भावपाहुड गाथा 146
From जैनकोष
आगे सम्यग्दर्शनसहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं -
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले ।
भाविय १तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।।१४६।।
यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले ।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ।।१४६।।
चन्द्र तारागण सहित ही लसे नभ में जिसतरह ।
व्रत तप तथा दर्शन सहित जिनलिंग शोभे उसतरह ।।१४६।।
अर्थ - जैसे निर्मल आकाशमंडल में ताराओं के समूहसहित चन्द्रमा का बिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतों से निर्मल जिनलिंग है सो शोभा पाता है ।
भावार्थ - जिनलिंग अर्थात् `निर्ग्रन्थ मुनिभेष' यद्यपि तपव्रतसहित निर्मल है, तो भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है । इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है ।।१४६।।