पृथिवी: Difference between revisions
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<p class="HindiText">रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी - | == सिद्धांतकोष से == | ||
पृथिवी - यद्यपि लोक में पृथिवी को तत्त्व समझा जाता है, परन्तु जैन दर्शनकारों ने इसे भी एकेन्द्रिय स्थावर की कोटि में गिना है। इसी अवस्था भेद से उसके कई भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त यौगिक अनुष्ठानों में भी विशेष प्रकार से पृथिवी मण्डल या पार्थवेयी धारणा की कल्पना की जाती है। सात नरकों की सात पृथिवियों के साथ निगोद मिला देने से आठ पृथिवियाँ कही जाती हैं (देखें | <p class="HindiText">रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी - देखें [[ लोक#5.13 | लोक - 5.13]]। <br /> | ||
पृथिवी - यद्यपि लोक में पृथिवी को तत्त्व समझा जाता है, परन्तु जैन दर्शनकारों ने इसे भी एकेन्द्रिय स्थावर की कोटि में गिना है। इसी अवस्था भेद से उसके कई भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त यौगिक अनुष्ठानों में भी विशेष प्रकार से पृथिवी मण्डल या पार्थवेयी धारणा की कल्पना की जाती है। सात नरकों की सात पृथिवियों के साथ निगोद मिला देने से आठ पृथिवियाँ कही जाती हैं (देखें [[ भूमि ]]) सिद्धलोक को भी अष्टम भूमि कहा जाता है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong>पृथिवी सामान्य का लक्षण</strong>- | <li class="HindiText"><strong>पृथिवी सामान्य का लक्षण</strong>- देखें [[ भूमि#1 | भूमि - 1]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">कायिकादि चार भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">कायिकादि चार भेद</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/13/172/3 <span class="SanskritText">पृथिव्यादीनामार्षे चातुर्विध्यमुक्तं प्रत्येकम्। तत्कथमिति चेत्? उच्यते - पृथिवी-पृथिवीकायः पृथिवीकायिकः पृथिवीजीव इत्यादि।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> आर्ष में पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकार के कहे हैं, सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्त होते हैं? <strong>उत्तर -</strong> पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये पृथिवी के चार भेद हैं। (रा.वा./2/13/1/127/22), (गो.जी./जी.प्र./182/496/9)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">मिट्टी आदि अनेक भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">मिट्टी आदि अनेक भेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./206-207 <span class="PrakritGatha">पुढवी य बालुगा सक्करा य उवले सिला य लोणे य। अय तंव तउ य सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य। 206। हरिदाले हिंगुलए मणोसिला सस्सगंजण पवाले य। अब्भपडलव्भवालु य वादरकाया मणिविधीया। 207। गोमज्झगे य रुजगे अंके फलहे य लोहिदंके य। चंदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकंते य। 208। गेरुय चंदण वव्वग वगमोए तह मसारगल्लो य। ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा। 209।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> मिट्टी आदि पृथिवी, </li> | <li class="HindiText"> मिट्टी आदि पृथिवी, </li> | ||
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<li class="HindiText">तिकोंन चौकोनरूप शर्करा, </li> | <li class="HindiText">तिकोंन चौकोनरूप शर्करा, </li> | ||
<li class="HindiText">गोल पवत्थर, </li> | <li class="HindiText">गोल पवत्थर, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">बड़ा पत्थर, </li> | ||
<li class="HindiText">समुद्रादिका लवण (नमक), </li> | <li class="HindiText">समुद्रादिका लवण (नमक), </li> | ||
<li class="HindiText">लोहा,</li> | <li class="HindiText">लोहा,</li> | ||
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<li class="HindiText">पुखराज, </li> | <li class="HindiText">पुखराज, </li> | ||
<li class="HindiText">नीलमणि, तथा </li> | <li class="HindiText">नीलमणि, तथा </li> | ||
<li class="HindiText"> विद्रुमवर्णवाली मणि इस प्रकार पृथिवी के छत्तीस भेद हैं। इनमें जीवों को जानकर सजीव का त्याग करे। | <li class="HindiText"> विद्रुमवर्णवाली मणि इस प्रकार पृथिवी के छत्तीस भेद हैं। इनमें जीवों को जानकर सजीव का त्याग करे। 206-209। (पं.स./प्रा./1/77); (ध.1/1,1,42/गा.149/272); (त.सा./2/58-62); (पं.सं./सं./1/155); (और भी देखें [[ चित्रा ]])<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">पृथिवीकायिकादि भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">पृथिवीकायिकादि भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/13/172/4 <span class="SanskritText">तत्र अचेतना वैश्रसिकपरिणामनिर्वृत्ता काठिन्य-गुणात्मिका पृथिवी। अचेतनत्वादसत्यपि पृथिवीनामकर्मोदये प्रथनक्रियोपलक्षितैवेयम्। अथवा पृथिवीति सामान्यम्ः उत्तरत्रयेऽपि सद्भावात्। कायः शरीरम्। पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्त: पृथिवी-कायो मृतमनुष्यादिकायवत्। पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवी-कायिकः। तत्कायसंबन्धवशीकृत आत्मा। समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीवः।</span> = <span class="HindiText">अचेतन होने से यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्म का उदय नहीं है तो भी प्रथम क्रिया से उपलक्षित होने के कारण अर्थात् विस्तार आदि गुणवाली होने के कारण यह पृथिवी कहलाती है। अथवा पृथिवी यह सामान्य भेद है, क्योंकि आगे के तीन भेदों में यह पाया जाता है। काय का अर्थ शरीर है, अतः पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है, वह पृथिवीकाय कहलाता है। यथा मरे हुए मनुष्य आदिक का शरीर। जिस जीव के पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यह जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्बन्ध से युक्त है। कार्मण योग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप से ग्रहण नहीं किया है, तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है। (रा.वा./2/13/1/127/23); (गो.जी./जी.प्र./182/416/9)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">पृथिवीकायिकादि के लक्षणों सम्बन्धी शंका-समाधान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">पृथिवीकायिकादि के लक्षणों सम्बन्धी शंका-समाधान</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध. 1/1,1,39/265/1<span class="SanskritText"> पृथिव्येव कायः पृथिवीकायः स एषामस्तीति पृथिवीकायिकाः। न कार्मणशरीरमात्रस्थितजीवानां पृथिवीकायत्वाभावः, भाविनि भूतवदुपचारतस्तेषामपि तद्व्यपदेशोपपत्तेः। अथवा पृथिवीकायिकनामकर्मोदयवशीकृतः पृथिवीकायिकाः। </span>= <span class="HindiText">पृथिवीरूप शरीर को पृथिवीकाय कहते हैं, वह जिनके पाया जाता है उन जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं। <strong>प्रश्न -</strong> पृथिवीकायिक का इस प्रकार लक्षण करने पर कार्मणकाययोग में स्थित जीवों के पृथिवीकायपना नहीं हो सकता? <strong>उत्तर -</strong></span> | ||
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<li class="HindiText"> यह बात नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें यह हो चुका है इस प्रकार उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कार्मणकाय योग में स्थित पृथिवीकायिक जीवों के भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है। </li> | <li class="HindiText"> यह बात नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें यह हो चुका है इस प्रकार उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कार्मणकाय योग में स्थित पृथिवीकायिक जीवों के भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है। </li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">प्राणायाम सम्बन्धी पृथिवीमण्डल का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">प्राणायाम सम्बन्धी पृथिवीमण्डल का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./29/19 <span class="SanskritGatha">क्षितिबीजसमाक्रान्तं द्रुतहेमसमप्रभम्। स्याद्वज्रलाञ्छनोपेतं चतुरस्स्रं धरापुरम्। 19।</span> = <span class="HindiText">क्षितिबीज जो पृथ्वी बीजाक्षर सहित गाले हुए सुवर्ण के समान पीतरक्त प्रभा जिसकी और वज्र के चिह्न संयुक्त चौकोर धरापुर अर्थात् पृथिवीमण्डल है। </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./29/24 <span class="SanskritGatha">घोणाविवरमापूर्य किंचिदुष्णं पुरंदरः। वहत्यष्टाङ्गुलः स्वस्थः पीतवर्णः शनैः शनैः। 24।</span> = <span class="HindiText">नासिका के छिद्र को भले प्रकार भर के कुछ उष्णता लिये आठ अंगुल बाहर निकलता, स्वस्थ, चपलता रहित, मन्द-मन्द बहता, ऐसा इन्द्र जिसका स्वामी है ऐसे पृथिवीमण्डल के पवन को जानना। 24। </span><br /> | ||
ज्ञा./सा./ | ज्ञा./सा./57....। <span class="SanskritText">चतुष्कोणं अपि पृथिवी श्वेतं जलं शुद्धं चन्द्राभं। 57। </span>= <span class="HindiText">श्वेत जलवत् शुद्ध चन्द्रमा के सदृश तथा चतुष्कोण पृथिवी है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पार्थिवीधारणा का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पार्थिवीधारणा का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./37/4-9 <span class="SanskritGatha">तिर्यग्लोकसमं योगी स्मरति क्षीरसागरम्। निःशब्दं शान्तकल्लोलं हारनीहारसंनिभम्। 4। तस्य मध्ये सुनिर्माणं सहस्र-दलमम्बुजम्। स्मरत्यमितभादीप्तं द्रुतहेमसमप्रभम्। 5। अब्जराग-समुद्भूतकेसरालिविराजितम्। जम्बूद्वीपप्रमाणं च चित्तभ्रमररजकम्। 6। स्वर्णाचलमयीं दिव्यां तन्न स्मरति कर्णिकाम्। स्फुरत्पिङ्गप्रभा-जालपिशङ्गितदिगन्तराम्। 7। शरच्चन्द्रनिभं तस्यामुन्नतं हरिविष्टरम्। तत्रात्मानं सुखासीनं प्रशान्तमिति चिन्तयेत्। 8। रागद्वेषादिनिःशेषकलङ्कक्षपणक्षमम्। उ क्तं च भवोद्भूतं कर्मसंतान-शासने। 9।</span> = <span class="HindiText">प्रथम ही योगी तिर्यग्लोक के समान निःशब्द, कल्लोल रहित, तथा बरफ के सदृश सफेद क्षीर समुद्र का ध्यान करे। 4। फिर उसके मध्य भाग में सुन्दर है निर्माण जिसका और अमित फैलती हुई दीप्ति से शोभायमान, पिघले हुए सुवर्ण की आभावाले सहस्र दल कमल का चिन्तवन करे। 5। उस कमल को केसरों की पंक्ति से शोभायमान चित्तरूपी भ्रमर को रंजायमान करनेवाले जम्बूद्वीप के बराबर लाख योजन का चिंतनवन करै। 6। तत्पश्चात् उस कमल के मध्य स्फुरायमान पीतरंग की प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक कर्णिका का ध्यान करे। 7। उस कर्णिका में शरद् चन्द्र के समान श्वेतवर्ण एक ऊँचा सिंहासन चिंतवन करै। उसमें अपने आत्मा को सुख रूप, शान्त स्वरूप, क्षोभ रहित। 8। तथा समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ है ऐसा चिन्तवन करै। 9। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>अन्य सम्बन्धित विषय</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>अन्य सम्बन्धित विषय</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>पृथिवी में पुद्गल के सर्व गुणों का अस्तित्व। -</strong> | <li class="HindiText"><strong>पृथिवी में पुद्गल के सर्व गुणों का अस्तित्व। -</strong> देखें [[ पुद्गल#2 | पुद्गल - 2]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>अष्टपृथिवी निर्देश।-</strong> | <li class="HindiText"><strong>अष्टपृथिवी निर्देश।-</strong> देखें [[ भूमि ]]/1। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>मोक्षभूमि व अष्टम पृथिवी।- </strong> देखें | <li class="HindiText"><strong>मोक्षभूमि व अष्टम पृथिवी।- </strong>देखें [[ मोक्ष#1 | मोक्ष - 1]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>नरक पृथिवी।-</strong> देखें | <li class="HindiText"><strong>नरक पृथिवी।-</strong> देखें [[ नरक ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>सूक्ष्म तैजसकायिकादिकों का लोक में सर्वत्र अवस्थान।-</strong> | <li class="HindiText"><strong>सूक्ष्म तैजसकायिकादिकों का लोक में सर्वत्र अवस्थान।-</strong> देखें [[ सूक्ष्म#3 | सूक्ष्म - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>बादर तैजसकायिकादिकों का भवनवासियों के विमानों में व नरकों में अवस्थान।-</strong> | <li class="HindiText"><strong>बादर तैजसकायिकादिकों का भवनवासियों के विमानों में व नरकों में अवस्थान।-</strong> देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>मार्गणाओं में भावमार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।- </strong>देखें | <li class="HindiText"><strong>मार्गणाओं में भावमार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।- </strong>देखें [[ मार्गणा ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्त में सासादन गुणस्थान की सम्भावना।- </strong> देखें | <li class="HindiText"><strong>बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्त में सासादन गुणस्थान की सम्भावना।- </strong>देखें [[ जन्म#4 | जन्म - 4]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।- </strong>देखें | <li class="HindiText"><strong>कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।- </strong>देखें [[ वह ]]वह नाम। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>पृथिवीकायिक जीवों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि सम्बन्धी | <li class="HindiText"><strong>पृथिवीकायिक जीवों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि सम्बन्धी 20 प्ररूपणाएँ। -</strong> देखें [[ सत् ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"><strong> पृथिवीकायिक जीवों की सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। </strong>- देखें | <li class="HindiText"><strong> पृथिवीकायिक जीवों की सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। </strong>- देखें [[ वह ]]वह नाम।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) तीर्थङ्कर सुपार्श्व की जननी । यह काशी-नरेश सुप्रतिष्ठ की रानी थी । <span class="GRef"> <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>20.43 </span></p> | |||
<p id="2">(2) द्वारावती के राजा भद्र की रानी । यह तीसरे नारायण स्वयंभू की जननी थी । <span class="GRef"> महापुराण 59.86-87 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण </span>के अनुसार तीसरा नारायण स्वयंभू हस्तिनापुर के राजा रोद्रनाद और उसकी रानी पृथिवी का पुत्र था । <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>221-226</p> | |||
<p id="3">(3) राजा बालखिल्य की रानी और कल्याणमाला की जननी । <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>34.39-43</p> | |||
<p id="4">(4) वत्सकावती देश का एक नगर । <span class="GRef"> महापुराण 48. 58-59 </span></p> | |||
<p id="5">(5) आठ दिक्कुमारी देवियों में एक देवी यह तीर्थङ्कर की माता पर छत्र धारण किये रहती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 8.110 </span></p> | |||
<p id="6">(6) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के गन्धसमृद्धनगर के राजा गांधार की महादेवी । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 30. 7 </span></p> | |||
<p id="7">(7) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुरदेव की रानी । दान धर्म के पालन के प्रभाव से यह अच्युत स्वर्ग में सुप्रभा देवी हुई । <span class="GRef"> महापुराण 46. 352 </span></p> | |||
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</noinclude> | |||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: प]] |
Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी - देखें लोक - 5.13।
पृथिवी - यद्यपि लोक में पृथिवी को तत्त्व समझा जाता है, परन्तु जैन दर्शनकारों ने इसे भी एकेन्द्रिय स्थावर की कोटि में गिना है। इसी अवस्था भेद से उसके कई भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त यौगिक अनुष्ठानों में भी विशेष प्रकार से पृथिवी मण्डल या पार्थवेयी धारणा की कल्पना की जाती है। सात नरकों की सात पृथिवियों के साथ निगोद मिला देने से आठ पृथिवियाँ कही जाती हैं (देखें भूमि ) सिद्धलोक को भी अष्टम भूमि कहा जाता है।
- पृथिवी सामान्य का लक्षण- देखें भूमि - 1।
- पृथिवी के भेद
- कायिकादि चार भेद
स.सि./2/13/172/3 पृथिव्यादीनामार्षे चातुर्विध्यमुक्तं प्रत्येकम्। तत्कथमिति चेत्? उच्यते - पृथिवी-पृथिवीकायः पृथिवीकायिकः पृथिवीजीव इत्यादि। = प्रश्न - आर्ष में पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकार के कहे हैं, सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्त होते हैं? उत्तर - पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये पृथिवी के चार भेद हैं। (रा.वा./2/13/1/127/22), (गो.जी./जी.प्र./182/496/9)।
- मिट्टी आदि अनेक भेद
मू.आ./206-207 पुढवी य बालुगा सक्करा य उवले सिला य लोणे य। अय तंव तउ य सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य। 206। हरिदाले हिंगुलए मणोसिला सस्सगंजण पवाले य। अब्भपडलव्भवालु य वादरकाया मणिविधीया। 207। गोमज्झगे य रुजगे अंके फलहे य लोहिदंके य। चंदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकंते य। 208। गेरुय चंदण वव्वग वगमोए तह मसारगल्लो य। ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा। 209। =- मिट्टी आदि पृथिवी,
- बालू,
- तिकोंन चौकोनरूप शर्करा,
- गोल पवत्थर,
- बड़ा पत्थर,
- समुद्रादिका लवण (नमक),
- लोहा,
- ताँबा,
- जस्ता,
- सीसा,
- चाँदी,
- सोना,
- हीरा,
- हरिताल,
- इंगुल,
- मैनसिल,
- हरारंगवाला सस्यक,
- सुरमा,
- मूँगा,
- भोडल (अबरख),
- चमकती रेत,
- गोरोचन वाली कर्केतनमणि,
- अलसी पुष्पवर्ण राजवर्तकमणि,
- पुलकवर्णमणि,
- स्फटिक मणि,
- पद्मरागमणि,
- चन्द्रकांतमणि,
- वैडूर्य (नील) मणि,
- जलकांतमणि,
- सूर्यकांत मणि,
- गेरुवर्ण रुधिराक्षमणि,
- चन्दनगन्धमणि,
- विलाव के नेत्र समान मरकतमणि,
- पुखराज,
- नीलमणि, तथा
- विद्रुमवर्णवाली मणि इस प्रकार पृथिवी के छत्तीस भेद हैं। इनमें जीवों को जानकर सजीव का त्याग करे। 206-209। (पं.स./प्रा./1/77); (ध.1/1,1,42/गा.149/272); (त.सा./2/58-62); (पं.सं./सं./1/155); (और भी देखें चित्रा )
- कायिकादि चार भेद
- पृथिवीकायिकादि भेदों के लक्षण
स.सि./2/13/172/4 तत्र अचेतना वैश्रसिकपरिणामनिर्वृत्ता काठिन्य-गुणात्मिका पृथिवी। अचेतनत्वादसत्यपि पृथिवीनामकर्मोदये प्रथनक्रियोपलक्षितैवेयम्। अथवा पृथिवीति सामान्यम्ः उत्तरत्रयेऽपि सद्भावात्। कायः शरीरम्। पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्त: पृथिवी-कायो मृतमनुष्यादिकायवत्। पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवी-कायिकः। तत्कायसंबन्धवशीकृत आत्मा। समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीवः। = अचेतन होने से यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्म का उदय नहीं है तो भी प्रथम क्रिया से उपलक्षित होने के कारण अर्थात् विस्तार आदि गुणवाली होने के कारण यह पृथिवी कहलाती है। अथवा पृथिवी यह सामान्य भेद है, क्योंकि आगे के तीन भेदों में यह पाया जाता है। काय का अर्थ शरीर है, अतः पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है, वह पृथिवीकाय कहलाता है। यथा मरे हुए मनुष्य आदिक का शरीर। जिस जीव के पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यह जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्बन्ध से युक्त है। कार्मण योग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप से ग्रहण नहीं किया है, तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है। (रा.वा./2/13/1/127/23); (गो.जी./जी.प्र./182/416/9)।
- पृथिवीकायिकादि के लक्षणों सम्बन्धी शंका-समाधान
ध. 1/1,1,39/265/1 पृथिव्येव कायः पृथिवीकायः स एषामस्तीति पृथिवीकायिकाः। न कार्मणशरीरमात्रस्थितजीवानां पृथिवीकायत्वाभावः, भाविनि भूतवदुपचारतस्तेषामपि तद्व्यपदेशोपपत्तेः। अथवा पृथिवीकायिकनामकर्मोदयवशीकृतः पृथिवीकायिकाः। = पृथिवीरूप शरीर को पृथिवीकाय कहते हैं, वह जिनके पाया जाता है उन जीवों को पृथिवीकायिक कहते हैं। प्रश्न - पृथिवीकायिक का इस प्रकार लक्षण करने पर कार्मणकाययोग में स्थित जीवों के पृथिवीकायपना नहीं हो सकता? उत्तर -- यह बात नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें यह हो चुका है इस प्रकार उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कार्मणकाय योग में स्थित पृथिवीकायिक जीवों के भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है।
- अथवा जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय के वशवर्ती है उन्हें पृथिवीकायिक कहते हैं।
- प्राणायाम सम्बन्धी पृथिवीमण्डल का लक्षण
ज्ञा./29/19 क्षितिबीजसमाक्रान्तं द्रुतहेमसमप्रभम्। स्याद्वज्रलाञ्छनोपेतं चतुरस्स्रं धरापुरम्। 19। = क्षितिबीज जो पृथ्वी बीजाक्षर सहित गाले हुए सुवर्ण के समान पीतरक्त प्रभा जिसकी और वज्र के चिह्न संयुक्त चौकोर धरापुर अर्थात् पृथिवीमण्डल है।
ज्ञा./29/24 घोणाविवरमापूर्य किंचिदुष्णं पुरंदरः। वहत्यष्टाङ्गुलः स्वस्थः पीतवर्णः शनैः शनैः। 24। = नासिका के छिद्र को भले प्रकार भर के कुछ उष्णता लिये आठ अंगुल बाहर निकलता, स्वस्थ, चपलता रहित, मन्द-मन्द बहता, ऐसा इन्द्र जिसका स्वामी है ऐसे पृथिवीमण्डल के पवन को जानना। 24।
ज्ञा./सा./57....। चतुष्कोणं अपि पृथिवी श्वेतं जलं शुद्धं चन्द्राभं। 57। = श्वेत जलवत् शुद्ध चन्द्रमा के सदृश तथा चतुष्कोण पृथिवी है।
- पार्थिवीधारणा का लक्षण
ज्ञा./37/4-9 तिर्यग्लोकसमं योगी स्मरति क्षीरसागरम्। निःशब्दं शान्तकल्लोलं हारनीहारसंनिभम्। 4। तस्य मध्ये सुनिर्माणं सहस्र-दलमम्बुजम्। स्मरत्यमितभादीप्तं द्रुतहेमसमप्रभम्। 5। अब्जराग-समुद्भूतकेसरालिविराजितम्। जम्बूद्वीपप्रमाणं च चित्तभ्रमररजकम्। 6। स्वर्णाचलमयीं दिव्यां तन्न स्मरति कर्णिकाम्। स्फुरत्पिङ्गप्रभा-जालपिशङ्गितदिगन्तराम्। 7। शरच्चन्द्रनिभं तस्यामुन्नतं हरिविष्टरम्। तत्रात्मानं सुखासीनं प्रशान्तमिति चिन्तयेत्। 8। रागद्वेषादिनिःशेषकलङ्कक्षपणक्षमम्। उ क्तं च भवोद्भूतं कर्मसंतान-शासने। 9। = प्रथम ही योगी तिर्यग्लोक के समान निःशब्द, कल्लोल रहित, तथा बरफ के सदृश सफेद क्षीर समुद्र का ध्यान करे। 4। फिर उसके मध्य भाग में सुन्दर है निर्माण जिसका और अमित फैलती हुई दीप्ति से शोभायमान, पिघले हुए सुवर्ण की आभावाले सहस्र दल कमल का चिन्तवन करे। 5। उस कमल को केसरों की पंक्ति से शोभायमान चित्तरूपी भ्रमर को रंजायमान करनेवाले जम्बूद्वीप के बराबर लाख योजन का चिंतनवन करै। 6। तत्पश्चात् उस कमल के मध्य स्फुरायमान पीतरंग की प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक कर्णिका का ध्यान करे। 7। उस कर्णिका में शरद् चन्द्र के समान श्वेतवर्ण एक ऊँचा सिंहासन चिंतवन करै। उसमें अपने आत्मा को सुख रूप, शान्त स्वरूप, क्षोभ रहित। 8। तथा समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ है ऐसा चिन्तवन करै। 9।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- पृथिवी में पुद्गल के सर्व गुणों का अस्तित्व। - देखें पुद्गल - 2।
- अष्टपृथिवी निर्देश।- देखें भूमि /1।
- मोक्षभूमि व अष्टम पृथिवी।- देखें मोक्ष - 1।
- नरक पृथिवी।- देखें नरक ।
- सूक्ष्म तैजसकायिकादिकों का लोक में सर्वत्र अवस्थान।- देखें सूक्ष्म - 3।
- बादर तैजसकायिकादिकों का भवनवासियों के विमानों में व नरकों में अवस्थान।- देखें काय - 2.5।
- मार्गणाओं में भावमार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।- देखें मार्गणा ।
- बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्त में सासादन गुणस्थान की सम्भावना।- देखें जन्म - 4।
- कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।- देखें वह वह नाम।
- पृथिवीकायिक जीवों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि सम्बन्धी 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- पृथिवीकायिक जीवों की सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम।
- पृथिवी में पुद्गल के सर्व गुणों का अस्तित्व। - देखें पुद्गल - 2।
पुराणकोष से
(1) तीर्थङ्कर सुपार्श्व की जननी । यह काशी-नरेश सुप्रतिष्ठ की रानी थी । पद्मपुराण 20.43
(2) द्वारावती के राजा भद्र की रानी । यह तीसरे नारायण स्वयंभू की जननी थी । महापुराण 59.86-87 पद्मपुराण के अनुसार तीसरा नारायण स्वयंभू हस्तिनापुर के राजा रोद्रनाद और उसकी रानी पृथिवी का पुत्र था । पद्मपुराण 221-226
(3) राजा बालखिल्य की रानी और कल्याणमाला की जननी । पद्मपुराण 34.39-43
(4) वत्सकावती देश का एक नगर । महापुराण 48. 58-59
(5) आठ दिक्कुमारी देवियों में एक देवी यह तीर्थङ्कर की माता पर छत्र धारण किये रहती है । हरिवंशपुराण 8.110
(6) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के गन्धसमृद्धनगर के राजा गांधार की महादेवी । हरिवंशपुराण 30. 7
(7) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुरदेव की रानी । दान धर्म के पालन के प्रभाव से यह अच्युत स्वर्ग में सुप्रभा देवी हुई । महापुराण 46. 352