भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान: Difference between revisions
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स.सि./ | स.सि./2/52/200/4 <span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः लिङ्गमित्यर्थः । </span>=<span class="HindiText"> जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं । उसका दूसरा नाम लिंग है । (रा.वा./2/52/1/157/2); (ध.1/1, 1, 4/140/5) । </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/101 <span class="PrakritGatha">वेदस्सुदरिणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ।101।</span> = <span class="HindiText">वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है; और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है । अतएव वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । (ध.1/1, 1, 4/गा.89/141); (गो.जी./मू./272/593) । </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1, 1, 4/पृष्ठ/पंक्ति-<span class="SanskritText">वेद्यत इति वेदः । (140/5) । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । (140/7) । अथवा-त्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । (141/1) । </span><br /> | ||
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<li class="HindiText"> जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । </li> | <li class="HindiText"> जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह | <li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को मोह कहते हैं । यहाँ पर मोह शब्द वेद का पर्यायवाची है । (ध.7/2, 1, 3/7); (गो.जी./जी.प्र./272/594/3) । </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । </li> | <li class="HindiText"> अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं । </span><br /> | <li><span class="HindiText"> अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं । </span><br /> | ||
ध. | ध.5/1, 7, 42/222/8 <span class="PrakritText">मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो ।</span> =<span class="HindiText"> मोहनीय के द्रव्यकर्म स्कन्ध को अथवा मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेद कहते हैं । <br /> | ||
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ध. | ध.13/5, 5, 50/286/8 <span class="SanskritText">अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्तः । एतेन सूत्रकण्ठग्रन्थकथाया वितथरूपायाः वेदत्वमपास्तम् । </span>= <span class="HindiText">अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है । इससे सूत्रकण्ठों अर्थात् ब्राह्मणों की ग्रन्थकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है । (श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है ।) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> वेद के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> वेद के भेद</strong> </span><br /> | ||
ष.खं./ | ष.खं./1/1, 1/सूत्र 101/340 <span class="PrakritText">वेदाणुवादेण अत्थि इत्थिवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा अवगदवेदा चेदि ।101। </span>= <span class="HindiText">वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेद वाले जीव होते हैं ।101। </span><br /> | ||
पं.स./प्रा./ | पं.स./प्रा./1/104 <span class="SanskritText">इत्थि पुरिस णउंसय वेया खलु दव्वभावदो होंति । </span>= <span class="HindiText">स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं । </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/6/159/5<span class="SanskritText"> लिङ्गं त्रिभेदं, स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेद इति ।</span> = <span class="HindiText">लिंग तीन प्रकार का है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । (रा.वा./9/7/11/604/5); (द्र.सं./टी./13/37/10) । </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/52/200/4 <span class="SanskritText">तद् द्विविधं-द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं चेदि । </span>= <span class="HindiText">इसके दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । (स.सि./9/47/462/3); (रा.वा./2/6/3/109/1); (रा.वा./9/47/4/638/10); (पं.ध./उ./1079) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य व भाव वेद के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य व भाव वेद के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/52/200/5 <span class="SanskritText">द्रव्यलिङ्गं योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वर्तितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम् ।</span> =<span class="HindiText"> जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषाय के उदय से प्राप्त होती है वह भावलिंग है । (गो.जी./जी.मू./271/591); (पं.ध./उ./1080-1082) । </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/6/3/109/2<span class="SanskritText"> द्रव्यलिङ्गं नामकर्मोदयापादितं...भावलिङ्गमात्मपरिणामः स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदस्योदयाद्भवति । </span>= <span class="HindiText">नामकर्म के उदय से होने वाला द्रव्यलिंग है और भावलिंग आत्मपरिणामरूप है । वह स्त्री, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में परस्पर एक दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नाम के नोकषाय के उदय से होता है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> अपगतवेद का लक्षण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> अपगतवेद का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/108 <span class="PrakritGatha">करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा ।108। </span>= <span class="HindiText">जो कारीष अर्थात् कण्डे की अग्नि तृण की अग्नि और इष्टपाक की अग्नि के समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत वेदी कहलाते हैं । (ध.1/1, 1, 101/गा.173/343); (गो.जी./मू./276/597) । </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1, 1, 101/342/3 <span class="SanskritText">अपगतास्त्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । प्रक्षीणान्तर्दाह इति यावत् । </span>=<span class="HindiText"> जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला सन्ताप या अन्तर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वेद के लक्षणों सम्बन्धी शंकाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वेद के लक्षणों सम्बन्धी शंकाएँ</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1, 1, 4/140/5 <span class="SanskritText">बेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन्न, ‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते’ इति विशेषावगतेः ‘रूढितन्त्रा व्युत्पत्तिः’ इति वा । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशात् । अथवात्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः ।</span> = <span class="HindiText">जो वेदा जाय उसे वेद कहते हैं । <strong>प्रश्न–</strong>वेद का इस प्रकार का लक्षण करने पर आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनों ही समान हैं? <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, 1. क्योंकि सामान्यरूप से की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पायी जाती है, इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है । (ध.7/2, 1, 37/79/3) अथवा 2. रौढ़िक शब्दों की व्युत्पत्ति रूढि के अधीन होती है, इसलिए वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण ‘वेद्यते’ अर्थात् जो वेदा जाय इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के उदय का नहीं । अथवा आत्म प्रवृत्ति में सम्मोह के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार के लक्षण के करने पर भी सम्पूर्ण मोह के उदय को वेद संज्ञा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि वेद की तरह शेष मोह भी व्यामोह को उत्पन्न करता है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रूढ़ि के बल से वेद नाम के कर्म के उदय को ही वेद संज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है । <br /> | ||
देखें [[ वेद#2.1 | वेद - 2.1 ]](यद्यपि लोक में मेहनादि लिंगों की स्त्री, पुरुष आदिपना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नहीं) । </span></li> | |||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
- भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान
- वेद सामान्य का लक्षण
- लिंग के अर्थ में ।
स.सि./2/52/200/4 वेद्यत इति वेदः लिङ्गमित्यर्थः । = जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं । उसका दूसरा नाम लिंग है । (रा.वा./2/52/1/157/2); (ध.1/1, 1, 4/140/5) ।
पं.सं./प्रा./1/101 वेदस्सुदरिणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ।101। = वेदकर्म की उदीरणा होने पर यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है; और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसकभाव का वेदन करता है । अतएव वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । (ध.1/1, 1, 4/गा.89/141); (गो.जी./मू./272/593) ।
ध.1/1, 1, 4/पृष्ठ/पंक्ति-वेद्यत इति वेदः । (140/5) । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । (140/7) । अथवा-त्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । (141/1) ।
ध.1/1, 1, 101/341/1 वेदनं वेदः । =- जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं ।
- अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को मोह कहते हैं । यहाँ पर मोह शब्द वेद का पर्यायवाची है । (ध.7/2, 1, 3/7); (गो.जी./जी.प्र./272/594/3) ।
- अथवा आत्मा की चैतन्यरूप पर्याय में मैथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं ।
- अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं ।
ध.5/1, 7, 42/222/8 मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो । = मोहनीय के द्रव्यकर्म स्कन्ध को अथवा मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेद कहते हैं ।
- शास्त्र के अर्थ में
ध.13/5, 5, 50/286/8 अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्तः । एतेन सूत्रकण्ठग्रन्थकथाया वितथरूपायाः वेदत्वमपास्तम् । = अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है । इससे सूत्रकण्ठों अर्थात् ब्राह्मणों की ग्रन्थकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है । (श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है ।)
- लिंग के अर्थ में ।
- वेद के भेद
ष.खं./1/1, 1/सूत्र 101/340 वेदाणुवादेण अत्थि इत्थिवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा अवगदवेदा चेदि ।101। = वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेद वाले जीव होते हैं ।101।
पं.स./प्रा./1/104 इत्थि पुरिस णउंसय वेया खलु दव्वभावदो होंति । = स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक ये तीनों ही वेद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं ।
स.सि./2/6/159/5 लिङ्गं त्रिभेदं, स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेद इति । = लिंग तीन प्रकार का है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । (रा.वा./9/7/11/604/5); (द्र.सं./टी./13/37/10) ।
स.सि./2/52/200/4 तद् द्विविधं-द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं चेदि । = इसके दो भेद हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । (स.सि./9/47/462/3); (रा.वा./2/6/3/109/1); (रा.वा./9/47/4/638/10); (पं.ध./उ./1079) ।
- द्रव्य व भाव वेद के लक्षण
स.सि./2/52/200/5 द्रव्यलिङ्गं योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वर्तितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम् । = जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषाय के उदय से प्राप्त होती है वह भावलिंग है । (गो.जी./जी.मू./271/591); (पं.ध./उ./1080-1082) ।
रा.वा./2/6/3/109/2 द्रव्यलिङ्गं नामकर्मोदयापादितं...भावलिङ्गमात्मपरिणामः स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षणः । स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदस्योदयाद्भवति । = नामकर्म के उदय से होने वाला द्रव्यलिंग है और भावलिंग आत्मपरिणामरूप है । वह स्त्री, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में परस्पर एक दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नाम के नोकषाय के उदय से होता है ।
- अपगतवेद का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/108 करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगयवेदा जीवा सयसंभवणंतवरसोक्खा ।108। = जो कारीष अर्थात् कण्डे की अग्नि तृण की अग्नि और इष्टपाक की अग्नि के समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत वेदी कहलाते हैं । (ध.1/1, 1, 101/गा.173/343); (गो.जी./मू./276/597) ।
ध.1/1, 1, 101/342/3 अपगतास्त्रयोऽपि वेदसंतापा येषां तेऽपगतवेदाः । प्रक्षीणान्तर्दाह इति यावत् । = जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला सन्ताप या अन्तर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं ।
- वेद के लक्षणों सम्बन्धी शंकाएँ
ध.1/1, 1, 4/140/5 बेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन्न, ‘सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते’ इति विशेषावगतेः ‘रूढितन्त्रा व्युत्पत्तिः’ इति वा । अथवात्मप्रवृत्तेः संमोहोत्पादो वेदः । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशात् । अथवात्मप्रवृत्तेर्मैथुनसंमोहोत्पादो वेदः । = जो वेदा जाय उसे वेद कहते हैं । प्रश्न–वेद का इस प्रकार का लक्षण करने पर आठ कर्मों के उदय को भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि वेदन की अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनों ही समान हैं? उत्तर–ऐसा नहीं है, 1. क्योंकि सामान्यरूप से की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पायी जाती है, इसलिए विशेष का ज्ञान हो जाता है । (ध.7/2, 1, 37/79/3) अथवा 2. रौढ़िक शब्दों की व्युत्पत्ति रूढि के अधीन होती है, इसलिए वेद शब्द पुरुषवेदादि में रूढ़ होने के कारण ‘वेद्यते’ अर्थात् जो वेदा जाय इस व्युत्पत्ति से वेद का ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के उदय का नहीं । अथवा आत्म प्रवृत्ति में सम्मोह के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं । प्रश्न–इस प्रकार के लक्षण के करने पर भी सम्पूर्ण मोह के उदय को वेद संज्ञा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि वेद की तरह शेष मोह भी व्यामोह को उत्पन्न करता है? उत्तर–ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि रूढ़ि के बल से वेद नाम के कर्म के उदय को ही वेद संज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है ।
देखें वेद - 2.1 (यद्यपि लोक में मेहनादि लिंगों की स्त्री, पुरुष आदिपना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नहीं) ।
- वेद सामान्य का लक्षण