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| आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन किसको होता है ? जो जीव, जीव पदार्थ के स्वरूप को जानकर इसकी भावना करे, इसका श्रद्धान करके अपने को जीव पदार्थ जानकर अनुभव द्वारा प्रतीति करे उसके होता है । इसलिए अब यह जीवपदार्थ कैसा है, उसका स्वरूप कहते हैं -<br> | | आगे सम्यग्दर्शनसहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं -<br> |
| <p class="PrakritGatha"> | | <p class="PrakritGatha"> |
| कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ।<br>
| | जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले ।<br> |
| दंसणणाणुवओगो १णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं ।।१४८।।<br>
| | भाविय १तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।।१४६।।<br> |
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| <p class="SanskritGatha"> | | <p class="SanskritGatha"> |
| कर्त्ता भोक्ता अमूर्त्त: शरीरमात्र: अनादिनिधन: च ।<br>
| | यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले ।<br> |
| दर्शनज्ञानोपयोग: २निर्दिष्ट: जिनवरेन्द्रै: ।।१४८।।<br>
| | भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ।।१४६।।<br> |
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| <p class="HindiGatha"> | | <p class="HindiGatha"> |
| देहमित अर कर्त्ता-भोक्ता जीव दर्शन-ज्ञानमय ।<br>
| | चन्द्र तारागण सहित ही लसे नभ में जिसतरह ।<br> |
| अनादि अनिधन अमूर्तिक कहा जिनवर देव ने ।।१४८।।<br>
| | व्रत तप तथा दर्शन सहित जिनलिंग शोभे उसतरह ।।१४६।।<br> |
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| <p><b> अर्थ - </b> `जीव' नामक पदार्थ है सो कैसा है - कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है, शरीरप्रमाण है, अनादिनिधन है, दर्शन-ज्ञान उपयोगवाला है इसप्रकार जिनवरेन्द्र सर्वज्ञदेव वीतराग ने कहा है । </p> | | <p><b> अर्थ - </b> जैसे निर्मल आकाशमंडल में ताराओं के समूहसहित चन्द्रमा का बिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतों से निर्मल जिनलिंग है सो शोभा पाता है । </p> |
| <p><b> भावार्थ -</b> यहाँ `जीव' नामक पदार्थ के छह विशेषण कहे । इनका आशय ऐसा है कि -<br> | | <p><b> भावार्थ -</b> जिनलिंग अर्थात् `निर्ग्रन्थ मुनिभेष' यद्यपि तपव्रतसहित निर्मल है, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है । इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है ।।१४६।।<br> |
| १.`कर्ता' कहा, वह निश्चयनय से तो अपने अशुद्ध भावों का अज्ञान अवस्था में आप ही कर्ता है तथा व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मो का कर्ता है औेर शुद्धनय से अपने शुद्धभावों का कर्त्ता है । २. `भोक्ता' कहा, वह निश्चयनय से तो अपने ज्ञान-दर्शनमयी चेतनभाव का भोक्ता है और व्यवहार नय से पुद्गलकर्म के फल में होनेवाले सुख-दु:ख आदि का भोक्ता है । ३. `अमूर्तिक' कहा, वह निश्चय से तो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द ये पुद्गल के गुण पर्याय हैं, इनसे रहित अमूर्तिक है और व्यवहार से जबतक पुद्गलकर्म से बंधा है तबतक `मूर्तिक' भी कहते हैं । ४. `शरीरपरिमाण' कहा, वह निश्चय से तो असंख्यातप्रदेशी लोकपरिमाण है, परन्तु संकोच- विस्तारशक्ति से शरीर से कुछ कम प्रदेशप्रमाण आकार में रहता है । ५. `अनादिनिधन' कहा, वह पर्यायदृष्टि से देखने पर तो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, तो भी द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो अनादिनिधन सदा नित्य अविनाशी है । ६. `दर्शन-ज्ञान उपयोगसहित' कहा, वह देखने जाननेरूप उपयोगस्वरूप चेतनारूप है । इन विशेषणों में अन्यमती अन्यप्रकार सर्वथा एकान्तरूप मानते हैं उनका निषेध भी जानना चाहिए । `कर्ता' विशेषण से तो सांख्यमती सर्वथा अकर्ता मानता है उसका निषेध है । `भोक्ता' विशेषण से बौद्धमती क्षणिक मानकर कहता है कि कर्म को करनेवाला तो और है तथा भोगनेवाला और है, इसका निषेध है । जो जीव कर्म करता है, उसका फल वही जीव भोगता है, इस कथन से बौद्धमती के कहने का निषेध है । `अमूर्तिक' कहने से मीमांसक आदि इस शरीरसहित मूर्तिक ही मानते हैं, उनका निषेध है । `शरीरप्रमाण' कहने से नैयायिक, वैशेषिक, वेदान्ती आदि सर्वथा, सर्वव्यापक मानते हैं उनका निषेध है । `अनादिनिधन' कहने से बौद्धमती सर्वथा क्षणस्थायी मानता है, उसका निषेध है । `दर्शनज्ञानोपयोगमयी' कहने से सांख्यमती तो ज्ञानरहित चेतनामात्र मानता है, नैयायिक, वैशेषिक, गुणगुणी के सर्वथा भेद मानकर ज्ञान और जीव के सर्वथा भेद मानते हैं, बौद्धमत का विशेष `विज्ञानाद्वैतवादी' ज्ञानमात्र ही मानता है और वेदांती ज्ञान का कुछ निरूपण ही नहीं करता है, इन सबका निषेध है । इसप्रकार सर्वज्ञ का कहा हुआ जीव का स्वरूप जानकर अपने को ऐसा मानकर श्रद्धा, रुचि, प्रतीति करना चाहिए । जीव कहने से अजीव पदार्थ भी जाना जाता है, अजीव न हो तो जीव नाम कैसे होता, इसलिए अजीव का स्वरूप कहा है, वैसा ही उसका श्रद्धान आगम अनुसार करना । इसप्रकार अजीव पदार्थ का स्वरूप जानकर और इन दोनों के संयोग से अन्य आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष - इन भावों की प्रवृत्ति होती है । इनका आगम के अनुसार स्वरूप जानकर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१४८।।<br>
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| [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] |
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आगे सम्यग्दर्शनसहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं -
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले ।
भाविय १तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।।१४६।।
यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले ।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ।।१४६।।
चन्द्र तारागण सहित ही लसे नभ में जिसतरह ।
व्रत तप तथा दर्शन सहित जिनलिंग शोभे उसतरह ।।१४६।।
अर्थ - जैसे निर्मल आकाशमंडल में ताराओं के समूहसहित चन्द्रमा का बिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतों से निर्मल जिनलिंग है सो शोभा पाता है ।
भावार्थ - जिनलिंग अर्थात् `निर्ग्रन्थ मुनिभेष' यद्यपि तपव्रतसहित निर्मल है, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है । इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है ।।१४६।।