अपध्यान: Difference between revisions
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<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 78 वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदः ॥78॥</p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 78 वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदः ॥78॥</p> | |||
<p>= जिनशासनमें चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदिके नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेकी आध्यान या उपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | <p>= जिनशासनमें चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदिके नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेकी आध्यान या उपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/360 परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्।</p> | <p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/360 परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्।</p> | ||
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<p id="1"> (1) ध्यान का विपरीत रूप-बुद्धि का अपने आधीन न होता । यह विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली मन की दुष्प्रणिघान नाम की प्रवृत्ति से होता है । इसमें अशुभ भाव होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 21. 11, 25 </span></p> | |||
<p id="2">(2) अनर्थदण्ड का दूसरा भेद-अपनी जय और पर की पराजय तथा अहित का चिन्तन । अनर्थदण्डवती इस प्रकार का चिन्तन नहीं करता । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.146,149 </span>देखें [[ अनर्थदण्डव्रत ]]</p> | |||
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Revision as of 21:37, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 78 वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदः ॥78॥
= जिनशासनमें चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदिके नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेकी आध्यान या उपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/360 परेषां जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्।
= दूसरोंका जय, पराजय, मारना, बाँधना, अंगोंका छेदना, और धनका अपहरण आदि कैसे किया जाये इस प्रकार मनसे विचार करना अपध्यान है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21/21/549/7) ( चारित्रसार पृष्ठ 16/5) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141)
चारित्रसार पृष्ठ 171/3 उभयमप्येतदपध्यानमम्।
= ये दीनों आर्त व रौद्रध्यान अपध्यान हैं।
( सागार धर्मामृत अधिकार 5/9)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 344 परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च। परइत्थी अवलोओ परकलहालोयणं पढमं ॥344॥
= परके दोषोंका ग्रहण करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, परायी स्त्रीको ताकना तथा परायी कलहको देखना प्रथम (अपध्यान) अनर्थदण्ड है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 22/66/9 स्वयं विषयानुभवरहितोऽप्ययंजीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टं श्रुतं च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते।
= स्वयं विषयोंके अनुभवसे रहित भी यह जीव अन्यके देखे हुए तथा सुने हुए विषयके अनुभवको मनमें स्मरण करके विषयोंकी इच्छा करता है, उसको अपध्यान कहते हैं।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 158/219)।
पुराणकोष से
(1) ध्यान का विपरीत रूप-बुद्धि का अपने आधीन न होता । यह विषयों में तृष्णा बढ़ाने वाली मन की दुष्प्रणिघान नाम की प्रवृत्ति से होता है । इसमें अशुभ भाव होते हैं । महापुराण 21. 11, 25
(2) अनर्थदण्ड का दूसरा भेद-अपनी जय और पर की पराजय तथा अहित का चिन्तन । अनर्थदण्डवती इस प्रकार का चिन्तन नहीं करता । हरिवंशपुराण 58.146,149 देखें अनर्थदण्डव्रत