इष्टोपदेश - श्लोक 41: Difference between revisions
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Revision as of 13:16, 17 April 2020
ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति।
स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति।।४१।।
समाधिनिष्ठ योगी का व्यवहार—जिस पुरुष ने आत्मतत्त्व को स्थिर कर लिया है अर्थात् जो समाधिनिष्ठ योगी आत्मास्वरूप का दृढ़ अभ्यासी हो जाता है वह प्रयोजनवश कदाचित् कुछ बोले भी, तो बोलता हुआ भी अतः बोल नही रहा है कही जाय वह तो जाता हुआ भी अन्तरंग से जा नही रहा है, कही देखे भी, तो वह देखता हुआ भी देख नही रहा है।
आनन्दधाय में उपयोग—जिसको जहां रसास्वादन हो जाता है उसका उपयोग वहां ही रहता है। जिसे जो बात अत्यन्त अभीष्ट है उस अभीष्ट में ही वह स्थित रहता है। ज्ञानी को ज्ञान अभीष्ट है इसी कारण वह अन्य क्रियाएँ विवश होकर करे तो भी वह अन्य क्रियावों का कर्ता नही है जैसे फर्म के मुनीम की केवल अपने परिवार से सम्बंधित आय पर ही दृष्टि है, वहां ही ममत्व है, और जो लाखों का धन आए उसमें ममत्व नही है। तो वह हिसाब किताब रखकर भी, सब कुछ सम्हालता हुआ भी कुछ नही सम्हाल कर रहा है, अथवा जैसे धाय बालक को पालती है, पर धाय का प्रयोजन तो मात्र इतना ही है कि हमारी आजीविका रहेगी, गुजारा अच्छा चलेगा। इतने प्रयोजन से ही उसको ममत्व है। तो वह बालक का श्रृंगार करके भी वस्तुतः श्रृंगार नही कर रही है। ऐसे ही जिस ज्ञानी पुरुष को अध्यात्मरस का स्वाद आया है वह प्रत्येक प्रसंगो में चाहता है केवल अध्यात्म का रसास्वादन। जब वह कुछ भी बाह्य में क्रिया करे तो भी उन क्रियावों का वह करने वाला नही है।
योगीश्वर का व्यवहार—शुद्ध आत्मतत्त्व का परम आनन्द पा लेने वाले योगी के एक सिर्फ आत्मदृष्टि के अतिरिक्त अन्य सब बातें, व्यवसाय पदार्थ, नीरस और अरुचिकर मालूम होते हैं,किसी भक्त पुरुष को कहाँ उपदेश भी देना पड़े तो वह उपदेश देता हुआ भी न देने की तरह है। कर्मों के उदय की बात वीतराग पुरुषों के भी हुआ करती है। अरहंत, तीर्थकर परमात्मा हो गए, उनको अन्तरंग से कुछ भी बोलने की इच्छा नही है, लेकिन कर्मों का उदय इस ही प्रकार का है कि उनकी दिव्यध्वनि खिरती है, उनके उपदेश दिव्यध्वनि रूप में होते हैं। जब वीतराग परमात्मा के भी किसी स्थिति तक कर्मोदयवश योग होता है, बोलना पड़ता है, यद्यपि उनका यह बोल निरीह है और सर्वांगनिर्गंत है, किन्तु यह अवस्था आत्मा के सहज नही होती है। तब जो राग सहित है ऐसे योगीश्वर जिनको वीतराग आत्मतत्त्व से प्रेम किन्तु रागांश शेष है उन्हें कोई अनुरोध करता है तो वे उपयोग भी देते हैं,अथवा कोई समय निश्चित कर दिया लोग जुड़ जाते हैं तो बोलना भी पड़ता है, किन्तु वह योगी बोलकर भी न बोलने की ही तरह है।
प्रत्येक प्रसंग में आत्महित दृष्टि—जो आत्महित का अभिलाषी है वह अन्तरात्मा अपने उपयोग को यहाँ वहाँ न घुमाकर अपना अधिक समय आत्मचिन्तन में ही लगाते हैं। उनका बोलना भी इसी के लिए है। वे उपदेश देने के प्रसंग में भी अपने आप में ज्ञान का बल भरते हैं।प्राक्पदवी में आत्मध्यान के काम में लगने पर भी वासना वश शिथिलता आ जाती है और उपयोग अन्यत्र चलने लगता है तो वह योगी दूसरों को कुछ सुनाने के रूप से अपने आप में अपनी शिथिलता को दूर किया करते हैं,वे अपनी दृष्टि सुदृढ़ बनातें है। जो जिसका प्रयोजक है, जिसने जो अपना प्रयोजन सोचा है वह सब प्रसंगों में अपने प्रयोजन की सिद्ध जैसे हो उस पद्धति से प्रवृत्ति करता है।
ज्ञानी के क्रिया में आसक्ति का अभाव—भैया! स्वपर के उपकार आदि कारणों से उन्हें वचन भी कुछ कहने पड़ेगे तो बोलते हैं,पर न बोलने की तरह है। शरीर से कुछ करना पड़े तो करते हैं,पर न करने की तरह है किसी भी क्रिया में ज्ञानी की आसक्ति नही है, अन्य बातें कुछ भी उनके धार्मिक प्रसंग की बातें है उन बातों को भी वे अन्तरंग रुचि से नही करते हैं,अर्थात यही मेरा ध्येय है ऐसी उनकी रुचिकर नही रहती है। किन्तु सहज अंतः प्रकाशमान जो अंतस्तत्व है उसकी सिद्धि के लिए व्यवहार धर्म का पालन करते हैं । इतनी परम विविक्ता इन ज्ञानी संतो के प्रकट होती है, ये कुछ करते हुए भी न करने की तरह है। जो पुरुष आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य क्रियावों में चिर क्षण तक उपयोग नही देते हैं वे ज्ञानबल से ऐसा बलिष्ट बनते हैं कि वे आत्मस्वरूप से च्युत नही हो सकते। उनके आत्म शान्ति में किसी भी निमित्त से बाधा न हो सकेगी।
सुख दुःखादि की ज्ञानकला पर निर्भरता—सुख और दुःख दोनों का होना ज्ञान और अज्ञान पर निर्भर है। जो सांसारिक सुख है और दुःख है वे तो अज्ञान पर निर्भर है किन्तु सुखों में परम सुख अथवा शुद्ध आनन्द वह ज्ञान प्रकाश पर निर्भर है। यही बैठे ही बैठे किसी परपदार्थ से थोड़ा सम्बंध की दृष्टि मान ले तो चाहे वह अनुकूल हो और चाहे प्रतिकूल हो, दोनों ही स्थितियों मेंसम्बंधबुद्धि वाला पुरुष दुःखी होगा। संसार के सभी जीव अपना दुःख लिए हुए भ्रमण कर रहे हैं। वे दुःखों को त्यागकर विश्राम से नही बैठ पाते हैं ज्ञान बिना सारा साज श्रृंगार, बड़प्पन, महत्त्व, व्यापार, व्यवसाय चटकमटक सब व्यर्थ है। किसे क्या दिखाना है, कौन यहाँ हमारा प्रभु है जिसको हम अपना चमत्कार श्रृंगार साज धाज बताएँ? यह जो हमारा अमूर्त आत्मा है उसे तो कोई जानता नही। जो ये दृश्यमान है, पिंड है, ये स्वयं अचेतन है। ये मैं हूं नही, तब फिर किसी को कुछ भी जताने का अभिप्राय वह मिथ्या है।
अहंकार व ममकार का दोष—व्यामोही जीवो में अहंकार और ममकार ये दो दोष बड़े लगे हुए है। जिस पर्याय में यह जीव जाता है उस ही पर्याय को अहं रूप से मानने लगता है, मैंने किया ऐसा, मैं ऐसा कर दूंगा, मेरा अब यह कार्य-क्रम है। एक तो पर्याय में अहंबुद्धि लगा ली है, यह अहंकार का महादोष इस जीव में लगा हुआ है। दूसरा रोष ममकार का है। किसी भी परपदार्थ को यह मेरा है ऐसा ममत्व परिणाम इस जीव के बना हुआ है। दोनों ही परिणाम मिथ्या है, क्योंकि न तो कुछ बाह्य मैं हूं और न कुछ बाह्य मेरे है। यह संसार इस ही अहंकार और ममकार की प्रेरणा से दुःखी हो रहा है। ज्ञानी पुरुष के किसी भी परपदार्थ में आसक्ति नही होती है। वह किसी भी पर को अपना नही मानता, अपने से पर का कुछ सम्बन्ध नही समझता है।
औपाधिकता—देखो लोक में विचित्र प्रकृति के मनुष्य भी देखे जाते हैं। कोई मनुष्य तो इतनी कृपणता रखते हैं कि किसी भी स्थिति में रंच भी उदारता नही दिखा सकते हैं,चाहे कितना ही धन लुट जाय या कितनी ही आधि व्याधियां उपस्थित हो जाने से यो ही हजारों का धन लुट जाय, पर अपने हाथ से किसी भी धर्मप्रसंग के लिए कुछ देने का साहस नही कर पाते हैं और कितने ही पुरुष अपनी सम्पत्ति से अत्यन्त उदासीन रहते हैं,अपनी उदारता किसी भी धार्मिक प्रसंग में बनी रहती है। यह विचित्रता, ये जीव के परिणाम और कर्मो के उदय व क्षयोपशम की याद दिलाते हैं। इस जीव की कितनी विचित्र प्रकृतियाँ हो गयी है? मूल में जीव में केवल ज्ञाता दृष्टा रहने की प्रकृति है पर अपनी उस मूल प्रकृति को तोड़कर, परप्रकृतियों से उत्पन्न हुई प्रकृतियों में यह लग गया है और उन प्रकृति परिणामों से दुःखी रहता है, संसार भ्रमण करता है। जो तत्त्वज्ञानी जीव है वे प्रकृति के जाल को त्यागकर अपनी शुद्ध प्रकृति में जाते हैं। मैं ज्ञानानन्दस्वरूप हूं, चिदानन्दमात्र हूं ऐसी उनकी दृष्टि रहती है। वे कही भी रागी नही होते हैं।
मोह की अंधेरी—मोह की अंधेरी आना सबसे बड़ी विपत्ति है और अपने आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होना सबसे बडी सम्पदा है। इस बाह्य पृथ्वीकायक सम्पदा को कोई कहाँ तक सम्हालेगा? किसी भी क्षण यह सम्हाल नही पाता है। चीज जैसी आए, आए पर यह जीव किसी भी सम्पदा को सम्हालता हो ऐसी बात नही है। वह तो अपनी कल्पनावों मे ही गुथा रहता है। इस मायामयी जगत में अपनी पोजीशन की धुन बनाना यह महाव्यामोह है। अरे अरहंत सिद्ध की तरह निर्मल ज्ञाताद्रष्टा रह सकने योग्य यह आत्मा आज इतने विकट कर्म और शरीर के बन्धन में पड़ा है। इसकी पोजीशन तो यही बिगड़ी हुई है। अब इस झूठमूठ पोजीशन की क्या सम्हाल करना है। पोजीशन की सम्हाल करना हो तो वास्तविक पद्धति से पोजीशन की सम्हाल करने में लग जाइए, यह स्वार्थमयी दुनिया तुम्हारा हित न कर सकेगी, तुम्हारे हित के करने वाले मात्र तुम ही हो, इससे अपने आपके कल्याण का उद्यम करना श्रेयस्कर है।
ज्ञानी की दृष्टि—ज्ञानियों के ऐसी शुद्ध दृष्टि जगी है कि वे उस दृष्टि को छोड़ नही सकते हैं। नट कितने भी खेल दिखाये और किसी बांस पर चढ़कर गोल-गोल फिरे, रस्सी पर पैरों से चले, इतने आश्चर्यजनक खेल नट दिखाता है, पर उस नट की दृष्टि किधर है, कार्य क्या कर रहा है और दृष्टि किधर है? उसमें भेद है। जो कर रहा उस पर दृष्टि नही है। मनुष्य भी जब चलता है तो जिस जमीन पर पैर रखता है उस जमीन को देखकर नही चलता है, अगर उतनी जगह को देखकर चले तो चल नही सकता है, गिर पड़ेगा। उसकी दृष्टि प्रकृत्या चार हाथ आगे रहती है। पैर जिस जगह रखा जा रहा है उस जगह को देखकर कौन पैर रखता है? क्रिया होती है, दृष्टि उससे आगे की रहती है। केवल क्रियावों पर ही दृष्टि रहे तो उसका मार्ग रूक जायगा, आगे बढ़ ही नही सकता है। यो यह ज्ञानी प्रत्येक क्रियावों में अपने अंतः स्वरूप में मग्न रहने का यत्न करता है।
ज्ञानियों की अलौकिकी वृत्ति—जिसने अपने आत्मतत्त्व को स्थिर किया है उसके ही ऐसी अलौकिक वृत्ति होती है। ज्ञानी और अज्ञानी का प्रवर्तन परस्पर उल्टा है। जिसे ज्ञानी चाहता है उसे अज्ञानी नही चाहता, जिसे अज्ञानी चाहता है उसे ज्ञानी नही चाहता। साधु संत ऐसे ढंग का कमण्डल रखते हैं कि किसी असंयमी को चुराने तक का भी भाव न हो सके, और की तो बात जाने दो। यह ज्ञानी अज्ञानियों से कितना उल्टा चल रहा है? दुनिया चटक मटक का बर्तन रखती है ओर वे साधु एक काठ का कमंडल रखते हैं,और मौका पड़ जाय तो कुछ समय के लिए वन में पड़ी अस्वाभिक मिट्टी का बर्तन या तूमड़ी आदि का वे प्रयोग कर लेते हैं,असंयमी जन पलंग गद्दा तकियों पर लेटने का यत्न करते हैं,ज्ञानी जन जमीन में ही लोटते हैं कभी कोई परिस्थिति आए तो वे कुछ तृण सोध बिछाकर लेट रहते हैं,कितनी परस्पर में उल्टी परिणति है। जो लोक न कर सके वह किया जाय उसका नाम है अलोक की वृत्ति। ऐसे अलौकिक निज परमार्थ कार्यों में दृष्टि होने पर भी कितनी ही परिस्थितियाँ ऐसी होती है कि वे अन्य विषयक कार्य भी करते हैं किन्तु वे कार्य करते हुए भी न करते हुए की तरह है।
वर्तमान संग में ज्ञानी की अनास्था पर एक दृष्टान्त—एक अमीर पुरुष रोगी हो जाय तो उसके आराम के कितने साधन जुटाए जाते हैं,अच्छा हवादार और मनः प्रिय कमरे में आसन बिछाना, कोमल पलंग गद्दे रोज-रोज कपड़े धुलकर बिछाए जाएँ, दो चार मित्र जन उसका दिल बहलाने के लिए उपस्थित रहा करे, समय-समय पर डाक्टर वैद्य लोग आकर उसकी सेवा किया करे, एक दो नौकर और बढ़ा दिया जाये, कितने साधन है इतने आराम के साधन होने पर भी क्या रोगी यह चाहता है कि ऐसा ही पलंग मेरे पड़ने को रात दिन मिला करे, ऐसा ही आराम रोज-रोज मुझे मिलता रहे? जब कोई पुरुष बीमार हो जाता है तो उसकी खबर लेने वाले लोग अधिक हो जाते हैं,हट्टे कट्टे मे कोई ज्यादा प्रिय बातें नही बोलते। बीमार हो जाने पर रिश्तेदार, मित्रजन कुटुम्बीजन बहुत प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हैं। इतना आराम होने पर भी रोगी पुरुष तो यह चाहता है कि मैं कब इस खटिया को छोड़कर दो मील पैदल चलने लगूँ। यो ही ज्ञानी वर्तमान संग में आस्था नही रखता है।
ज्ञानी की प्रवृत्ति के प्रयोजन पर एक दृष्टान्त—यह रोगी दवाई भी सेवन करता है और दवाई समय पर न मिले तो दवाई देने वाले पर झुंझला भी जाता है, दवा क्यों देर से लाये? बड़ा प्रेम वह दवाई से दिखाता है, उस औषधि को वह मेरी दवा, मेरी दवा—ऐसा भी कहता जाता है, उसको अच्छी तरह से सेवता है, फिर भी क्या वह अंतरंग में यह चाहता है कि ऐसी औषधि मुझे जीवनभर खाने को मिलती रहे? वह औषधि को औषधि न खाना पडे़ इसलिए खाता है, औषधि खाते रहने के लिए औषधि नही खाता। ऐसे ही ज्ञानी पुरुष अपने-अपने पद के योग्य विषयसाधन भी करे, पूजन करे, अन्य-अन्य भी विषयों के साधन बनाएँ तो वहाँ पर ये ज्ञानी विषयों के लिए विषयों का सेवन नही करते, किन्तु इन विषयों से शीघ्र मुझे छुट्टी मिले इसके लिए विषयों का सेवन करते हैं। ज्ञानी की इस लीला को अज्ञानी जन नही जान सकते। ज्ञानी की होड़ के लिए अज्ञानी भी यदि ऐसा कहे तो उसकी यह कोरी बकवाद है।
कर्मबन्ध का कारण—कर्मबंध आशय से होता है। डाक्टर लोग रोगी की चिकित्सा करते हैं,आपरेशन भी करते हैं और उस प्रसंग में कोई रोगी कदाचित् गुजर जाय तो उसे कोई हत्यारा नही कहता है, और न सरकार ही हत्यारा करार कर देती है आशय उसका हत्यारा का नही था, और एक शिकारी शस्त्र बंदूक लिए हुए बन में किसी पशु पक्षी की हत्या करने जाय, और न भी वह हत्या कर सके तो भी उस सशस्त्र पुरुष को लोग हत्यारा कहते हैं,सरकार भी उसे हत्यारा करार कर देती है। आशय से कर्मबंध है, ज्ञानी जीव को अपने किसी भी परिणमन में आसक्ति नही है, अहंकार नही है। पर्यायबुद्धि सबसे बड़ा अपराध है। जो अपने किसी भी वर्तमान परिणमन में ’यह मैं हूं’ ऐसा भाव रखता है उस पुरुष के कर्मबंध होता है, और जो विरक्त रहा करता है उसके कर्मबंध नही होता है।
सारभूत शिक्षा—पूज्य श्री कुन्दकुन्द प्रभु ने समयसार में बताया है और अनेक अध्यात्मयोगियों ने अपने ग्रन्थों में बताया है। जो जीव रागी होता है वह कर्मो से बँधता है, जो जीव रागी नही होता है वह कर्मों से छूटता है, इतना जिनागम के सार का संक्षेप है। जिन्हें संसार संकटों से मुक्त होने की अभिलाषा हे उन्हें चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ को भिन्न और मायामय जानकर उनमें राग को त्याग दे। उनमें रुचिकर करने का फल केवल क्लेश ही है और विनाशीक चीज में ममता बना लेना यह बालकों जैसा करतब है। किसी पानी भरी थाली में रात के समय चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ रहा हो तो बालक उस प्रतिबिम्ब को उठाकर अपनी जेब में रखना चाहता है, पर ऐसा होता कहाँ है। तब वह दुःखी होता है।
पर की हठ का क्लेश—एक बालक ने ऐसा हठ किया कि हमें तो हाथीचाहिए तो बाप न पास के किसी बड़े घर के पुरुष से निवेदन करके हाथी घर के सामने बुला लिया। अब लड़के के सामने हाथी तो आ गया, पर वह हठ कर गया कि मुझे तो यह हाथी खरीद दो। तो उसके घर के बाड़े में वह हाथी खड़ा करवा दिया और कहा, लो बेटा यह हाथी तुम्हें खरीद दिया है, इतने पर भी वह राजी न हुआ, बोला कि इस हाथी को हमारी जेब मे धर दो । अब बतावो हाथी को कौन जेब में धर देगा? जो बात हो नही सकती उस बात पर हठ की जाय तो उसका फल केवल क्लेश ही है। जो बात हो सकती है, जो बात होने योग्य हो, जिस बात के होने में अपनी भलाई हो उस घटना से प्रीति करना यह तो हितकर बात है, पर अनहोनी को होनी बनाने की हठ सुखदायी नही होती है। ज्ञानी पुरुष तो अपने आपको जैसा चाहें बना सकते हैं,इस निर्णय के कारण अपने पर ही प्रयोग करते हैं। किसी परवस्तु में किसी प्रकार की हठ नही करते हैं। इस कारण ये अध्यात्मयोगी सदा अंतः प्रसन्न रहा करते हैं।