्य: स्याद्द्वितीय: प्राणसंयम:।1119। सत्यमक्षार्थसंबन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत् । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम् ।1121। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मन:। न वचो न वपु: क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।1122। =पाँचों इन्द्रियों व मन के रोकने में इन्द्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है।1118-1119। इन्द्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान होता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धि का न होना इन्द्रिय संयम है।1121। और इसी प्रकार त्रस व स्थावर जीवों में से किसी के भी वध के लिए मन, वचन व काय का उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है।1122।
9. प्राणि व इन्द्रिय संयम के 17 भेद
मू.आ./416-417 पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो। विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेसु संजमणं।416। अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेक्खावहरणदु संजमो चेव। मणवयणकायसंजम सत्तरस विधो दु णादव्वो।417। =पृथिवी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इन्द्रिय वाले चार त्रस जीव इनकी रक्षा में 9 प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदि का छेदन न करना ऐसा 1 भेद अजीवकाय की रक्षारूप है।416। अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम, इस प्रकार कुल मिलकर 17 संयम होते हैं।417। (यहाँ पीछी से द्रव्य का शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।)
नियम व शंका-समाधान आदि
1. संयम व विरति में अन्तर
ध.14/5,6,16/12/1 संजम-विरईणं को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाइं संजमो। समईहि विणा महव्वयाणुव्वया विरई। =प्रश्न - संयम और विरति में क्या भेद है ? उत्तर - समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (चा.सा./40/1)
देखें संवर - 2.5 [विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप।]
2. संयम गुप्ति व समिति में अन्तर
रा.वा./9/6/11-15/596/15 अथ क: संयम:। कश्चिदाह - भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्ति: संयम: गुप्त्यन्तर्भावात् ।11। गुप्तिर्हि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रान्तर्भावात् संयमाभाव: स्यात् । अपरमाह - कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा संयम इति। नापि कायादिप्रवृत्तिर्विशिष्टा; समितिप्रसङ्गात् ।12। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तय:, अतस्तत्रान्तर्भाव: प्रसज्यते। त्रसस्थावरवधप्रतिषेध आत्यन्तिक: संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रान्तर्भावात् ।12। ...कस्तर्हि संयम:। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहार: संयम:।14। अतोऽपहृतसंयमभेदसिद्धि:।15। =1. कोई भाषादि की निवृत्ति को संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्ति में अन्तर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयम का अभाव है। 2. काय आदि की प्रवृत्ति को भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषों की निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षण का समिति में अन्तर्भाव हो जाने से वह संयम नहीं हो सकता। 3. त्रसस्थावर जीवों के वध का आत्यन्तिक प्रतिषेध भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्र में अन्तर्भाव हो जाता है। 4. प्रश्न - तब फिर संयम क्या है ? उत्तर - समितियों में प्रवर्तमान जीव के प्राणिवध व इन्द्रिय विषयों का परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहृत संयम के भेदों की सिद्धि होती है। (अर्थात् अपहृत संयम दो प्रकार का है - प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम।) (चा.सा./75/1); (अन.ध./6/37/591)।
3. चारित्र व संयम में अन्तर
रा.वा./9/18/5/617/7 स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यात:, तत्र संयमेऽन्तर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति; तन्न; किं कारणम् । अन्ते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात् । धर्मे अन्तर्भूतमपि चारित्रमन्ते गह्यते मोक्षप्राप्ते: साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय।=प्रश्न - दश प्रकार का धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नाम के धर्म में चारित्र का अन्तर्भाव प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षय का कारण होने से चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है। और इसीलिए सूत्र में उसका अन्त में ग्रहण किया गया है।
देखें चारित्र - 1.6 [चारित्र जीव का स्वभाव है पर संयम नहीं।]
4. इन्द्रिय संयम में जिह्वा व उपस्थ की प्रधानता
मू.आ./988-989 जिब्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे। पत्तो अणंतसो तो जिब्भोवत्थे जह दाणिं।988। चदुरंगुला च जिब्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि। अठ्ठंगुलदोसेण दु जीवो दुक्खं हु पप्पोदि।989। =इस अनादिसंसार में इस जीव ने जिह्वा व उपस्थ इन्द्रिय के कारण अनन्त बार दु:ख पाया। इसलिए अब इन दोनों को जीत।988। चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इन्द्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इन्द्रिय, इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव दु:ख पाता है।989।
कुरल काव्य/13/7 अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु। असंयतो यतो जिह्वा बह्वपायैरधिष्ठिता।7। =और किसी इन्द्रिय को चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्वा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिह्वा बहुत दु:ख देती है।7।
देखें रसपरित्याग - 2 [जिह्वा के वश होने पर सब इन्द्रियाँ वश हो जाती हैं।]।
5. इन्द्रिय व मनोजय का उपाय
भ.आ./मू.1837-1838 इंदियदुद्दंतस्सा णिग्घिप्पंति दमणाणखलिणेहिं। उप्पहगामी णिघिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया।1837। अणिहुदमणसा इंदियसप्पाणि णिगेण्डिदुं ण तीरंति। विज्जामंतोसधहीणेणव आसीविसा सप्पा।1838। =उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रियरूपी अश्वों का निग्रह हो सकता है।1837। विद्या, औषध और मन्त्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पों के वश करने को समर्थ नहीं होते वैसे ही इन्द्रिय-सर्प भी मन की एकाग्रता नष्ट होने से ज्ञान के द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते।1838।
चा.पा./मू./29 अमण्णुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य। ण करेइ रायदोसे पंचेंदियसंवरो अणिओ। =पाँचों इन्द्रियों के विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जीवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मनोज्ञ पदार्थों में राग-द्वेष का न करना ही पाँच इन्द्रियों का संवर है। (मू.आ./17-21)।
कुरल काव्य/35/3 निग्रहं कुरु पञ्चानामिन्द्रियाणां विकारिणाम् । प्रियेषु त्यज संमोहं त्यागस्यायं शुभक्रम:।3। =अपनी पाँचों इन्द्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो।3।
त.अनु./79 संचिन्तयन्ननुप्रेक्षा: स्वाध्याये नित्यमुद्यत:। जयत्येव मन: साधुरिन्द्रियार्थ-पराङ्गमुख:।79। =जो साधु भले प्रकार अनुप्रेक्षाओं का सदा चिन्तवन करता है, स्वाध्याय में उद्यमी और इन्द्रिय विषयों से प्राय: मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मन को जीतता है।79।
6. कषाय निग्रह का उपाय
भ.आ./मू./1836 उवसमदयादमाउहकरेण रक्खा कसायचोरेहिं। सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं।1836। =जैसे सशस्त्रपुरुष चोरों से अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रों को धारण करने वाला कषायरूपी चोरों से अवश्य अपनी रक्षा करता है।
भ.आ./मू./260-268 कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च। संतोसेण य लोहं जिणदु खु चत्तारि वि कसाए।260। तं वत्थुं मोत्तव्वं जे पडिउप्पज्जदे कसायग्गि। तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं।262। तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चेव। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि।267। = हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोध को, मार्दव से मान को, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ कषाय को जीतो।260। जिस वस्तु के निमित्त से कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषाय का शमन करने वाली वस्तु का आश्रय करना चाहिए।262। [धीरे-धीरे बढ़ते हुए कषाय अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तक का कारण बन जाती है] इसलिए यह कषायाग्नि अब पाप को उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् ! आपका उपदेश ग्रहण करता हूँ। मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका वन्दन करता हूँ, ऐसे वचनरूप जल से शान्त करना चाहिए।267।
प.प्र./मू./2/184 णिठ्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ। तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ।184। = हे जीव ! जो कोई अविवेकी किसी को कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करने के लिए परब्रह्म का मन में शीघ्र ध्यान करो।
आ.अनु./213 हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशङ्कं, सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व। =निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवर में जब तक कषायोंरूप हिंस्र जलजन्तुओं का समूह निवास करता है, तब तक निश्चय से यह उत्तम क्षमादि गुणों का समुदाय नि:शंक होकर उस हृदयरूप सरोवर का आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र-मध्यमादि उपशम भेदों से उन कषायों के जीतने का प्रयत्न कर।213।
स.सा./आ./279/क.176 इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन स:। रागादोन्नात्मन: कुर्यान्नातो भवति कारक:।176। =ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभाव को जानता है, इसलिए वह रागादि को निजरूप नहीं करता, अत: वह रागादिक का कर्ता नहीं है।176। (देखें चेतना - 3.2,3)।
यो.सा./अ./5/7 विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्जवलम् । यो ध्यायत्यात्मानात्मानं कषायं क्षपयत्यसौ।7। =अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्मा का जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है।
देखें राग - 5.3 [राग और द्वेष का मूल कारण परिग्रह है। अत: उसका त्याग करके रागद्वेष को जीत लेता है।]
7. संयमपालनार्थ भावना विशेष
रा.वा./9/627/599/19 संयमो ह्यात्महित: तमुतिष्ठिन्निहैव पूज्यते परत्र किमस्ति वाच्यम् । असंयत: प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्त: कर्माशुभं संचिनुते। =संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है।
पं.विं./1/97 मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवच: श्रुति: स्थितिरतस्तस्याश्च दृग्बोधने। प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं स्यातां न यनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयम:।97। =इस संसारी प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लम्बी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयम के बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। (और भी देखें अनुप्रेक्षा - 1.11)।
8. पंचम काल में भी सम्भव है
र.सा./38 सम्मविसोही तवगुणचारित्तसण्णाणदानपरिधाणं। भरहे दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियदं।38। =इस दुस्सह दु:खम (पंचम) काल में मनुष्य के सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं।38।
देखें धर्मध्यान - 5 [यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान सम्भव नहीं परन्तु अपनी अपनी भूमिकानुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य सम्भव है]।
9. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल
1. तिर्यंचों में
ध.5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा-तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं जीवो पडिवज्जदि।...एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...तिरिक्खेसु तिण्णिपक्ख-तिण्णिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि। ...एसा उत्तरपडिवत्ती। = इस विषय में दो उपदेश हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। 2. वह तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5 [तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दिवस पृथक्त्व से लगाकर उपरिमकाल में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नीचे के काल में नहीं।]
2. मनुष्यों में
ध.5/1,6,37/32/4 एत्थ वे उवदेसा। तं जहा...मणुसेसु गब्भादि अट्ठवस्सेसु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मतं संजमं संजामसंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा दक्खिणपडिवत्ती। ...मणुसेसु अट्ठवस्साणुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि त्ति। एसा उत्तरपडिवत्ती। = इस विषय में दो उपदेश हैं - 1. मनुष्यों में गर्भकाल से प्रारम्भकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है। (ध.5/1,6,69/52) 2. वह आठ वर्षों के ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम को प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है।
ध.9/4,1,66/307/5 मणुस्सेसु वासपुधत्तेण विणा मासपुधत्तब्भंतरे सम्मत्त-संजम-संजमासंजमाणं गहणाभावादो। = मनुष्यों में वर्ष पृथक्त्व के बिना मास पृथक्त्व के भीतर सम्यक्त्व संयम और संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है।
ध.10/4,2,4,59/278/12 गब्भादो णिक्खंतपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि त्ति ऐसो भावत्थो। गब्भम्मि पदिदपढमसमयप्पहुडि अट्ठवस्सेसु गदेसु संजमग्गहणपाओग्गो होदि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वयणण्णहाणुवत्तीदो। जदि गब्भम्मि पदिदपढमसमयादो अट्ठवस्साणि घेप्पंति तो गब्भवदणजम्मणेण अट्ठवस्सीओ जादो त्ति सुत्तकारो भणेज्ज। ण च एवं, तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि वासेहि संजमं पडिवज्जदि त्ति एसो चेव अत्थो घेत्तव्वो; सव्वलहुणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो। =गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम ग्रहण के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से' यह सूत्रवचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं.72,59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ' ऐसा सूत्रकार कहते हैं। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्ष का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश घटित नहीं होता।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5 [जन्म लेने के पश्चात् आठ वर्षों के ऊपर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं।
3. सूक्ष्म आदि जीवों में
ध.10/5,2,456/276/9 अपज्जत्तेहिंतो णिग्गयस्स सव्वलहुएण कालेण संजमासंजमग्गहणाभावादो। ...आउकाइयपज्जत्तेहिंतो मणुस्सेसुप्पण्णस्स सव्वलहुएण कालेण संजमादिगहणाभावादो।=अपर्याप्तकों में से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम के ग्रहण का अभाव है। ...अप्कायिक पर्याप्तकों में से मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के सर्वलघुकाल के द्वारा संयम आदि का ग्रहण सम्भव नहीं है।
देखें जन्म - 5/5 [सूक्ष्म निगोदिया से निकले हुए जीव के सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयम या संयम का ग्रहण। सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होने वाले जीव युगपत् सम्यक्त्व व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भव त्रस का धारण करके मनुष्य में उत्पन्न होने वाले जीव के ही वह सम्भव है।]
10. पुन: पुन: संयमादि प्राप्त करने की सीमा
ष.खं.10/4,2,4/सूत्र 71/294 एवं णाणाभवग्गहणेहि अट्ठ संजमकडयाणि अणुपालइयत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि सम्मत्तकंडयाणि च अणुपालइत्ता एवं संसारिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो।71। =इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्व के काण्डकों की तथा कषायोपशमना की संख्या कही गयी है। यथा - चार बार संयम को प्राप्त करने पर एक संयम काण्डक होता है। ऐसे आठ ही संयम काण्डक होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक 32 बार ही संयम का ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता।) इन आठ संयमकाण्डों के भीतर कषायोपशामना के बार चार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिका में जो चारित्र मोह के उपशामन विधान की और दर्शनमोह के उपशामन विधान की प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु संयमासंयम काण्डक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं (अर्थात् अधिक से अधिक पल्य/असं. के चौगुने बार संयमासंयम का ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकाण्डकों से सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक है, जो पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।
गो.क./मू./619-619/822 सम्मत्तं देसजमं अणसंजोजणविहिं च उक्कस्सं। पल्लासंखेज्जदियं वारं पडिवज्जदे जीवो।618। चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं बाराइं संजममुवलहिय णिव्वदि।619। =प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन का विधान ये एक जीव में उत्कृष्टत: पल्योपम के असंख्यात बार ही होते हैं।618। उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मों का क्षय होता है। संयम 32 बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। (पं.सं./प्रा./टी./5/488)।
भूतकालीन 12वें तीर्थंकर - देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
भरतेश द्वारा व्रतियों के लिए बताये गये छ: कर्मों में एक कर्म—पांचों इन्द्रियों और मन का वंशीकरण तथा छ: काय के जीवों की रक्षा । इसमें पाँच महाव्रतों का धारण, पांच समितियों का पालन, कषायों का निग्रह और मन-वचन-काय रूप प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । संयमी शरीर को संयम का साधन जानकर उसकी स्थिति के लिए ही आहार करते हैं । वे रसों में आसक्त नहीं होते । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इसके रक्षक है । महापुराण 20. 9, 173, 38. 24-34, हरिवंशपुराण 2.129, 47.11, पांडवपुराण 22.71, 23.65, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.10